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Thursday, 15 May 2014

UPA : दस साल दस गल्तियां !

क्जिट पोल के नतीजों से कांग्रेस बुरी तरह घबराई तो है, इसके बाद भी पार्टी आत्ममंथन करने को तैयार नहीं है। पार्टी आत्ममंथन करने के बजाए नेतृत्व को बचाने में लगी है। मसलन पार्टी चाहती है कि किसी तरह हार का ठीकरा सरकार पर यानि मनमोहन सिंह पर फोडा जाए। चुनाव की जिम्मेदारी संभाल रहे राहुल गांधी पर किसी तरह की आँच ना आने दी जाए। बहरहाल पार्टी का अपना नजरिया है, लेकिन यूपीए के 10 साल के कार्यकाल में दस बड़ी गल्तियों पर नजर डालें तो हम कह सकते हैं सरकार हर मोर्चे पर फेल रही है। कमजोर नेतृत्व, निर्णय लेने में देरी, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर सरकार पूरी तरह नाकाम रही है। आइये एक नजर डालते हैं कि दस साल में दस वो गलती जिसकी वजह से पार्टी को ये दिन देखने पड़ रहे हैं।

मनमोनह सिंह को प्रधानमंत्री बनाना 

कांग्रेस की सबसे बड़ी गलती यही रही कि उसने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री के  रूप में चुना। दरअसल  2004 में जब सोनिया गांधी को लगा कि उनके प्रधानमंत्री बनने से देश भर में बवाल हो सकता है तो उन्होंने ब्यूरोक्रेट रहे मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने का फैसला किया, जबकि पार्टी में तमाम वरिष्ठ नेता मौजूद थे, जो इस पद के काबिल भी थे, पर सोनिया को शायद वफादार की तलाश रही। मनमोहन सिंह एक विचारक और विद्वान माने जाते हैं, सिंह को उनके परिश्रम, कार्य के प्रति बौद्धिक सोच और विनम्र व्यवहार के कारण अधिक सम्मान दिया जाता है, लेकिन बतौर एक कुशल राजनीतिज्ञ उन्‍हें कोई सहजता से स्‍वीकार नहीं करता। यही वजह है कि उन पर कमजोर प्रधानमंत्री होने का आरोप लगा।

भ्रष्टाचार और मंहगाई रोकने में फेल

यूपीए सरकार में एक से बढ़कर एक भ्रष्टाचार का खुलासा होता रहा, लेकिन प्रधानमंत्री किसी के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने में नाकाम रहे। यहां तक की कोल ब्लाक आवंटन के मामले में खुद प्रधानमंत्री कार्यालय तक की भूमिका पर उंगली उठी। इसी तरह मंहगाई को लेकर जनता परेशान थी, राहत के नाम पर बस ऐसे बयान सरकार और पार्टी की ओर से आते रहे, जिसने जले पर नमक छि़ड़कने का काम किया। आम जनता महंगाई का कोई तोड़ तलाशने के लिए कहती तो दिग्‍गज मंत्री यह कहकर अपना पल्‍ला झाड़ लेते कि आखिर हम क्‍या करें, हमारे पास कोई अलादीन का चिराग तो है नहीं। कांग्रेसी सांसद राज बब्‍बर ने एक बयान दिया कि आपको 12 रुपये में भरपेट भोजन मिल सकता है, इससे पार्टी की काफी किरकिरी  हुई।

अन्ना आंदोलन से निपटने में नाकाम

एक ओर सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लग रहे थे, दूसरी ओर जनलोकपाल को लेकर अन्ना का दिल्ली में अनशन चल रहा था। सरकार इसकी गंभीरता को नहीं समझ पाई और ये आंदोलन देश भर में फैलता रहा। सरकार आंदोलन की गंभीरता को समझने में चूक गई, ऐसा सरकार के मंत्री भी मानते हैं। अभी अन्ना आंदोलन की आग बुझी भी नहीं थी कि निर्भया मामले से सरकार बुरी तरह घिर गई। देश भर में दिल्ली और यूपीए सरकार की थू थू होने लगी। जनता सरकार से अपना हिसाब चुकता करना चाहती थी, इसी क्रम में पहले दिल्ली विधानसभा चुनाव में पार्टी की बुरी तरह हार हुई, अब लोकसभा में भी पार्टी हाशिए पर जाती दिखाई दे रही है। अगर इन दोनों आंदोलन के प्रति सरकार संवेदनशील होती तो शायद इतने बुरे दिन देखने को ना मिलता ।

देश की भावनाओं को समझने में चूक 

यूपीए सरकार के तमाम मंत्री पर आरोप लगता रहा है कि वो देश की भावनाओं का आदर नहीं करते हैं। कश्मीर के पुंछ सेक्टर में पांच भारतीय सैनिकों की हत्या पर सरकार का रवैया दुत्कारने वाला रहा है। रक्षा मंत्री एके एंटनी ने तो हद ही कर दी, इस मामले में उन्होंने संसद में ऐसा बयान दिया कि जिससे जनता और देश दोनों शर्मसार हो गए। एंटनी ने पाकिस्तान का बचाव करते हुए कहाकि पुंछ में पांच भारतीय सैनिकों की हत्या पाकिस्तानी सेना की वर्दी पहने हुए लोगों ने की, जबकि रक्षा मंत्रालय ने साफ कहा था कि हमलावरों के साथ पाक सैनिक भी थे। उस समय पाक को दोषमुक्‍त बताने वाले इस बयान पर जमकर हंगामा हुआ था। इसके अलावा निर्भया कांड में यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी की चुप्पी से भी सरकार और पार्टी के प्रति गलत संदेश गया।

काँमनवेल्थ गेम ने डुबोई लुटिया

मैं समझता हूं कि एशियन गेम के बाद काँमनवेल्थ खेलों का आयोजन देश में खेलों का सबसे बड़ा आयोजन था, लेकिन ये आयोजन लूट का आयोजन बनकर रह गया। इसमें खेलों की उतनी चर्चा नहीं हुई, जितनी खेल के आयोजन मे हुए घोटाले की हुई। यहां तक की कांग्रेस के दिग्गज नेता को जेल तक की हवा खानी पड़ी। आखिरी समय में जिस तरह से पीएमओ ने इस आयोजन की खुद माँनिटरिंग शुरू की, अगर पहले ही ऐसा कुछ किया गया होता तो विश्वसनीयता बनी रहती।  इसके अलावा 2 जी घोटाले  ने तो सरकार के मुंह पर कालिख ही पोत दी, जिसमें महज 45 मिनट में देश को 1.76 लाख  करोड का चूना लगा।

मंत्रियों और नेताओं ने जनता से बनाई दूरी 

ये तो कांग्रेस का हमेशा से चरित्र रहा है। उनके सांसद विधायक चुनाव जीतने के बाद जनता से संवाद खत्म कर लेते हैं। दोबारा क्षेत्र में वह तभी जाते हैं जब चुनाव आ जाता है। छोटे मोटे नेताओं की बात तो दूर इस बार जब सोनिया गांधी अमेठी पहुंची तो वहां के लोगों ने राहुल की शिकायत की और कहाकि राहुल चुनाव जीतने के बाद यहां उतना समय नहीं दिए, जितना देना चाहिए था। यही वजह कि अमेठी में जहां दूसरी पार्टियों के झंडे नहीं लगते थे, इस बार ना सिर्फ बीजेपी बल्कि आप पार्टी का भी झंडा देखने को मिला। राहुल की हालत इतनी पतली हो गई कि उन्हें मतदान वाले दिन अमेठी में घूमना पड़ा ।

सीबीआई को बनाया तोता 

राजनीति को थोड़ा बहुत भी समझने वाले जानते हैं कि यूपीए की सरकार देश में 10 साल इसलिए चली कि उसके पास सीबीआई थी और सरकार ने उसे तोता बनाकर रखा था। मुलायम, मायावती, स्टालिन के स्वर जरा भी टेढ़े होते तो सीबीआई सक्रिय हो जाती थी, ये सब सीबीआई से बचने के लिए सरकार को समर्थन देते रहे। हालाँकि सरकार के काम काज का ये कई बार विरोध भी करते रहे, लेकिन समर्थन वापस लेने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। राजनाथ सिंह भी समय समय पर इशरत जहां मुठभेड़ मामले की सीबीआई की जांच को लेकर कांग्रेस पर निशाना साधते रहे हैं, वहीं भ्रष्‍टाचार के खिलाफ बिगुल बजा सरकार की चूलें हिलाने वाले अन्‍ना हजारे भी कांग्रेस पर सीबीआई दुरुपयोग के आरोप लगाते रहे हैं।

युवाओं को जोड़ने में राहुल नाकाम 

युवाओं की बात सिर्फ  राहुल  के भाषण में हुआ करती थी, राहुल या फिर सरकार ने इन दस सालों में ऐसा कुछ नहीं किया, जिससे युवाओं को सरकार पर भरोसा हो। सरकार और कांग्रेस नेताओं को पहले ही पता था कि इस पर 18 से 22 साल  के लगभग 15 करोड़ ऐसे मतदाता हैं जो पहली बार अपने मताधिकार का प्रयोग करने जा रहे हैं, इसके बाद भी सरकार ने कोई मजबूत ठोस प्लान युवाओं के लिए तैयार नहीं किया। केंद्र सरकार के तमाम मंत्रालयों में लाखों पद रिक्त हैं, एक अभियान चलाकर इन्हें भरा जा सकता था, लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया। इस चुनाव में बेरोजगारी एक महत्वपूर्ण मुद्दा था, ये बात यूपीए सरकार के घोषणा पत्र में तो था, लेकिन दस साल सरकार इस मसले पर सोती रही। यूपीए की हार की एक प्रमुख वजह बेरोजगारी भी है।

सोशल मीडिया और तकनीक से परहेज

यूपीए के फेल होने की एक ये भी खास वजह हो सकती है। नरेन्द्र मोदी जहां तकनीक के इस्तेमाल के मामले में अव्वल रहे, उन्होंने आक्रामक और हाईटेक प्रचार का सहारा लिया, वही राहुल गांधी पुराने ढर्रे पर चलते रहे। सोशल नेटवर्किंग का भी पार्टी उतना इस्तेमाल नहीं कर पाई जितना बीजेपी या फिर आम आदमी पार्टी ने किया। कहा गया कि राहुल ने पांच सौ करोड़ रुपये खर्च किए हैं, लेकिन मेरे हिसाब से तो प्रचार में वो केजरीवाल से भी पीछे रहे। राहुल ने एक दो चैनलों को इंटरव्यू दिया, लेकिन वो कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाए, मात्र सरकारी योजनाओं पर उबाऊ तरीके से बात करते रहे। ऐसे में लोगों ने उनकी बात को खारिज कर दिया। प्रियंका गांधी नीच राजनीति का बयान देकर सोशल मीडिया के निशाने पर रहीं, इससे भी पार्टी को मुश्किल का सामना करना पड़ा।

कमजोर चुनावी रणनीति 

सरकार हर  मोर्चे पर फेल रही, उसके पास ऐसा कुछ नहीं था, जिसे गिना कर वो वोट हासिल कर सके। ऐसे में उन्हें चुनाव की रणनीति पर अधिक काम करने की जरूरत थी,  लेकिन अनुभवहीन राहुल ऐसा कुछ करने में नाकाम रहे, वहीं पार्टी के नेता भी खुद भी अलग थलग रहे। ऐन चुनाव के वक्त तमाम नेताओं ने चुनाव लड़ने से इनकार किया, इससे भी पार्टी की किरकिरी हुई। दूसरी ओर बीजेपी की चुनावी रणनीति अव्वल दर्जे की रही, इसके अलावा मोदी ने जिस आक्रामक शैली में प्रचार किया, उससे कांग्रेस पूरी तरह बैकफुट पर रही।



Tuesday, 25 June 2013

सोनिया, मनमोहन ने पर्यटकों का रास्ता रोका !

