Thursday 29 March 2012

गांधी की बात गोड़से का काम ....


आज बिना किसी भूमिका के कुछ सीधी सपाट बातें करना चाहता हूं। पहले मैं आपको बता दूं कि मैं भी चाहता हूं कि संसद में साफ सुथरी छवि के लोग आएं। मैं भी चाहता हूं कि देश से भ्रष्टाचार खत्म हो, मैं भी चाहता हूं कि भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए एक सख्त कानून संसद में पास हो, लेकिन इसके लिए कुछ लोग जो सड़कों पर शोर मचा रहे हैं, इनके पीछे बहुत खतरनाक खेल खेला जा रहा है। ये चेहरे तो सिर्फ मुखौटा हैं। सच कहूं तो ये आंदोलन जनलोकपाल के लिए  बिल्कुल नहीं है। ये आंदोलन नेताओं के खिलाफ है, संसद के खिलाफ है यानि पूरा आंदोलन देश के लोकतंत्र के खिलाफ है। वजह ये कि इन्हें लोकतंत्र में आस्था ही नहीं है।

चलिए पहले उस बात की चर्चा जिसे लेकर टीम अन्ना बहुत ज्यादा शोर मचाती फिर रही है। ये कहते हैं संसद में अपराधी हैं,जिनके खिलाफ गंभीर धाराओं में मुकदमें दर्ज हैं। अब टीम अन्ना से कोई पूछे कि इस बात की जानकारी आपको  मिली कहां से। एक ही जवाब है, इन सांसदों ने चुनाव लड़ने के लिए दाखिल नामांकन पत्र में अपने सभी मुकदमों का जिक्र किया है। यानि देश के मतदाताओं ने इन मुकदमों के बारे में जानते हुए भी उन्हें चुना है। अब बताएं एक ओर आप जनता को मालिक बताते हैं, फिर मालिक के फैसले पर ऊंगली क्यों उठाते हैं ?  जब लोग इनसे कहते हैं कि भाई अच्छे आदमी और नेता का ठेका तो इस समय आपका है, क्योंकि जो अन्ना के साथ वो ईमानदार बाकी सब चोर..। तो फिर आप ही विकल्प दें और चुनाव लड़कर संसद में आएं। लोकतंत्र के मुहाने पर खड़े होकर भीतर बैठे लोगों को गाली देने का क्या मतलब है। तो सुनिये इनका कुतर्क..। ये कहते हैं कि  ये तो वही बात हुई कि मैं अपनी मां को लेकर सरकारी अस्पताल जाऊं और डाक्टर ना मिले, मैं शिकायत करुं तो कहा जाए कि आप खुद डाक्टर बनकर क्यों नहीं आते ? “

हाहाहहाहाह  बताइये, देश में गंभीर चर्चा चल रही है, और ये  लोग टीवी चैनलों पर बैठ कर कुछ भी बकते रहते हैं। मुझे तो लगता है कि अपने आपराधिक मामलों को सार्वजानिक करने के बाद भी अगर सांसद चुने जाते हैं तो ये तो उनके लिए सम्मान की बात है, क्योंकि इसके बाद भी चुने जाने का मतलब है कि जनता उन्हें चाहती है, और जनता चूंकि मालिक है तो फिर अन्ना और उनकी टीम के पेट में दर्द क्यों है ? दरअसल केंद्र की कमजोर कांग्रेस सरकार और उससे भी कमजोर प्रधानमंत्री के चक्कर में इन्हें कुछ ज्यादा ही लोगों नें मुंह लगा लिया। ये इस लायक नहीं थे कि इन्हें बराबर की कुर्सी पर बैठाकर बात की जाए। अगर आपको याद हो तो अनशन के दौरान इनकी एक मीटिंग वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी के साथ हुई थी। प्रणव दा ने इन्हें इनकी असलियत और अहमियत के साथ औकात भी बताई कि आप हो क्या। फिर बेचारे प्रणव दा के कमरे से बाहर निकल कर मीडिया के सामने फिर गिड़गड़ा रहे थे कि आज तो हमसे ठीक से बात ही नहीं कर रहे थे प्रणव दा, बात क्या वो तो डांट रहे थे। दरअसल ये इसी के काबिल हैं।

इन्हे मान सम्मान और बेईज्जत का अंतर नहीं मालूम है। इसी संसद में प्रधानमंत्री ने अन्ना को सैल्यूट किया और पूरे सदन की ओर से प्रस्ताव पास कर कहा गया कि आपका आंदोलन सही है, संसद भी चिंतित है और भ्रष्टाचार के खिलाफ कानून बनाया जाएगा। लेकिन इनकी लोकतंत्र और लोकतांत्रिक परंपराओं और मूल्यों में भरोसा ही नहीं है, ये अड़े रहे अपनी बात पर। आपको पता है गठबंधन सरकारों की बहुत मजबूरी होती है, सरकार चाहकर भी बहुत कुछ नहीं कर सकती। सरकार तो महिला आरक्षण बिल भी पास कराना चाहती है, पर आज तक नहीं करा पाई। इन्होंने देखा कि कानून बनने में अड़चने हैं तो संसद और सांसदों को गाली देने लगे। लिहाजा संसद के अंदर इनकी निंदा की गई। लेकिन इन पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि अगर आप स्वाभिमानी आदमी को गाली देगें तो उसे तकलीफ होगी, इन पर तो कोई असर ही नहीं। ये तो  मानने को भी तैयार नहीं कि हां कुछ गल्तियां हुई हैं, सार्वजानिक मंच से असभ्य भाषा नहीं बोलनी चाहिए थी।

जो चल रहा है, उसे देखकर तो यही लगता है कि अन्ना गांधी की समाधि राजघाट पर जाने का ड्रामा भर करते हैं। गांधी जी तो  बुरा मत बोलो, बुरा मत सुनो और बुरा मत देखो को मानने वाले थे। अन्ना और अन्ना के चेले बुरा बोलते हैं, बुरा सुनते भी हैं और बुरा देखते भी हैं। गांधी कहते थे कोई आपके एक गाल पर चांटा मारे तो दूसरा गाल सामने कर दो, ये एक गाल पर चांटा मारने वाले के दोनों को गाल पर चांटा ही नहीं मारते, उसे पूरी तरह ठिकाने लगाने की कोशिश करते हैं। दरअसल यहां सब ड्रामा करते हैं। मंच पर गांधी का चित्र लगाकर अन्ना खुद को गांधीवादी कहते हैं। सच तो ये है कि अन्ना में राष्ट्रपिता के पांच फीसदी भी गुण नहीं है। अन्ना टीम अन्ना को आगे क्यों रखे  हुए हैं, जबकि अन्ना की कोई बात मायने नहीं रखती। सिर्फ इसलिए 74 साल के बूढे अन्ना को आगे रखते हैं कि इससे टीम की फेस सेविंग रहेगी, दरअसल सच तो ये है कि अन्ना इस टीम के लिए सिर्फ मुखौटा हैं। इसी तरह अन्ना गांधी की तस्वीर लगाकर खुद को बड़ा साबित करने की कोशिश भर करते हैं। बेहतर होता कि गांधी जैसा कठोर जीवन जीने की आदत डालते।

अगर आप ध्यान से देखें तो आजकल टीम अन्ना की बाडी लंग्वेज अजीब सी दिखाई देती है। उन्हें देखने से लगता है कि इनका कोई गड़ा हुआ खजाना लूट ले गया है। दरअसल इन्हें लग रहा था कि इस आंदोलन के जरिए वो रातो रात अमेरिका के राष्ट्रपित से भी ज्यादा ताकतवर हो जाएंगे। लेकिन देश का लोकतंत्र अभी कमजोर नहीं हुआ है, आज भी देश अपने संविधान के मुताबिक चल रहा है, अभी गुंडाराज नहीं है कि कुछ आदमी सड़क पर जमा हों और संसद को बंधक बनाकर अपने हिसाब से कानून बनवा लें। और हां रही बात कानून की तो देश में किस अपराध के लिए आज कानून नहीं है और कानून होते हुए भी कौन सा अपराध नहीं हो रहा है। मैं फिर दोहराना चाहता हूं कि 121 करोड़ की आबादी को हम किसी भी कानून में नहीं बांध सकते। मैं अपने चैनल IBN7 के मैनेजिंग एडीटर आशुतोष की इस बात से सहमत हूं कि बेईमानी हमारी रगो में इस कदर फैली हुई है कि हम बेटी की शादी में ईमानदार नहीं बेईमान दूल्हा तलाशते हैं यानि जिसकी ऊपर की कमाई वेतन से ज्यादा हो। भाई जब हमारा नैतिक पतन इस कदर हो चुका है कि हम बेटी के लिए ईमानदार दूल्हा नहीं तलाशते तो देश के लिए ईमानदार नेता भला क्या तलाशेगें।  

अच्छा हास्यास्पत बात देखिए टीम अन्ना ईमानदारी की बात करती है। लेकिन अपना चरित्र कोई नहीं देख रहा। कोई कोशिश कर रहा था कि गाजियाबाद के क्षेत्र में नगर निगम टैक्स वसूली की जिम्मेदारी उनकी सस्था कारवां को दे दे। अरे भाई टैक्स वसूली ही क्यों, नाले की सफाई का काम क्यों नहीं लेने को दबाव बनाया। सबसे ज्यादा तो लोग गंदगी से परेशान हैं। छानबीन हुई तो एक सदस्य ने आलीशान मकान खरीदा तो स्टांप शुल्क कम लगा दिया। बाद मे लाखों रुपये का भुगतान करना पडा। एक ने हवाई जहाज के किराए में हेरा फेरी की। कहने का मतलब ये कि जिसे जहां मौका मिला वो वहां खुराफात करने के चूका नहीं, लेकिन अन्ना के पीछे खड़े है तो भला ये बेईमान कैसे हो सकते हैं। बेईमान तो देश के नेता, अफसर और कर्मचारी हैं।
मैं एक दोहराना चाहता हूं कि बेईमानी की बुनियाद ईमानदारी की लड़ाई कभी मजबूती से नहीं लड़ी जा सकती। ईमानदारी की जो लोग बड़ी बड़ी बातें कर रहे हैं ये चेहरे दागदार हैं। आज तक नहीं बताया गया कि विदेशी संस्था फोर्ड फाउंडेशन इस आंदोलन के लिए क्यों मदद कर रही है। बहरहाल अब जिस तरह से गाली गलौच पर उतरी है टीम अन्ना, वो दिन दूर नही कि लोग खुद ही इनसे दूरी बना लें।

चलते चलते

किसी शायर बहुत पहले एक शेर पढ़ा, शायद उन्हें पहले ही उम्मीद थी कि आने वाले समय में कुछ ऐसे लोग समाज में बड़ी बड़ी बातें करतें फिरेंगे,लेकिन उनका खुद का दिल बहुत छोटा कहिए या फिर गंदा कह लीजिए।

छोटी छोटी बातें कह कर, बड़े कहां हो जाओगे,
पतली गलियों से निकलो, फिर खुली सड़क पर आओगे।

Monday 26 March 2012

शर्म : गांधी के मंच से गाली ...


