Thursday 15 May 2014

UPA : दस साल दस गल्तियां !

क्जिट पोल के नतीजों से कांग्रेस बुरी तरह घबराई तो है, इसके बाद भी पार्टी आत्ममंथन करने को तैयार नहीं है। पार्टी आत्ममंथन करने के बजाए नेतृत्व को बचाने में लगी है। मसलन पार्टी चाहती है कि किसी तरह हार का ठीकरा सरकार पर यानि मनमोहन सिंह पर फोडा जाए। चुनाव की जिम्मेदारी संभाल रहे राहुल गांधी पर किसी तरह की आँच ना आने दी जाए। बहरहाल पार्टी का अपना नजरिया है, लेकिन यूपीए के 10 साल के कार्यकाल में दस बड़ी गल्तियों पर नजर डालें तो हम कह सकते हैं सरकार हर मोर्चे पर फेल रही है। कमजोर नेतृत्व, निर्णय लेने में देरी, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर सरकार पूरी तरह नाकाम रही है। आइये एक नजर डालते हैं कि दस साल में दस वो गलती जिसकी वजह से पार्टी को ये दिन देखने पड़ रहे हैं।

मनमोनह सिंह को प्रधानमंत्री बनाना 

कांग्रेस की सबसे बड़ी गलती यही रही कि उसने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री के  रूप में चुना। दरअसल  2004 में जब सोनिया गांधी को लगा कि उनके प्रधानमंत्री बनने से देश भर में बवाल हो सकता है तो उन्होंने ब्यूरोक्रेट रहे मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने का फैसला किया, जबकि पार्टी में तमाम वरिष्ठ नेता मौजूद थे, जो इस पद के काबिल भी थे, पर सोनिया को शायद वफादार की तलाश रही। मनमोहन सिंह एक विचारक और विद्वान माने जाते हैं, सिंह को उनके परिश्रम, कार्य के प्रति बौद्धिक सोच और विनम्र व्यवहार के कारण अधिक सम्मान दिया जाता है, लेकिन बतौर एक कुशल राजनीतिज्ञ उन्‍हें कोई सहजता से स्‍वीकार नहीं करता। यही वजह है कि उन पर कमजोर प्रधानमंत्री होने का आरोप लगा।

भ्रष्टाचार और मंहगाई रोकने में फेल

यूपीए सरकार में एक से बढ़कर एक भ्रष्टाचार का खुलासा होता रहा, लेकिन प्रधानमंत्री किसी के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने में नाकाम रहे। यहां तक की कोल ब्लाक आवंटन के मामले में खुद प्रधानमंत्री कार्यालय तक की भूमिका पर उंगली उठी। इसी तरह मंहगाई को लेकर जनता परेशान थी, राहत के नाम पर बस ऐसे बयान सरकार और पार्टी की ओर से आते रहे, जिसने जले पर नमक छि़ड़कने का काम किया। आम जनता महंगाई का कोई तोड़ तलाशने के लिए कहती तो दिग्‍गज मंत्री यह कहकर अपना पल्‍ला झाड़ लेते कि आखिर हम क्‍या करें, हमारे पास कोई अलादीन का चिराग तो है नहीं। कांग्रेसी सांसद राज बब्‍बर ने एक बयान दिया कि आपको 12 रुपये में भरपेट भोजन मिल सकता है, इससे पार्टी की काफी किरकिरी  हुई।

अन्ना आंदोलन से निपटने में नाकाम

एक ओर सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लग रहे थे, दूसरी ओर जनलोकपाल को लेकर अन्ना का दिल्ली में अनशन चल रहा था। सरकार इसकी गंभीरता को नहीं समझ पाई और ये आंदोलन देश भर में फैलता रहा। सरकार आंदोलन की गंभीरता को समझने में चूक गई, ऐसा सरकार के मंत्री भी मानते हैं। अभी अन्ना आंदोलन की आग बुझी भी नहीं थी कि निर्भया मामले से सरकार बुरी तरह घिर गई। देश भर में दिल्ली और यूपीए सरकार की थू थू होने लगी। जनता सरकार से अपना हिसाब चुकता करना चाहती थी, इसी क्रम में पहले दिल्ली विधानसभा चुनाव में पार्टी की बुरी तरह हार हुई, अब लोकसभा में भी पार्टी हाशिए पर जाती दिखाई दे रही है। अगर इन दोनों आंदोलन के प्रति सरकार संवेदनशील होती तो शायद इतने बुरे दिन देखने को ना मिलता ।