त्तराखंड की तबाही के आगे कश्मीर की ये घटना भले ही आपको गंभीर न लगे, चूंकि इस वक्त मैं यहां मौजूद हूं और आतंक की इस घटना को करीब से देख भी रहा हूं, या यूं कहूं कि कुछ हद तक भुक्तभोगी भी हूं, तो गलत नहीं होगा। सच में इस वक्त कश्मीर के जिस भयावह हालात रुबरू हूं, उसे शब्दों में बांधना आसान नहीं है। ये तो आपको पता ही है कि  भारत प्रशासित कश्मीर की राजधानी श्रीनगर में कल यानि सोमवार को एक चरमपंथी हमले में आठ सैनिकों की मौत हो गई, जबकि अर्धसैनिक सुरक्षा बल का एक जवान गंभीर रूप से घायल हो गया। दो दिन बाद पवित्र अमरनाथ यात्रा की शुरुआत होनी है, इसके मद्देनजर सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम सड़कों पर दिखाई दे रहे हैं, लेकिन इन सुरक्षा इंतजामों के बीच भी जब आतंकी सुरक्षा बलों पर ही हमला करने में कामयाब हो जाते हैं, इतना ही नहीं हमले के बाद वो सुरक्षित भाग निकलने में भी कामयाब हो जाते हैं, तब मुझे लगता है कि अपने सुरक्षा प्रबंध को एक बार जांचना जरूरी है। ये तो हुई एक बात ! दूसरी बात,  आप सब जानते हैं कि कश्मीर में रोजाना 8-10 हजार पर्यटक आते हैं। इस वक्त तो देश और विदेश के दो लाख से ज्यादा पर्यटक कश्मीर में अपनी छुट्टियां बिताने आए हैं, पर सच बताऊं कि आतंकी हमले से पर्यटकों को उतनी मुश्किल नहीं हुई, जितनी आज मनमोहन और सोनिया गांधी के आने से हो रही है। इन दो लोगों ने दो लाख पर्यटकों को बंधक बना दिया।

सुबह जब मैं पहलगाम से श्रीनगर के लिए चला तो बातचीत में कार के ड्राईवर ने कहाकि "साहब केंद्र की सरकार कश्मीर को लेकर ऐसी बड़ी-बड़ी बातें करती है, जिससे देश के बाकी हिस्से में लोगों को लगता है कि हमारे लिए इतना कुछ किया जा रहा है, फिर भी कश्मीरी सरकार के खिलाफ हैं और ये जहर उगलते रहते हैं,  लेकिन सच्चाई ये नहीं है, हम कम में गुजारा करने को तैयार हैं, पर हमारी बुनियादी मुश्किलों के प्रति सरकार संवेदनशील तो हो। हमारी बुनियादी जरूरतें पूरी करना तो दूर कोई सुनने को राजी नहीं है। आतंकी हमले में बेकसूर कश्मीरियों को जान गंवानी पड़ रही है, लेकिन सरकार कभी संवेदना के दो शब्द नहीं बोलती। हालाकि मैं तो सुनने में ही ज्यादा यकीन करता हूं, लेकिन मुझे लगा कि ये ड्राईवर जमीनी हकीकत बयां कह रहा है, लिहाजा मैने उससे कहा कि आतंकवादी हमले में सिर्फ कश्मीरी ही नहीं सुरक्षा बल के जवान भी मारे जाते हैं। इसके बाद तो ड्राईवर ने सरकार के प्रति जो गुस्सा दिखाया, मैं खुद सुनकर हैरान रह गया। बोलने लगा साहब हम घटनाओं को कश्मीर में खड़े होकर देखते हैं और आप दिल्ली से इसे देखते हैं। हम दोनों देख रहे हैं कि हमला हुआ है और सुरक्षा बल के लोग मारे गए हैं। जितनी तकलीफ आपको है, उससे कम तकलीफ मुझे भी नहीं है। लेकिन बात तो सरकार की है। अगर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी इस हमले को लेकर गंभीर होती तो आज कश्मीर का दौरा रद्द कर सुरक्षा बलों को हिदायत देती कि आतंकियों को ढूंढ कर मारो। लेकिन यहां तो कल हमला हुआ, एक घंटे ये खबर जरूर न्यूज चैनलों पर थी, उसके बाद सब अपने काम में जुट गए। रही  बात सुरक्षा बलों की तो उन्हें मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की सुरक्षा के मद्देनजर उन रास्तों की निगरानी में लगा दिया गया, जहां से उन्हें गुजरना है।

सच कहूं तो मैं ड्राईवर की बातें सुनकर हैरान था, क्योंकि मुझे भी लग रहा था कि वाकई बात तो इसकी सही है। सूबे में शांति ना हो और विकास की घिसी पिटी बातें लोगों को सुनाई जाएं, ये भी तो बेमानी ही है। ये सब बातें चल ही रही थीं कि श्रीनगर से लगभग 25 किलोमीटर पहले लंबा जाम दिखाई दिया। गाड़ी खड़ी कर ड्राईवर नीचे उतरा ये पता लगाने की जाम क्यों लगा है। ड्राईवर पांच मिनट में वापस आया और बताया कि आगे चार पांच किलोमीटर तक इसी तरह जाम है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की सुरक्षा के मद्देनजर श्रीनगर को सील कर दिया गया है, जब तक उनके सभी कार्यक्रम खत्म नहीं हो जाते तब तक हमें यहीं रुकना होगा। घड़ी देखा, दोपहर के लगभग 12 बजने वाले थे, शाम यानि छह बजे के बाद हम श्रीनगर में घुस पाएंगे, ये सुनकर तो मैं फक्क पड़ गया। दिमाग में खुराफात सूझा, मैने कहाकि मीडिया का कार्ड तो मेरे पास है ही, सुरक्षा बलों को बताता हूं कि मैं प्रधानमंत्री के कार्यक्रम को ही अटेंड करने दिल्ली  से आया हूं, कोशिश करते हैं, शायद कामयाबी मिल जाए। मेरे कहने पर ड्राईवर ने गाड़ी को गलत साइड़ से आगे बढ़ाया, सुरक्षा बलों ने रोकने की कोशिश की, उसे बताया कि मीडिया से हैं, उसने कार्ड देखा और फिर मेरी गाड़ी यहां से आगे निकल आई। ये प्रक्रिया मुझे कई जगह दुहरानी पड़ी। मैं यहां से जरूर निकल आया, लेकिन दूसरे पर्यटकों की हालत देख मुझे वाकई तकलीफ हुई।

आज 25 जून मेरे लिए कुछ खास है, मेरी छोटी बेटी का जन्मदिन है। बेटी की इच्छा के मुताबिक हमने बर्थडे केक काटने के लिए कश्मीर के "हाउस वोट" को चुना। अब सुरक्षा बलों के साथ आंख-मिचौली करते हुए मैं श्रीनगर में लालचौक तक आ गया। यहां से बस तीन किलोमीटर की दूरी पर वो हाउस वोट है, जहां मेरी बुकिंग है। लेकिन इस पूरे इलाके को एसपीजी ने अपने कब्जे में ले रखा है, लिहाजा यहां से आगे जाना बिल्कुल संभव नहीं था। मैने अपने हाउस वोट के मैनेजर को फोन किया, उसने तो पूरी तरह हाथ ही खड़े कर दिए और कहा सर अभी इधर आना बिल्कुल ठीक नहीं होगा, क्योंकि सभी हाउस वोट को खाली करा लिया गया है। शाम के बाद ही पर्यटकों को एंट्री मिलेगी। इसके बाद तो मेरी हिम्मत भी टूट गई और मैं लाल चौक में अपने न्यूज चैनल के दफ्तर में आ गया।

यहां पता चला कि पर्यटकों का कल रात से बुरा हाल है। ना सिर्फ हाउस वोट बल्कि आस पास के होटल मालिकों को भी कह दिया गया कि वो सुबह नौ बजे तक पर्यटकों को होटल के बाहर निकाल दें और उन्हें साफ कर दें कि वो शाम से पहले वापस ना आएं। अब आप आसानी से सरकार की संवेदनहीनता को समझ सकते हैं। क्या सभ्य समाज में किसी को भी  ये इजाजत दी जा सकती है कि एक शहर को पूरे दिन बंद कर दो। दो वीआईपी की वजह से दो लाख पर्यटक होटल और हाउस वोट का पेमेंट करने के बाद भी वहां जा नहीं पा रहे हैं। मेरा सवाल है कि सुरक्षा प्रबंध के नाम पर आखिर दो लाख पर्यटकों को पूरे दिन कैसे बंधक बनाया जा सकता है ? आम आदमी को इसका जवाब कौन देगा ?

अगर अपनी बात करुं तो मुझे लगता है कि मेरा और राजनीतिज्ञों का तो पिछले जन्म की दुश्मनी है। हालत ये है कि तू डाल-डाल तो मैं पात-पात का खेल चल रहा है। सियासियों के पैतरेबाजी, झूठे वायदे और बनावटी बातें सुन-सुन कर थक गया, तम मैने तय किया कि कुछ दिन परिवार के साथ इन सबको दिल्ली में छोड़कर कश्मीर आ जाता हूं, लेकिन ये राजनीतिक मेरा पीछा यहां तक करेंगे, मैने वाकई नहीं सोचा था। लेकिन आज जब मनमोहन और सोनिया ने दिल्ली से हजार किलोमीटर दूर श्रीनगर (कश्मीर) में मेरा रास्ता रोका तो मैं सच में हिल गया। अब आगे मुझे कोई भी यात्रा फाइनल करने के पहले सौ बार सोचना होगा। मैं फिर दोहराना चाहूंगा कि मैं तो सुकून से अपने आफिस में बैठकर इन नेताओं की ब्लाग पर ही सही, लेकिन खाल खींच तो रहा हूं। लेकिन बेचारे दूसरे पर्यटक जो रास्ते में फंसे हैं, जहां ना खाने को कुछ है और ना ही पीने को। वो बेचारे तो अपनी किस्मत को ही कोस रहे होंगे।

मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी ने जहां लोगों का रास्ता रोका, वहीं अलगाववादियों ने इन दोनों को अपनी ताकत दिखाने के लिए बंद का ऐलान कर दिया। हालत ये हो गई है कि पूरा श्रीनगर ही नहीं बल्कि कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा पूरी तरह बंद हो गया। इससे सबसे ज्यादा मुश्किल पर्यटकों को ही होनी थी जो हुई भी। बेचारे पर्यटक एक कप चाय के लिए  तरस गए। चलते चलते आपको ये भी बता दें कि अभी हमारी मुश्किल कम नहीं हुई है, क्योंकि मनमोहन और  सोनिया गांधी ये जानते हुए भी उनके यहां रहने से पूरा श्रीनगर बंद हो गया है, वो आज श्रीनगर में रुक भी रहे हैं। कल यानि बुधवार को दोपहर बाद वापस होगें, तब तक पर्यटकों का क्या हाल होगा, भगवान मालिक है।


नोट : मित्रों वापस लौट कर आता हूं, फिर आपको कश्मीर के कई रंग  दिखाऊंगा। खासकर धरती के स्वर्ग को कौन बना रहा है नर्क !





Wednesday, 19 September 2012

अब अर्थशास्त्री पीएम को "अर्थ " का सहारा !


दिल्ली में मेरी और मनमोहन सिंह दोनों की हालत पतली है। मैं तो खैर दवा ले रहा हूं, जल्दी दुरुस्त  हो जाऊंगा, लेकिन मनमोहन सिंह को सामान्य होने में टाइम लग सकता है। आज तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष ममता बनर्जी ने सरकार से समर्थन वापस लेने का ऐलान कर दिया, हालांकि ये फैसला आसान नहीं था, उन्हें अपने नेताओं को एकजुट करने में काफी मशक्कत करनी पड़ी। वैसे  सच बताऊं दो एक दिन में टीएमसी में टूट की खबर मिले तो इसमें हैरान होने की जरूरत नहीं है।

आपको पता है कि कोयले की कालिख में इस बार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी नहीं  बच पाए। संसद का पूरा सत्र शोर शराबे की भेंट चढ़ गया। विपक्ष ने इस  बार सीधे प्रधानमंत्री को निशाने पर लिया और उनका इस्तीफा मांगा। अब प्रधानमंत्री और सरकार पर हमला होता देख कांग्रेस ने तुरुप चाल चली और आर्थिक सुधार के नाम पर देश में रिटेल में एफडीआई को मंजूरी, डीजल की कीमत बढ़ाई गई और रसोई गैस में सब्सिडी समाप्त करने का ऐलान कर बहस की दिशा ही बदल दी।

यूपीए सरकार को लगातार परेशान करने वाली ममता बनर्जी की साख भी इस बार दांव पर लगी हुई थी। राष्ट्रपति के चुनाव में पहले उन्होंने  प्रणव  मुखर्जी के विरोध का फैसला  किया, बाद  में उन्होंने उनका साथ दिया। जब भी पेट्रोल की कीमतें बढीं ममता ने  उसका  विरोध किया, लेकिन उनकी सुनी नहीं गई। ममता हमेशा कहती रहीं सरकार आम आदमी के हितों की अनदेखी कर रही है। इन सबके बाद भी वो सरकार में बनी रहीं। इससे जनता में ये संदेश जा रहा था कि वो सिर्फ गीदड भभकी देती हैं। ममता को इस छवि से अलग होना था, लिहाजा इस बार उन्होंने सरकार समर्थन वापस लेने और अपने मंत्रियों के इस्तीफे का ऐलान कर दिया।

खैर अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह राजनीति  की ए बी सी भले ना जानते हों, पर उन्हें अपने "अर्थ" और अंकगणित पर पूरा भरोसा है। उन्हें पता है कि अंकगणित को अपने पक्ष में करने के लिए कैसे अर्थ का इस्तेमाल किया जाता है। देश की राजनीति में मनमोहन सिंह पहले प्रधानमंत्री हैं जिन पर सरकार को बचाने के लिए सांसदों की खरीद फरोख्त का आरोप लगा है। यहां तक की संसद में पहली बार सांसदों ने पैसे लहराए और कहा कि ये पैसा उन्हें सरकार को बचाने के लिए दिए गए हैं। अब ऐसा तो हो नहीं सकता कि इन आरोपों में बिल्कुल भी सच्चाई ना हो, खैर मामला अभी विचाराधीन है।

सरकार से टीएमसी का समर्थन वापस ले लेने के बाद अब सरकार की नजर मुलायम सिंह यादव और मायावती पर है। मुझे लग रहा है कि आज पहली बार न सिर्फ सरकार को बल्कि  समाजवादी पार्टी को भी पूर्व समाजवादी पार्टी के नेता अमर सिंह याद आ रहे होंगे। अगर वो  आज पार्टी में होते तो अब तक "सौदा" हो गया होता। उन्हें पता है कि कैसे सरकार गिराई और बचाई जाती है। ये मैं इसलिए कह रहा हूं कि पिछली बार जब वामपंथियों  ने सरकार से समर्थन  वापस लिया था, उसके कुछ देर बाद ही अमर सिंह और मुलायम सिंह यादव सरकार के साथ खड़े थे, जबकि  पहले खुद मुलायम सिंह भी न्यूक्लीयर डील के खिलाफ थे।  

खैर न्यूक्लीयर डील को आम जनता इतना नहीं समझ रही थी, लेकिन  डीजल, रसोई गैस और रिटेल में एफडीआई के असर को आम जनता  भी खूब समझती है। इसलिए मुलायम  के  लिए भी सरकार के साथ खड़े होना इतना आसान नहीं होगा। लेकिन ये राजनीति है, मुलायम सिंह और उनकी पार्टी इस मामले में हमेशा अविश्वसनीय रही है। वो किसी हद तक जा सकते हैं। अच्छा मुलायम को ये भी डर है कि कहीं ऐसा ना हो कि मायावती सरकार के पाले में खड़ी हो जाए  और जो मंत्री पद टीएमसी ने खाली किया है, उसे  वो अपने सांसदों से भर दें। मुलायम की कोशिश होगी कि वो सरकार के करीब आएं तो मायावती और दूर रहें।