टीम अन्ना की बौखलाहट अब उनके चेहरे और जुबान पर दिखाई देने लगी है। अशिष्ट व्यवहार और अभद्र भाषा आम बात हो गई है। गांधी के मंच से गाली दी जा रही है, हाथ में तिरंगा लेकर जानवरों जैसा आचरण किया जा रहा है। मेरी समझ में एक बात नहीं आ रही है। अन्ना कहते हैं कि अपमान सहने की क्षमता होनी चाहिए, जिसमें अपमान सहने की क्षमता नहीं है, वो जीवन में कभी कामयाब  नहीं हो सकता। उनका कहना है कि फलदार पेड़ पर ही लोग पत्थर मारते हैं, जिसमें फल नहीं, उस पर भला कौन पत्थर मारेगा। वो ये भी कहते हैं कि जिंदा लोग ही झुकना जानते हैं, जो अकड़ा रहता है वो मुर्दा है।  अन्ना की ये सीधी साधी बातें उनके लोगों की समझ में क्यों नहीं आती हैं ?

जब अन्ना की मौजूदगी में मंच से गाली की भाषा इस्तेमाल होती है, ऊंची ऊंची छोड़ने वाले बेचारे अन्ना की आखिर ऐसी क्या मजबूरी है कि वो सब सुनकर भी खामोश रहते हैं और अपनी टीम को रोकते नहीं है, तब मेरे मन में एक सवाल पैदा होता है क्या अन्ना के भी खाने और दिखाने के दांत अलग अलग हैं। अगर ऐसा है तो क्या इस मंच पर गांधी की तस्वीर होनी चाहिए। हाथ में तिरंगा लेकर अभद्र भाषा के इस्तेमाल की छूट टीम अन्ना को दी जानी चाहिए। मेरा जवाब तो यही होगा कि बिल्कुल नहीं।

मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि टीम अन्ना अब बौखलाहट में है। टीम के सदस्य किसके लिए कब क्या कह देगें कोई भरोसा नहीं। अब देखिए ना दिल्ली में आज जंतर मंतर पर ये कह कर भीड़ जुटाई गई कि ईमानदारी की लड़ाई लड़ते हुए जो अफसर और कर्मचारी शहीद हो गए, उनकी बात की जाएगी। पर ये तैयारी से यहां आए थे राजनीति करने के लिेए। क्योंकि शहीदों से ज्यादा राजनीतिक बातें हुईं।  ये सोचते हैं कि इशारों इशारों में कही गई बातों को आम आदमी समझता नहीं है। भाई सब जानते हैं कि इस आंदोलन के पीछे  टीम अन्ना का एक छिपा हुआ खतरनाक एजेंडा है। एक शेर याद आ रहा है..

अंदाज अपना आइने में देखते हैं वो,
और ये भी देखते हैं कोई देखता ना हो।

अब इन्हें कौन समझाए कि जब आप ईमानदारी की बात करतें हैं तो लोगो को उम्मीद रहती है कि आप भी ईमानदार होंगे। ईमानदारी का मतलब सिर्फ  ये नहीं है कि आप चोरी नहीं करते। ईमानदारी का मतलब ये भी है कि जो काम आप कर रहे हैं, उसके प्रति सच मे ईमानदार हैं या नहीं। क्योंकि बेईमानी की बुनियाद पर ईमानदारी की लड़ाई लड़ी गई तो उसमें कभी कामयाबी नहीं मिल सकती। सच तो ये है कि जिस तरह टीम अन्ना व्यवहार कर रही है, उससे बिल्कुल साफ हो गया है कि अब ये लड़ाई सियासी हो गई है। हां यहां एक बात का जिक्र और करना जरूरी है, अखबारों और टीवी रिपोर्ट के हवाले से कई मंत्रियों को टीम अन्ना ने कटघरे में खड़ा किया, बार बार सफाई देते रहे कि ये बात मैं नहीं कह रहा हूं। खुद उस रिपोर्ट से कन्नी काटते रहे, फिर कह रहे हैं कि अगर अगस्त तक सभी के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज नहीं की गई तो जेल भर देंगे। अरे दोस्त पहले इतना नैतिक साहस दिखाओ कि सार्वजनिक मंच से जो बात कह रहे हो, उसे ये बताओ कि हां मैं कह रहा हूं।

हां टीम अन्ना के सदस्यों में आपस में एक प्रतियोगिता शुरू हो गई है, टीवी पर ज्यादा से ज्यादा समय तक छाए रहने की। आपको पता होगा कि टीवी में पाजिटिव बातों के लिए समय ज्यादा नहीं है, अगर आपको यहां जगह बनानी है तो निगेटिव बातें यानि छिछोरी हरकतें करनी होगीं। अब निगेटिव बातें तो टीम अन्ना के सभी सदस्य करते हैं, उसमें अपना स्तर गिराना होता है, और बंदा बाजी मार ले जाता है तो सबसे नीचे गिरता है। अब देखिए ना पहले एक महिला ने डुपट्टे से घूंघट ओढ़ कर फूहड़ नाटक कर सांसदों की मिमिकरी की। ये पूरे दिन क्या कई दिन तक टीवी पर छाई रही। दूसरे साथी ने देखा कि ये महिला तो टीवी पर छाई हुई है, उसने संसद की ही ऐसी तैसी कर दी, कहा यहां तो गुंडे बदमाश और बलात्कारी बैठे हैं। जाहिर है बवाल होना था, हुआ भी। संसद से विशेषाधिकार हनन का नोटिस मिला। ये साबित करना चाहते हैं कि मैं भ्रष्टाचार की बात कर रहा हूं तो नेता उनके पीछे पड़ गए हैं। इन्हें नोटिस मिलने पर शर्म नहीं आ रही है, इससे वाहवाही बता रहे हैं।

जब टीम अन्ना के सदस्य देख रहे हैं कि उन्हें टीवी पर जगह पाजीटिव बातें करने से नहीं मिल रही हैं तो एक के बाद एक सभी ने छिछोरी हरकतें चालू कर दीं। इसी क्रम में आज एक नेता सदस्य ने एक वरिष्ठ सांसद जिनके ऊपर किसी तरह की बेईमानी के चार्ज नहीं है, वो जेपी आंदोलन में लंबे समय तक जेल में भी रहे। उन्हें इनडायरेक्ट रूप से चोर कहा। वैसे सच ये है कि ऐसे लोगों की चर्चा कर इन्हें बेवजह भाव देने की जरूरत नहीं है। मैं पहले भी कहता रहा हूं कि बेईमानी के पैसे से ईमानदारी की बात करना बेशर्मी से ज्यादा कुछ नहीं है।
हा एक हास्यास्पद बात और है टीम अन्ना का एक आदमी उसे हिसाब किताब  रखने का बहुत शौक है, आए दिन राजनीतिक दलों से हिसाब मांगता रहता है। चलो एक बात मैं भी कह दूं। भाई मुझे बताओ ये फोर्ड फाऊंडेशन क्या है। इसमें किसके चाचा बैठे हैं जो इस आंदोलन में फंडिग कर रहे हैं। इस आंदोलन को चलाने में फोर्ड फाउंडेशन का आखिर क्या इंट्रेस्ट है। इन सवालों का जवाब भी आना चाहिए। अन्ना गारंटी ले सकते हैं कि उनके आंदोलन में सब नंबर एक का पैसा लग रहा है, किसी गलत आदमी का चंदा उनके पास नहीं है।
चोर चोर मौसेरे भाई ...
ये तस्वीर हमें तो हैरान करती है। दोनों गले भले मिल  रहे  हों, पर दिल नहीं मिलता। साथ में बैठकर तस्वीर खिंचवा ली, ये इनकी मजबूरी है। दरअसल रामलीला मैदान में पिटाई के बाद बाबा रामदेव काफी समय तक सदमें में रहे। अपना हिसाब किताब दुरुस्त करते रहे। अब उत्तराखंड में कांग्रेस की सरकार भी आ गई है, तो वैसे ही बाबा  की मुश्किल बढ़ गई है। अभी तक तो वहां बीजेपी की सरकार थी, जो उन्हें संरक्षण देती रही। रामदेव भी बीजेपी की सेवा करते रहे। कहा तो यहां तक जाता है कि वो पार्टी को चंदा भी देते रहे हैं। भला एक बाबा किसी राजनीतिक दल को चंदा क्यों देगा,  लेकिन रामदेव देते रहे हैं।

बाबा रामदेव स्वदेशी के नाम जिस तरह से साबुन तेल बेच रहे हैं, उसे कितना भी साफ सुथरा करने की कोशिश करें नहीं कर सकते। कई मामले ऐसे सामने आए हैं, जिसमें बाबा रामदेव ने टैक्स की चोरी की है। तमाम चीजों को छिपाया है। अब बाबा जब अपने धंधे को सौ फीसदी प्रमाणिक बताते हैं तो हंसी आती है। दुनिया में कोई ऐसा धंधा नहीं है, जहां गोरखधंधा ना हो। बस यहां तभी आदमी चोर कहा जाता है जब वो पकड़ा जाता है। बाबा कई बार पकड़े जा चुके हैं, अब बाबा को प्रमाणिकता की बात नहीं करनी चाहिए, हंसी आती है, और याद आते हैं पुलिस के थाने जहां घाघ टाइप के चोर पिटते रहते हैं, पर सच कबूलते नहीं,क्योंकि इनकी क्षमता बहुत होती है।

