Tuesday 25 June 2013

सोनिया, मनमोहन ने पर्यटकों का रास्ता रोका !

त्तराखंड की तबाही के आगे कश्मीर की ये घटना भले ही आपको गंभीर न लगे, चूंकि इस वक्त मैं यहां मौजूद हूं और आतंक की इस घटना को करीब से देख भी रहा हूं, या यूं कहूं कि कुछ हद तक भुक्तभोगी भी हूं, तो गलत नहीं होगा। सच में इस वक्त कश्मीर के जिस भयावह हालात रुबरू हूं, उसे शब्दों में बांधना आसान नहीं है। ये तो आपको पता ही है कि  भारत प्रशासित कश्मीर की राजधानी श्रीनगर में कल यानि सोमवार को एक चरमपंथी हमले में आठ सैनिकों की मौत हो गई, जबकि अर्धसैनिक सुरक्षा बल का एक जवान गंभीर रूप से घायल हो गया। दो दिन बाद पवित्र अमरनाथ यात्रा की शुरुआत होनी है, इसके मद्देनजर सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम सड़कों पर दिखाई दे रहे हैं, लेकिन इन सुरक्षा इंतजामों के बीच भी जब आतंकी सुरक्षा बलों पर ही हमला करने में कामयाब हो जाते हैं, इतना ही नहीं हमले के बाद वो सुरक्षित भाग निकलने में भी कामयाब हो जाते हैं, तब मुझे लगता है कि अपने सुरक्षा प्रबंध को एक बार जांचना जरूरी है। ये तो हुई एक बात ! दूसरी बात,  आप सब जानते हैं कि कश्मीर में रोजाना 8-10 हजार पर्यटक आते हैं। इस वक्त तो देश और विदेश के दो लाख से ज्यादा पर्यटक कश्मीर में अपनी छुट्टियां बिताने आए हैं, पर सच बताऊं कि आतंकी हमले से पर्यटकों को उतनी मुश्किल नहीं हुई, जितनी आज मनमोहन और सोनिया गांधी के आने से हो रही है। इन दो लोगों ने दो लाख पर्यटकों को बंधक बना दिया।

सुबह जब मैं पहलगाम से श्रीनगर के लिए चला तो बातचीत में कार के ड्राईवर ने कहाकि "साहब केंद्र की सरकार कश्मीर को लेकर ऐसी बड़ी-बड़ी बातें करती है, जिससे देश के बाकी हिस्से में लोगों को लगता है कि हमारे लिए इतना कुछ किया जा रहा है, फिर भी कश्मीरी सरकार के खिलाफ हैं और ये जहर उगलते रहते हैं,  लेकिन सच्चाई ये नहीं है, हम कम में गुजारा करने को तैयार हैं, पर हमारी बुनियादी मुश्किलों के प्रति सरकार संवेदनशील तो हो। हमारी बुनियादी जरूरतें पूरी करना तो दूर कोई सुनने को राजी नहीं है। आतंकी हमले में बेकसूर कश्मीरियों को जान गंवानी पड़ रही है, लेकिन सरकार कभी संवेदना के दो शब्द नहीं बोलती। हालाकि मैं तो सुनने में ही ज्यादा यकीन करता हूं, लेकिन मुझे लगा कि ये ड्राईवर जमीनी हकीकत बयां कह रहा है, लिहाजा मैने उससे कहा कि आतंकवादी हमले में सिर्फ कश्मीरी ही नहीं सुरक्षा बल के जवान भी मारे जाते हैं। इसके बाद तो ड्राईवर ने सरकार के प्रति जो गुस्सा दिखाया, मैं खुद सुनकर हैरान रह गया। बोलने लगा साहब हम घटनाओं को कश्मीर में खड़े होकर देखते हैं और आप दिल्ली से इसे देखते हैं। हम दोनों देख रहे हैं कि हमला हुआ है और सुरक्षा बल के लोग मारे गए हैं। जितनी तकलीफ आपको है, उससे कम तकलीफ मुझे भी नहीं है। लेकिन बात तो सरकार की है। अगर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी इस हमले को लेकर गंभीर होती तो आज कश्मीर का दौरा रद्द कर सुरक्षा बलों को हिदायत देती कि आतंकियों को ढूंढ कर मारो। लेकिन यहां तो कल हमला हुआ, एक घंटे ये खबर जरूर न्यूज चैनलों पर थी, उसके बाद सब अपने काम में जुट गए। रही  बात सुरक्षा बलों की तो उन्हें मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की सुरक्षा के मद्देनजर उन रास्तों की निगरानी में लगा दिया गया, जहां से उन्हें गुजरना है।

सच कहूं तो मैं ड्राईवर की बातें सुनकर हैरान था, क्योंकि मुझे भी लग रहा था कि वाकई बात तो इसकी सही है। सूबे में शांति ना हो और विकास की घिसी पिटी बातें लोगों को सुनाई जाएं, ये भी तो बेमानी ही है। ये सब बातें चल ही रही थीं कि श्रीनगर से लगभग 25 किलोमीटर पहले लंबा जाम दिखाई दिया। गाड़ी खड़ी कर ड्राईवर नीचे उतरा ये पता लगाने की जाम क्यों लगा है। ड्राईवर पांच मिनट में वापस आया और बताया कि आगे चार पांच किलोमीटर तक इसी तरह जाम है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की सुरक्षा के मद्देनजर श्रीनगर को सील कर दिया गया है, जब तक उनके सभी कार्यक्रम खत्म नहीं हो जाते तब तक हमें यहीं रुकना होगा। घड़ी देखा, दोपहर के लगभग 12 बजने वाले थे, शाम यानि छह बजे के बाद हम श्रीनगर में घुस पाएंगे, ये सुनकर तो मैं फक्क पड़ गया। दिमाग में खुराफात सूझा, मैने कहाकि मीडिया का कार्ड तो मेरे पास है ही, सुरक्षा बलों को बताता हूं कि मैं प्रधानमंत्री के कार्यक्रम को ही अटेंड करने दिल्ली  से आया हूं, कोशिश करते हैं, शायद कामयाबी मिल जाए। मेरे कहने पर ड्राईवर ने गाड़ी को गलत साइड़ से आगे बढ़ाया, सुरक्षा बलों ने रोकने की कोशिश की, उसे बताया कि मीडिया से हैं, उसने कार्ड देखा और फिर मेरी गाड़ी यहां से आगे निकल आई। ये प्रक्रिया मुझे कई जगह दुहरानी पड़ी। मैं यहां से जरूर निकल आया, लेकिन दूसरे पर्यटकों की हालत देख मुझे वाकई तकलीफ हुई।

आज 25 जून मेरे लिए कुछ खास है, मेरी छोटी बेटी का जन्मदिन है। बेटी की इच्छा के मुताबिक हमने बर्थडे केक काटने के लिए कश्मीर के "हाउस वोट" को चुना। अब सुरक्षा बलों के साथ आंख-मिचौली करते हुए मैं श्रीनगर में लालचौक तक आ गया। यहां से बस तीन किलोमीटर की दूरी पर वो हाउस वोट है, जहां मेरी बुकिंग है। लेकिन इस पूरे इलाके को एसपीजी ने अपने कब्जे में ले रखा है, लिहाजा यहां से आगे जाना बिल्कुल संभव नहीं था। मैने अपने हाउस वोट के मैनेजर को फोन किया, उसने तो पूरी तरह हाथ ही खड़े कर दिए और कहा सर अभी इधर आना बिल्कुल ठीक नहीं होगा, क्योंकि सभी हाउस वोट को खाली करा लिया गया है। शाम के बाद ही पर्यटकों को एंट्री मिलेगी। इसके बाद तो मेरी हिम्मत भी टूट गई और मैं लाल चौक में अपने न्यूज चैनल के दफ्तर में आ गया।

यहां पता चला कि पर्यटकों का कल रात से बुरा हाल है। ना सिर्फ हाउस वोट बल्कि आस पास के होटल मालिकों को भी कह दिया गया कि वो सुबह नौ बजे तक पर्यटकों को होटल के बाहर निकाल दें और उन्हें साफ कर दें कि वो शाम से पहले वापस ना आएं। अब आप आसानी से सरकार की संवेदनहीनता को समझ सकते हैं। क्या सभ्य समाज में किसी को भी  ये इजाजत दी जा सकती है कि एक शहर को पूरे दिन बंद कर दो। दो वीआईपी की वजह से दो लाख पर्यटक होटल और हाउस वोट का पेमेंट करने के बाद भी वहां जा नहीं पा रहे हैं। मेरा सवाल है कि सुरक्षा प्रबंध के नाम पर आखिर दो लाख पर्यटकों को पूरे दिन कैसे बंधक बनाया जा सकता है ? आम आदमी को इसका जवाब कौन देगा ?