बहरहाल देश  की राजनीति पर अमेरिका में भी काफी मंथन चल रहा है। सरकार को बचाने के लिए मुझे लगता है कि वहां आपात बैठकें जरूर चल रही होंगी, क्योंकि अमेरिकी  हितों  की पूर्ति जितना  मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते हो सकता है, उतना  और किसी के रहने पर नहीं हो सकता। वैसे भी वहां राष्ट्रपति का चुनाव चल रहा है, इसीलिए तो यहां जल्दबाजी में एफडीआई को मंजूरी  दी गई थी, अगर सरकार रोलबैक करती है तो प्रधानमंत्री को अमेरिका की भी नाराजगी झेलनी पड़ सकती है, जो सरकार कभी नहीं चाहेगी। बहरहाल ममता ने भी  एक तरह से सरकार को दो दिन का वक्त दे दिया है, ऐसे में अब वालमार्ट की  भूमिका बढ़ गई है। सरकार के पक्ष में सख्या करने के लिए वालमार्ट अपने खजाने का ताला खोल देगा। अब देखना है कि वालमार्ट के खजाने में कितनी ताकत है।

अच्छा ऐसे समय में लालू  यादव जैसे लोगों की पूछ थोड़ा बढ़ जाती है। यूपीए एक में रेलमंत्री  रहे लालू को अगर कांग्रेस थोड़ा सा भी स्पेस दे तो  वो आज सरकार में सांख्यकी मंत्री बनने को तैयार हो जाएंगे। ममता के समर्थन वापसी के ऐलान से जहां सरकार सकते मे है, वहीं लालू अपनी कीमत बढ़ाने के लिए कह रहे हैं कि ये समर्थन वापसी का ड्रामा है। समर्थन शुक्रवार को क्यों वापस होगा, आज ही क्यों नहीं लिया। बहरहाल अभी तो सरकार  की  नजर समाजवादी पार्टी पर है, क्योंकि सरकार भी  जानती  है कि इन्हें "मैनेज"  करना सबसे ज्यादा आसान है।

चलिए कल को जोड़ तोड़ से ये सरकार भले बच जाए, लेकिन  इतना तो  साफ है अब इस सरकार की और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की साख दागदार हो गई है। ये तो पहले ही साफ  हो चुका है आजाद भारत में ये सरकार देश की सबसे भ्रष्ट सरकार रही है। जिसमें प्रधानमंत्री समेत एक दर्जन से ज्यादा मंत्रियों पर करप्सन के आरोप  हैं। कई मंत्री और नेता जेल तक जा चुके हैं।

आखिर में एक चुटकुला  सुनाते हैं। यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी ने कहा है कि वो सरकार से बात करेंगी। हाहाहहाहाहहाह। सोनिया जी लगता है वाकई आपकी तबियत ठीक नहीं है। रिटेल में एफडीआई,  डीजल और रसोई के दाम बढाने पर पूरे देश में बवाल मचा हुआ है। 20 सितंबर को भारत बंद है। यूपीए के सहयोगी और सरकार को बाहर से समर्थन देने वाले इस बंद का समर्थन कर रहे हैं। ममता बनर्जी ने खुद आपसे तीन दिन पहले बात कर पूरे मामले की जानकारी दी और आप आज कह रही हैं कि अब सरकार से बात करेंगी। अच्छा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अब कोई बड़ा फैसला लेने के पहले आपसे बात नहीं करते हैं, यही कहना चाहती हैं ना आप। ऐसी बातें क्यों कर रही हैं, जिससे लोग आपके ही ऊपर हंसे.....
 

Sunday, 16 September 2012

सोनिया भी नहीं हटा पाएंगी मनमोहन को !


पहले एक भ्रम दूर कर दूं आप सबका। अगर आपको  लगता है कि यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को हटा सकती हैं, तो आप गलत सोच रहे हैं।  आज मनमोहन सोनिया की वजह से नहीं बल्कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की वजह से प्रधानमंत्री बने  हुए हैं। अमेरिका में कारपोरेट जगत लगातार दबाव बना रहा था कि अगर भारत में अभी एफडीआई पर फैसला नहीं हुआ तो फिर देर हो जाएगा, क्योंकि ये सरकार अब वापस नहीं आने वाली, और दूसरा प्रधानमंत्री कम से कम मनमोहन जितना कमजोर नहीं होगा। अमेरिका के कारपोरेट जगत ने अमेरिकी प्रशासन को समझाया कि एफडीआई के फैसले  पर मुहर लगाने के बाद भी वहां सरकार ज्यों की त्यौं बनी रहेगी। दरअसल अमेरिका को पता है कि यहां नेताओं की कीमत कितनी है। न्यूक्लीयर डील के दौरान क्या हुआ था ? वामपंथियों ने सरकार से समर्थन वापस लिया तो क्या सरकार गिर गई ? इस बार भी नहीं गिरेगी। अमेरिका कारपोरेट जगत देश में सक्रिय हो गया है। एफडीआई के मसले से नाराज ममता, मुलायम, मायावती को मनाने की जरुरत कांग्रेस को नहीं पड़ेगी, वो अमेरिकी मना लेंगे, उन्हें पता है इनकी कीमत। एफडीआई के फैसले पर मुहर लगने से वहां राष्ट्रपति बराक ओबामा  का चुनाव भी आसान हो गया है। राजनीति पर बात करने से पहले दो बातें मीडिया की भी  हो जाए, वरना लेख से मैं न्याय नहीं कर पाऊंगा.......


देश सच में कठिन दौर से गुजर रहा है, ऐसे में जरूरत है सोशल मीडिया अपनी जिम्मेदारी निभाए। अगर आपको लगता है कि प्रिंट और इलैक्ट्रानिक मीडिया आज जनता की आवाज बनकर हमारी नुमाइंदगी करेगी, तो आप बहुत बड़े भ्रम में हैं। मैं देख रहा हूं कि आज सड़क छाप राजनीति में मीडिया की भूमिका सिर्फ एक मदारी जैसी है, जो डमरू बजाकर भीड़  इकट्ठा करती है, फिर तरह तरह के मुंह बनाकर लोगों का मनोरंजन करती है। इसलिए वक्त आ गया है कि सोशल मीडिया अपनी जिम्मेदारी समझे और कम से कम सही गलत की जानकारी लोगों को दे। अगर आज बात की जाए इलैक्ट्रानिक मीडिया की, तो आप देखेगें कि रोजाना शाम को न्यूज चैनलों पर चौपाल लगी हुई है। यहां वही फुंके राजनीतिक चेहरे दिखाई देते रहते  हैं। सच कहूं तो टीवी पर ऐसी सियासी जमात दिखाई देती है, जिनकी उनकी पार्टी में ही कोई हैसियत नहीं है। ये हम सब बखूबी जानते हैं, लेकिन ये एक कोरम है, जिसे पूरा करना जरूरी है। प्रिंट की बात करें तो स्टेशन पर सबसे कम दाम वाले अखबार की बिक्री ज्यादा होती है, वो इसलिए कि लोग अखबार बिछा कर बैठते हैं। पान की दुकानों पर अंग्रेजी के अखबार ज्यादा बिकते हैं क्योंकि उसमें ज्यादा पेज होते हैं और जिसमें पान वाला ग्राहकों को पान लेपेट कर देता है। घरों में अखबार एक स्टेट्स सिंबल बन गया है कि बाबू साहब के यहां इतने अखबार आते हैं। जिनके घर में छोटे बच्चे हैं, वहां अखबार का इस्तेमाल क्या होता है, आप सब जानते हैं।

 अच्छा मीडिया की इस हालत के लिए कोई और नहीं हम सब ही जिम्मेदार हैं। कोई सिरफिरा अगर देश की शान तिरंगे, राष्ट्रीय चिह्न, संसद और भारत माता के खिलाफ अनर्गल प्रलाप करता है तो हम उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हो जाते हैं। हम गलत काम का भी विरोध करने से परहेज करते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब अगर यही सब है, तो मुझे लगता है कि इस आजादी पर पाबंदी लग जानी चाहिए। अच्छा वो दिन कब आएगा जब मीडिया अपने भीतर भी झांकना शुरू करेगी ? नीरा राडिया के टेप में तमाम बड़े बड़े पत्रकारों का नाम आया, जो सत्ता की दलाली करते हैं। इस टेप में क्या है, किसका नाम है, मीडिया के लोग जानते हैं। लेकिन क्यों नहीं मीडिया के भीतर से ये मांग उठी कि इन्हें पत्रकारिता के अयोग्य घोषित कर दिया जाना चाहिए ? अगर मीडिया ऐसा नहीं कर सकती है तो क्या उसे भ्रष्ट्र मंत्री का इस्तीफा मांगने का हक है ? एक जनहित याचिका का निस्तारण करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मीडिया अपनी लक्ष्मण रेखा खुद तय करे। चलिए मीडिया लक्ष्मण रेखा भले तय ना करे, लेकिन जिम्मेदारी तो तय कर ले।

आज हालत क्या है ?  सब जानते हैं, जिस तरह से सिगरेट के पैकेट पर लिखा रहता है कि सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। उसके बाद हर शहर और राज्य में सिगरेट  की बिक्री पर कोई रोक टोक  नहीं होती,  ये धडल्ले से बिकती है। थोड़ा और शोर शराबा मचा तो सिगरेट बनाने वाली कंपनियों को कहा गया कि वो सिगरेट के डिब्बे पर एक काला चित्र भी  बनाएं, बस हो गई कार्रवाई। ठीक उसी तरह इलैक्ट्रानिक मीडिया ने भी चैनल पर चलाना शुरू कर दिया है कि " अगर आपको चैनल पर दिखाई जाने वाले किसी खबर पर एतराज है तो आप एनबीए को सुझाव दे सकते हैं। अरे मेरा मानना है कि जब सिगरेट पीना वाकई स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है तो इसे देश में बननी ही क्यों चाहिए और बिक्री क्यों होनी चाहिए ? मीडिया के मालिकान अगर ईमानदारी से सोचें तो क्या उन्हें नहीं पता  है कि हम कहां से कहां जा रहे हैं, क्या क्या सुधार की जरूरत है ? सभी सब कुछ  पता है, पर नहीं करेंगे, क्योंकि अब मीडिया मिशन नहीं प्रोफेशन हो गई है।

कई बार मुझे लगता है कि देसी मीडिया अपनी विश्वसनीयता भी खोती जा रही है। देखिए ना इलैक्ट्रानिक मीडिया हो या फिर प्रिंट मीडिया। सभी यूपीए सरकार की कारगुजारियों को जनता के सामने लाने  में कोई कसर बाकी नहीं रखी। सभी ने कहा कि देश के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का अर्थशास्त्र फेल हो गया है। प्रधानमंत्री कमजोर और असहाय नजर आ रहे हैं। देश मे इससे ज्यादा भ्रष्ट्र सरकार कभी नहीं रही। मनमोहन को मजबूत नहीं मजबूर प्रधानमंत्री कहा गया। कुछ लोगों ने तो उन्हें चोरों का सरदार तक कहा, क्योंकि उनके  मंत्रिमंडल में चोरों की संख्या कहीं ज्यादा है। हर बड़े मंत्री पर कोई ना कोई दाग है। अब देश की मीडिया ने प्रधानमंत्री तक को कोयले का गुनाहगार बता दिया। इसके बावजूद  कोई फर्क नहीं पड़ा। कभी सरकार ने सफाई देने की कोशिश नहीं की। लेकिन अमेरिकी  मैंग्जीन पहले टाइम ने फिर वहां के एक अखबार वाशिंगटन पोस्ट ने प्रधानमंत्री को कमजोर प्रधानमंत्री बताया तो हल्ला मच गया। पीएमओ सफाई देता फिर रहा है। इससे एक सवाल पैदा होता है कि देश के प्रधानमंत्री भारत की जनता और मीडिया के प्रति जवाबदेह हैं या अमेरिका के। अमेरिकी पत्रिका में उनके खिलाफ खबर छपने से इतनी बौखलाहट क्यों ?