अन्ना मंदिर में रहते हैं, मित्रों मेरी गुजारिश है कि अन्ना का मंदिर आप भी देख आओ। पांच सितारा सुविधाओं वाला ये मंदिर है। खैर छोड़िये इन बातों को। मैं जानना चाहता हूं कि आखिर अन्ना को रामदेव की जरूरत क्यों पड़ी ? तो सुन लीजिए अब दिल्ली में जब से अप्पूघर हटा है, यहां लोगों के लिए मनोरंजन का कोई साधन नहीं रहा, जहां लोग जाकर चाय पकोड़े कर सकें। ऐसे में अन्ना का अनशन होता है तो लोग चाय पकोड़े के लिए निकल पड़ते हैं। एक दिन का अनशन था, इसलिए यहां अन्ना ने खाने पीने का इंतजाम नहीं किया था, इसलिए और दिनों की अपेक्षा भीड़ कम थी।    रामलीला मैदान में देशी घी में हलुवा पूड़ी थी, लोगो बड़ी संख्या में जुटते थे, और ये घर पहुंच कर आंदोलन की कम हलुवा पूडी की चर्चा ज्यादा करते थे।

एक अनशन करने टीम अन्ना मुंबई पहुंच गई। उन्हें लगा कि नए साल का मौका है, दिल्ली में ठंड बहुत है, मुंबई का मौसम भी मस्त है, नए साल को इन्ज्वाय करने देश भर से लोग मुंबई जुटेंगे। दिल्ली की ठंड में जान देने से क्या फायदा, मुंबई चला जाए। बस यही चूक हो गई और टीम अन्ना की पोल खुल गई। तीन दिन का अनशन एक दिन में समेट दिया। यहां लोग आए ही नहीं। अरे भाई मुंबई में घूमने की तमाम जगह है, छुट्टी  में लोग कोंकड़ रेलवे का सफर करना बेहतर समझते हैं, वहां दिल्ली की तरह लोग खाली नहीं है।
तब टीम अन्ना को लगा कि अगर इस आंदोलन को जिंदा रखना है और फोर्ड फाउंडेशन समेत देश भर से चंदा लेकर मलाई काटना है तो भीड़ का पुख्ता इंतजाम करना ही होगा। बस फिर क्या था, दिल ना मिलते हुए भी बाबा रामदेव की शरण में जा गिरे। इन्हें पता है कि देश भर में हारी बीमारी है और बाबा इसमें लोकप्रिय हैं। ऐसे में और कुछ हो ना हो, दस पांच हजार लोग तो जुट ही जाएंगे। इसी भीड़ को अपने पास बनाए रखने के लिए ये दोनों चेहरे साथ हैं। चलो भाई देश में तमाम लोगों की दुकानदारी चल रही है, इनकी भी चले, क्या करना है।
  

Wednesday 21 March 2012

लगता है बहक गए हैं श्री श्री ...

मैने सोचा नहीं था कि कभी मुझे आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर को कटघरे में खड़ा करना पड़ेगा। मैं जानना चाहतां हूं कि श्री श्री को हो क्या गया है, आप कह क्या रहे हैं, इसका मतलब समझ रहे हैं। देश के सरकारी स्कूलों में पढने वाले बच्चे हिंसक और नक्सली हैं, कभी नहीं। मैं आपकी बात को सिरे से खारिज करता हूं। बहरहाल  मैं इस बात में नहीं जाना चाहता कि आप लोगों को जो जीवन जीने की कला ( यानि आर्ट आफ लीविंग) का ज्ञान दे रहे हैं, वो ठीक है या नहीं। लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि ये सब देश के आम आदमी के लिए नहीं है, ये तथाकथित बड़े लोगों   (यानि पैसे से मजबूत) लोगों का चोचला भर है।

बात बेवजह लंबी हो जाएगी, लेकिन एक संदर्भ के लिए बताना जरूरी है। मुझे कुछ लोगों ने एप्रोच किया और कहा कि आर्ट आफ लीविंग का कोर्स कर लीजिए, आप खुद में कुछ बदलाव महसूस करेंगे। जिन्होंने मुझे आग्रह किया था, वो हमारे बहुत पुराने मित्र हैं, मैं उनकी बात टाल नहीं पाया और जरूरी फीस जमा कर मैने कोर्स के लिए पंजीकरण करा लिया। मित्रों दिसंबर का महीना, जबर्दस्त ठंड के बीच हम अंधेरे में ही सुबह छह बजे निर्धारित स्थान पर पहुंच गए। वहां पूछा गया कि आप लोग चाय पीकर तो नहीं आए हैं। तमाम लोगों ने कहा नहीं, मैं चाय पीकर गया था, मैने बताया कि मैं तो चाय पीकर आया हूं। मुझे कोर्स के पहले ही दिन अयोग्य ठहरा दिया गया और कहा गया कि आप जब तक कोर्स चलेगा, उतने दिन चाय नहीं पीएंगे, प्याज से परहेज करें, नानवेज खाना बंद करना होगा, आप समझ सकते हैं कि जब चाय की मनाही है तो ड्रिंक्स पर तो सजा का प्रावधान होगा।

मैं हैरान हो गया कि जब सब कुछ आदमी छोड़ देगा, तो उसे जीने की कला ये क्या सिखाएंगे ? मैं ही सिखा दूंगा। खैर मैं आपको एक बात बताना चाहता हूं, अगर आपके दोनों हांथ में सोना है, कोई आपसे कहे कि इसे नाले में फैक दो और मेरे पास आओ हम तुम्हें हीरा देंगे। मुझे लगता है कि कोई आदमी ऐसा नहीं कर सकता, वो देखना चाहेगा कि इनके पास हीरा है भी या नहीं। ये दे भी सकते हैं या नहीं। वैसे ही कोई सोना क्यों फैंक देगा। वही हाल मेरा भी रहा, इतनी पाबंदियों में मैने खुद को असहज महसूस किया और वापस आ गया। मैं एक मामूली गांव का रहने वाला हूं तो वैसे भी मैं इस सोसायटी में खुद कम्फरटेबिल नहीं समझ रहा था। यहां लोग इतनी सुबह तरह तरह के सेंट, डियो के साथ आए हुए थे, जबकि मैं तो सोच कर आया था कि यहां ध्यान और व्यायाम से पसीना बहाना होगा।

बहरहाल अपर क्लास आध्यात्मिक गुरू श्रीश्री खुद को कितने दिन आमआदमी के बीच में छिपाए रखते। आखिर दिखावे और बनावटीपन का पर्दा अब उन पर से हट गया है। साफ हो गया है कि वो देश के अमीरों के ही गुरु हैं। वो प्राईवेट स्कूलों को बेहतर मानें, इससे किसी को ऐतराज नहीं है, लेकिन सरकारी स्कूलों के बारे में उनकी सोच इतनी घटिया होगी, मैं हैरान हूं उनकी बातों से। दरअसल श्रीश्री का ठिकाना बंगलौर में है, यहां से उन्हें सरकारी स्कूल घटिया ही दिखाई देगें। लेकिन पागलपन की इंतहा देखिए. कह रहे हैं कि सरकारी स्कूलों में पढ़े बच्चे नक्सली बनते हैं। सरकार को सभी सरकारी स्कूलों को बंद कर देना चाहिए।
श्री श्री मैं आज भी दावे के साथ कह सकता हूं कि सरकारी स्कूलों में जिस चरित्र और होनहार बच्चे मिलेगें, वैसे चरित्रवान बच्चे तो छोड़ दें आपके आश्रम में उतने चरित्रवान आपके शिष्य और शिष्याएं नहीं मिलेंगी। आपको पता होना चाहिए देश में जितने आईएएस और आईपीएस तैनात हैं, उसमें महज 15 से 20 फीसदी ही बच्चे कान्वेंट स्कूलों में पढ़े हैं, बाकी इन्हीं सरकारी स्कूलों की देन हैं। मेरा व्यक्तिगत अनुभव रहा है कि कान्वेंट स्कूलों के ज्यादातर बच्चे अंग्रेजी मे गिटपिट करके मेडिकल रिप्रेंजेंटेटिव ( MR) बन जाते हैं, इससे ज्यादा कुछ नहीं। स्कूलिंग के दौरान ही बुरी आदतों से भी उनका सामना हो जाता है।

दरअसल श्री श्री की इसमें कोई गल्ती नहीं है, वो हवा में उड़ते रहते हैं और हवा में उड़ने वालों के बीच ही उनका दाना पानी चलता रहता है। कभी कभार वो गांव में जाते हैं तो वह देश के लिए खबर बन जाती है। मुझे तो लगता है कि सरकारी स्कूलों को बंद करने का जो सुझाव श्रीश्री ने दिया है, वो ऐसे ही नहीं, बल्कि इसके पीछे एक बहुत बड़ी साजिश है। पहला तो ये कि सरकारी स्कूल बंद हो जाएंगे तो जाहिर है प्राईवेट स्कूलों की मांग बढेगी, ऐसे में उनके पैसे वाले चेलों की चांदी हो जाएगी, जगह जगह स्कूल खुलने लगेंगे और मनमानी लूट खसोट होगी। दूसरा ये कि बड़े लोगों के बीच जब श्री श्री जाते हैं तो लोग अपने बच्चों को उनके सामने कर देते हैं कि इसे भी सुधारो। अब श्रीश्री के हाथ में जादू की छड़ी तो है नहीं। लेकिन उन्हें लगता है कि अगर सरकारी स्कूलों को बंद करा दिया जाए, तो गरीब का बच्चा पढेगा ही नहीं, जाहिर है फिर तो नौकरी इन्हीं बड़े लोगों के बच्चों के हाथ आएगी।

बहरहाल श्री श्री की घटिया सोच सामने आ चुकी है, श्री श्री आलीशान जिंदगी जीते हैं और उन्हीं लोगों का प्रतिनिधित्व भी करते हैं। जब ऐसे लोगों का धंधा फूलेगा, फलेगा तभी तो श्री श्री सही मायने में श्री श्री कहें जाएगे। मुझे लगता है कि श्री श्री को अपनी बात वापस लेकर देश से माफी मांगनी चाहिए।

Monday 19 March 2012

दो कौड़ी के नेता, दो कौड़ी की ही नेतागिरी ...