अगर अपनी बात करुं तो मुझे लगता है कि मेरा और राजनीतिज्ञों का तो पिछले जन्म की दुश्मनी है। हालत ये है कि तू डाल-डाल तो मैं पात-पात का खेल चल रहा है। सियासियों के पैतरेबाजी, झूठे वायदे और बनावटी बातें सुन-सुन कर थक गया, तम मैने तय किया कि कुछ दिन परिवार के साथ इन सबको दिल्ली में छोड़कर कश्मीर आ जाता हूं, लेकिन ये राजनीतिक मेरा पीछा यहां तक करेंगे, मैने वाकई नहीं सोचा था। लेकिन आज जब मनमोहन और सोनिया ने दिल्ली से हजार किलोमीटर दूर श्रीनगर (कश्मीर) में मेरा रास्ता रोका तो मैं सच में हिल गया। अब आगे मुझे कोई भी यात्रा फाइनल करने के पहले सौ बार सोचना होगा। मैं फिर दोहराना चाहूंगा कि मैं तो सुकून से अपने आफिस में बैठकर इन नेताओं की ब्लाग पर ही सही, लेकिन खाल खींच तो रहा हूं। लेकिन बेचारे दूसरे पर्यटक जो रास्ते में फंसे हैं, जहां ना खाने को कुछ है और ना ही पीने को। वो बेचारे तो अपनी किस्मत को ही कोस रहे होंगे।

मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी ने जहां लोगों का रास्ता रोका, वहीं अलगाववादियों ने इन दोनों को अपनी ताकत दिखाने के लिए बंद का ऐलान कर दिया। हालत ये हो गई है कि पूरा श्रीनगर ही नहीं बल्कि कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा पूरी तरह बंद हो गया। इससे सबसे ज्यादा मुश्किल पर्यटकों को ही होनी थी जो हुई भी। बेचारे पर्यटक एक कप चाय के लिए  तरस गए। चलते चलते आपको ये भी बता दें कि अभी हमारी मुश्किल कम नहीं हुई है, क्योंकि मनमोहन और  सोनिया गांधी ये जानते हुए भी उनके यहां रहने से पूरा श्रीनगर बंद हो गया है, वो आज श्रीनगर में रुक भी रहे हैं। कल यानि बुधवार को दोपहर बाद वापस होगें, तब तक पर्यटकों का क्या हाल होगा, भगवान मालिक है।


नोट : मित्रों वापस लौट कर आता हूं, फिर आपको कश्मीर के कई रंग  दिखाऊंगा। खासकर धरती के स्वर्ग को कौन बना रहा है नर्क !





Monday 17 June 2013

नीतीश को मांस से नहीं तरी से परहेज !

क सप्ताह से चल रहे नीतीश कुमार के सियासी ड्रामे का आज अंत हो गया। वैसे मुझे लगता है कि ये स्टोरी लोगों को पसंद नहीं आई होगी। आपको पता है कि अगर स्टोरी में दम होता तो अब तक प्रकाश झा इस कहानी पर फिल्म बनाने का ऐलान कर चुके होते, लेकिन वो पूरी तरह खामोश हैं। हां कोई नया निर्माता-निर्देशक होता तो वो जरूर इस कहानी को हाथोहाथ लेता, क्योंकि इसमें ड्रामा है, एक्शन है, सस्पेंस है, वो तो इस कहानी पर जरूर दांव लगाता। लेकिन मेरा मानना है कि चूंकि इस कहानी में नीतीश कुमार एक महत्वपूर्ण किरदार में रहे और नीतीश की बाजीगिरी पूरे देश को खासतौर पर बिहार को तो पता ही है। ऐसे में किसी ने भी इस कहानी में रुचि नहीं ली। लेता भी कैसे कहानी का अंत सभी को पहले से मालूम था, लिहाजा जनता की आंख में लंबे समय तक धूल नहीं झोंका जा सकता था। बिहार के लोग ही कहते हैं कि नीतीश की दोस्ती चाइनीज प्रोडक्ट की तरह है। मसलन चल गई तो चांद तक नही तो बस शाम तक ! खैर मैं इस कहानी को फिल्मी रंग देकर इसकी गंभीरता को खत्म नहीं करना चाहता, लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि नीतीश के खाने के और दिखाने के दांत अलग-अलग हैं। नीतीश कुमार ऐसे शाकाहार राजनीतिज्ञ हैं जिन्हें मांस से नहीं उसकी तरी से परहेज है। कौन नहीं जानता कि बीजेपी की बुनियाद ही कट्टर हिंदूवादी सोच पर आधारित है, लेकिन उन्हें बीजेपी में नरेन्द्र मोदी के अलावा सभी धर्मनिरपेक्ष लगते हैं, यहां तक की देश भर में रथयात्रा निकाल कर माहौल खराब करने वाले एल के आडवाणी भी सैक्यूलर दिखते हैं।

एक-एक कर सभी बिंदुओं पर चर्चा करूंगा, लेकिन पहले बात कर लूं बिहार में मुस्लिम वोटों  पर गिद्ध की तरह आंख धंसाए लालू और नीतीश की। दरअसल लालू यादव मुसलमानों की नजर में उस वक्त हीरो बनकर उभरे जब उन्होंने आडवाणी की रथयात्रा को बिहार में रोक कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद लालू यादव काफी दिनों तक मुस्लिम टोपी और चारखाने वाला गमछा लिए बिहार में फिरते रहे। इधर नीतीश एक मौके की तलाश में थे कि कैसे मुस्लिम मतदाताओं को अपने साथ लाएं। उन्हें ये मौका मिला 2010 में, जब पटना में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के दौरान समाचार पत्रों में एक विज्ञापन प्रकाशित हुआ, जिसमें नीतीश कुमार और नरेन्द्र मोदी को हाथ पकड़े प्रसन्न मुद्रा में दिखाया गया। हालाकि ये तस्वीर गलत नहीं थी, लेकिन नीतीश को लगा कि इससे अच्छा मौका नहीं मिल सकता। उन्होंने इस पर कड़ा एतराज जताया। इतना ही नहीं कार्यकारिणी में हिस्सा लेने आए बीजेपी के बड़े नेताओं का रात्रिभोज जो मुख्यमंत्री आवास पर तय था, उसे रद्द कर दिया। इसके बाद हुए विधानसभा चुनाव में नीतीश को भारी कामयाबी मिली। बस यहीं से नीतीश बेलगाम हो गए, उन्हें लगा कि बीजेपी नेताओं को बेइज्जत करने से मुसलमान उनके साथ आया है और  इस कामयाबी में सिर्फ मुसलमानों का ही हाथ है। जबकि इसी चुनाव में बीजेपी को भी अच्छी सफलता मिली। दरअसल सच्चाई ये है कि लालू के कुशासन से परेशान बिहार की जनता को एनडीए गठबंधन से उम्मीद जगी और उन्होंने इस गठबंधन को ऐतिहासिक जीत दिलाई।