इसका जवाब भी मैं आपको बताता हूं। आपको पता है कि अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव चल रहा है। वहां का कारपोरेट जगत लगातार व्हाइट हाउस पर दबाव बना रहा था कि भारत में जल्दी ही एफडीआई शुरू होनी चाहिए। कारपोरेट जगत ने समझाया कि इस समय वहां सबसे कमजोर प्रधानमंत्री हैं, इनके रहते ही काम हो सकता है। वरना अब देश में कभी भी चुनाव हो सकता है और अब कांग्रेस की वापसी मुश्किल है। अमेरिकी राष्ट्रपति से कहा गया कि न्यूक्लीयर डील के दौरान भी सरकार से एक दल ने समर्थन वापस ले लिया था, पर वहां समर्थन के लिए दूसरे दलों को मैनेज कर लिया गया था। इस बार भी अगर कोई समर्थन वापस लेगा तो भी सरकार नहीं गिरेगी। आपको पता है देश में एफडीआई के मुद्दे पर जितनी बैठकें नहीं हुई होंगी, उससे ज्यादा बैठकें अमेरिका में हो चुकी हैं। आज अपनी चुनावी सभाओं में भी अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत मे एफडीआई का रास्ता साफ हो जाने को अपनी उपलब्धि बता रहे हैं।

सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि आज एफडीआई के मुद्दे पर भले कुछ राजनीतिक दल जिसमे तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और द्रमुक शोर शराबा कर रहे हैं। कुछ  लोग समर्थन वापसी तक की धमकी दे रहे हैं, पर सरकार यूं ही चलती रहेगी। मनमोहन सिंह का कुछ नहीं होने वाला है। शोर मचाने वाले दलों को अमेरिकी कारपोरेट जगत खुश कर देगा। फिर ये खामोश हो जाएंगे, जैसे न्यूक्लीयर डील के दौरान हुआ था। वामपंथी गए तो मुलायम तुरंत उनका साथ छोड़कर सरकार के पास आ गये, जबकि मुलायम की कोई बात भी नहीं  मानी गई  थी। रोजाना सरकार के खिलाफ जहर भी उगल रहे थे, लेकिन चुपचाप  पड़े रहे।
मुझे तो हंसी आती है जब मैं सुनता हूं कि सोनिया गांधी ने त्याग किया और मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बना दिया। लेकिन ये बात बिल्कुल गलत है। अगर सोनिया गांधी ने उन्हें  प्रधानमंत्री बनाया होता तो अब तक कब का उन्हें बाहर कर चुकी होतीं। साबित हो गया है कि ये कमजोर प्रधानमंत्री हैं, साबित हो चुका है कि इनके राज में भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला, साबित हो चुका  है कि मंत्रियों पर मनमोहन का नियंत्रण नहीं है। ऐसी एक भी काबिलियत नहीं जिसकी वजह से ये प्रधानमंत्री बने रहें, फिर क्या वजह है कि मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री हैं। आप जानना चाहते हैं तो सुन लीजिए अमेरिका की वजह से मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री हैं।  आज अगर सोनिया गांधी भी चाहें तो मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री के पद से नहीं हटा सकतीं। इन्हें जब कभी हटाया जाएगा तो अमेरिका ही हटायेगा। इसीलिए अमेरिका जो चाहता है, वो काम मनमोहन सिंह तुरंत कर देते हैं। हां वो बस इस बात की गारंटी लेते हैं कि सरकार नहीं जाएगी और मैं ही प्रधानमंत्री बना रहूंगा।

एक बात बताइये अमेरिकी अखबार वाशिंगटन पोस्ट में एक खबर छपने  का नतीजा ये हुआ कि सरकार ने सबसे विवादित मुद्दे रिटेल में एफडीआई को मंजूरी दे दी। जबकि देश के सारे चैनल और अखबार इसके बारे में लिख रहे हैं, सरकार के सहयोगी दलों की ओर से विरोध किया जा रहा है और प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि हम फैसला वापस नहीं लेगें। आप आसानी से समझ सकते हैं कि कमजोर प्रधानमंत्री को आखिर ताकत कहां से मिलती है। इसके अलावा ये बात भी सही है कि विरोध कर रहे राजनीतिक दलों का मकसद भी एफडीआई को वापस करना नहीं बल्कि अपनी कीमत बढाना भर है, आखिर लोकसभा के चुनाव आने वाले हैं, ऐसे  में चुनाव के लिए पैसा भी तो चाहिए।

जिस देश में ऐसे हालात हो, लोकतंत्र खतरे में हो, मीडिया दिग्भ्रमित हो तो फिर उम्मीद किससे की जा सकती है। मुझे लगता है कि सोशल मीडिया को यहां एक महत्वपूर्ण भूमिका  निभानी होगी, सभी को  कोशिश करनी होगी कि देश की असल सच्चाई को  कैसे  आम आदमी तक पहुंचाया जाए। मैं एक बात यहां फिर दुहराना चाहता हूं कि

वतन की फिक्र कर नादां, मुसीबत आने वाली है।
तेरी बरबादियों के मशवरे हैं आसमानों में ।।
न समझोगे तो मिट जाओगे, ऐ हिन्दोस्तां वालों।
तुम्हारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानों में।।

Wednesday, 18 July 2012

क्योंकि मैं हूं सोनिया गांधी ...


मैं चाहे ये करुं, मैं चाहे वो करुं मेरी मर्जी। अरे अरे आप सब तो गाना गुनगुनाने लगे। ऐसा मत कीजिए मै बहुत ही गंभीर मसले पर बात करने जा रहा हूं। मैं इस बात को मानने वाला हूं कि देश की कोई भी संवेधानिक संस्था हो, उसकी गरिमा बनी रहनी चाहिए। मैं ये भी मानता हूं कि अगर संवैधानिक संस्थाएं कमजोर हुईं तो देश नहीं बचने वाला। अच्छा संवैधानिक संस्थाओं को बचाने की जिम्मेदारी जितनी संस्था के प्रमुखों की है, उससे कहीं ज्यादा हमारी और आपकी भी है। सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति चुनाव के ठीक पहले मतदाताओं को पांच सितारा होटल में लंच देकर चुनाव की आदर्श आचार संहिता को तोड़ा है, लेकिन निर्वाचन आयोग पूरी तरह खामोश है। मैं देखता हूं कि जब कहीं भी मामला सोनिया गांधी का आता है तो यही संवैधानिक संस्थाएं ऐसे दुम दबा लेतीं हैं कि इनकी कार्यशैली पर हैरानी होती है।
टीम अन्ना जब दागी सांसदों पर उंगली उठाती है, तो मैं उनका समर्थन करता हूं। लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, पप्पू यादव, ए राजा, सुरेश कलमाड़ी, मायावती ऐसे तमाम नेता हैं, जिनका नाम लेकर अगर कोई बात की जाए, तो मुझे लगता है कि कोई भी आदमी इन नेताओं के साथ खड़ा नहीं हो सकता, क्योंकि ये सब किसी ना किसी तरह करप्सन में शामिल हैं, सभी पर कोई ना कोई गंभीर आरोप है। लेकिन गिने चुने नेताओं को लेकर जब आप संसद पर हमला करते हैं और तब सबसे पहले मैं टीम अन्ना के खिलाफ बोलता हूं, क्योंकि मेरा मानना है कि संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर करके हमें ईमानदारी नहीं चाहिए। पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान की  जो हालत है ये इसीलिए है कि वहां संवैधानिक संस्थाएं कमजोर हो गई हैं। ऐसे में वहां तख्तापलट जैसी घटनाएं होती रहती हैं। आपको याद दिला दूं कि जिस तरह देश में एक ईमानदार पूर्व सेना प्रमुख जनरल वी के सिंह के साथ सरकार ने व्यवहार किया है, अगर वैसा पाकिस्तान में होता तो वहां सरकार नहीं रहती, बल्कि वहां का सेना प्रमुख तख्ता पलट कर सत्ता पर काबिज हो जाता। पर हमारे देश मे संवैधानिक संस्थाओं की मजबूती और उनके अनुशासन का ही परिणाम है कि आज भी देश में लोकतंत्र है और ये मजबूत भी है।

अब बात भारत निर्वाचन आयोग की। एक जमाना था कि निर्वाचन आयोग मे और रोजगार दफ्तर में कोई अंतर नहीं था। क्योंकि इन दोनों को नान परफार्मिंग आफिस माना जाता था। लेकिन पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषन ने बताया कि निर्वाचन आयोग का महत्व क्या है। उसके बाद दो एक और निर्वाचन आयुक्तों में भी शेषन की छवि दिखाई दी। पर अब धीरे धीरे निर्वाचन आयोग अपनी पुरानी स्थिति में पहुंचता जा रहा है। दस पंद्रह साल से लगातार चुनाव आचार संहिता की बहुत चर्चा हो रही है। यानि ग्राम प्रधान, ब्लाक प्रमुख, विधायक और सांसद के चुनाव में निर्वायन आयोग ये अपेक्षा करता है कि वोटों की खरीद फरोख्त ना हो, मतदाताओं को लालच ना दिया जाए, खर्चों की एक निर्धारित सीमा होती है, उसके भीतर ही उम्मीदवार चुनाव लड़े। इसके लिए देश भर में आयोग पर्यवेक्षक भेजता है। पर्यवेक्षक देखते हैं, जहां कहीं कोई उम्मीदवार अगर लोगों को दावत देता है, तो वो अनुमान लगाता है कि इस दावत में कितना खर्च हुआ होगा और ये पैसा उसके खर्च रजिस्टर में दर्ज कर दिया जाता है।

लेकिन देश के पहले नागरिक यानि राष्ट्रपति के चुनाव में आयोग की आचार संहिता कहां है ? मैं पूछना चाहता हूं आयोग से राष्ट्रपति के चुनाव में खर्च की सीमा कीतनी है ? इस चुनाव में पर्यवेक्षक कौन है ? आदर्श आचार संहिता तोड़ने वालों के खिलाफ रिपोर्द दर्ज कराने की जिम्मेदारी किसकी है ? वोटों की खरीद-फरोख्त पर नजर कौन रख रहा है? हो सकता है कि निर्वाचन आयोग को ये सब दिखाई नहीं दे रहा हो, लेकिन राष्ट्रपति के यूपीए उम्मीदवार को जिताने के लिए सरकारी खजाने का खुलेआम दुरुपयोग किया जा रहा है। वोट हासिल करने के लिए राज्यों को पैकेज देने की तैयारी है। यूपी के अफसरों के साथ तो बैठक भी हो गई और 45 हजार करोड मिलना लगभग तय हो गया है। बिहार में कहां एक केंद्रीय विश्वविद्यालय को लेकर यूपीए सरकार के मंत्री कपिल सिब्बल और बिहार सरकार के बीच ठनी हुई थी, जेडीयू का समर्थन मिलते ही वहां दो केंद्रीय विश्वविद्यालय की बात मान ली गई। मायावती को कोर्ट के जरिए एक बड़ी राहत यानि आय से अधिक मामले को लगभग खत्म करा दिया गया। ये सब तो ऐसे मामले हैं जो आम जनता तक पहुंच चुकी हैं, इसके अलावा अंदरखाने क्या क्या सौदेबाजी हो रही होगी, ये सब तो जांच का विषय है। पर सवाल ये है कि कौन करेगा जांच और इस जांच का आदेश कौन देगा ?

अब चुनाव के लिए कल यानि 19 जुलाई को वोटिंग है। इसके ठीक पहले आज यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी ने सभी वोटर सांसदों को लंच पर निमंत्रित किया। लंच के बहाने वो प्रणव दा की जीत को पूरी तरह सुनिश्चित करना चाहती हैं। मेरा सवाल है कि अगर ग्राम प्रधान के चुनाव में उम्मीदवार बेचारा गांव वालों को एक टाइम का भोजन करा देता है तो उसके खिलाफ चुनाव की आदर्श आचार संहिता को तोड़ने का मामला दर्ज करा दिया जाता है। सोनिया गांधी दिल्ली के पांच सितारा होटल अशोका में लंच के बहाने सिर्फ यूपीए ही नहीं उन सब को भोजन पर बुलाया है जो प्रणव दा को वोट कर रहे हैं। मसलन समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी के अलावा कई और ऐसे दल आमंत्रित हैं, जिसने दादा को समर्थन देने का ऐलान किया है। मैं पूछता हूं कि क्या ये लंच चुनाव की आदर्श आचार संहिता के खिलाफ नही है? और अगर है तो क्या निर्वाचन आयोग इस मामले में रिपोर्ट दर्ज कराएगा ?

मुझे जवाब पता है कुछ नहीं होने वाला है। क्योंकि देश में राष्ट्रपति सोनिया बनाती हैं, उप राष्ट्रपति सोनिया बनाती हैं, प्रधानमंत्री सोनिया बनाती हैं, लोकसभा स्पीकर सोनिया बनाती हैं, मुख्यमंत्री सोनिया गांधी के सहमति से बनते हैं, राज्यपाल सोनिया गांधी की सहमति से बनते हैं, निर्वाचन आयोग के मुख्य निर्वाचन आयुक्त भी सोनिया बनाती हैं। ये सब देखने मे भले लगते हों कि लोग एक निर्धारित प्रकिया से चुन कर आते हैं या फिर सरकारी सिस्टम से बनते हैं, पर ये सब गलत है, सच है कि हर तैनाती में सोनिया की ना सिर्फ राय होती है बल्कि उनकी अहम भूमिका होती है।  ऐसे में भला सोनिया के खिलाफ ये मामला कैसे दर्ज हो सकता है। बहरहाल मामला भले ना दर्ज हो, पर मैडम..ये पब्लिक सब जानती है।




   

Wednesday, 11 July 2012

बदबू आती है ऐसे नेताओं से ...