बियत ठीक नहीं है, हुआ क्या है, ये भी नहीं पता, बस मन ठीक नहीं है, कुछ भी लिखने पढ़ने का मन नहीं हो रहा है, लेकिन देश के हालात, घटिया केंद्र सरकार, उससे भी घटिया प्रधानमंत्री, नाम के विपरीत आचरण वाली ममता बनर्जी, बेपेंदी का लोटा टाइप पूर्व रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी, मनमोहन सिंह से ज्यादा मजबूर मुलायम सिंह यादव और ढाक के तीन पात निकले उनके बेटे अखिलेश यादव । भाई ये सब बहुरुपिये हैं, इनका असली चेहरा बहुत ही डरावना है। मैं जानता हूं कि आप सब तो राजनीति और राजनीतिज्ञों को कोसते हैं और  देश की राजनीति और राजनेताओं पर  अपना वक्त जाया नहीं करते। पर मैं क्या करुं, मैने तो ना जाने पिछले जन्म में क्या पाप किया है कि इनका साथ छूट ही नहीं सकता। साथ का मतलब ये मत समझ लीजिएगा कि मैं राजनेताओं का कोई दरबारी हूं, भाई जर्नलिस्ट हूं तो इनकी खैर खबर रखनी पड़ती है ना। अरे अरे बहुत बड़ी गल्ती हो गई, राजनीति में गंदगी, बेमानी और घटियापन की बात करुं और गांधी परिवार का जिक्र ना हो तो कहानी भला कैसे पूरी हो सकती है।


        राजनीति में गिरावट और अवसरवादी की बात हो तो इस परिवार को सबसे बड़ा पुरस्कार दिया जा सकता है। आज तक लोगों की समझ में एक बात नहीं आ रही है कि आखिर सोनिया गांधी को किसने सलाह दी कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को बनाया जाए। मुझे लगता है कि गैर राजनीतिक को प्रधानमंत्री बनाकर सोनिया ने अपनी पार्टी के साथ ही नहीं देश के साथ धोखा किया है, लोकतंत्र का माखौल उड़ाया है। कांग्रेस में एक से बढकर एक पुराने कांग्रेसी हैं, पर उन्हें हाशिए पर रखा गया है, क्योंकि वो मजबूत नेता है, सोनिया गांधी और परिवार की बात एक सीमा तक ही मानेंगे। प्रणव दा  इसीलिए प्रधानमंत्री नहीं बन पाए,  क्योंकि वो कुर्सी बचाने के लिए घटिया स्तर पर जाकर समझौता नहीं करेंगे।
गांधी परिवार के साथ खास बात ये है कि ये कभी गल्ती नहीं करते, पांच राज्यों के चुनाव  में पार्टी की ऐसी तैसी हो गई, लेकिन ये आज भी  उतने ही मजबूत हैं। उत्तराखंड में हरीश रावत के नेतृत्व में एक बेहतर सरकार बनाई जा सकती थी, पर हरीश रावत मुख्यमंत्री बन जाते तो पता कैसे चलता कि कांग्रेस में सभी  फैसले 10 जनपथ से लिए जाते हैं। रावत बन जाते तो लगता कि जनता ने उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया। इसलिए गांधी परिवार को अपनी ताकत दिखाने के लिए उलजलूल फैसले करना उनकी सियासी मजबूरी है।

मैं मनमोहन सिंह को बहुत ईमानदार आदमी समझता था,  लेकिन प्रधानमंत्री की कुर्सी को बचाए रखने के लिए वो जिस तरह के समझौते करते हैं, उससे उन्होंने प्रधानमंत्री पद की गरिमा बिल्कुल गिरा दिया है। मेरा  केंद्र सरकार के कई अफसरों के पास बैठना होता है,  उनके दफ्तर में इनकी तस्वीर लटकी हुई है,  ये अफसर इनकी तस्वीर की ओर उंगली उठाकर कोसते फिरते हैं।  सियासी गलियारे में कहा जाता है कि गांधी जी के तीन बंदर थे, एक कान बंद किए रहता था, वो कुछ सुनता नहीं था, एक आंख बंद किए रहता था, वो कुछ भी देखता नहीं था , एक मुंह बंद किए रहता था, वो कुछ बोलता नहीं था। लोग कहते हैं कि आज  अगर गांधी जी होते तो तीनों बंदर को हटाकर मनमोहन सिंह की तस्वीर लगा लेते,  ये ना बोलते हैं, ना देखते हैं और ना ही सुनते हैं। शायद मनमोहन सिंह को ये पता ही नहीं है कि वो देश के प्रधानमंत्री हैं, उन्हें लगता है कि वो एक ऐसे नौकरशाह हैं, जिन्हें प्रधानमंत्री का काम दिया गया है और वे शिद्दत से इस काम को कर रहे हैं। कुर्सी बचाए रखने के लिए जितने घटिया स्तर पर मनमोहन सिंह उतरते जा रहे हैं, इसके पहले किसी ने ऐसा नहीं किया। कमजोर प्रधानमंत्री होता है तो मंत्रियों के मजे रहते हैं, लिहाजा  किसी को कोई तकलीफ भी  नहीं है। चलिए जी अभी आपके राज में देश को और लुटना पिटना है।

मता बनर्जी की गंदी राजनीति के बारे में आप जितना सुनते हैं, वो अधूरा है, क्योंकि ममता महिला हैं और उनके बारे में लिखने में लोग वैसे भी संकोच करते हैं। भारतीय राजनीति को दूषित करने वाली महिला नेताओं के बारे में अगर चर्चा हो तो ममता का जिक्र किए बगैर यह स्टोरी पूरी हो ही नहीं सकती। बीजेपी नेता पूर्व प्रधानमंत्री  अटल बिहारी वाजपेई तो ममता, मायावती और जयललिता से हार मान गए थे और उन्होंने पूरी तरह समर्पण कर सरकार को ही गिरा लिया और बाहर चले गए।  लेकिन वाजपेई जी राजनीतिक थे, उनकी रीढ़ की हड्डी मनमोहन सिंह की तरह लचर नहीं थी। वो जानते थे कि प्रधानमंत्री रहते हुए किस हद तक झुका जा सकता है, लेकिन मनमोहन सिंह में इस हड्डी की कमी है, वो कुर्सी बचाने के लिए किसी हद तक जा सकते हैं। चूंकि सहयोगी दलों को प्रधानमंत्री की कमजोरी पता चल गई है, लिहाजा वो अपनी हर छोटी बड़ी मांग के लिए सरकार गिराने की धमकी देते हैं। खैर ममता ने ये बता दिया है कि झुकती है दुनिया झुकाने वाला चाहिए। वैसे ममता दीदी आपकी ईमानदारी को लेकर भी लोग सवाल उठाने लगे हैं। आप भले ही हवाई चप्पल और सूती साड़ी पहन कर सादगी की बात करें, पर आपके दाएं बाएं रहने वाले तो डिजाइनर ड्रेस पहनते हैं, ऐसा क्यों ?

पनी ओछी हरकत से ये चेहरा भी बदबूदार हो गया है। देशप्रेम की बड़ी बड़ी बातें करने वाला ये शख्स है पूर्व रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी। आपको बता दूं कि ममता बनर्जी ने जब पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री का कामकाज संभाला तो रेलमंत्री के लिए श्री त्रिवेदी ममता बनर्जी की पहली पसंद नहीं थे। वो तो मुकुल राय को ही रेलमंत्री बनाना चाहतीं थीं। लेकिन रेल मंत्रालय में उस समय मौजूद दो अन्य रेल राज्यमंत्री के मुनियप्पा और ई अहमद काफी वरिष्ठ थे, उन्होंने मुकुल राय की अगुवाई में काम करने से साफ इनकार कर दिया। काफी मान मनौव्वल के बाद ममता बनर्जी श्री त्रिवेदी को मंत्री बनाने के लिए राजी हुईं। रेलमंत्री बनते ही भाई त्रिवेदी बड़ी बड़ी डींगें हांकने लगे। कह रहे हैं कि अगर रेल का भाड़ा नहीं बढ़ाया गया तो महकमें को आगे चलाना मुश्किल होगा। चलिए आप किराया बढ़ा देते, लेकिन आपने किराया नहीं बढा़या, आपने आम आदमी को लूटने की कोशिश की। अच्छा त्रिवेदी जी पढ़े लिखे हैं, उन्हें पता है कि जब दो रुपए पेट्रोल डीजल की कीमत बढ़ती है तो उनके पार्टी की अध्यक्ष  ममता बनर्जी केंद्र की सरकार गिराने पर आमादा हो जाती हैं, भला वो रेल किराए में बढोत्तरी को कैसे स्वीकार कर सकतीं थीं। सच तो ये है कि त्रिवेदी सब जानते थे, लेकिन उनकी कांग्रेस से नजदीकियां बढती जा रहीं थीं,  बेचारे झांसे में आ गए और जिनके कहने पर सबकुछ कर रहे थे, बुरा वक्त आया तो किसी ने साथ नहीं दिया। खैर इतिहास में नाम दर्ज हो गया कि किराया बढ़ाने पर मंत्री को कुर्सी से हाथ धोना पड़ा। वैसे डियर इसे बेवकूफी  कहते हैं।

माजवादी नेता मुलायम सिंह यादव के हाथ आखिर क्यों बंधे हुए हैं, ये बात आज तक लोग नहीं समझ पा रहे हैं। हालाकि राजनीतिक गलियारे में चर्चा है कि अगर मुलायम सिंह यादव जरा भी कांग्रेस के खिलाफ मुखर हुए तो उनकी घेराबंदी तेज हो जाएगी। आय से अधिक संपत्ति के मामले में सीबीआई कार्रवाई तेज कर देगी। अभी जो वो सुकून की जिंदगी जी रहे हैं, उसमें ऐसा खलल पड़ जाएगा कि राजनीति के हाशिए पर चले जाएंगे। अब देखिए वामपंथियों से मुलायम सिंह यादव के रिश्ते खराब नहीं हैं, लेकिन जब परमाणु करार करने पर वामपंथियों ने सरकार से समर्थन वापस लिया तो मुलायम सिंह ने सरकार को बचाया। लेकिन उसके बाद कांग्रेस ने  क्या किया,  सभी ने देखा। अब ममता बनर्जी सरकार को आंख दिखा रहीं हैं तो फिर मुलायम सिंह यादव  नजर आ रहे हैं। कांग्रेस के युवराज यूपी चुनाव में समाजवादी पार्टी की घोषणा पत्र की बातों को सार्वजनिक सभाओं में फाडते फिर रहे थे, इतनी तल्खी के बाद भी कांग्रेसी उम्मीद करते हैं कि समाजवादी पार्टी उनका साथ दे। खैर वो जितनी बेशर्मी से समर्थन मांगते हैं, उससे ज्यादा बेशर्मी से सपा उनके साथ बैठती है। आज एनसीटीसी के मुद्दे पर सरकार में सहयोगी टीएमसी ने मतदान का बायकाट कर दिया, लेकिन वाह रे लोहिया के चेलों आप संसद में कांग्रेस के साथ कंधे से कंधा मिलाए बैठे रहे। नेता जी आप लेख और स्टोरी पर ध्यान मत दीजिएगा, कांग्रेस के साथ बने रहिए, कम से कम सीबीआई से तो पीछा छूटा ही रहेगा।