नीतीश कुमार इसे मुसलमानों के वोटों पर मिली अपनी जीत समझने लगे। यहीं से विवाद गहराता गया। बड़ा और अहम सवाल ये है कि आज नीतीश कुमार अगड़े वोटों को लेकर क्या सोच रहे हैं। जमीनी हकीकत तो ये हैं कि बिहार में अगड़ों की कुल आबादी करीब 21 फीसदी है। सियासी गलियारे में चर्चा है कि करीब 13 फीसदी अगड़े वोट पर अकेले बीजेपी का कब्जा है। सबको पता है कि जेडीयू के 20 सांसदों की जीत में बीजेपी के अगड़े वोटों का बड़ा हाथ है। इतना ही नहीं राज्य की सियासत में अगड़े वोट का असर और भी ज्यादा है। विधानसभा की कुल 243 सीटों पर 76 अगड़े विधायक काबिज हैं। पिछले तीन विधानसभा चुनावों पर नजर डालें तो इनकी संख्या लगातार बढ़ी भी है। मुझे हैरानी इस बात की है कि नीतीश जिस स्तर पर जाकर मुस्लिम मतों को लुभाने की कोशिश या कहें साजिश कर रहे हैं, उससे क्या उन्हें आने वाले चुनावों में अगड़े वोटों का नुकसान नहीं होगा ? सब को पता है बिहार की सियासत में अगड़ों का असर लगातार बढ़ रहा है। सच्चाई भी यही है कि ज्यादातर जेडीयू विधायकों के इलाके में अगड़े वोट नतीजे बदलने की ताकत भी रखते हैं। ऐसे में तो बीजेपी का साथ छोड़ने की कीमत नीतीश को जरूर चुकानी पड़ेगी। अगड़ों को लुभाने के लिए पिछले विधानसभा चुनाव के पहले नीतीश ने सवर्ण आयोग का वादा किया और चुनाव जीतते ही उन्होंने सवर्ण आयोग गठित भी कर दिया। लेकिन मोदी को लेकर जो रवैया उन्होंने अपनाया, उसे देखते हुए तो नहीं लगता कि नीतीश अगड़ों में अपनी जगह बना पाएंगे।

हमारा अनुभव रहा है कि सियासत में कोई स्थायी दोस्त और दुश्मन नहीं होता। बस मोदी का भूत खड़ा कर बिहार में नीतीश भी वही करना चाहते हैं जो उनके धुर विरोधी लालू प्रसाद यादव करते आए हैं। यानी अल्पसंख्यक वोटों की सियासत। इसके लिए वो जिस स्तर तक गिरते जा रहे हैं, उसे देखकर कई बार हैरानी होती है। मैं तो कहता हूं कि मुस्लिम टोपी और गमछा तो आजकल उनका पारंपरिक पहनावा हो गया है। कहा जा रहा है कि कहीं इस वोट के खातिर वो पार्टी में "खतना" अनिवार्य ना कर दें। मेरे मन में एक सवाल है कि आखिर नीतीश कुमार-लालू प्रसाद यादव से भी ज्यादा बुलंद आवाज में मोदी विरोध का झंडा क्यों बुलंद कर रहे हैं ? क्या ये वही नीतीश कुमार नहीं हैं जो 2002 में गुजरात के दंगों के वक्त केंद्र में वाजपेयी सरकार में रेल मंत्री थे। इस दौरान उन्होंने एक बार भी इस दंगे के बारे में अपनी राय नहीं जाहिर की। मैं पूछता हूं नीतीश कुमार का अल्पसंख्यक प्रेम उस वक्त कहां था ? इसका जवाब नीतीश कुमार के पास नहीं है। दरअसल नीतीश को उम्मीद ही नहीं थी कि उनका कभी बिहार की राजनीति में इतना ऊंचा कद होगा कि वो लालू का सफाया करने में कामयाब हो जाएंगे। इसलिए वो रेलमंत्री की कुर्सी पर चुपचाप डटे रहे। आप सबको पता होगा कि दंगों में मोदी की भूमिका के सवाल पर रामविलास पासवान ने वाजपेयी कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया था। ऐसे में अगर आज पासवान मोदी का खुला विरोध करें तो बात समझ में आती है, लेकिन कहावत है ना कि " सूपवा बोले त बोले, चलनियों बोले, जिहमें बहत्तर छेद "

खैर अब 17 साल पुराना बीजेपी और जेडीयू का गठबंधन खत्म हो चुका है। नीतीश का कहना है कि वो अपनी पार्टी की नीतियों से कत्तई समझौता नहीं कर सकते,जबकी बीजेपी इसे विश्वासघात बता रही है। हालाकि बिहार की राजनीति को समझने वालों को कहना है कि  बीजेपी-जेडीयू गठबंधन को मुस्लिम, कुर्मी के साथ अग़ड़ों के वोट मिलते थे, जिसकी वजह से गठबंधन जीतता रहा है। लेकिन जिस हालात में नीतीश ने इस गठबंधन को तोड़ा है, उससे  अब अगड़ों के वोट निश्चित रूप से खिसक जाएंगे। रही बात मुस्लिम वोटों की तो उसमें चार हिस्सेदार हैं,
नीतीश, लालू, पासवान और कुछ हद तक कांग्रेस भी। ऐसी सूरत में नीतीश का ये दांव उनके लिए उल्टा भी पड़ सकता है। वैसे एक बात तो है कि सियासत में बड़े दांव खेलने में नीतीश को महारत हासिल है। आपको याद होगा कि पहली बार 1996 में उन्होंने जार्ज फर्नांडीस के साथ मिलकर बीजेपी से गठबंधन किया। विवादित ढांचा ढहने के बाद बीजेपी को सेकुलर दल अछूत मानने लगे थे लेकिन समता पार्टी के झंडे तले नीतीश ने बीजेपी से हाथ मिलाया और बीजेपी की इस मुश्किल को हल कर दिया था। इसके बाद से बीजेपी से नीतीश का रिश्ता मजबूत होता गया। मई 1998 में जब 13 दलों ने एनडीए की बुनियाद रखी तो इसमें नीतीश की महत्वपूर्ण भूमिका थी। 1999 में एनडीए के तहत बीजेपी और जेडीयू ने मिल कर चुनाव लड़ा। केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में नीतीश रेल मंत्री बने। नवंबर 2005 में बिहार विधानसभा चुनाव में जेडीयू-बीजेपी गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिला। अटल और आडवाणी के आशीर्वाद से नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री बने।

अब सबके मन में एक सवाल है, जब सबकुछ ठीक चल रहा था तो आखिर ऐसी नौबत क्यों आई कि गठबंधन टूट गया। मैं बताता हूं, नीतीश कुमार को लगता था कि जिस तरह वो बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी के गले पट्टा डाले अपने कब्जे में रखते हैं, उसी तरह वो नरेन्द्र मोदी के गले में भी पट्टा डालने में कामयाब हो जाएंगे। फिर उन्हें गलतफहमी हो गई थी कि  उनकी गीदड़भभकी से बीजेपी और संघ परिवार भी घुटनों पर आ जाएगा और वो ऐलान कर देंगे कि नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं होगे। पर राजनीति की एबीसी भी जानने वाले अब समझ गए हैं कि नरेन्द्र मोदी को रोकना आसान नहीं है, अब उन्हें बीजेपी नेताओं का समर्थन मिले या ना मिले, उनके साथ देश का समर्थन है। दो दिन पहले खबरिया चैनलों पर बिहार के युवाओं से बात हो रही थी। मैने देखा कि वहां के नौजवान एक स्वर में कह रहे थे कि नीतीश कुमार को बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर कामयाब नेता मानते हैं, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में आज मोदी का कोई मुकाबला नहीं है। जब  बिहार के नौजवानों की ये राय है तो देश के बाकी हिस्सों की राय का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। मेरी अपनी राय है कि नीतीश कुमार इसलिए भी बेलगाम हो गए कि बिहार बीजेपी ने उनके सामने पूरी तरह समर्पण कर दिया था, कभी लगा ही नही कि शरीर की सबसे जरूरी रीढ की हड्डी उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी के शरीर में है। इस बार उनका पाला 24 कैरेट के मोदी से पड़ा तो चारो खाने चित्त हो गए।