च कहूं तो ऐसे नेताओं से बदबू आती है जो जनता की भावनाओं को समझने के बजाए उनकी खिल्ली उड़ाते हैं। पहले हम गृहमंत्री पी चिदंबरम को गंभीर नेता मानते थे, लेकिन कल जिस तरह उन्होंने मंहगाई के मुद्दे पर गैर जिम्मेदाराना बयान दिया, उससे तो चिदंबरम सिर्फ मेरे ही नहीं देश भर के लोगों की नजरों से गिर गए. और मेरा विश्वास है आदमी पहाड़ से गिरने के बाद एक बार उठ सकता है, लेकिन समाज की नजरों से गिरने के बाद उठना मुश्किल है।
जानते हैं चिदंबरम ने क्या कहा। उनसे बात मंहगाई की हो रही थी, चिदंबरम में कहा कि खामखाह देश में मंहगाई को तूल दिया जा रहा है। ये हमारी सोच का फर्क है, आदमी को 15 रुपये की आइसक्रीम खरीदने में जरा भी तकलीफ नहीं होती, जबकि गेहूं की कीमत एक रुपये बढ़ जाती है तो लोग शोर शराबा करते हैं। ये लोगों की गलत सोच भर है, कोई मंहगाई नहीं है। इस बयान से आसानी से समझा जा सकता है कि ये आदमी सत्ता के नशे में कितना मदहोश है, इसे जब शहर के ही 90 फीसदी लोगों की असलियत का अंदाजा नहीं है, तो ये गांव गिरांव के बारे में भला क्या जानता होगा।
मैं दावे के साथ कह सकता हू कि शहर की 10 से 15 फीसदी आबादी ही आइसक्रीम का खर्च उठा पाती है, 90 फीसदी आबादी के लिए आज भी आइसक्रीम बहुत दूर की बात है। गांवों में तो अभी भी 25-50 पैसे वाली आइसक्रीम बेचने वाले आते हैं, जो इन गरीब बच्चों को गर्मी में ठंड का अहसास कराते हैं। ऐसे में मंहगाई का इस तरह बचाव करना ना सिर्फ शर्मनाक है, बल्कि अमानवीय भी लगता है। ऐसे चिदंबरम से अगर लोगों को बदबू आती है तो मैं कहता हूं ये कत्तई गलत नहीं है। नैतिकता तो रही नहीं के ये इस्तीफा देगें, पर अगले चुनाव में जनता इन्हें जरूर इस मंहगाई का अहसास कराएगी।

नहीं मानता प्रधानमंत्री को ईमानदार ... 
मैं पूरी जिम्मेदारी के साथ कह सकता हूं कि देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ईमानदार नहीं हैं,
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की जब भी बात होती है तो उनके लिए सिर्फ एक ही बात कही जाती है कि हमारे प्रधानमंत्री ईमानदार हैं। चलिए मनमोहन सिंह ईमानदार हैं, मेरा एक सवाल है कि कांग्रेस नेता अब खुद ही बताएं कि उनका कौन सा प्रधानमंत्री बेईमान था। कांग्रेसी उनकी ईमानदारी की कसमें खाते फिर रहे हैं, पर उनकी ईमानदारी को जनता ओढे या बिछाए। टू जी घोटाला हो गया, कामनवेल्थ घोटाला, कोयला ब्लाक आवंटन में घोटाला, लोग केंद्र की सरकार को घोटाले की सरकार बता रहे हैं। कांग्रेसी प्रधानमंत्री को ईमानदार कह कर पल्ला झाड़ रहे हैं।
वैसे मेरा मानना है कि अब प्रधानमंत्री पूरी तरह फेल हो गए हैं। ना उनका सरकार पर नियंत्रण है, न ही व्यवस्था पर, ऐसे में प्रधानमंत्री को खुद को आज की राजनीति के अयोग्य घोषित कर पद छोड़ देना चाहिए। लेकिन प्रधानमंत्री कोई भगवान तो हैं नहीं, वो भी इंशान हैं, और उनमें भी वही लालच है जो आम लोगों में होती है, लिहाजा वो अपने से कुर्सी छोड़ने वाले नहीं है। अमेरिका की चमचागिरी करते करते बेचारे प्रधानमंत्री जी थक गए, पर वहां की मैग्जीन टाइम ने भी मनमोहन को असफल पीएम बताया है। अब तो प्रधानमंत्री को एक सलाह है, कोई चुनाव जरूर लड़ लें, जिससे उन्हें पता लग जाए कि जनता उनके बारे में क्या सोचती है।

 खत्म हो गया राहुल बाबा का जादू ....
हालांकि सलमान खुर्शीद ऐसे नेता नहीं है जिन्हें जनता का समर्थन हासिल हो, लेकिन इस बात के लिए मैं उनकी तारीफ करुंगा कि उन्होंने कम से कम अपने गिरेबान में झांकने की कोशिश की है। कांग्रेस में आज किसी नेता की औकात नहीं है कि राहुल गांधी के बारे में इतना कडुवा सच सार्वजनिक तौर पर कह सके। पर सलमान ने कम से कम सच कबूल किया है। अब राहुल को तय करना है कि वो अपने में कैसे सुधार करते हैं। शुरु में कांग्रेस नेताओं और मीडिया ने कुछ ज्यादा ही राहुल की तारीफों के पुल बांध दिए। कहा गया कि यूपी में चमत्कार होने वाला है, क्योंकि टिकट बंटवारे में राहुल गांधी की महत्पूर्ण भूमिका रही है और वो एक एक उम्मीदवार से इंटरव्यू करके टिकट दे रहे हैं।
चुनाव में राहुल गांधी ने पूरी ताकत झोंक दी। नतीजा राहुल गांधी फिर भी फेल हो गए। हां अब मुझे लगता है कि अगर कांग्रेस को अपनी खोई प्रतिष्ठा को वापस लाना है तो उसके पास ज्याद विकल्प नहीं हैं। हां हो सकता है कि प्रियंका गांधी चुनावों में एक बार जरूर तुरुप का इक्का साबित हो,  लेकिन यूपी विधानसभा चुनाव में मम्मी और भइया के निर्वाचन क्षेत्र में पूरी ताकत झोंकने के बाद भी प्रियंका को मायूस होना पड़ा। वैसे प्रियंका राहुल से ज्यादा समझदार है, यही वजह है कि उन्होंने पहले ही ऐलान कर दिया था कि वो बस राहुल की मदद कर रही हैं, मतलब साफ है कि हार होती है तो ये उनकी नहीं राहुल की ही होगी।

 सोनिया को गुमराह करते हैं उनके सलाहकार ...
हर मौके पर देखा जा रहा है कि सोनिया गांधी के सलाहकार उन्हें गलत राय देते हैं। जिससे पार्टी से कहीं ज्यादा सोनिया की छीछालेदर हो रही है। राष्ट्रपति के चुनाव में अगर कांग्रेस के रणनीतिकारों से सोनिया गांधी को सही सलाह दी होती तो आज प्रणव मुखर्जी निर्विरोध चुनाव जीत कर रायसीना हिल पहुंच चुके होते। आपको याद होगा कि लोकसभा और राज्यसभा दोनों सदनों में बीजेपी के नेताओं ने प्रणव दा की खुलकर तारीफ की थी। अगर उम्मीदवार घोषित करने के पहले सोनिया ने बीजेपी से एक छोटी सी मीटिंग कर ली होती तो इतनी छीछालेदर ना होती।
सिर्फ राष्ट्रपति के चुनाव में ही नहीं, राज्यों के मामले में भी सोनिया को कभी सही सलाह नहीं दी गई, बल्कि पार्टी को विवाद में खड़ा किया गया। उत्तराखंड के मामले में ही ले लीजिए। हरीश रावत ने पूरे चुनाव में मेहनत की, उनकी वजह से पार्टी इस मुकाम पर पहुची, बात आई मुख्यमंत्री बनाने की तो विजय बहुगुणा को बना दिया। जिनकी उत्तराखंड में दो पैसे की पूछ नहीं है। आंध्र प्रदेश में पार्टी की थू थी हो रही है। बहरहाल ऐसे तमाम उदाहरण हैं जहां सोनिया के सलाहकारों ने ही उन्हें मुश्किल में डाला है।

 चलते- चलते
स्वामी अग्निवेश को वाकई इलाज की जरूरत है। इनका कहना है कि पश्चिम बंगाल में हास्टल की वार्डेन ने बिस्तर पर पेशाब करने वाली छात्रा को उसका पेशाब पिलाकर ठीक किया है, ये एक चिकित्सा पद्धति है, यानि अपना पेशाब पीने से बच्चे बिस्तर पर पेशान करना बंद कर देते हैं। स्वामी कहते हैं कि उन्हें खुद बिस्तर पर पेशाब करने की बीमारी थी, और उन्होंने पेशाब पीकर इसे ठीक किया। स्वामी जी अच्छा है आपको बिस्तर पर लैट्रिन करने की बीमारी नहीं थी। 
दरअसल ये देखा जा रहा है कि स्वामी हर मामले में राय जरूर देते हैं, चाहे उनकी राय कोई मायने रखे या ना रखे, जबकि फोन पर जिस तरह से उन्होंने अन्ना के आंदोलन के दौरान कपिल सिब्बल से बात की और इस आंदोलन को कुचलने की साजिश की इससे अब उन्होने देश में अपना भरोसा खो दिया है। लिहाजा पहले उन्हें जनता में वो विश्वास कायम करना होगा, फिर किसी मामले में सलाह दें तो बेहतर है। 

Monday, 18 June 2012

कलाम को मुसलमान बना दिया नेताओं ने ...


देश के जाने माने वैज्ञानिक और पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अबुल कलाम को इन नेताओं ने मुसलमान बनाकर रख दिया है। देश ही नहीं दुनिया कलाम साहब की योग्यता का लोहा मानती है। उनकी काबिलियत के आधार पर ही वो 2002 में देश के 11 वें राष्ट्रपति बने। इसके पहले उन्हें उनके काम की वदौलत देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से भी सम्मानित किया जा चुका है। अब दो कौड़ी नेता उन्हें इस्तेमाल करने में लगे हुए हैं। देश का आम नागरिक भी जानता है कि श्री कलाम ऐसे सख्शियत हैं, जो जिस पद को ग्रहण करेंगे, उस पद की गरिमा बढेगी।
अब देखिए मुसलमानों के सबसे बड़े हितैषी बनने वाले मुलायम सिंह यादव अंदरखाने कुछ और ही खेल खेल रहे थे। एक ओर तो वो ममता बनर्जी के साथ प्रेस कान्फ्रेस कर एपीजे अबुल कलाम की उम्मीदवारी का ऐलान कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर वो कांग्रेस नेताओं के न सिर्फ संपर्क में थे, बल्कि ममता बनर्जी की बातचीत और ममता की रणनीति का ब्यौरा भी उन्हें दे रहे थे। मुलायम की हालत ये हुई कि रात होते ही मीडिया के कैमरों से छिपते छिपाते सोनिया के दरबार में हाजिरी लगाने पहुंच गए और उन्हें आश्वस्त कर दिया कि कुछ भी हो वो कांग्रेस का समर्थन करेंगे। इधर वो ममता बनर्जी से भी मीठी मीठी बातें करते रहे। खैर ये सब चाल तो मुलायम की रही।
अब ममता की भी सुन लीजिए। ऐसा नहीं है कि ममता बनर्जी कलाम साहब के काम से बहुत खुश हैं, इसके लिए वो उन्हें राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाना चाहती हैं। दरअसल ममता बनर्जी को मैं देख रहा हूं कि पिछले दो साल से वो मुसलमानों की सबसे बड़ी मददगार और खैरख्वाह बनने की कोशिश कर रही हैं। उनको लगता है कि अगर मुसलमानों की आवाज उठाई जाए तो इसका उन्हें सियासी फायदा होगा। पर ममता को कौन बताए कलाम साहब मुसलमान सबसे आखिर में हैं, इसके पहले वो 1962 में 'भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन' में शामिल हुए। यहां प्रोजेक्ट डायरेक्टर के रूप में भारत का पहला स्वदेशी उपग्रह (एस.एल.वी. तृतीय) प्रक्षेपास्त्र बनाया। जुलाई 1980 में इन्होंने रोहिणी उपग्रह को पृथ्वी की कक्षा के निकट स्थापित किया। इसरो लॉन्च व्हीकल प्रोग्राम को परवान चढ़ाने का श्रेय भी इन्हीं को जाता है। डॉक्टर कलाम ने स्वदेशी लक्ष्य भेदी (गाइडेड मिसाइल्स) को डिजाइन किया। इन्होंने अग्नि एवं पृथ्वी जैसी मिसाइल्स को स्वदेशी तकनीक से बनाया। डॉक्टर कलाम जुलाई 1992 से दिसम्बर 1999 तक रक्षामंत्री के विज्ञान सलाहकार तथा सुरक्षा शोध और विकास विभाग के सचिव भी रहे। उन्होंने स्ट्रेटेजिक मिसाइल्स सिस्टम का उपयोग आग्नेयास्त्रों के रूप में किया। इसी प्रकार पोखरण में दूसरी बार न्यूक्लियर विस्फोट भी परमाणु ऊर्जा के साथ मिलकर इन्होंने किया। इससे भारत परमाणु हथियार के निर्माण की क्षमता प्राप्त करने में सफलता हासिल की। 1982 में वे भारतीय रक्षा अनुसंधान एवं विकास संस्थान में वापस निदेशक के तौर पर आये और उन्होंने अपना सारा ध्यान "गाइडेड मिसाइल" के विकास पर केन्द्रित किया। अग्नि मिसाइल और पृथवी मिसाइल का सफल परीक्षण का श्रेय काफी कुछ उन्हीं को है। जुलाई 1992 में वे भारतीय रक्षा मंत्रालय में वैज्ञानिक सलाहकार नियुक्त हुये। उनकी देखरेख में भारत ने 1998 में पोखरण में अपना दूसरा सफल परमाणु परीक्षण किया और परमाणु शक्ति से संपन्न राष्ट्रों की सूची में शामिल हुआ।
ऐसे कलाम को देश के नेताओं ने महज एक मुसलमान बनाकर रख दिया है। सच कहूं तो मैं भी चाहता हूं कि कलाम को राष्ट्रपति बनना चाहिए, लेकिन मैं ममता बनर्जी की अपील को खारिज करता हूं। उनकी अपील के पीछे गंदी, फूहड़ राजनीति छिपी हुई है। चूंकि कांग्रेस उम्मीदवार घोषित कर चुकी है, लिहाजा उससे अपील करना तो बेईमानी है। लेकिन एनडीए समेत सभी सियासी दलों को वाकई चाहिए वो कलाम साहब के नाम पर सहमति बनाने की कोशिश करें। पर कलाम को राष्ट्रपति बनाएं तो इसलिए कि वो जाने माने वैज्ञानिक हैं, देश आत्मनिर्भर बनाने में उनका अहम योगदान है और सबसे बढिया ये कि वो कामयाब ही नहीं काबिल इंशान भी हैं।
सलाहकारों को बदलना जरूरी सोनिया जी ...