ब इस चेहरे की मासूमियत भी बनावटी लगती है। जब मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाने की बात की तो और लोगों की तरह मुझे भी उम्मीद थी कि शायद यूपी में कुछ बदलाव दिखाई देगा। कानून व्यवस्था सुधरेगी, पार्टी की गुंडा छवि को अखिलेश यादव बदलेंगे और सूबे में कुछ नया होता दिखाई देगा। पर कुछ नहीं बदला, मंत्रिमंडल में वही दागी चेहरे, 90 फीसदी वही लोग मंत्री बने जो मुलायम मंत्रिमंडल में थे। हैरानी तो तब हुई जब अखिलेश ने विभागों का बटवारा किया तो सभी को वही विभाग दिए गए जो पहले उनके पास थे। हा राजा भइया काफी समय तक जेल मे रहे हैं, इसलिए उन्हें कारागार विभाग दिया गया है। बेचारे कारागार अधीक्षकों की खैर नहीं। सभी रास्ते मालूम हैं राजा भइया को कि यहां क्या होता है। बहरहाल अखिलेश जी हफ्ते भर से जो देख रहा हूं,  उससे इतना तो साफ है कि आपकी कुछ चल नहीं रही है। आपने जो विभाग मंत्रियों को दिए हैं, वो उस विभाग में विवादित रहे हैं। ऐसे में आपको जल्दी ही खबर मिलेगी कि तमाम अफसर बकाए का भुगतान ना करने पर मंत्रियों के हाथ पिट रहे हैं। चलिए अच्छा हुआ, जल्दी आपका भी असली चेहरा सामने आ गया, वरना बेवजह हम यूपी में रामराज का इंतजार करते फिरते।

मायावती की ये हंसी बनावटी है। आमतौर पर लोग खुश होने पर हंसते है, पर मायावती जब बहुत परेशान होती है तो ऐसी हंसी हसती है, जिससे लोगों में भ्रम बना रहे कि वो कहीं से परेशान हैं। मायावती वो शख्स हैं जो किसी को माफ करना नहीं जानतीं। उनका मुलायम की पार्टी से ऐसा रिश्ता है कि जहां वो रहेंगे, मायावती वहां रह ही नहीं सकती। पर मजबूरी क्या ना कराए। अब देखिए ना सीबीआई का जितना खौफ मुलायम सिंह यादव को है, उससे कम खौफ मायावती को भी नहीं है। यही वजह है कि कांग्रेस का समर्थन मुलायम सिंह के करने के बाद भी मायावती वहीं जमीं हुई हैं, कम से कम सीबीआई से तो राहत रहेगी। चुनाव में राहुल गांधी ने खुले आम मायावती की सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए, उन्होने कहा कि केंद्र से जो पैसा आता है, वो यहां बैठा हाथी खा जाता है। भला इससे भद्दे तरीके से कोई बात अब क्या कही जाएगी, लेकिन मायावती उसी कांग्रेस के साथ चिपकी हुई हैं। उन्हें लग रहा है कि लखनऊ में तो समाजवादी पार्टी रहना मुश्किल कर देगी, अगर कांग्रेस से भी पंगा लिया तो ये दिल्ली में भी डाट से नहीं रहने देगें। लिहाजा राज्यसभा के जरिए अब पांच साल दिल्ली में काटने की तैयारी है। कोई बात नहीं मायावती जी,यहां तो तमाम लोग हैं जिन्हें कांग्रेसी गरियाते फिरते हैं, पर वो सरकार के साथ चिपके रहते हैं। बस सबकी सांसे सीबीआई दबाए रहती है।

खैर साहब ये दिल्ली है और दिल्ली की सियासी गलियारे में कोई किसी का सगा नहीं है। कब कौन किसकी कहां उतार दे कोई भरोसा नहीं। मुझे सीएनबीसी और आवाज के एडीटर संजय पुगलिया जी का एक सवाल याद आ रहा है जो उन्होंने रेल बजट वाले दिन पूर्व रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी से पूछा। उन्होंने कहा कि आप ने दो पैसे प्रति किलो मीटर किराया बढ़ाया और दिल्ली में दो कौड़ी की राजनीति शुरू हो गई। बेचारे त्रिवेदी इसका क्या जवाब देते, उनकी  तो सांसे अटक गई। लेकिन मैं पूरे विश्वास के साथ कहता हूं कि ये सवाल  सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, प्रणव मुखर्जी, पी चिदंबरम, ए के एटोनी, कपिल सिब्बल, कमल नाथ समते किसी से भी पूछा जा सकता है और उनके पास भी इसका जवाब नहीं है, क्योंकि सभी दो कौड़ी की नेतागिरी में शामिल हैं। 

Friday 16 March 2012

यूपी : चेहरा बदला चरित्र नहीं ...

मैं हमेशा से इसी मत का हूं कि चेहरा बदलने से चरित्र नहीं बदल सकता। हां अगर कोई चरित्र में बदलाव कर ले, तो चेहरा खुद बखुद बदला बदला सा लगता है। ताजा उदाहरण है उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने वाली समाजवादी पार्टी का। चुनाव के दौरान मैं यूपी में 50 से ज्यादा जिलों में गया, वहां लोग मायावती की सरकार से बुरी तरह नाराज थे और इससे छुटकारा चाहते थे। इसका विकल्प उन्हें समाजवादी पार्टी में दिखाई दे रहा था। लेकिन ये क्या.. पहले दूसरे चरण में समाजवादी पार्टी ने बेहतर प्रदर्शन किया तो शहरी इलाकों में खौफ का माहौल बन गया। पूछने पर पता चला कि मायावती तो सरकारी पैसे की लूट में शामिल है, पर समाजवादी पार्टी के आने का मतलब गुंडों का सरकार में आना होगा और इस पार्टी की सरकार में तो रास्ते पर चलना मुश्किल हो जाएगा।
इसकी पहली झांकी तो चुनाव के नतीजे आने के बाद सूबे के कई जिलों में शुरू हुई मारा मारी से दिखाई दे गई। शोर शराबा हुआ तो समाजवादी पार्टी ने सफाई दी कि अभी हमारी सरकार नहीं है, शपथ ग्रहण के बाद ही हमारी सरकार होगी। बहरहाल समाजवादी पार्टी पर आज भी सबसे बडा यही आरोप है कि ये गुंडों की पार्टी है। शायद इस छवि को धोने के लिए ही मुलायम सिंह यादव ने अपने बेटे अखिलेश की ताजपोशी करने का फैसला किया। अखिलेश ने जब बाहुबलि नेता डी पी यादव को पार्टी में शामिल करने से इनकार कर दिया तो सच में एक बार ऐसा लगा कि अखिलेश के आगे किसी की नहीं चलेगी, फैसला लेने में अखिलेश का जवाब नहीं है। मीडिया ने अखिलेश के इस फैसले को हाथो हाथ लिया और अखिलेश का ग्राफ एकदम से ऊपर पहुंच गया।
अखिलेश की इसी छवि के बीच जब उन्हें मुख्यमंत्री की कमान सौंपे जाने की बात शुरू हुई तो लोगों की उम्मीद बढ गई। सब को लगने लगा कि कम से कम पहली दफा मंत्रिमंडल में गुंडे बदमाश नहीं होंगे। दागी छवि का कोई भी नेता इस मंत्रिमंडल में जगह नहीं पाएगा। चूंकि प्रदेश के अब तक के सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री हैं अखिलेश.. तो लोगों को लगा कि उनके मंत्री भी कम उम्र वाले ही होंगे। पर ऐसा नहीं हुआ, मंत्रिमंडल में एक दो को छोड़ दें तो सभी मुलायम सिंह यादव के मंत्रिमंडल के ही सदस्य हैं। यानि चाचाओं के मंत्रिमंडल में बेचारा भतीजा मुख्यमंत्री बन कर फंस गया। इस मंत्रिमंडल को सबसे ज्यादा बदसूरत बनाया रघुराजराज प्रताप सिंह यानि राजा भइया ने। राजा भइया की छवि भी बाहुबलि नेताओं की है। अच्छा फिर जिन लोगों को प्रचार के दौरान दूर रखे जाने की वजह से पार्टी को पूर्ण बहुमत में आई, अब इन सभी नेताओं को मंत्री बना दिया गया। आजम खां और शिवपाल यादव को प्रचार से दूर रखना बहुत कारगर रहा है, लेकिन अब ये मंत्री हैं।
अच्छा आइये क्षेत्रीय असंतुलन की बात करें,  यूपी के प्रमुख शहरों में इलाहाबाद भी शामिल हैं। यहां से समाजवादी पार्टी के आठ विधायक जीत कर लखनऊ पहुंचे। लेकिन इनमें से किसी को भी मंत्री नहीं बनाया गया। इसके पास का ही जिला है प्रतापगढ वहां से दो लोगों को मंत्री बनाया गया, राजा भइया और राजाराम पांडेय, जबकि ये दोनों दागी है। राजाराम पांडेय पर कई तरह के गंभीर आरोप हैं। कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि मंत्रिमंडल में कई ऐसे लोगों को शामिल किया गया है, जिन पर गंभीर आपराधिक मामले आज भी विचाराधीन हैं। सवाल उठता है कि दागी और अपराधी को मंत्रिमंडल में शामिल करने की आखिर मजबूरी क्या है। मेरा मानना है कि कोई मजबूरी नहीं है। पूर्ण बहुमत की सरकार है, दागी और अपराधी  में इतना नैतिक बल नहीं होता कि वो सरकार के सामने सिर उठा कर बात कर सके। लेकिन समाजवादी पार्टी  की सरकार मे गुंडे, दागी, अपराधी शामिल ना हों तो पता कैसे चलेगा कि ये समाजवादी पार्टी की सरकार है। गुंडागर्दी ही तो पार्टी की यूएसपी है।
अब देखिए ना जिस मंच पर शपथ लेकर अखिलेश मुख्यमंत्री बने, उसी मंच पर अगले ही क्षण समाजवादी गुंडो ने उपद्रव मचाकर दिखाया कि आगे राज्य में क्या होने वाला है। घंटो समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता मंच पर नंगानाच करते रहे, यहां तक की सुरक्षा में लगे पुलिसकर्मी भी उनके साथ डांस करते दिखाई दिए।
बहरहाल समाजवादी पार्टी का इसमें कोई दोष नहीं है बल्कि उत्तर प्रदेश के लोगों की किस्मत खराब है। उन्हें दागी और बदबूदार नेताओं से ही बेहतरी की उम्मीद करनी होगी। अखिलेश का नाम मुख्यमंत्री के लिए सामने आया तो युवाओं में एक उम्मीद जगी थी, कि अब यूपी में भी कुछ बेहतर होगा, लेकिन मुलायम सिंह ने बेचारे अभिमन्यू को जानबूझ कर चक्रव्यूह में फंसा दिया है। जो चेहरे सामने हैं, इनसे अखिलेश क्या काम ले पाएंगे,जब उनके पिताश्री काम नहीं पाए। शिवपाल यादव जी शुरू हो जाइये जो आप करते रहे हैं, सूबे में जो आपकी शोहरत है। जब आप पर आपके बड़े भाई अंकुश नहीं लगा पाए तो अखिलेश किस खेत की मूली है। आजम भाई आप मंत्री नहीं रहे तो रामपुर में ट्रैफिक क्या हाल हो गया है, देख रहे है ना। लगिए ट्रैफिक सुधारने में, यहां जब आप लोगों को कान पकड़ कर उठक बैठक कराते हैं,तभी लोगों की समझ में आता है। राजाराम पांडेय जी लूट खसोट करिए ना कौन रोकने वाला है। अब इस सरकार से बेहतरी की कोई उम्मीद करना बेईमानी होगी।