चलिए अब आगे की राह नीतीश को अकेले तय करनी है। अंदर की खबर तो है कि जेडीयू के दो चार अल्पसंख्यक नेताओं के अलावा किसी की भी ये राय नहीं थी कि बीजेपी से नाता खत्म किया जाए। यहां तक की पार्टीध्यक्ष शरद यादव खुद आखिरी समय तक बीच का रास्ता निकालने की कोशिश कर रहे थे। वो लगातार एक ही बात कहते रहे कि बीजेपी ने नरेन्द्र मोदी को अपनी पार्टी का प्रचार प्रमुख बनाया है, वो कोई एनडीए के प्रमुख थोड़े बन गए हैं कि इतनी हाय तौबा मचाई जाए। लेकिन सब जानते हैं कि नीतीश अंहकारी है, उन्हें लगता है कि पार्टी की जो भी ताकत है, ये सब उनकी वजह है। ऐसे में वो जो चाहेंगे वही होगा। वैसे सच तो ये है कि नीतीश गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी से अंदरखाने खुंदस रखते ही हैं, वो मौका तलाश रहे थे और उन्हें मौका मिल गया। लेकिन गठबंधन टूटने के बाद नीतीश जिस तरह बीजेपी पर भड़क रहे थे, इससे साफ हो गया कि वो खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं।

दुश्मनी जम कर करो मगर इतनी गुंजाइश रहे,
कि जब कभी फिर दोस्त बनें तो शर्मिंदा ना हों। 




नोट: -   मित्रों ! मेरा दूसरा ब्लाग TV स्टेशन है। यहां मैं न्यूज चैनलों और मनोरंजक चैनलों की बात करता हूं। मेरी कोशिश होती है कि आपको पर्दे के पीछे की भी हकीकत पता चलती रहे। मुझे " TV स्टेशन " ब्लाग पर भी आपका स्नेह और आशीर्वाद चाहिए। 
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Friday 14 June 2013

नीतीश के दांत : खाने के और दिखाने के और !

कई बार सोचता हूं कि गुजरात दंगे का असली मुजरिम कौन है ? इस सवाल पर इतने विचार मन में आते हैं कि अंतिम नतीजे पर नहीं पहुंच पाता हूं। जब गुजरात दंगे की तरफ नजर उठाता हूं तो लगता है कि बेईमानी कर रहा हूं, क्योंकि दंगे के पहले साबरमती एक्सप्रेस की घटना को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अगर साबरमती एक्सप्रेस में सफर कर रहे यात्रियों की सुरक्षा पुख्ता होती तो, 59 यात्रियों को जिंदा नहीं जलाया जा सकता था। और अगर 59 आदमी जिंदा ना जले होते तो गुजरात में दंगा ना भड़कता। उस वक्त ट्रेन की सुरक्षा की जिम्मेदारी यानि रेलमंत्री यही नीतीश कुमार थे। ईमानदारी की बात तो यही है कि साबरमती एक्सप्रेस की आग में ही गुजरात जला, वरना गुजरात में कुछ नहीं होता। अगर ऐसा है तो फिर गुजरात दंगे के लिए पहली जिम्मेदारी तो नीतीश कुमार की ही होनी चाहिए, दूसरी जिम्मेदारी नरेन्द्र मोदी डाली जानी चाहिए। मोदी पर भी यही आरोप है कि वो दंगे को काबू नहीं कर पाए, यही आरोप नीतीश पर भी है कि वो ट्रेन की सुरक्षा नहीं कर पाए। यानि ना खुद नीतीश ने ट्रेन में आग लगाई और ना ही मोदी ने सड़कों पर उतर कर दंगाइयों के साथ खड़े थे। हम कह सकते हैं कि दोनों ही अपने काम को अच्छी तरह नहीं निभा सके। वैसे बड़ा सवाल है कि सुरक्षा कर पाने में फेल नीतीश ने उस वक्त नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए रेलमंत्री के पद से इस्तीफा क्यों नहीं दिया ? नीतीश ने उस वक्त गुजरात दंगे को लेकर कोई प्रतिक्रिया भी नहीं दी, क्योंकि नीतीश को कुर्सी हमेशा से प्रिय रही है। खैर मेरा अब भी मानना है कि नीतीश कुमार में इतनी ईमानदारी अभी बची है कि वो शीशे के सामने खड़े होकर नरेन्द्र मोदी को दंगाई कभी नहीं कह सकते, क्योंकि गुजरात दंगे के लिए दोनों ही बराबर के जिम्मेदार हैं।       

नीतीश कुमार की ये तस्वीर गोधरा दंगे के बाद की है। एक सार्वजनिक मंच पर नीतीश ने सिर्फ नरेन्द्र मोदी के हाथ में हाथ ही नहीं डाला, बल्कि जनता के सामने हाथ ऊंचा कर अपनी दोस्ती का भी इजहार कर रहे हैं। मुझे लगता है कि इस तस्वीर के बाद नीतीश कुमार के बारे में कुछ कहना-लिखना ही बेमानी है, पर मेरी कोशिश है कि उन्हें जरा पुरानी बातें भी याद करा दूं। प्रसंगवश ये बताना जरूरी है कि गुजरात दंगे की शुरुआत गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस के एस 6 डिब्बे में आग लगाने से हुई, जिसमें सवार 59 कार सेवकों की मौत हो गई थी। इसके बाद गुजरात के हालात बेकाबू हो गए और जगह-जगह दंगे फसाद में बड़ी संख्या में एक खास वर्ग के लोग मारे गए। सभ्यसमाज में किसी से भी आप बात करें वो यही कहेगा कि दंगे नहीं होने चाहिए थे, मेरा भी यही मानना है कि वो दंगा गुजरात के लिए दुर्भाग्यपूर्ण था। अब नीतीश कुमार की बात कर ली जाए। गुजरात में जब दंगा हुआ उस वक्त केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी, जिसमें नीतीश कुमार रेलमंत्री थे। दंगे की शुरुआत साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन में आग लगाने से हुई, जिसमें 59 लोगों को जिंदा जला दिया गया। ट्रेन में ये हादसा हुआ था, ऐसे में अगर नीतीश कुमार में थोड़ी भी ईमानदारी होती तो उन्हें तुरंत रेलमंत्री के पद से इस्तीफा दे देना चाहिए था। खैर, ट्रेन में हुए हादसे की प्रतिक्रिया हुई और गुजरात में दंगा भड़क गया। बड़ी संख्या में एक ही वर्ग के लोग मारे गए। मोदी की प्रशासनिक क्षमता पर सवाल उठे, आरोप यहां तक लगा कि उन्होंने जानबूझ कर दंगा रोकने के लिए कोई कार्रवाई नहीं की। मामला अदालत में है, फैसला होगा, तब  देखा जाएगा।


गुजरात दंगे से सिर्फ गुजरात ही नहीं पूरा देश सिहर गया। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी गुजरात पहुंचे और उन्होंने मोदी को राजधर्म का पाठ पढ़ाया। सच तो ये है कि वाजपेयी मोदी को मुख्यमंत्री के पद से ही हटाना चाहते थे, लेकिन लालकृष्ण आडवाणी की वजह से उन्हें नहीं हटाया जा सका। आज वही आडवाणी नीतीश कुमार के लिए धर्मनिरपेक्ष हैं। जिस आडवाणी की रथयात्रा से देश भर में माहौल खराब हुआ और अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहा दी गई, देश के अलग अलग हिस्सों में दंगे हुए, जिसमें हजारों लोग मारे गए। आज वो आडवाणी बिहार के मुख्यमंत्री के आदर्श है। खैर ये उनका व्यक्तिगत मामला है। मैं सीधा सवाल नीतीश से करना चाहता हूं। बताइये नीतीश जी, मेरे ख्याल से जब आप रेलमंत्री थे तो बालिग रहे ही होंगे, इतनी समझ जरूर होगी कि अल्पसंख्यकों के साथ बुरा हुआ है। उस वक्त आप खामोश क्यों थे ? आपने उस दौरान केंद्र की सरकार पर ऐसा दबाव क्यों नहीं बनाया कि मुख्यमंत्री को तुरंत बर्खास्त किया जाए ? आपने उस वक्त गुजरात जाकर क्या अल्पसंख्यकों के घाव पर मरहम लगाने की कोई कोशिश की ? मुझे पता है आप कोई जवाब नहीं देंगें। जवाब भी मैं ही दे देता हूं, आपको कुर्सी बहुत प्यारी थी, इसीलिए आप रेलमंत्री भी बने रहे और दंगे को लेकर आंख पर पट्टी भी बांधे रहे।