देश की भावनाओं को समझने में चूक 

यूपीए सरकार के तमाम मंत्री पर आरोप लगता रहा है कि वो देश की भावनाओं का आदर नहीं करते हैं। कश्मीर के पुंछ सेक्टर में पांच भारतीय सैनिकों की हत्या पर सरकार का रवैया दुत्कारने वाला रहा है। रक्षा मंत्री एके एंटनी ने तो हद ही कर दी, इस मामले में उन्होंने संसद में ऐसा बयान दिया कि जिससे जनता और देश दोनों शर्मसार हो गए। एंटनी ने पाकिस्तान का बचाव करते हुए कहाकि पुंछ में पांच भारतीय सैनिकों की हत्या पाकिस्तानी सेना की वर्दी पहने हुए लोगों ने की, जबकि रक्षा मंत्रालय ने साफ कहा था कि हमलावरों के साथ पाक सैनिक भी थे। उस समय पाक को दोषमुक्‍त बताने वाले इस बयान पर जमकर हंगामा हुआ था। इसके अलावा निर्भया कांड में यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी की चुप्पी से भी सरकार और पार्टी के प्रति गलत संदेश गया।

काँमनवेल्थ गेम ने डुबोई लुटिया

मैं समझता हूं कि एशियन गेम के बाद काँमनवेल्थ खेलों का आयोजन देश में खेलों का सबसे बड़ा आयोजन था, लेकिन ये आयोजन लूट का आयोजन बनकर रह गया। इसमें खेलों की उतनी चर्चा नहीं हुई, जितनी खेल के आयोजन मे हुए घोटाले की हुई। यहां तक की कांग्रेस के दिग्गज नेता को जेल तक की हवा खानी पड़ी। आखिरी समय में जिस तरह से पीएमओ ने इस आयोजन की खुद माँनिटरिंग शुरू की, अगर पहले ही ऐसा कुछ किया गया होता तो विश्वसनीयता बनी रहती।  इसके अलावा 2 जी घोटाले  ने तो सरकार के मुंह पर कालिख ही पोत दी, जिसमें महज 45 मिनट में देश को 1.76 लाख  करोड का चूना लगा।

मंत्रियों और नेताओं ने जनता से बनाई दूरी 

ये तो कांग्रेस का हमेशा से चरित्र रहा है। उनके सांसद विधायक चुनाव जीतने के बाद जनता से संवाद खत्म कर लेते हैं। दोबारा क्षेत्र में वह तभी जाते हैं जब चुनाव आ जाता है। छोटे मोटे नेताओं की बात तो दूर इस बार जब सोनिया गांधी अमेठी पहुंची तो वहां के लोगों ने राहुल की शिकायत की और कहाकि राहुल चुनाव जीतने के बाद यहां उतना समय नहीं दिए, जितना देना चाहिए था। यही वजह कि अमेठी में जहां दूसरी पार्टियों के झंडे नहीं लगते थे, इस बार ना सिर्फ बीजेपी बल्कि आप पार्टी का भी झंडा देखने को मिला। राहुल की हालत इतनी पतली हो गई कि उन्हें मतदान वाले दिन अमेठी में घूमना पड़ा ।