 

Wednesday 7 March 2012

टीम अन्ना भी करे आत्ममंथन ....

यूपी समेत देश के पांच राज्यों में चुनाव प्रक्रिया खत्म हो गई। इस चुनाव मे कौन जीता कौन हारा ये बात तो सामने आ गई। लेकिन चुनाव के नतीजों से कई सवाल खड़े हो गए हैं। बड़ा सवाल ये कि टीम अन्ना की जनता में कितनी विश्वसनीयता बची है। अगर रिजल्ट के हिसाब से देखें तो मुझे लगता है कि ये अन्ना गैंग जबर्दस्ती का भौकाल टाइट किए हुए है, जनता में अब इनकी दो पैसे की पूछ नहीं है। आप कह सकते हैं कि ऐसा क्यों ? मैं बताता हूं कि ये बात में किस आधार पर कह रहा हूं।

अन्ना के जनलोकपाल बिल का अगर कोई राजनीतिक दल खुलकर विरोध कर रहा था, तो वह है मुलायम सिंह यादव की अगुवाई वाली समाजवादी पार्टी। सपा मुखिया ने साफ कहा था कि वो अन्ना के जनलोकपाल बिल से कत्तई सहमत नहीं हैं। क्योंकि ये जनलोकपाल बिल देश के संघीय ढांचे को खत्म करने वाला तो है ही साथ ही राज्य सरकार के समानांतर एक और ताकतवर संस्था को खड़ा कर राज्य के सामान्य कामकाज में अडंगा डालने वाला भी है। अन्ना के जनलोकपाल का खुला विरोध करने के बावजूद समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश में ऐतिहासिक सफलता हासिल की। यूपी में कई साल बाद ऐसा हुआ है कि किसी एक पार्टी को इतनी बडी संख्या विधानसभा में मिली है।

अच्छा हैरान करने वाली बात ये है कि मुलायम सिंह यादव ने जनलोकबाल बिल का विरोध किया तो उन्हें जनता ने ऐतिहासिक जीत दर्ज कराई और उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री भुवनचंद्र खंडूडी ने जनलोकपाल बिल का समर्थन किया और जैसा जनलोकपाल बिल अन्ना टीम चाहती थी, वैसा ही बिल उन्होंने विधानसभा में पास करा दिया, नतीजा क्या हुआ कि बीजेपी तो सत्ता से बाहर हुई ही, बेचारे खंडूडी खुद भी चुनाव हार गए। कम ही ऐसा होता है जब कोई मुख्यमंत्री चुनाव हारता हो। आपको याद होगा कि उत्तराखंड के लोकपाल बिल का टीम अन्ना बहुत समर्थन कर रही थी, वो दूसरे राज्यों के साथ ही केंद्र सरकार को भी नसीहत दे रही थी कि अगर जनलोकपाल बिल पास करना है तो उत्तराखंड राज्य के माडल पर पास किया जाए। अब प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री बेवकूफ हैं, जो उत्तराखंड माडल पर बिल पास कराएं और चुनाव में सत्ता से हाथ धो बैठें।

चलिए साहब चुनाव में हार के लिए कांग्रेस में सोनिया गांधी, राहुल गांधी और खुद दिग्विजय सिंह ने अपनी जिम्मेदारी स्वीकार कर ली। उन्होंने कहा कि पार्टी इस चुनाव परिणामों का मंथन करेगी और जरूरी बदलाव किया जाएगा। बीजेपी ने भी साफ कर दिया कि हां यूपी में जो नतीजे आए हैं, उससे उन्हें धक्का लगा है, पार्टी आत्ममंथन करेगी। लेकिन पंजाब, गोवा में पार्टी का प्रदर्शन बेहतर रहा है और उत्तराखंड में भी उतना खराब प्रदर्शन नहीं रहा है। सभी राजनीतिक दलों ने अपनी अपनी समीक्षा कर ली, सभी ने अपनी गल्ती स्वीकार ली और आत्ममंथन की बात कर दी।

सवाल ये उठता है कि टीम अन्ना खासतौर पर अरविंद केजरीवाल कब आत्ममंथन करेंगे ? क्या आपको अभी भी लगता है कि जनता आपको सुनती है, आप जो चाहोगे वही होगा। उत्तर प्रदेश में जिले जिले घूमते फिर रहे थे, लोगों को यही समझा रहे थे ना कि जनलोकपाल का विरोध करने वाले राजनीतिक दलों से दूर रहें, उन्हें वोट ना दें। आपने किसी राजनीतिक दल का नाम भले ना लिया हो, लेकिन इशारा तो समाजवादी पार्टी की ओर था ही ना। लेकिन हुआ क्या, जनता ने तो सपा को एतिहासिक जीत दर्ज कराई। उत्तराखंड का मांडल आप देश में स्वीकार करने की बात कर रहे थे, वहां सरकार भी गई और बेचारे मुख्मंत्री खंडूडी खुद भी चुनाव हार गए। मेरा सवाल है कि क्या टीम अन्ना भी आत्ममंथन करने को तैयार है ? मुझे तो कई बार लगता है कि वो जनलोकपाल बिल की आड़ में कुछ बड़ा खेल खेल रहे हैं। बेअंदाज इतने हो गए हैं कि एक नेता के चुनावी दौरे का हिसाब मांग रहे हैं। अब सोचिए कि पूरी अन्ना टीम लगातार हवा में उड़ रही है, टीम के किसी भी सदस्य का पैर जमीन पर नहीं है, कहीं भी जाने के लिए हवाई यात्राएं की जा रही हैं, अरे तुम भी किसी को हिसाब दोगे। आखिर भाई आपके पास इतना पैसा कहां से आ रहा है। कहा तो यही जा रहा है कि कुछ बाहरी संगठनों से टीम अन्ना को फंडिग हो रही है, इस मामले में सब कुछ साफ होना ही चाहिए।

और हां, अब तो केजरीवाल की हकीकत भी सामने आ गई है। दूसरों को नसीहत देने वाले का असली चेहरा क्या है ? ये देश ने देख लिया।  उत्तर प्रदेश में चुनाव के दौरान सभा की अनुमति मांगी गई मतदाता जागरूकता के नाम पर। यानि टीम अन्ना लोगों को मतदान के महत्व के बारे में जानकारी देगी। मसलन आपका एक वोट कितना कीमती है। लेकिन खुद भूल गए कि वो भी इसी देश के नागरिक हैं और वोट देना उनका भी अधिकार है। मतदाता सूची में आपका नाम शामिल है या नहीं ये चेक करना भी खुद मतदाता की जिम्मेदारी है। केजरीवाल इतने गंभीर है कि मतदाता सूची में नाम है या नहीं ये जानने की भी उन्हें फुरसत नहीं, फिर वोट वाले दिन बिना वोट डाले ही गोवा जाने के लिए एयरपोर्ट रवाना हो गए, जबकि पत्रकारों ने बताया कि आपको पहले वोट डालना चाहिए, कहने लगे कि मैं गोवा जाने में लेट हो जाऊंगा। लेकिन जब मीडिया ने टीवी पर उनकी क्लास लगानी शुरू की तो उल्टे पांव लौट आए, यहां आकर उन्हें और शर्मिंदगी उठानी पड़ी, क्योंकि सूची में नाम ही नहीं था। मसलन बातें आप भले बड़ी बड़ी कर लो, लेकिन असल जिंदगी में आप मतदान को लेकर कितने गैरजिम्मेदार है, ये साफ हो गया। यानि हांथी के दांत खाने के और दिखाने के और।

टीम अन्ना के तो हर सदस्य का असली चेहरा सामने आ चुका है, लिहाजा अब बात सीधे अन्ना से करना चाहूंगा। अन्ना दा आप अगले आंदोलन के पहले अपना घर जरूर ठीक कर लें। दिल्ली में तो मैने देख लिया कि आप कैसे लोगों के बीच में हैं, मै ही क्या देश भर ने देख लिया। लेकिन अब दिल्ली आएं तो पहले अपने गांव रालेगनसिद्धी को भी करीब से देख लें, क्योंकि हम मानकर चल रहे थे कि आपका गांव एक आदर्श गांव होगा, यहां सब एक दूसरे से बहुत मिल जुल कर रहते होंगे, नशाखोरी का तो नामोनिशान नहीं होगा। पर मुझे दुख है कि आपके गांव में पान गुटका, सिगरेट तो छोड़िए हर ब्रांड की शराब तक आसानी से मिल जाती है, बस पैसे दोगुने से ज्यादा देने होते हैं। आप तो अब गांव से इतना कट चुके हैं कि आपको अपना गांव दिखाई नहीं देता, शाम होते ही तमाम लोग टल्ली होकर गांव में घूमते दिखाई दिए तो मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई। खैर छोड़िए आपके गांव के बारे में मैं जल्दी आपको विस्तार से जानकारी दूंगा। होली है होली मनाइये, हैप्पी होली।


नोट.. कृपया मेरे दूसरे ब्लाग रोजनामचा पर दस्तक दें...

http://dailyreportsonline.blogspot.in/search?updated-min=2012-01-01T00:00:00-08:00&updated-max=2013-01-01T00:00:00-08:00&max-results=6

Tuesday 6 March 2012

ये है जंगल का राजा बंदर ....