मैं समझता हूं कि ये तस्वीर आपको नीतीश कुमार का असली चेहरा दिखाने के लिेए काफी है। क्योंकि गुजरात दंगे के बाद नीतीश हमेशा मोदी के साथ बहुत ही मेल-मिलाप के साथ रहे हैं। दोनों की खूब बातें होती रही हैं, खूब हालचाल होते रहे हैं। लेकिन सिर्फ मुझे ही नहीं लगता, बल्कि बिहार के लोगों का भी मानना है कि मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश में " अहम् " आ गया है। वो अब खुद को मोदी से बड़ा आईकान समझने लगे। लेकिन नीतीश कुमार भूल गए कि आज राजनीतिक स्थिति यह है कि जिस बिहार के वो मुख्यमंत्री हैं, उसी बिहार में नरेन्द्र मोदी के पक्ष में एक मजबूत ग्रुप तैयार हो चुका है, जो नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहता है। इतना ही नहीं नीतीश कुमार जब मोदी के खिलाफ जहर उगलते हैं तो इससे इन्हें काफी तकलीफ भी होती है। यही वजह है कि बिहार का एक बड़ा तबका आज नीतीश से चिढ़ने लगा है। नीतीश को ये बात पता है कि अब बिहार की राजनीति में दो ध्रुव है। एक पिछड़ों की जमात है और दूसरा अगड़ों की जमात है। यादव को छोड़ कर पिछड़ों और अगड़ों का बड़ा तबका आज नरेन्द्र मोदी के नाम की जय-जयकार कर रहा है। सच बताऊं मुझे लगता है कि नीतीश कुमार के राजनीतिक भविष्य में काफी मुश्किल होने वाली है, उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा सेना के मिग-21 के उस लड़ाकू उड़ान जैसी है, जो अकसर दुर्घटनाग्रस्त हो जाती है, जिसमे बेचारे तीरंदाज पायलटों को भी जान गवानी पड़ जाती है।

कुछ दिन पहले हुए महराजगंज लोकसभा उप चुनाव में जेडीयू उम्मीदवार को लगभग डेढ लाख मतों से हार का सामना करना पड़ा। नीतीश की समझ में क्यों नहीं आया कि अब उनका असली चेहरा बिहार की जनता के सामने आ चुका है। दरअसल विधानसभा चुनाव में जो कामयाबी जेडीयू-बीजेपी गठबंधन को मिली, उसे ये अपनी जीत समझने लगे। जबकि सच्चाई ये थी कि लोग लालू और राबड़ी की सरकार से लोग इतने तंग थे कि वो बदलाव चाहते थे। बस उन्होंने इस गंठबंधन को मौका दे दिया। आज तो नीतीश पर भी तरह-तरह के गंभीर आरोप हैं। उन पर भी उंगली उठने लगी है। नीतीश सिर्फ अपनी ही पार्टी के नहीं बल्कि दूसरे दलों के भी चुने हुए जनप्रतिनिधियों को भ्रष्ट मानते हैं। लेकिन अब बिहार की जनता उनसे पूछ रही है कि भ्रष्ट नौकरशाह एन के सिंह और भ्रष्ट उद्योगपति किंग महेन्द्रा को राज्यसभा में उन्होंने क्यों भेजा? इतना ही नहीं उन्होंने अपने स्वजातीय नौकरशाह जो प्राइवेट सेक्रटरी था, उसे किस नैतिकता के साथ राज्यसभा में भेजा? इन सबके बाद भी जब नीतीश कुमार ईमानदारी की बात करते हैं तो बिहार में लोग हैरान रह जाते हैं। लोकसभा के उप चुनाव में हार इन तमाम गंदगी का ही नतीजा है।

अच्छा गली-मोहल्ले से गुजरने के दौरान कई बार आपको कंचा खेलते बच्चे दिखाई पड़ते हैं, जो साथ में खेलते भी है, फिर भी एक दूसरे को मां-बहन की गाली देते रहते हैं। आज जब जेडीयू की ओर से बयान आया कि वो दंगाई के साथ नहीं रह सकते, तो सच मे गली मोहल्ले में कंचा खेलते हुए और आपस में गाली गलौच करने वाले उन्हीं बच्चों की याद आ गई। मैं चाहता हूं कि नीतीश कुमार धर्मनिरपेक्षता की अपनी परिभाषा सार्वजनिक करें, जिससे देश की जनता ये समझ सके कि आडवाणी किस तरह धर्मनिरपेक्ष हैं और नीतीश कुमार कैसे साम्प्रदायिक हैं। सच कहूं तो नीतीश कुमार का बनावटी चेहरा यह है कि एक तरफ वो नरेन्द्र मोदी को दंगाई कहते हैं और दूसरी तरफ भाजपा के साथ सत्ता सुख भी लूट रहे हैं। अगर नरेन्द्र मोदी दंगाई हैं और भाजपा उन्हें लगातार प्रधानमंत्री के उम्मीदवार की राह आसान कर रही है, तो फिर भाजपा से अलग क्यों नहीं हो जाते ? इसमे इतना सोच विचार क्यों ? नीतीश कुमार एक साथ धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता का जो खेल-खेल रहे हैं, उस पर जनता की नजर अब कैसे नहीं होगी?

मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि नीतीश कुमार को नरेन्द्र मोदी के विरोध में उतरने की जरूरत क्या थी? लगता तो ये है कि नीतीश कुमार पर अहंकार और खुशफहमी भारी पड़ गई है। बिहार को संभालने के बजाए वो देश संभालने का ख्वाब देखने लगे हैं। मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए नीतीश कुमार मुसलमानों की टोपी और गमछा पहन कर मोदी को दंगाई कहने से भी नहीं रूके। मैं जानना चाहता हूं कि क्या धर्मनिरेपक्ष होने और दिखने के लिए टोपी और गमछा ओड़ना जरूरी है? भाई अगर मुसलमान इतने से भी प्रभावित नहीं हुए तो क्या आने वाले समय में जेडीयू अपने चुनावी घोषणा पत्र में "खतना" को तो अनिवार्य नहीं कर देंगी ?  सच ये है कि जेडीयू की ताकत बिहार में भाजपा के साथ मिलने के कारण बढ़ी है। भाजपा ने लालू से मुक्ति के लिए अपने हित जेडीयू के लिए कुर्बान कर दिया। सबको पता है कि जेडीयू के पास कार्यकर्ता कम नेता ज्यादा हैं। जमीनी स्तर पर लालू से मुकाबले के लिए जेडीयू या नीतीश कुमार का कोई नेटवर्क नहीं है। भाजपा के कार्यकर्ता ही जमीनी स्तर पर लालू को चुनौती देने के लिए खडे रहते हैं। भाजपा के कार्यकर्ता और समर्थक मोदी के तीखे विरोध और नीतीश कुमार द्वारा मुस्लिम टोपी और गमछा पहनने की वजह से उनसे नाराज हैं और उनका कड़ा विरोध भी कर रहे हैं, उपचुनाव में हार इसकी एक बड़ी वजह है।

बहरहाल अब बीजेपी में नरेन्द्र मोदी का नाम बहुत आगे बढ़ चुका है, इतना आगे कि वहां से पीछे हटना बीजेपी के लिए आसान नहीं है। जेडीयू को समझ लेना चाहिए कि जब मोदी का विरोध करने वाले आडवाणी को पार्टी और संघ ने दरकिनार कर दिया तो जेडीयू की भला क्या हैसियत है। ये देखते हुए भी नीतीश कुमार नूरा कुश्ती का खेल खेल रहे हैं, ये भी बिहार की जनता बखूबी समझ रही है। मैं पहले भी कहता रहा हूं आज भी कह रहा हूं कि अब मोदी को राष्ट्रीय राजनीति मे आगे बढ़ने से रोकना किसी के लिए आसान नहीं है। अगर जेडीयू इस मुद्दे पर बीजेपी से अलग रास्ते पर चलती है तो ये उसके लिए भी आसान नहीं होगा, मुझे तो लगता है कि इसका फायदा भी बीजेपी को होगा। बहरहाल अभी 48 घंटे का इंतजार बाकी है, बीजेपी की अंतिम कोशिश है कि गठबंधन बना रहे, लेकिन ये आसान नहीं है। जो हालात हैं उसे देखकर तो मैं यही कहूंगा कि जो लोग जेडीयू अध्यक्ष शरद यादव और नीतीश कुमार से गठबंधन ना तोड़ने की भीख मांग रहे हैं वो बीजेपी, संघ और नरेन्द्र मोदी के खिलाफ साजिश कर रहे हैं। वैसे भविष्य तय करेगा, लेकिन इस मुद्दे पर कही जेडीयू ही टूट जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।



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Wednesday 12 June 2013

आड़वाणी की नहीं मानीं, आड़वाणी मान गए !