सीबीआई को बनाया तोता 

राजनीति को थोड़ा बहुत भी समझने वाले जानते हैं कि यूपीए की सरकार देश में 10 साल इसलिए चली कि उसके पास सीबीआई थी और सरकार ने उसे तोता बनाकर रखा था। मुलायम, मायावती, स्टालिन के स्वर जरा भी टेढ़े होते तो सीबीआई सक्रिय हो जाती थी, ये सब सीबीआई से बचने के लिए सरकार को समर्थन देते रहे। हालाँकि सरकार के काम काज का ये कई बार विरोध भी करते रहे, लेकिन समर्थन वापस लेने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। राजनाथ सिंह भी समय समय पर इशरत जहां मुठभेड़ मामले की सीबीआई की जांच को लेकर कांग्रेस पर निशाना साधते रहे हैं, वहीं भ्रष्‍टाचार के खिलाफ बिगुल बजा सरकार की चूलें हिलाने वाले अन्‍ना हजारे भी कांग्रेस पर सीबीआई दुरुपयोग के आरोप लगाते रहे हैं।

युवाओं को जोड़ने में राहुल नाकाम 

युवाओं की बात सिर्फ  राहुल  के भाषण में हुआ करती थी, राहुल या फिर सरकार ने इन दस सालों में ऐसा कुछ नहीं किया, जिससे युवाओं को सरकार पर भरोसा हो। सरकार और कांग्रेस नेताओं को पहले ही पता था कि इस पर 18 से 22 साल  के लगभग 15 करोड़ ऐसे मतदाता हैं जो पहली बार अपने मताधिकार का प्रयोग करने जा रहे हैं, इसके बाद भी सरकार ने कोई मजबूत ठोस प्लान युवाओं के लिए तैयार नहीं किया। केंद्र सरकार के तमाम मंत्रालयों में लाखों पद रिक्त हैं, एक अभियान चलाकर इन्हें भरा जा सकता था, लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया। इस चुनाव में बेरोजगारी एक महत्वपूर्ण मुद्दा था, ये बात यूपीए सरकार के घोषणा पत्र में तो था, लेकिन दस साल सरकार इस मसले पर सोती रही। यूपीए की हार की एक प्रमुख वजह बेरोजगारी भी है।

सोशल मीडिया और तकनीक से परहेज

यूपीए के फेल होने की एक ये भी खास वजह हो सकती है। नरेन्द्र मोदी जहां तकनीक के इस्तेमाल के मामले में अव्वल रहे, उन्होंने आक्रामक और हाईटेक प्रचार का सहारा लिया, वही राहुल गांधी पुराने ढर्रे पर चलते रहे। सोशल नेटवर्किंग का भी पार्टी उतना इस्तेमाल नहीं कर पाई जितना बीजेपी या फिर आम आदमी पार्टी ने किया। कहा गया कि राहुल ने पांच सौ करोड़ रुपये खर्च किए हैं, लेकिन मेरे हिसाब से तो प्रचार में वो केजरीवाल से भी पीछे रहे। राहुल ने एक दो चैनलों को इंटरव्यू दिया, लेकिन वो कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाए, मात्र सरकारी योजनाओं पर उबाऊ तरीके से बात करते रहे। ऐसे में लोगों ने उनकी बात को खारिज कर दिया। प्रियंका गांधी नीच राजनीति का बयान देकर सोशल मीडिया के निशाने पर रहीं, इससे भी पार्टी को मुश्किल का सामना करना पड़ा।

कमजोर चुनावी रणनीति 

सरकार हर  मोर्चे पर फेल रही, उसके पास ऐसा कुछ नहीं था, जिसे गिना कर वो वोट हासिल कर सके। ऐसे में उन्हें चुनाव की रणनीति पर अधिक काम करने की जरूरत थी,  लेकिन अनुभवहीन राहुल ऐसा कुछ करने में नाकाम रहे, वहीं पार्टी के नेता भी खुद भी अलग थलग रहे। ऐन चुनाव के वक्त तमाम नेताओं ने चुनाव लड़ने से इनकार किया, इससे भी पार्टी की किरकिरी हुई। दूसरी ओर बीजेपी की चुनावी रणनीति अव्वल दर्जे की रही, इसके अलावा मोदी ने जिस आक्रामक शैली में प्रचार किया, उससे कांग्रेस पूरी तरह बैकफुट पर रही।