सोनिया गांधी को सबसे पहले अपने सलाहकारों को तत्काल प्रभाव से हटा देना चाहिए। ये बात तो सोनिया को भी पता है कि उन्हें लगातार गलत राय देकर विवाद खड़े किए जा रहे हैं। उत्तराखंड का मामला हो, आंध्रप्रदेश का मामला हो या फिर अब राष्ट्रपति के उम्मीदवार घोषित करने का मामला हो। हर मामले में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की किरकिरी हुई है। उत्तराखंड में बस सोनिया की बात रखने के लिए लोगों ने वहां विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री स्वीकार कर लिया, वरना वहां कांग्रेस का टूटना तय था। आंध्र में जगन के साथ बातचीत करनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं किया गया, अगले चुनाव में आंध्र से कांग्रेस का पूरी तरह सफाया तय है।
अब कांग्रेस ने रायसीना हिल का चेहरा बिगाड़ कर रख दिया है। मेरा तो यही मानना है कि राष्ट्रपति का चुनाव खुले दिमाग और आम सहमति के आधार पर ही होना चाहिए। लेकिन कांग्रेस को पता नहीं क्या हो गया है कि उसका हर खेल विवादों में आ जाता है। पता किया जाना चाहिए कि कांग्रेस के किस सलाहकार ने सोनिया गांधी को ये सलाह दी कि सहयोगी दलों के साथ राष्ट्रपति के दो नाम शेयर किए जाएं। यानि प्रणव मुखर्जी के साथ हामिद अंसारी का नाम क्यों शामिल किया गया। क्या इसके पहले कभी लोगों  को दो नाम दिए गए थे। ऐसा आज तक पहले कभी नहीं हुआ, फिर ये किसकी सलाह थी दो नाम पर चर्चा करने की।
अक्सर देखा गया है कि सरकार के सहयोगी दलों के साथ ही सत्तारुढ पार्टी विपक्ष से भी मशविरा करती है। मैं पूरी तरह दावे के साथ कह सकता हूं कि अगर सोनिया गांधी ने प्रणव मुखर्जी को उम्मीदवार बनाने के पहले एनडीए के नेताओं के साथ भी विचार विमर्श किया होता तो श्री मुखर्जी सर्वसम्मति से राष्ट्रपति चुन लिए जाते। ये इसलिए भी किया जाना जरूरी था कि लोकसभा और राज्यसभा में सत्र के दौरान विपक्ष ने प्रणव दा की जमकर प्रशंसा की और यहां तक कहा कि आप से बेहतर और कोई उम्मीदवार हो ही नहीं सकता। अन्य नेताओं के साथ ही लाल कृष्ण आडवाणी ने भी खुले मन से प्रणव दा की तारीफ की थी। मगर कांग्रेस इसका फायदा उठाने से चूक गई।
हालत ये है कि कांग्रेस को उसके सहयोगी तो निशाने पर लिए ही हैं, दूसरे छोटे मोटे दल भी आंख दिखा रहे है। ये अलग बात है कि कांग्रेस अपने गणित के आधार पर चुनाव में कामयाब हो जाए और मुखर्जी रायसीना हिल पहुंच जाएं, पर सच ये है कि कांग्रेस अध्यक्ष ने गलत सलाह को अपनाया, जिसकी वजह से राष्ट्रपति चुनाव की, कांग्रेस की, सोनिया गांधी की छीछा लेदर हो रही है।


चलते - चलते
हंसी आती है टीम अन्ना पर। बड़बोले अरविंद केजरीवाल ने एक बार फिर मुंह खोला। इस बार उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति पद के लिए प्रणव मुखर्जी उन्हें मंजूर नहीं है। अरे भाई आपको मंजूर नहीं हैं लेकिन हमें तो हैं ना। अब हमारी आपकी लड़ाई का कोई मतलब नहीं, क्योंकि ना आप वोटर हैं और ना मैं वोटर हूं। लिहाजा जो वोटर हैं, उन्हें ही इस मामले को देखने दीजिए। वैसे भी जरूरी नहीं कि हर मुद्दे पर आप का मुंह खोलना जरूरी है।



Wednesday, 13 June 2012

ममता-मुलायम ने कसा सरकार का पेंच ....


ममता और मुलायम ने सोनिया गांधी और सरकार का पेंच थोड़ा ज्यादा कस दिया है। पहले तो सोनिया के साथ बैठक में हुई बातचीत का उन्होने मीडिया के सामने खुलासा कर दिया, बाद में उनकी बात मानने से इनकार कर दिया। सरकार के लिए शर्मनाक बात ये है कि ममता बनर्जी सरकार में शामिल होने के बाद भी यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी की बात को मानने से तो इनकार किया ही, यह भी कहा कि वो अंतिम फैसला समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव के साथ बात करके करेंगी। इससे उन्होंने एक तीर से दो निशाना साधा। पहला ये कि मुलायम सिंह को भरोसा हो गया कि ममता उनकी भरोसेमंद है, दूसरा कांग्रेस को ये सबक भी मिल गया कि ममता की अनदेखी कर मुलायम को अपने साथ नहीं किया जा सकता।

खैर मुलायम ममता ने बातचीत के बाद राष्ट्रपति के लिए तीन नाम सुझाए। उन्होंने तीन नाम सुझाए ये बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात ये है कि सोनिया के दोनों नाम यानि प्रणव मुखर्जी और हामिद अंसारी के खारिज कर दिए। उन्होंने तो तीन नाम गिनाए हैं, उसमें एपीजे अबुल कलाम, सोमनाथ चटर्जी और मनमोहन सिंह शामिल हैं। एपीजे कलाम का नाम तो हमे सिरे से खारिज कर देना चाहिए, क्योंकि अगर बंगामी राष्ट्रपति नहीं बना तो ममता का कोलकता में रहना मुश्किल हो जाएगा। अब बचे सोमनाथ दा और मनमोहन सिंह। सोमनाथ दा अभी लंदन में हैं, और उनसे किसी भी राजनीतिक दल ने राष्ट्रपति पद के लिए कोई बातचीत नहीं की है। वो खुद हैरानी जता रहे हैं। तीसरा नाम बहुत चौंकाने वाला है, और हां अगर तीसरे नाम में दम है, तो इसके पीछे की रणनीति और किसी की नहीं खुद प्रणव मुखर्जी की हो सकती है।

मनमोहन की छीछालेदर हो रही है, अगर उन्हे ग्रेसफुल एक्जिट देना तो ये सबसे बेहतर होगा कि उन्हें राष्ट्रपति बनाकर 7 आरसीआर यानि प्रधानमंत्री आवास से राष्ट्रपति भवन यानि रायसिना हिल शिफ्ट कर दिया जाए। बात यहीं खत्म नहीं होगी, इससे तो बंगाल में और तूफान आ जाएगा। बंगाल को खुश करने के लिए प्रणव दादा को प्रधानमंत्री बनाना ही होगा। आज जिस तरह से सरकार का परफारमेंस है, उसे देखते हुए मनमोहन को हटाने में किसी को कोई दिक्कत नहीं है। फिर उन्हें सम्मान के साथ राष्ट्रपति भी तो बनाया जा रहा है। रही बात इसके आगे क्या ?  इसके आगे ये होगा कि समाजवादी पार्टी को सरकार में शामिल कर लिया जाएगा। मुलायम सिंह को एक बार फिर रक्षामंत्रालय का आफर दिया जाएगा,क्योंकि वैसे ए के एंटोनी सेना को संभालने में नाकाम रहे हैं।

ममता मुलायम के एक होने से सरकार के सामने गंभीर संकट है। इसलिए इन दोनों की अनदेखी करना सरकार के लिए आसान नहीं होगा। कहा जा रहा है कि प्रणव के लिए तमाम लाबी यहां काम कर रही है। मुलायम जो बोल रहे हैं वो उनकी भाषा नहीं है, बल्कि तमाम उद्योगपति कई दिन से दिल्ली में डेरा डाले हुए हैं, जो इस रणनीति के पीछे काम कर रह हैं।

अब गेंद सोनिया के पाले यानि यूपीए के पाले में है। वैसे सोनिया गांधी को कांग्रेस के रणनीतिकार कब क्या सलाह दे दे, इस पर तो अंतिम समय तक सस्पेंस  बना रहता है। कांग्रेस के रणनीतिकार वाहवाही लूटने के लिए इधर उधर की सलाह देते रहते हैं। हमने उत्तराखंड में मुख्यमंत्री के सवाल पर देखा कि जिसने मेहनत की, उसे आखिरी समय में किनारे कर के दूसरे आदमी को मुख्यमंत्री बना दिया गया, जिससे पार्टी की थू थू हुई। अब इस मामले में पार्टी से ज्यादा सोनिया की किरकिरी होने वाली है।

सबको पता है कि सोनिया गांधी कई दिनों से यूपीए में शामिल दलों के नेताओं से राष्ट्रपति के मसले पर बात कर रही हैं। ज्यादातर पार्टियों ने प्रणव के नाम पर मुहर लगा दी है। अब टीएमसी और एसपी के विरोध के बाद सोनिया ने जहां से मुहिम की शुरुआत की थी, फिर वहीं आ गई हैं। अब अगर उन्हें किसी नए नाम पर आमसहमति बनानी हुई तो पूरी प्रक्रिया उन्हें दोबारा शुरू करने होगी। फिलहाल राष्ट्रपति पद पर उम्मीदवार के चयन को लेकर पिछली बार की तरह इस बार भी कुत्ता फजीहत शुरू हो गई है।

   

Friday, 27 April 2012

आइला ! ये क्या किया सचिन ...


ल जब मैने सुना कि सचिन तेंदुलकर ने 10 जनपथ में हाजिरी लगाई, तो मैं हैरान हो गया। क्योंकि दो दिन पहले ही उनका 39 वां जन्मदिन था, लेकिन आईपीएल के व्यस्त कार्यक्रम के बीच वो इतना भी समय नहीं निकाल पाए कि अपने घर मुंबई में परिवार के साथ जन्मदिन की खुशियां मनाएं। फिर ऐसी क्या आफत आ गई कि दिल्ली में आंधी पानी के बीच वो सोनिया के घर आ गए। अच्छा सचिन के साथ केंद्रीय मंत्री राजीव शुक्ला का होना थोड़ा हैरान करने वाला था, क्योंकि ये शुक्ला जी बस शुक्ला जी ही हैं। यानि ना ही में ना सी में फिर भी पांचो ऊंगली घी में। वैसे लोगों को ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा, कांग्रेस ने खुद ये खबर लीक कराई और सभी न्यूज चैनल में एक साथ ब्रेकिंग न्यूज में सचिन छा गए। हर जगह सिर्फ एक ही खबर सचिन राज्यसभा में आएंगे, सचिन राज्यसभा में मनोनीत किए गए।

कल इस खबर पर ज्यादा हो हल्ला नहीं हुआ, सियासी गलियारे से पहली प्रतिक्रिया जो आई, उसमें सभी ने सचिन का राज्यसभा में स्वागत किया। लेकिन रात में नेताओं ने सोचा कि ये क्या हो रहा है. कांग्रेस सचिन को राज्यसभा में मनोनीत कर 2014 की बाजी ना मार ले जाए। यही सोच कर दूसरे दलों के नेताओं ने बाहें चढा ली, नतीजा ये हुआ कि आज सुबह संसद परिसर में नेताओं के सुर बदल गए। मामला सचिन का है, वो लोगों के दिलों पर राज करते हैं। लिहाजा राजनीतिक दलों ने विरोध का नया तरीका इजाद किया और कहा कि अच्छा होता कि राज्यसभा में मनोनीत करने के बजाए उन्हें भारत रत्न दिया जाता। हमें उम्मीद थी कि मराठी मानुष की बात करने वाली शिवसेना तो इस फैसले का स्वागत करेगी, क्योंकि सचिन मराठी हैं और उन्हें राज्यसभा में मनोनीत कर सम्मानित किया जा रहा है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ शिवसेना ने सबसे तीखी प्रतिक्रिया दी और कहाकि कांग्रेस सचिन को लेकर राजनीति कर रही है। लेफ्ट नेताओं ने तो इसे जातिवाद से जोड़ दिया और कहाकि अगर सचिन मनोनीत हो सकते हैं तो सौरभ गांगुली क्यों नहीं ? कुल मिलाकर राजनीतिक गलियारों से जो बातें छनकर आ रही हैं वो कम से कम सचिन जैसे शांतिप्रिय व्यक्ति के लिए ठीक नहीं है।

वैसे सच तो ये है कि सचिन तेंदुलकर ने राज्यसभा की सदस्यता आसानी से कुबूल नहीं ही की होगी। निश्चित रूप से उन पर दबाव बनाया गया होगा, अगर मैं ये कहूं कि सरकार की ओर ये दबाव मुकेश अंबानी के जरिए बनाया गया हो तो इसमें किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए। केंद्र सरकार इस समय बहुत ही मुश्किल के दौर से गुजर रही है,उस पर तरह तरह के हमले हो रहे हैं, जनता का ध्यान बांटने के लिए उसके पास इससे बेहतर और कोई चारा नहीं था। पार्टी का मानना है कि सचिन को ये सम्मान देने से कुछ दिन मीडिया का रुख भी दूसरी ओर हो जाएगा। इसके अलावा आईपीएल में जहां हर बैट्समैन सबसे ज्यादा रन ठोक कर आरेंज कैप हासिल करने में लगा है, वहीं काग्रेस सचिन को व्हाइट कैप पहना रही है। निश्चित है कि हर मैंच अब कमेंटेटर सचिन की तारीफ में उन्हें सांसद बोलते भी नजर आएंगे। वैसे मेरी समझ में एक बात नहीं आ रही है, सचिन राज्यसभा में मनोनीत होने के पहले सोनिया गांधी से क्यों मिले ? जबकि अभिनेत्री रेखा के साथ तो ऐसा नहीं हुआ, उन्हें तो ये जानकारी मुंबई में ही दे दी गई। क्या यहां बुलाकर सोनिया गांधी देश को ये संदेश देना चाहतीं थी कि सचिन को मनोनीत करने का फैसला उन्होंने लिया है। यानि सोनिया की वजह से सचिन राज्यसभा में पहुंचे हैं।