त्तर प्रदेश के नतीजे सामने आ गए हैं। नतीजों को लेकर कोई हैरानी नहीं है, क्योंकि ये तो पहले ही माना जा रहा था कि समाजवादी पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में सामने आएगी और आई भी। हां ये सच है कि मैं भी ये अंदाज नहीं लगा पाया कि समाजवादी पार्टी इतनी बड़ी संख्या में सीटें जीत रही है। इस चुनाव में तरह तरह के नेता अपना किरदार निभा रहे थे। एक ऐसा राष्ट्रीय पार्टी के नेता का ऐसा भी किरदार था कि उसे बात बात पर गुस्सा आ जाता था।

मैं हैरान था कि यूपी की हालत खराब है, यहां जनता परेशान है,युवओं के हाथ में रोजगार नहीं है, किसानों को उनकी पैदावार का उचित दाम नहीं मिल रहा है, मंहगाई के चलते लोगों के घर में दोनों टाइम चूल्हे नहीं जल रहे हैं और चुनाव के दौरान लोगों के इस घाव पर मरहम लगाने के बजाए इस नेता को बात बात पर गुस्सा आ जाता है। मैं यूपी में 40 दिन तक लगातार घूमता रहा, लेकिन मेरी समझ में नहीं आया कि गुस्सा करके आखिर इस समस्या का समाधान कैसे निकल सकता है।

बार बार जब एक ही बात सुनता रहा तो मैने एक बुजुर्गवार से पूछा दादा क्या किसी समस्या का समाधान गुस्से से भी हो सकता है। उन्होंने कहा बिल्कुल नहीं। फिर मैने उन्हें इस नेता के बारे में उन्हें बताया कि इसे तो बात बात पर गुस्सा आता है। यहां की समस्याओं को देखकर ये कहता है कि मुझे तो भारतीय होने पर शर्म आती है। पहले तो बुजुर्गवार ने कहा कि बच्चा है, कोई बात नहीं, सुधर जाएगा। बाद में उन्होने एक कहानी सुनाई।

कहने लगे कि जंगल के राजा शेर से जानवर परेशान हो गए। बाद में सभी जानवरों ने फैसला किया कि इस बार चुनाव में जंगल के राजा को हराना है और हम अपना नेता किसी और को चुन लेते हैं। सभी जानवरों ने हां में सिर हिलाया और कहाकि ये ठीक है। हम सब एक हैं और अब अपना नया राजा चुन लेगें। लेकिन मुश्किल ये कि शेर के सामने चुनाव लड़ने की किसी की हिम्मत ही नहीं हो रही थी। बहरहाल काफी विचार के बाद एक बंदर खड़ा  हुआ और बोला कि अगर आप सब साथ देने को तैयार हैं तो हम शेर के खिलाफ चुनाव लडे़गें। सभी ने हां में सिर हिलाया और बंदर चुनाव को तैयार हो गया। इतना ही नहीं वो चुनाव जीत भी गया।

बंदर राजा बन गया, खूब जश्न मना जंगल में। लेकिन एक दिन गजब हो गया। शेर ने एक बकरी के बच्चे को अपने पंजे में जकड़ लिया, घबराई बकरी तुरंत जंगल के राजा बंदर के पास पहुंची और कहा कि देखो शेर ने मेरे बच्चे को जकड़ रखा है और वो उसे खा जाएगा। बंदर तेजी से गुर्राया, ऐसा कैसे हो सकता है, मेरे राज में ये सब बिल्कुल नहीं चलेगा। बकरी बोली तुम चलो साथ और उसे छुड़ाओ। बंदर बोला हां हां क्यों नहीं। बंदर कूदता फांदता बकरी के साथ निकल पड़ा। बकरी ने उसे वो दिखाया कि उस पेड़ के नीचे देखो वहां शेर मेरे बच्चे को जकड़े बैठा है। बंदर दौड़कर गया और पेड पर चढ़ गया, कभी वो इस पेड पर कूदता, कभी दूसरे पेड़ पर, कभी यहां भागता, कभी वहां भागता। काफी देर तक वो ऐसे ही दौड़ भाग करता रहा, लेकिन बकरी का बच्चा यूं ही शेर के पंजे में जकड़ा रहा। बकरी नाराज हो गई, बोली अरे मेरे बच्चे को छुडाओगे भी या बस ऐसे ही कूदते फांदते रहोगे।

बंदर बोला देखो जी आपने मुझे राजा बनाया है, मैं तो आपके काम के लिए भागदौड़ करने से पीछे नहीं रहूंगा, अगर मेरी कोशिश में कोई कभी हो तो बताओ, अगर वो नहीं छोड़ रहा है तो मैं क्या कर सकता हूं, आखिर वो शेर है और मै हूं तो बंदर ही ना। इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं कर सकता अब तुम्हारा बच्चा छूटे या ना छूटे। कुछ ऐसा ही किरदार निभाया यूपी के चुनाव में एक नेता ने। उसे भी बहुत गुस्सा आता रहा, लेकिन समस्या का समाधान नहीं था उसके पास। खैर नया नया मामला है सीखते सीखते सीखेगा ना।

Saturday 3 March 2012

राहुल फ्लाप, मुसीबत में माया भी ...


पूरे 40 दिन यूपी का कोना कोना छानने के बाद आज दिल्ली वापस आ चुका हूं। इस दौरान मैं अपने ब्लाग से ज्यादा नहीं जुड़ पाया, वजह नेट की समस्या रही। जब भी किसी बड़े शहर में रात बिताने का मौका मिला तो आप सब को यूपी के चुनाव संबंधित कुछ जानकारी देता रहा। इस दौरान मेरे बहुत से मित्रों ने मुझे फोन कर कहा कि आप चुनाव की कुछ सटीक  जानकारी दीजिए, कुछ लोग हमारे सफर को लेकर बहुत उत्साहित थे, वे जानना चाहते थे कि कैसे एक टीम रोज नए शहर में पूरा सेट लगाती है और फिर प्रोग्राम खत्म होते ही सेट को समेटती है और अगले शहर के लिए रवाना हो जाती है। मैं चाहता हूं कि आज आपको चुनाव के बारे में जानकारी देने के साथ ही कुछ अपने सफर के बारे में भी जानकारी दें।

चलिए सबसे पहले चुनाव की बातें कर लेते हैं। दिन में यूपी के किसी इलाके में घूमने और शाम को चुनावी चौपाल खत्म करने के बाद जब हम होटल के कमरे में टीवी खोलते थे तो उस समय हम सबको लगता था कि ऐसा कार्यक्रम देखा जाए,  जिससे कुछ मनोरंजन हो। इसके लिए हम सब अपने कमरे में कोई ना कोई न्यूज चैनल लगाकर बैठ जाते थे, क्योंकि इससे बेहतर मनोरंजन कुछ था ही नहीं। आप पूछेगें कि मनोरंजन के लिए न्यूज चैनल ? इसका क्या मतलब है। मैं बताता हूं इस  चुनाव में जो कहीं नहीं था, जिसकी कोई चर्चा नहीं थी, जिसकी बातों का कोई असर नहीं था, दलितों के घर भोजन करने की कोई चर्चा तक नहीं कर रहा था, बांह चढाए राहुल गांधी के बारे में कहीं चर्चा करने पर लोग बिना बताए जान जाते थे कि हम दिल्ली से आए हैं। ऐसे राहुल गांधी की खबर चैनल की हेडलाइन बनती थी, तो आप समझ सकते हैं कि इससे बड़ा मनोरंजन आखिर क्या हो सकता है।

आइये एक उदाहरण देते हैं राहुल गांधी के निर्वाचन क्षेत्र अमेठी में प्रियंका गांधी डा. संजय सिंह की पत्नी अमिता सिंह के लिए वोट मांगती फिर रहीं थीं। एक जगह प्रियंका के काफिले को ग्रामीणों ने रोक लिया और पूछा कि आप किसके लिए वोट मांग रहीं हैं। प्रियंका ने कहा कि अमिता के लिए। ग्रामीणों  हांथ जोड़कर कहाकि हम आपकी ये बात नहीं मानेंगे, हम अमिता को वोट नहीं दे सकते। बाद में प्रियंका बोली हम तो राहुल की मदद कर रहे हैं, ग्रामीणों ने कहा कि आप अभी जाइये, वर्ष 2014 में लोकसभा चुनाव  में राहुल गांधी के लिए आपको वोट मांगने यहां नहीं आना पडेगा, हम सब राहुल गांधी के साथ हैं।  ये बात मैं सिर्फ इसलिए बता रहा हूं कि राहुल जब अपने इलाके में विधानसभा उम्मीदवार को वोट नहीं दिला पा रहे हैं, तो दूसरे इलाके की बात करना ही बेमानी है।

हां लेकिन इस बार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के कुछ उम्मीदवार चुनाव लड़ते हुए दिखाई दे रहे हैं। 2007 में महज 22 सीटें जीतने वाली कांग्रेस इस बार उससे बेहतर प्रदर्शन करती नजर आ रही है, हालांकि मैं कांग्रेस को अपनी ओर से पांच सीटें ज्यादा दे रहा हूं, यानि वो इस बार 40 सीटें जीत सकती है, वैसे तो मेरा आंकलन 35 ही है। आरएलडी के लिए मैं अलग से पूरा पैराग्राफ नहीं लिख सकता, क्योंकि वो इतना बेहतर प्रदर्शन नहीं कर रही है। जाट आमतौर पर कांग्रेस के खिलाफ ही रहते हैं, ये चौधरी साहब ने कांग्रेस से ही हांथ मिला लिया, ऐसे में जाट कितना उनका साथ देगा, ये तो चुनाव के नतीजे ही बताएंगे, लेकिन विपरीत हालातों में भी चौधरी साहब के खाते में 12 से 15 सीटें आ सकती हैं।