ज की सबसे बड़ी खबर ! भारतीय जनता पार्टी के तमाम अहम पदों से इस्तीफा देने वाले वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी की कोई बात नहीं मानी गई, लेकिन वो मान गए। देश को हैरानी इस बात पर हुई कि जब आडवाणी ने इस्तीफा दिया, उस समय वो देश के सामने नहीं आए और जब आज वो मान गए,  फिर भी जनता के सामने नहीं आए। पार्टी और पार्टी के नेताओं पर तमाम गंभीर आरोप लगाने वाले आडवाणी के साथ क्या " डील " हुई ? पार्टी की ओर से इसकी अधिकारिक जानकारी भले ही ना दी गई हो, लेकिन सियासी गलियारे की चर्चा के मुताबिक आडवाणी चाहते हैं कि अगर आम चुनाव में एनडीए को बहुमत मिलता है तो छह महीने के लिए ही सही लेकिन उन्हें प्रधानमंत्री बनाया जाए। चूंकि आडवाणी खुद संघ के स्वयं सेवक हैं, इसलिए उन्हें पता है कि संघ के साथ मिलकर पार्टी में जो फैसला एक बार हो जाता है, उसे वापस नहीं जा सकता। यही वजह है कि उन्होंने नरेन्द्र मोदी को प्रचार समिति के अध्यक्ष पद से वापस करने की कोई मांग नहीं रखी। हां पार्टी और संघ के सख्त रुख को भांपकर आडवाणी को ये डर जरूर सता रहा था कि कहीं वो राजनीति गुमनामी में ना खो जाएं, इसलिए उन्होंने 24 घंटे के भीतर ही समर्पण करना बेहतर समझा। अब पार्टी में एक तपके का मानना है कि कोई भी नेता कितना ही बड़ा क्यों ना हो, अगर वो अनुशासनहीनता करता है तो क्या उसे पार्टी से बाहर का रास्ता नहीं दिखाना चाहिए ? आडवाणी ने अपने इस्तीफे का पत्र सार्वजनिक किया, उससे क्या पार्टी की प्रतिष्ठा पर आंच नहीं आई है, ऐसे में क्यों ना आडवाणी प्रकरण को पार्टी की अनुशासन समिति को सौंप दिया जाए ?

कहा जा रहा है कि आडवाणी ने  अपने इस्तीफे की एक दिन पहले ही पूरी रूपरेखा तैयार कर ली थी और पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को इस बारे में बता भी दिया था। चर्चा है कि उन्होंने इस्तीफा न देने के लिए पार्टी के सामने अपनी शर्ते भी रखीं थीं। उनकी पहली शर्त यही बताई जा रही है कि आने वाले लोकसभा चुनाव के लिए उन्हें पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाए। आडवाणी को मालूम है कि अब उनकी पार्टी में पहले जैसी बात नहीं रही है, इसलिए उन्होंने अपना रुख थोड़ा नरम रखा और कहाकि अगर एनडीए सत्ता में आती है तो उन्हें कम से कम छह महीने के लिए प्रधानमंत्री बनने का मौका दिया जाए। सूत्र बताते हैं कि आडवाणी ने साफ किया था कि वो कई दशक से पार्टी के समर्पित कार्यकर्ता रहे है, इसलिए पीएम के पद पर पहला हक उन्हीं का बनता है। वो यहां तक तैयार रहे कि अगर पार्टी किसी दूसरे नेता को आगे करना चाहती है तो वो छह महीने बाद खुद ही प्रधानमंत्री पद उसके लिए खाली कर देंगे। बता रहे हैं कि आडवाणी इतना झुकने को तैयार रहे, लेकिन पार्टी और संघ ने उनकी शर्तों को बिल्कुल भी भाव नहीं दिया। इसके बाद उनके सामने इस्तीफा देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। हालांकि आडवाणी भी अच्छी तरह जानते हैं कि अब उनकी जगह पार्टी में नहीं बस पोस्टर में रह गई है। 

हां एक बात और । ये सही है कि आडवाणी नरेन्द्र मोदी को प्रचार समिति  का अध्यक्ष बनाए जाने के बिल्कुल खिलाफ थे। गोवा कार्यकारिणी की बैठक के ऐन वक्त पर उन्होंने मोदी के मामले में अपनी बात रखी और कहाकि मोदी को प्रचार समिति का अध्यक्ष ना बनाकर संयोजक  बनाया जाए। बताया जा रहा है कि जब उन्हें बताया गया कि गोवा में नरेन्द्र मोदी को एक निर्णायक भूमिका सौंपी ही जाएगी, इस पर  अंतिम फैसला हो चुका है, तब आडवाणी ने अपनी बीमारी का आखिरी इलाज बताया कि अगर किसी वजह से मोदी को अध्यक्ष बनाया भी जाता  है तो उन्हें स्पष्ट निर्देश दिए जाएं कि वो हर छोटे बड़े फैसले मेरी सहमति से लेगें। सरकारी शब्दों में कहें तो इसका मतलब मोदी को आडवाणी के मातहत रहना होगा और उन्हें ही रिपोर्ट करना होगा। आडवाणी की इस शर्त के पीछे मंशा ये थी कि इससे जनता में संदेश जाएगा कि चुनावी  रणनीति के असली सूत्रधार आडवाणी ही है। बताया जा रहा है कि ये जानकारी जब संघ को दी गई तो वहां से साफ किया गया कि वो गोवा में अपना फैसला करें, दिल्ली से बात बंद कर दें। इशारा साफ था कि आडवाणी गोवा आएं या ना आएं जो फैसला हो चुका है, उसका ऐलान किया जाए। मतलब नरेन्द्र मोदी को प्रचार की कमान पूरी तरह से सौंप दी जाए। संघ का सख्त रुख देखकर फिर पार्टी नेताओं ने आडवाणी से बातचीत बंद कर दी और मोदी के नाम का ऐलान कर दिया गया।

जरूरी बात ! आडवाणी ने इस्तीफे में आरोप लगाया है कि अब पार्टी के नेता ना देश के लिए काम कर रहे हैं और ना ही पार्टी के हित में बल्कि वो निजी स्वार्थ की राजनीति कर रहे हैं। आडवाणी जी ये आरोप तो आप पर भी लागू होता है। आपके  इस्तीफे पर ध्यान दें तो उसके मुताबिक तो आप महज पार्टी के सांगठनिक पदों से त्यागपत्र दे रहे हैं,  लेकिन पार्टी की प्राथमिक सदस्यता अपने पास रखी है। ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, पंडित दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं के जिन सिद्धांतों की बात आप कर रहे हैं, अगर बीजेपी वाकई उन पर नहीं चल रही हैं तो आपने ऐसी सिद्धांतविहिन पार्टी की प्राथमिक सदस्यता क्यों नहीं छोड़ी ? क्या ये सच नहीं है कि पार्टी की सदस्यता अपने पास बरकरार रखने के पीछे भी आपकी भविष्य की राजनीति छिपी है। आप आज भी एनडीए के चेयरमैन हैं,  और ये पद आपके पास तभी तक रह सकता है, जब तक आप बीजेपी के सदस्य हैं। क्योकि बीजेपी एनडीए में सबसे बड़ा घटक दल है, लिहाजा एनडीए का चेयरमैन बीजेपी का ही चुना जाना है। आडवाणी जी क्यों इतनी लंबी - लंबी छोड़ रहे थे। अच्छा सबको पता है कि एक  जमाने मे आप ही मोदी के सबसे बड़े शुभचिंतक थे। हालाकि गोधरा के लिए मैं भी काफी हद तक ये मानता हूं कि मोदी प्रशासन वहां फेल रहा है , लेकिन गोधरा के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी तो उन्हें मुख्यमंत्री के पद से हटाना चाहते थे, तब आपने ही उन्हें बनाए रखने की वकालत की थी। उसका कर्ज भी मोदी ने उतारा और आपको गुजरात से लोकसभा चुनाव लड़ाकर दिल्ली भेजा। आज जब मोदी कद बढ़ा तो आपको इतनी तकलीफ हुई।