वैसे सच कहूं तो सरकार जल्दबाजी में कुछ ऐसे फैसले करती है जिससे उसकी नासमझी दिखाई पड़ने लगती है। इससे पता चलता है कि सरकार की सोच कितनी घटिया स्तर की है। इससे ये भी पता चलता है कि सरकार के सलाहकारों का स्तर क्या है। अगर आप ऐसा कुछ करते हैं जिससे एक व्यक्ति का सम्मान हो और देश में कई लोगों का अपमान तो मुझे लगता है कि वो सम्मान ठीक नहीं है। क्रिकेट का जो एबीसी भी जानता होगा, उसे ये बात पता है कि क्रिकेट में भारत ने जब पहली बार वर्ल्ड कप जीता, कपिल देव की अगुवाई में तो उस समय हम कभी सोच भी नहीं सकते थे कि भारत कभी वर्ल्ड कप भी जीत सकते हैं। अब तो हमारी टीम में ऐसे खिलाडी हैं कि हमें  हैरानी और आश्चर्च नहीं होता वर्ल्ड कप जीत जाने में। ऐसे में अगर ये सम्मान कपिल देव या फिर सुनिल गावस्कर को दिया जाता तो लगता कि सरकार की सोच वाकई खेल को प्रोत्साहित करने की है राजनीति की नहीं। सचिन को राज्यसभा में भेजने से साफ संदेश जा रहा है कांग्रेस सचिन के जरिए अपनी ईमेज ठीक करने में लगी है। सचिन ने अभी सन्यास नहीं लिया है, अभी उनकी रुचि खेल में बनी हुई है। देश के लोगों को उन पर नाज है, फिर बेचारे को बेवजह क्यों विवाद में घसीटा गया। मेरा मानना है कि कांग्रेसी निकम्मे.. पार्टी को फायदा पहुंचाने के लिए किसी भी हद को पार कर सकते हैं। बहरहाल नियम के तहत मनोनीत सदस्य छह महीने तक कोई पार्टी ज्वाइन नहीं कर सकता, अगर यही हाल रहा तो छह महीने बाद सचिन कहीं कांग्रेसी चोले मे ना सिर्फ नजर आएंगे बल्कि राहुल गांधी की सभाओं में भीड़ जुटाने का काम भी करते दिखेंगे।

अच्छा राज्यसभा में बैक बेंचर होकर सचिन करेंगे क्या ? कोई सुनता तो है नही,  संसद में होने वाले शोर शराबे में बेचारे सचिन आइला आइला ही चिल्लाते रह जाएंगे। मैं जानता हूं कि कम से कम खेलों के मामले में सचिन बेहतर सुझाव दे सकते हैं, वो क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों की बेहतरी के लिए भी अच्छा काम कर सकते हैं, पर जरूरी नहीं था कि इसके लिए वो संसद भवन ही जाते। क्योंकि आज तक जो सचिन पूरे देश की आंखों का तारा था, अब वो कांग्रेसी होकर एक तपके का होकर रह जाएगा। सचिन के इस कदम से निश्चित रूप से उसके खेल पर प्रभाव पडेगा। बहरहाल इस नई जिम्मेदारी को सचिन कैसे संभालते हैं, कुछ नया करते है, यहां भी नाट आउट शतकों का शतक लगाते हैं, या फिर पहली गेंद पर बोल्ड होकर निकल लेते हैं। बहरहाल सचिन ने अभी इस नई पारी की शुरुआत नहीं की है तो हमें ऐसा कुछ नहीं सोचना चाहिए, हम उनकी इस नई पारी की कामयाबी के लिए शुभकामनाएं देते हैं।

चलिए ये तो हो गई राज्यसभा में मनोनीत होने की बात। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये कि कांग्रेस ने अपनी इच्छा तो पूरी कर ली, लेकिन देश की इच्छा कब पूरी होगी ? देश तो उन्हें भारत रत्न देना चाहता है। सरकार भारत रत्न के मसले पर बिल्कुल खामोश है। सच तो ये है कि अगर राज्यसभा में सचिन कुछ बेहतर नहीं कर पाए तो फिर भारत रत्न का मामला भी ठंडा ही पड़ जाएगा। वैसे आपको इस मामले में सच बताना जरूरी है। जानकारों का कहना है कि सरकार सचिन को भारत रत्न देने में जल्दबाजी नहीं करना चाहती।  भारत रत्न के बाद सचिन को नैतिकता के आधार पर तमाम चीजों को छोड़ना होगा। हालाकि ये जरूरी नहीं है, लेकिन भारत रत्न सचिन तेंदुलकर अगर कुछ समय बाद अंडर गारमेंट के विज्ञापन में नजर आए, या फिर टायर ट्यूब का विज्ञापन करें तो ये अच्छा नहीं लगेगा। सचिन का चेहरा अभी बिकाऊ है, जब वो सन्यास लेगें तो कम से कम साल भर तो तमाम बड़ी बड़ी कंपनियां चाहेंगी कि उन्हें अपने प्रोडक्ट का ब्रांड अंबेसडर बनाएं। सूत्र तो कहते हैं कि अभी भारत रत्न न दिए जाने की पीछे एक वजह ये भी रही है।
 


Monday, 19 March 2012

दो कौड़ी के नेता, दो कौड़ी की ही नेतागिरी ...

बियत ठीक नहीं है, हुआ क्या है, ये भी नहीं पता, बस मन ठीक नहीं है, कुछ भी लिखने पढ़ने का मन नहीं हो रहा है, लेकिन देश के हालात, घटिया केंद्र सरकार, उससे भी घटिया प्रधानमंत्री, नाम के विपरीत आचरण वाली ममता बनर्जी, बेपेंदी का लोटा टाइप पूर्व रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी, मनमोहन सिंह से ज्यादा मजबूर मुलायम सिंह यादव और ढाक के तीन पात निकले उनके बेटे अखिलेश यादव । भाई ये सब बहुरुपिये हैं, इनका असली चेहरा बहुत ही डरावना है। मैं जानता हूं कि आप सब तो राजनीति और राजनीतिज्ञों को कोसते हैं और  देश की राजनीति और राजनेताओं पर  अपना वक्त जाया नहीं करते। पर मैं क्या करुं, मैने तो ना जाने पिछले जन्म में क्या पाप किया है कि इनका साथ छूट ही नहीं सकता। साथ का मतलब ये मत समझ लीजिएगा कि मैं राजनेताओं का कोई दरबारी हूं, भाई जर्नलिस्ट हूं तो इनकी खैर खबर रखनी पड़ती है ना। अरे अरे बहुत बड़ी गल्ती हो गई, राजनीति में गंदगी, बेमानी और घटियापन की बात करुं और गांधी परिवार का जिक्र ना हो तो कहानी भला कैसे पूरी हो सकती है।


        राजनीति में गिरावट और अवसरवादी की बात हो तो इस परिवार को सबसे बड़ा पुरस्कार दिया जा सकता है। आज तक लोगों की समझ में एक बात नहीं आ रही है कि आखिर सोनिया गांधी को किसने सलाह दी कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को बनाया जाए। मुझे लगता है कि गैर राजनीतिक को प्रधानमंत्री बनाकर सोनिया ने अपनी पार्टी के साथ ही नहीं देश के साथ धोखा किया है, लोकतंत्र का माखौल उड़ाया है। कांग्रेस में एक से बढकर एक पुराने कांग्रेसी हैं, पर उन्हें हाशिए पर रखा गया है, क्योंकि वो मजबूत नेता है, सोनिया गांधी और परिवार की बात एक सीमा तक ही मानेंगे। प्रणव दा  इसीलिए प्रधानमंत्री नहीं बन पाए,  क्योंकि वो कुर्सी बचाने के लिए घटिया स्तर पर जाकर समझौता नहीं करेंगे।
गांधी परिवार के साथ खास बात ये है कि ये कभी गल्ती नहीं करते, पांच राज्यों के चुनाव  में पार्टी की ऐसी तैसी हो गई, लेकिन ये आज भी  उतने ही मजबूत हैं। उत्तराखंड में हरीश रावत के नेतृत्व में एक बेहतर सरकार बनाई जा सकती थी, पर हरीश रावत मुख्यमंत्री बन जाते तो पता कैसे चलता कि कांग्रेस में सभी  फैसले 10 जनपथ से लिए जाते हैं। रावत बन जाते तो लगता कि जनता ने उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया। इसलिए गांधी परिवार को अपनी ताकत दिखाने के लिए उलजलूल फैसले करना उनकी सियासी मजबूरी है।

मैं मनमोहन सिंह को बहुत ईमानदार आदमी समझता था,  लेकिन प्रधानमंत्री की कुर्सी को बचाए रखने के लिए वो जिस तरह के समझौते करते हैं, उससे उन्होंने प्रधानमंत्री पद की गरिमा बिल्कुल गिरा दिया है। मेरा  केंद्र सरकार के कई अफसरों के पास बैठना होता है,  उनके दफ्तर में इनकी तस्वीर लटकी हुई है,  ये अफसर इनकी तस्वीर की ओर उंगली उठाकर कोसते फिरते हैं।  सियासी गलियारे में कहा जाता है कि गांधी जी के तीन बंदर थे, एक कान बंद किए रहता था, वो कुछ सुनता नहीं था, एक आंख बंद किए रहता था, वो कुछ भी देखता नहीं था , एक मुंह बंद किए रहता था, वो कुछ बोलता नहीं था। लोग कहते हैं कि आज  अगर गांधी जी होते तो तीनों बंदर को हटाकर मनमोहन सिंह की तस्वीर लगा लेते,  ये ना बोलते हैं, ना देखते हैं और ना ही सुनते हैं। शायद मनमोहन सिंह को ये पता ही नहीं है कि वो देश के प्रधानमंत्री हैं, उन्हें लगता है कि वो एक ऐसे नौकरशाह हैं, जिन्हें प्रधानमंत्री का काम दिया गया है और वे शिद्दत से इस काम को कर रहे हैं। कुर्सी बचाए रखने के लिए जितने घटिया स्तर पर मनमोहन सिंह उतरते जा रहे हैं, इसके पहले किसी ने ऐसा नहीं किया। कमजोर प्रधानमंत्री होता है तो मंत्रियों के मजे रहते हैं, लिहाजा  किसी को कोई तकलीफ भी  नहीं है। चलिए जी अभी आपके राज में देश को और लुटना पिटना है।

मता बनर्जी की गंदी राजनीति के बारे में आप जितना सुनते हैं, वो अधूरा है, क्योंकि ममता महिला हैं और उनके बारे में लिखने में लोग वैसे भी संकोच करते हैं। भारतीय राजनीति को दूषित करने वाली महिला नेताओं के बारे में अगर चर्चा हो तो ममता का जिक्र किए बगैर यह स्टोरी पूरी हो ही नहीं सकती। बीजेपी नेता पूर्व प्रधानमंत्री  अटल बिहारी वाजपेई तो ममता, मायावती और जयललिता से हार मान गए थे और उन्होंने पूरी तरह समर्पण कर सरकार को ही गिरा लिया और बाहर चले गए।  लेकिन वाजपेई जी राजनीतिक थे, उनकी रीढ़ की हड्डी मनमोहन सिंह की तरह लचर नहीं थी। वो जानते थे कि प्रधानमंत्री रहते हुए किस हद तक झुका जा सकता है, लेकिन मनमोहन सिंह में इस हड्डी की कमी है, वो कुर्सी बचाने के लिए किसी हद तक जा सकते हैं। चूंकि सहयोगी दलों को प्रधानमंत्री की कमजोरी पता चल गई है, लिहाजा वो अपनी हर छोटी बड़ी मांग के लिए सरकार गिराने की धमकी देते हैं। खैर ममता ने ये बता दिया है कि झुकती है दुनिया झुकाने वाला चाहिए। वैसे ममता दीदी आपकी ईमानदारी को लेकर भी लोग सवाल उठाने लगे हैं। आप भले ही हवाई चप्पल और सूती साड़ी पहन कर सादगी की बात करें, पर आपके दाएं बाएं रहने वाले तो डिजाइनर ड्रेस पहनते हैं, ऐसा क्यों ?

पनी ओछी हरकत से ये चेहरा भी बदबूदार हो गया है। देशप्रेम की बड़ी बड़ी बातें करने वाला ये शख्स है पूर्व रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी। आपको बता दूं कि ममता बनर्जी ने जब पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री का कामकाज संभाला तो रेलमंत्री के लिए श्री त्रिवेदी ममता बनर्जी की पहली पसंद नहीं थे। वो तो मुकुल राय को ही रेलमंत्री बनाना चाहतीं थीं। लेकिन रेल मंत्रालय में उस समय मौजूद दो अन्य रेल राज्यमंत्री के मुनियप्पा और ई अहमद काफी वरिष्ठ थे, उन्होंने मुकुल राय की अगुवाई में काम करने से साफ इनकार कर दिया। काफी मान मनौव्वल के बाद ममता बनर्जी श्री त्रिवेदी को मंत्री बनाने के लिए राजी हुईं। रेलमंत्री बनते ही भाई त्रिवेदी बड़ी बड़ी डींगें हांकने लगे। कह रहे हैं कि अगर रेल का भाड़ा नहीं बढ़ाया गया तो महकमें को आगे चलाना मुश्किल होगा। चलिए आप किराया बढ़ा देते, लेकिन आपने किराया नहीं बढा़या, आपने आम आदमी को लूटने की कोशिश की। अच्छा त्रिवेदी जी पढ़े लिखे हैं, उन्हें पता है कि जब दो रुपए पेट्रोल डीजल की कीमत बढ़ती है तो उनके पार्टी की अध्यक्ष  ममता बनर्जी केंद्र की सरकार गिराने पर आमादा हो जाती हैं, भला वो रेल किराए में बढोत्तरी को कैसे स्वीकार कर सकतीं थीं। सच तो ये है कि त्रिवेदी सब जानते थे, लेकिन उनकी कांग्रेस से नजदीकियां बढती जा रहीं थीं,  बेचारे झांसे में आ गए और जिनके कहने पर सबकुछ कर रहे थे, बुरा वक्त आया तो किसी ने साथ नहीं दिया। खैर इतिहास में नाम दर्ज हो गया कि किराया बढ़ाने पर मंत्री को कुर्सी से हाथ धोना पड़ा। वैसे डियर इसे बेवकूफी  कहते हैं।