आइये अब बात कर लेते हैं बहन जी यानि मायावती की। 2007 में विधानसभा के नतीजे अप्रत्याशित थे। सच ये है कि खुद मायावती को भी ये उम्मीद नहीं रही होगी कि वो इतनी भारी जीत जीतने जा रही हैं। दरअसल देखा जाए तो वो मायावती की जीत नहीं थी, बल्कि मुलायम के गुंडाराज का खात्मा था। लोग मुलायम सरकार की गुंडागर्दी से त्रस्त थे, उन्हें लगता था कि मायावती सरकारी खजाने को लूटती है, लूटती रहे, लेकिन जनता तो सुख में रहती है। ये सोचकर मायावती को जिताया था। पर इस बार मायावती की सरकार में कोई काम होना तो दूर, भ्रष्टाचार का बोलबाला था। अफसर बेलगाम थे, घूसखोरी, बेईमानी, लूट, अपराध को बोलबाला रहा, लोगों का घर से निकलना मुश्किल हो गया। लिहाजा पूरे प्रदेश मे लोग सरकार के खिलाफ वोट देने के लिए आगे आ रहे हैं। जनता का जो गुस्सा देखने को मिला है, उससे मेरा मानना है कि बीएसपी इस बार तीन अंको में नहीं पहुंचने वाली है। उसकी संख्या 80 से 90 पर ही सिमट कर रह जाएगी।

हां समाजवादी पार्टी के लिए अच्छी खबर है और अच्छी खबर की दो वजहें हैं। पहला पूरे चुनाव प्रक्रिया यानि उम्मीदवारों के चयन से लेकर प्रचार तक में मुलायम सिंह के भाई शिवपाल यादव को हाशिए पर रखा जाना। दूसरा सूबे की कमान को अखिलेश के हाथ में देना और अखिलेश ने बाहुबली नेता डीपी यादव को जिस तरह से पार्टी में शामिल करने से इनकार किया, इससे जनता में संदेश गया कि समाजवादी पार्टी गुंडो से दूरी बनाने की कोशिश कर रही है। ये अलग बात है कि आजम खां पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में हैं, लेकिन उन्हें इस चुनाव में उतनी तवज्जों नहीं मिली जो आमतौर पर मिला करती थी। अखिलेश ने भी अपने पूरे प्रयास से ये साफ कर दिया है कि उनमें नेतृत्व की क्षमता है और वो मुलायम सिंह के बाद पार्टी की जिम्मेदारी बखूबी निभा सकते हैं।
जहां तक विधानसभा चुनाव में सीटों के जीतने का सवाल है। मैं एक कदम आगे बढकर कह सकता हूं कि यूपी में सरकार तो समाजवादी पार्टी ही बनाने जा रही है। बस देखना ये है कि इस सरकार की चाभी कांग्रेस आरएलडी गठबंधन के पास होती है या नहीं। मेरा मानना है कि समाजवादी पार्टी 180 से अधिक सीटें जीत सकती है। बहुमत के लिए उसे 25 से 30 विधायकों की जरूरत होगी, जो इंतजाम करना कोई मुश्किल नहीं होगा, क्योंकि टूटने और बिकने के लिए सबसे मुफीद पार्टी बीएसपी है। यहां नेता बहुत ही प्रोफेसनल हैं, वो पैसा देकर टिकट लेते हैं, तो उन्हें पार्टी छोड़ने में भी कोई खास दिक्कत नहीं होती है।

यूपी के चुनाव को जो लोग ज्यादा करीब से जानते हैं, उन्हें पता है कि यहां अगर समाजवादी पार्टी बेहतर प्रदर्शन करती है तो बीजेपी का प्रदर्शन खुद ही बेहतर हो जाता है। वैसे ही अगर बीजेपी का प्रदर्शन बेहतर हो तो समाजवादी पार्टी का प्रदर्शन अच्छा होगा ही। हो सकता है कि राजनीति के जानकार मेरी बातों से सहमत ना हों, पर यूपी का पूरा चक्कर लगाने और लोगों से बात चीत के आधार पर मेरा मानना है कि सूबे  में दूसरे नंबर की पार्टी बीजेपी ही होगी। यूपी में कुल 75 जिले हैं, मुझे ऐसा कोई जिला नहीं मिला जहां बीजेपी के तीन चार उम्मीदवार मुख्य मुकाबले में ना हों। ऐसे में अगर बीजेपी 100 से अधिक सीटे जीत ले, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिेए। हालाकि पार्टी नेताओं में इतने बिखराव  के बाद अगर भाजपा बेहतर प्रदर्शन करती है तो उसे एक बार फिर मंथन करने की जरूरत है कि अगर पार्टी के बड़े नेता अनुशासित हो जाएं तो आज भी पार्टी सूबे में सरकार बना सकती है।

फैसला जिसका भी हो पर सच ये है कि बाबू सिंह कुशवाह के मामले में पार्टी को शर्मिंदगी उठानी पड़ी है। इस मामले में पार्टी नेताओं के पास कोई ठोस जवाब नहीं था, और खुद को दूसरों से अलग कहने वाली पार्टी इस चुनाव में वाकई अलग दिखाई दे रही थी। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की हालत ये है कि कई उम्मीदवारों ने मुझे भाईचारे में बताया कि ऊपर से निर्देश आ रहे हैं कि बड़े नेताओं की जनसभा कराऊं। वो इसके लिए तैयार नहीं है, क्योंकि अब पार्टी में ऐसा कोई नेता नहीं है, जिसकी वोट की अपील का जनता में कुछ असर होता हो। बल्कि जनसभा की तैयारी में पैसा और समय जरूर बर्बाद होता है। बहरहाल पार्टी नेताओं की ये हालत होने के बाद भी पार्टी का प्रदर्शन इस बार बेहतर होगा।

सांसद अमर सिंह और फिल्म अभिनेत्री सांसद जया प्रदा भी उत्तर प्रदेश के तूफानी दौरे पर थे, पर क्यों थे इस बात का जवाब नहीं मिल रहा है। लोकमंच की खबरें दो बार मीडिया में आईँ, एक बार अमर सिंह हेलीकाप्टर से उतरते समय गिर पड़े तब खबर आई कि अमर सिंह गिर गए, दूसरी खबर तब आई जब जया प्रदा हेलीपैड पर फिसल  गईँ और जमीन पर गिर गईं। इसके अलावा तो इन दोनों की कोई खबर सुनने को नहीं मिली। एक लाइन में कह दूं कि इनके सभी उम्मीदवारों को मिले वोट को जोड़ दिया जाए तो भी किसी एक उम्मीदवार की जमानत नहीं बचेगी। हाहाहहाहाहाहाह.. चलिए कोई बात नहीं।

हां पीसपार्टी अपने लिए नहीं बीजेपी के लिए तुरुप का पत्ता हो सकती है। कई जगहों पर देखा गया है कि मुस्लिम वोट पीसपार्टी उम्मीदवार के साथ भी खड़े दिखाई दिए। अगर पार्टी का ये टैंम्पो आखिरी समय तक बना रहा तो निश्चित ही मुस्लिम वोटों के कटने का नुकसान समाजवादी पार्टी को होगा, फिर फायदा तो बीजेपी को ही मिलना है। हालाकि सच क्या है ये तो पीसपार्टी के नेता जाने. पर कहा जा रहा है कि पीस पार्टी को बीजेपी और बीएसपी दोनों ने सौ सौ करोड़ से ज्यादा की मदद की है, और हां दो तीन सीटों पर पीसपार्टी का कब्जा हो जाए तो हैरानी की बात नहीं है।

जी एक टीम और यूपी के कुछ इलाकों में घूम रही थी, वो टीम अन्ना। मुझे नहीं पता कि चुनाव आयोग ने इन्हें कैसे सभाएं करने की इजाजत दी। क्योंकि आयोग में इन्होंने कहा कि वो मतदाता जागरूकता के लिए निकले हैं, पर सभा के दौरान वो कांग्रेस के विरोध की बात कर रहे थे, हां ये अलग बात कि वो इशारों में ये बात कह रहे थे। पर इनकी बात का कोई असर वसर कुछ नहीं। पूरे चुनाव में ईमानदारी कहीं मुद्दा ही नहीं  है। अन्ना और बाबा रामदेव पर कोई चर्चा करने को तैयार ही नहीं हैं।

बहुत हो गई चुनाव की बात। आइये अब हम अपने सफर की कुछ तस्वीरें आपको दिखाते हैं। कैसा रहा हमारा 40 दिन का सफर। मित्रों मैं चाहता तो राजनीति के इस लेख में नेताओं की तस्वीरें लगाकर आपके सामने कर देता। पर मुझे लगा कि आपको कुछ लाइट मूड में रखा जाए, देखिए इतना लंबा सफर आसान नहीं  होता है, बहुत सी मुश्किलें आती हैं, उनको निपटाना और अपने कार्यक्रम को कामयाब बना लेने के बाद कुछ ऐसा ही आनंद मिलता है। 























ये वो टीम है जो पूरे 40 दिन एक साथ रही


कुछ इस तरह चलता रहा हमारा सफर। बस की मौज मस्ती..


लोकेशन पर कुछ विमर्श
लोकेशन पर विचार विमर्श 




















अयोध्या का गुफ्तार घाट, चल रही है तैयारी

















ये हमारे गेस्ट नहीं है, चेहरे पर लाइट चेक हो रहा 










काम खत्म, अगले लोकेशन पर  जाने की तैयारी..
कोई बात नहीं दोस्तों....


















ये रात की मस्ती









































जी रात को ढाई बजे होटल में हमारे साथी मुझे डांस के स्टेप बता रहे हैं। अब क्या करें, सीखना ही पडेगा ना....



आगरा गए तो ताजमहल भला क्यों ना जाता














भूख लगी तो ढावे पर खाना बनाने में जुट गए







एक रात सड़क पर ही हो गया धमाल....................