वैसे अनुशासनहीनता और पार्टी को विवादों में खड़ा करने का सवाल हो तो आडवाणी भी पीछे नहीं रहे हैं। 2005 में पाकिस्तान की यात्रा के दौरान मुहम्मद अली जिन्ना को 'सेकुलर' कहे जाने के कारण उन्हें पार्टी और संघ के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। इतना ही नहीं उन्हें भाजपा अध्यक्ष का पद भी छोड़ना पड़ा। दो दिन पहले जिस नीतिन गड़करी में आपका इतना विश्वास दिखाई दिया, 26 मई, 2012 को इन्हीं नितिन गडकरी को दोबारा पार्टी अध्यक्ष बनाने की बात चली तो ये नाराज हो गए और मुंबई में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद रैली में हिस्सा नहीं लिया। तीन सितंबर, 2012 को आपने अपने ब्लाग में लिखा कि इस बात की पूरी संभावना है कि अगला प्रधानमंत्री गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपाई होगा। क्या इससे पार्टी की छवि पर असर नहीं पड़ा। नौ मार्च, 2013 पार्टी की कार्यकारिणी में भाषण देते हुए आडवाणी ने कहा पिछले कुछ वर्षो में मुझे यह महसूस करके निराशा हुई है कि जनता का मूड सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ है, लेकिन वह भाजपा से भी बहुत उत्साहित नहीं है। मतलब क्या समझा जाए। इतना ही नहीं 12 मई, 2013 कर्नाटक में हार के बाद अपने ब्लाग में आडवाणी ने लिखा कि अगर भाजपा जीतती तो आश्चर्य होता ! ताजा मामला अब जबकि लोकसभा का चुनाव करीब है, पार्टी को मजबूत दिखाना चाहिए, तब वो गोवा कार्यकारिणी की बैठक में नाराज होकर नहीं गए।

मैं बीजेपी की तमाम नीतियों और उसकी विचारधाराओं से सहमत ना होने के बाद भी ये जरूर कहना चाहता हूं कि आज केंद्र की सरकार खासतौर पर कांग्रेस से जनता बुरी तरह त्रस्त है। वो  एक बदलाव चाहती है। आज देश की जरूरत महज सत्ता परिवर्तन की नहीं है, देश अपना चरित्र बदलने को तैयार बैठा है। मुझे नहीं लगता कि अब देश की जनता केंद्र में कमजोर सरकार  बर्दास्त करने का जोखिम लेने को तैयार है।  जनता भी नई सोच के साथ आगे बढ़ना चाहती है। ये कहना कि मोदी को नेता बनाया गया तो एनडीए छिटक जाएगा। इस मामले में सबसे ज्यादा बातें जेडीयू और शिवसेना को लेकर हो रही है। ईमानदारी की बात तो ये है कि आज बिहार में जेडीयू का ग्राफ तेजी से नीचे गिरा है। लोकसभा के उपचुनाव में करारी हार ने जेडीयू की बिहार में राजनैतिक हैसियत बता दी है। रही बात शिवसेना की तो वहां पार्टी को लगता है कि शिवसेना के बजाए अगर वो मनसे यानि महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ( राज ठाकरे) से गठबंधन करती है तो ज्यादा फायदे में रहेगी। ऐसे में एनडीए को भी सच्चाई से मुंह छिपाने की जरूरत नहीं है। सच तो ये है कि आज आडवाणी ने आगामी लोकसभा के चुनाव का मुद्दा ही बदल दिया है। बहरहाल आडवाणी के इस्तीफे के बाद हुए घटनाक्रम से जेडीयू को भी समझ लेना चाहिए कि बीजेपी मोदी को ही आगे रखकर चुनाव के  मैदान में उतरेगी। अगर उसे मंजूर है तो एनडीए में रहे, वरना उसे अभी रास्ता तलाशना चाहिए। लेकिन सब जानते हैं कि नीतिश कुमार कुर्सी छोड़ने का जोखिम नहीं उठा सकते, लिहाजा वो यूं ही गीदड़ भभकी देते रहेंगे।

आखिर में आडवाणी जी से दो बातें दो टूक कहना चाहता हूं। आडवाणी जी आपने उस दिन इस्तीफा क्यों नहीं दिया जब आपके ना चाहते हुए भी नेता विपक्ष का पद छीना गया ? अपने घर से कितनी बार आप संघ मुख्यालय भी तलब किए गए। मेरा तो मानना  है कि आपके साथ अन्याय तो उस दिन हुआ था। इसके बाद तो पार्टी ने आप पर भरोसा किया और आप पीएम इन वेटिंग रहें। आपकी अगुवाई में चुनाव लड़ा गया, आप मनमोहन सिंह से मुकाबला नहीं कर पाए। आज तो आप नौजवानों के नब्ज को पहचानिए। देखिए आप ने मोदी को प्रचार समिति के अध्यक्ष बनने में रुकावट डालने की कोशिश की, देश का नौजवान आपके घर के सामने जमा होकर प्रदर्शन करने लगा। आप इसी तरह अपनी जिद्द पर अड़े रहते तो शायद आज के बाद आप देश के किसी भी हिस्से में जाते आपको ऐसे ही विरोध का सामना करना पड़ता। आपने ये भी देखा कि आपके इस्तीफे की खबर को मीडिया ने हाथोहाथ लिया, लेकिन आपके समर्थन में देश के किसी भी हिस्से मे दो आदमी सड़क पर नहीं निकले। यहां तक की आपके निर्वाचन क्षेत्र गांधीनगर में भी नहीं। क्या ये आपके लिए काफी नहीं है कि आप देश की मंशा को समझें ? मेरा तो मानना है कि आज मोदी ने जो जगह बना ली है, उनका विरोध करके आप कहीं से भी चुनाव नहीं जीत सकते हैं। आपको चुनाव सुषमा स्वराज, वैकैया नायडू, मुरली मनोहर जोशी, अनंत कुमार या फिर एनडीए संयोजक शरद यादव कत्तई नहीं जिता सकते। बहरहाल आपने 24 घंटे के भीतर ही पार्टी की बात मानी, मुझे लगता है कि इस्तीफा  देकर आपने अपने जीवन की जो सबसे बड़ी राजनीतिक भूल की थी, उसे उतनी जल्दी ही सुधार कर अच्छा किया। अब  आप मीडिया के सामने आएं और ऐसा संदेश दें, जिससे लगे कि पार्टी पूरी तरह एकजुट है।



नोट: -   मित्रों ! मेरा दूसरा ब्लाग TV स्टेशन है। यहां मैं न्यूज चैनलों और मनोरंजक चैनलों की बात करता हूं। मेरी कोशिश होती है कि आपको पर्दे के पीछे की भी हकीकत पता चलती रहे। मुझे " TV स्टेशन " ब्लाग पर भी आपका स्नेह और आशीर्वाद चाहिए।
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Monday 3 June 2013

मोदी से इसलिए नाराज हैं आडवाणी !