माजवादी नेता मुलायम सिंह यादव के हाथ आखिर क्यों बंधे हुए हैं, ये बात आज तक लोग नहीं समझ पा रहे हैं। हालाकि राजनीतिक गलियारे में चर्चा है कि अगर मुलायम सिंह यादव जरा भी कांग्रेस के खिलाफ मुखर हुए तो उनकी घेराबंदी तेज हो जाएगी। आय से अधिक संपत्ति के मामले में सीबीआई कार्रवाई तेज कर देगी। अभी जो वो सुकून की जिंदगी जी रहे हैं, उसमें ऐसा खलल पड़ जाएगा कि राजनीति के हाशिए पर चले जाएंगे। अब देखिए वामपंथियों से मुलायम सिंह यादव के रिश्ते खराब नहीं हैं, लेकिन जब परमाणु करार करने पर वामपंथियों ने सरकार से समर्थन वापस लिया तो मुलायम सिंह ने सरकार को बचाया। लेकिन उसके बाद कांग्रेस ने  क्या किया,  सभी ने देखा। अब ममता बनर्जी सरकार को आंख दिखा रहीं हैं तो फिर मुलायम सिंह यादव  नजर आ रहे हैं। कांग्रेस के युवराज यूपी चुनाव में समाजवादी पार्टी की घोषणा पत्र की बातों को सार्वजनिक सभाओं में फाडते फिर रहे थे, इतनी तल्खी के बाद भी कांग्रेसी उम्मीद करते हैं कि समाजवादी पार्टी उनका साथ दे। खैर वो जितनी बेशर्मी से समर्थन मांगते हैं, उससे ज्यादा बेशर्मी से सपा उनके साथ बैठती है। आज एनसीटीसी के मुद्दे पर सरकार में सहयोगी टीएमसी ने मतदान का बायकाट कर दिया, लेकिन वाह रे लोहिया के चेलों आप संसद में कांग्रेस के साथ कंधे से कंधा मिलाए बैठे रहे। नेता जी आप लेख और स्टोरी पर ध्यान मत दीजिएगा, कांग्रेस के साथ बने रहिए, कम से कम सीबीआई से तो पीछा छूटा ही रहेगा।

ब इस चेहरे की मासूमियत भी बनावटी लगती है। जब मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाने की बात की तो और लोगों की तरह मुझे भी उम्मीद थी कि शायद यूपी में कुछ बदलाव दिखाई देगा। कानून व्यवस्था सुधरेगी, पार्टी की गुंडा छवि को अखिलेश यादव बदलेंगे और सूबे में कुछ नया होता दिखाई देगा। पर कुछ नहीं बदला, मंत्रिमंडल में वही दागी चेहरे, 90 फीसदी वही लोग मंत्री बने जो मुलायम मंत्रिमंडल में थे। हैरानी तो तब हुई जब अखिलेश ने विभागों का बटवारा किया तो सभी को वही विभाग दिए गए जो पहले उनके पास थे। हा राजा भइया काफी समय तक जेल मे रहे हैं, इसलिए उन्हें कारागार विभाग दिया गया है। बेचारे कारागार अधीक्षकों की खैर नहीं। सभी रास्ते मालूम हैं राजा भइया को कि यहां क्या होता है। बहरहाल अखिलेश जी हफ्ते भर से जो देख रहा हूं,  उससे इतना तो साफ है कि आपकी कुछ चल नहीं रही है। आपने जो विभाग मंत्रियों को दिए हैं, वो उस विभाग में विवादित रहे हैं। ऐसे में आपको जल्दी ही खबर मिलेगी कि तमाम अफसर बकाए का भुगतान ना करने पर मंत्रियों के हाथ पिट रहे हैं। चलिए अच्छा हुआ, जल्दी आपका भी असली चेहरा सामने आ गया, वरना बेवजह हम यूपी में रामराज का इंतजार करते फिरते।

मायावती की ये हंसी बनावटी है। आमतौर पर लोग खुश होने पर हंसते है, पर मायावती जब बहुत परेशान होती है तो ऐसी हंसी हसती है, जिससे लोगों में भ्रम बना रहे कि वो कहीं से परेशान हैं। मायावती वो शख्स हैं जो किसी को माफ करना नहीं जानतीं। उनका मुलायम की पार्टी से ऐसा रिश्ता है कि जहां वो रहेंगे, मायावती वहां रह ही नहीं सकती। पर मजबूरी क्या ना कराए। अब देखिए ना सीबीआई का जितना खौफ मुलायम सिंह यादव को है, उससे कम खौफ मायावती को भी नहीं है। यही वजह है कि कांग्रेस का समर्थन मुलायम सिंह के करने के बाद भी मायावती वहीं जमीं हुई हैं, कम से कम सीबीआई से तो राहत रहेगी। चुनाव में राहुल गांधी ने खुले आम मायावती की सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए, उन्होने कहा कि केंद्र से जो पैसा आता है, वो यहां बैठा हाथी खा जाता है। भला इससे भद्दे तरीके से कोई बात अब क्या कही जाएगी, लेकिन मायावती उसी कांग्रेस के साथ चिपकी हुई हैं। उन्हें लग रहा है कि लखनऊ में तो समाजवादी पार्टी रहना मुश्किल कर देगी, अगर कांग्रेस से भी पंगा लिया तो ये दिल्ली में भी डाट से नहीं रहने देगें। लिहाजा राज्यसभा के जरिए अब पांच साल दिल्ली में काटने की तैयारी है। कोई बात नहीं मायावती जी,यहां तो तमाम लोग हैं जिन्हें कांग्रेसी गरियाते फिरते हैं, पर वो सरकार के साथ चिपके रहते हैं। बस सबकी सांसे सीबीआई दबाए रहती है।

खैर साहब ये दिल्ली है और दिल्ली की सियासी गलियारे में कोई किसी का सगा नहीं है। कब कौन किसकी कहां उतार दे कोई भरोसा नहीं। मुझे सीएनबीसी और आवाज के एडीटर संजय पुगलिया जी का एक सवाल याद आ रहा है जो उन्होंने रेल बजट वाले दिन पूर्व रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी से पूछा। उन्होंने कहा कि आप ने दो पैसे प्रति किलो मीटर किराया बढ़ाया और दिल्ली में दो कौड़ी की राजनीति शुरू हो गई। बेचारे त्रिवेदी इसका क्या जवाब देते, उनकी  तो सांसे अटक गई। लेकिन मैं पूरे विश्वास के साथ कहता हूं कि ये सवाल  सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, प्रणव मुखर्जी, पी चिदंबरम, ए के एटोनी, कपिल सिब्बल, कमल नाथ समते किसी से भी पूछा जा सकता है और उनके पास भी इसका जवाब नहीं है, क्योंकि सभी दो कौड़ी की नेतागिरी में शामिल हैं। 

Friday, 16 December 2011

सोनिया को नहीं जानती मुनिया ...

स लड़की को नहीं पता कि देश की राजधानी दिल्ली में आज कल किस बात की जंग अन्ना छेड़े हुए हैं। इसे तो सिर्फ ये पता है कि अगर शाम तक उसकी लकड़ी ना बिकी तो घर में चूल्हा नहीं जलेगा। पूरे शरीर पर लकडी की बोझ तले दबी इस लड़की की कहानी वाकई मन को हिला देने वाली है। मुझे लगता है कि देश की तरक्की को मापने का जो पैमाना दिल्ली में अपनाया जा रहा है, उसे सिरे से बदलने की जरूरत है। जंगल की जो तस्वीर मैने देखी है, उसे आसानी से भुला पाना मेरे लिए कत्तई संभव नहीं है। 
ज्यादा दिन नहीं हुए हैं, मैं आफिस के टूर पर उत्तराखंड गया हुआ था। घने जंगलों के बीच गुजरते हुए मैने देखा कि जंगल में कुछ लड़कियां पेड़ की छोटी छोटी डालियां काट रहीं थी और वो इन्हें इकठ्ठा कर कुछ इस तरह समेट रहीं थीं, जिससे वो उसे आसानी से अपनी पीठ पर रख कर घर ले जा सकें। दिल्ली से काफी लंबा सफर तय कर चुका था, तो वैसे भी कुछ देर गाड़ी रोक कर टहलने की इच्छा थी, जिससे थोड़ा थकान कम हो सके।
हमने यहीं गाड़ी रुकवा दी, गाड़ी रुकते ही ये लड़कियां जंगल में कहां गायब हो गईं, पता नहीं चला। बहरहाल मैं गाड़ी से उतरा और जंगल की ओर कुछ आगे बढ़ा। हमारे कैमरा मैन ने जंगल की कुछ तस्वीरें लेनी शुरू कीं, तो इन लड़कियों को समझ में आ गया कि हम कोई वन विभाग के अफसर नहीं, बल्कि टूरिस्ट हैं। दरअसल लकड़ी काटने पर इन लड़कियों को वन विभाग के अधिकारी परेशान करते हैं। इसके लिए इनसे पैसे की तो मांग की ही जाती है, कई बार दुर्व्यवहार का भी सामना करना पड़ता है। लिहाजा ये कोई भी गाड़ी देख जंगल में ही छिप जाती हैं।
हमें थोडा वक्त यहां गुजारना था, लिहाजा मैं इन लड़कियों के पास गया और उनसे सामान्य बातचीत शुरू की। बातचीत में इन लड़कियों ने बताया कि उन्होंने दिल्ली का नाम तो सुना है, पर कभी गई नहीं हैं। बात नेताओं की चली तो वो सोनिया, राहुल या फिर आडवाणी किसी को नहीं जानती। हां इनमें से एक लड़की मुनिया है जो उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी का नाम जानती है, पर वो क्या थे, नहीं पता। मैने सोचा आज कल अन्ना का आंदोलन देश दुनिया में छाया हुआ है, शायद ये अन्ना के बारे में कुछ जानती हों। मैने अन्ना के बारे में बात की, ये एक दूसरे की शकल देखने लगीं।
खैर इनसे मेरी बात चल ही रही थी कि जेब में रखे मेरे मोबाइल पर घर से फोन आ गया, मै फोन पर बातें करने लगा। इस बीच मैं देख रहा था कि ये लड़कियां हैरान थीं कि मैं कर क्या रहा हूं। मेरी बात खत्म हुई तो मैने पूछा कि तुम लोग नहीं जानते कि मेरे हाथ में ये क्या है, उन सभी ने नहीं में सिर हिलाया। बहरहाल अब मुझे आगे बढना था, लेकिन मैने सोचा कि अगर इन्हें मोबाइल के बारे में थोड़ी जानकारी दे दूं, तो शायद इन्हें अच्छा लगेगा। मैने बताया कि ये मोबाइल फोन है, हम कहीं भी रहें, मुझसे जो चाहे मेरा नंबर मिलाकर बात कर सकता है। मैं भी जिससे चाहूं बात कर सकता हूं। मैने उन्हें कहा कि तुम लोगों की बात मैं अपनी बेटी से कराता हूं, ठीक है।
मैने घर का नंबर मिलाया और बेटी से कहा कि तुम इन लड़कियों से बात करो, फिर मैं बाद में तुम्हें बताऊंगा कि किससे तुम्हारी बात हो रही थी। बहरहाल फोन से बेटी की आवाज सुन कर ये लड़कियां हैरान थीं। हालाकि ये लड़कियां कुछ बातें तो नहीं कर रही थीं, लेकिन दूसरी ओर से मेरी बेटी के हैलो हैलो ही सुनकर खुश हो रही थीं।
अब मुझे आगे बढना था, लेकिन मैने देखा कि इन लड़कियों ने लकड़ी के जो गट्ठे तैयार किए हैं, वो बहुत भारी हैं। मैने पूछा कि ये लकड़ी का गट्ठर तुम अकेले उठा लोगी, उन सभी ने हां में सिर हिलाया। भारी गट्ठर देख मैने भी इसे उठाने की कोशिश की, मैं देखना चाहता था कि इसे मैं उठा सकता हूं या नहीं। काफी कोशिश के बाद भी मैं तो इसे नहीं उठा पाया। इसके पहले कि मै इन सबसे विदा लेता, मेरी गाड़ी में खाने पीने के बहुत सारे सामान थे, जो मैं इनके हवाले करके आगे बढ गया।
मैं इन्हें पीछे छोड़ आगे तो बढ गया, पर सच ये है कि इनके साथ हुई बातें मेरा पीछा नहीं छोड़ रही हैं। मैं बार बार ये सोच रहा हूं कि पहाड़ों पर रहने वाली एक बड़ी आवादी किस सूरत-ए-हाल में रह रही है। ये बाकी देश से कितना पीछे हैं। इन्हें नहीं पता देश कौन चला रहा है, इन्हें नहीं पता देश में किस पार्टी की सरकार है। राहुल गांधी और केंद्र सरकार अपनी सरकारी योजना नरेगा की कितनी प्रशंसा कर खुद ही वाहवाही लूटने की कोशिश करें, पर हकीकत ये है कि जरूरतमंदो से जितनी दूरी नेताओं की है, उससे बहुत दूर सरकारी योजनाएं भी हैं।
अन्ना के साथ ही उनकी टीम अपने आंदोलन को शहर में मिल रहे समर्थन से भले ही गदगद हो और खुद ही अपनी पीठ भी थपथपाए, पर असल लड़ाई जो लड़ी जानी चाहिए, उससे हम सब अभी बहुत दूर हैं। हम 21 सदी की बात करें और गांव गांव मोबाइल फोन पहुंचाने का दावा भी करते हैं, लेकिन रास्ते में हुए अनुभव ये बताने  के लिए काफी हैं कि सरकारी योजनाएं सिर्फ कागजों पर ही मजबूत हैं। घर वापस आकर जब मैने बेटी को बताया कि रास्ते में कुछ ऐसी लड़कियों से मुलाकात हुई जो कभी दिल्ली नहीं आई हैं, उन्हें नहीं पता कि यहां किसकी सरकार है। यहां तक कि ये लड़कियों मोबाइल फोन देखकर भी हैरान थीं, तो बच्चों को भी यकीन नहीं हो रहा है, पर सच ये है कि तस्वीर खुद बोलती है।