वृक्षारोपण का कार्य चल रहा था।
नेता आए, पेड़ लगाए,
पानी दिया, खाद दिया।
जाते-जाते भाषण झाड़ गए।
गाड़ना आम का पेड़ था,
पर वो बबूल गाड़ गए।



ऐसा ही कुछ किया भारतीय जनता पार्टी के सबसे बड़े नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने। एक जमाना था जब यही आडवाड़ी गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की तारीफ करते नहीं थकते थे, लेकिन जब से बीजेपी में प्रधानमंत्री के भावी उम्मीदवार के तौर पर नरेन्द्र मोदी का नाम सामने आया है, केवल आडवाणी ही नहीं बल्कि उनकी लाँबी के दूसरे नेता भी मोदी से चिढ़ने लगे हैं। जबकि सच्चाई ये है कि आज की तारीख में बीजेपी के किसी भी नेता का राजनैतिक कद मोदी के मुकाबले अब बहुत छोटा है। इतना ही नहीं किसी दूसरे नेता की इतनी हैसियत भी नहीं है कि वो मोदी का खुला विरोध कर सके। ऐसे में जो लोग मोदी के बढ़ते कद से परेशान हैं या उनसे चिढ़ते हैं, उनकी खी़झ निकालते का एक ही तरीका है कि नरेन्द्र मोदी की तुलना वो राष्ट्रीय नेताओं से ना करके छोटे-मोटे मुख्यमंत्रियों से करने लगें। कुछ ऐसी ही घटिया चाल चली लालकृष्ण आडवाणी ने। उन्होंने मोदी को नीचा दिखाने के लिए मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की जमकर तारीफ की। इतना ही नहीं आडवाणी ने चौहान की तुलना पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से कर डाली।


दो दिन पहले बीजेपी के बड़े नेता लाल कृष्ण आडवाणी ग्वालियर में थे। मौका तो था नगर-ग्राम केंद्रों के पालकों और संयोजकों के सम्मेलन के समापन का। जहां आडवाणी को इनका मार्गदर्शन करना था। लेकिन  आडवाणी को ना जाने क्या सूझा, उन्होंने इस मंच का इस्तेमाल नरेन्द्र मोदी को आइना दिखाने के लिए किया। पूरे भाषण को अगर ध्यान से सुना जाए तो बीजेपी के मंच से आडवाणी ने मोदी को वो सब कहा  जो आमतौर पर कांग्रेस के नेता कहा करते हैं। अंतर बस इतना था कि कांग्रेसी सामने से हमला करते हैं, लेकिन आडवाणी ने इशारों में और पीछे से हमला किया। उन्होंने वाजपेयी के तमाम कार्यों की प्रशंसा करते हुए कहाकि वाजपेयी ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना, राष्ट्रीय राजमार्गों का निर्माण और उन्नयन, परमाणु परीक्षण, किसान क्रेडिट कार्ड से लेकर अनेक योजनाएं शुरू कीं, लेकिन हमेशा वे नम्र रहे और अहंकार से दूर रहे। अटल जी के काम की तारीफ से मुझे लगता है कि किसी को कोई गुरेज नहीं, लेकिन अंतिम लाइन में उन्होंने पुछल्ला जोड़ दिया कि वो हमेशा नम्र रहे और अहंकार से दूर रहे। ये निशाना नरेन्द्र मोदी पर था, क्योंकि कांग्रेसी उन्हें अंहकारी मानते हैं। बात यहीं खत्म नहीं हुई, उन्होंने मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की तुलना भी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से की और कहाकि वाजपेयी की तरह ही शिवराज नम्र है और अहंकार से दूर हैं।


अच्छा इतनी बात कह कर अगर आडवाणी ने अपना मुंह बंद रखा होता तो भी गनीमत थी। लेकिन वो रुके नहीं और मोदी को हलका करने में अपनी ताकत झोंकते रहे। उन्होंने कहाकि गुजरात तो पहले से ही विकसित और संपन्न राज्य रहा है। लेकिन मध्यप्रदेश की गिनता बीमारू राज्य के रूप में होती है, जिसे शिवराज चौहान ने स्वस्थ राज्य बना दिया। आडवाणी की बातों से सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि वो ना सिर्फ शिवराज की जमकर तारीफ कर रहे हैं, बल्कि नरेन्द्र मोदी के विकास पर सवाल भी खड़ा कर रहे हैं, साथ उन्हें अंहकारी भी मानते हैं। सच तो ये है कि आडवाणी के इस बदले रूख से वहां मौजूद भाजपाई भी हैरान थे। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर आडवाणी जी पार्टी के एक वरिष्ठ नेता, राज्य के मुख्यमंत्री के लिए ऐसी तल्ख टिप्पणी क्यों कर रहे हैं ?  जाहिर है राजनीति की जो थोड़ी भी समझ रखते हैं, वो तो यही समझेंगे कि अब पार्टी में आडवाणी पीएम के उम्मीदवार नहीं रहे, एक स्वर से लोग प्रधानमंत्री के लिए नरेद्र मोदी का नाम ले रहे हैं, इसलिए उनकी नाजाजगी जाहिर है। लेकिन आडवाणी अपनी नाराजगी को इस तरह सार्वजनिक मंच से जाहिर करेंगे, ये देखकर लोग हैरान थे।


आडवाणी के बयान के बाद बवाल होना ही था और हुआ भी। मीडिया ने आडवाणी के बयान का अर्थ निकाला और कहाकि पार्टी के भीतर सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। जिन बातों की चर्चा अभी तक अंदरखाने होती थी, अब खुलेआम होने लगी। पहले भी माना जा रहा था कि नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित किए जाने को लेकर पार्टी में दो राय है। अब ये बात सामने भी आ गई है। हालांकि मीडिया तो चाहता ही था कि आडवाणी की बातों का मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी जवाब दें। उनके घर और दफ्तर में इलेक्ट्रानिक मीडिया के कैमरे तन गए, लेकिन मोदी ने कोई जवाब नहीं दिया। वरना मोदी की जो छवि है वो किसी की बात का उधार नहीं रखते, सीधे कैमरे पर या फिर ट्विटर के जरिए अपनी बात रख ही देते हैं। बताया जा रहा है कि विवाद से बचने के लिए पार्टी के कुछ नेताओं ने उनसे बात की और कहाकि वो संयम बरतें, आडवाणी की बात से जो क्षति हुई है, उसकी भरपाई की जाएगी। मोदी चुप रहे, उन्होंने इस विषय पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।


आज बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने मोर्चा संभाला। और नेताओं की तरह उन्होंने साफ कर दिया कि आडवाणी की बात मीडिया ने गलत अर्थ निकाला। उन्होंने फिर दोहराया कि नरेद्र मोदी पार्टी के वरिष्ठ और पार्टी के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता हैं। खुद को किसी तरह के विवाद में ना डालते हुए मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी साफ किया कि आडवाणी ने सिर्फ उनकी नहीं सभी मुख्यमंत्रियों की तारीफ की। उन्होंने नरेन्द्र मोदी को अपने से वरिष्ठ नेता बताया और कहाकि वो पार्टी में तीसरी पंक्ति के नेता हैं। बहरहाल पार्टी को हुए नुकसान की भरपाई की जा रही है, लेकिन इतना तो तय है कि लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेताओं की एक-एक टिप्पणी पर कई दिन चर्चा चलेगी। ये चर्चा सिर्फ बीजेपी में ही नहीं होगी, आने वाले समय में कांग्रेस के नेता भी इसे उदाहरण बनाएंगे।


वैसे सच्चाई ये है कि बीजेपी में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर नरेन्द्र मोदी का नाम बहुत आगे बढ़ चुका है। अब मोदी के नाम को सामने करना बीजेपी की मजबूरी हो जाएगी। अगर होने वाले लोकसभा चुनाव के पहले पार्टी ने मोदी के नाम का खुलासा नहीं किया तो आने वाले समय में बीजेपी एक बार फिर हाशिए पर चली जाएगी। सच तो ये हैं कि पार्टी में मोदी जैसी लोकप्रियता और राजनैतिक हैसियत वाला दूसरा नेता नहीं है। आडवाणी भी नहीं। दूसरे दलों की मुश्किल ही ये है कि अगर नरेन्द्र मोदी के नाम को बीजेपी ने आगे बढाया तो फिर बीजेपी को रोकना मुश्किल हो जाएगा। यही वजह है कि पार्टी का ही एक तपका एनडीए के सहयोगी दलों से हाथ मिलाकर मोदी के खिलाफ आवाज बुलंद करने की कोशिश कर रहा है। सच बताऊं तो ऐसे हालात तब पैदा होते हैं, जब नेतृत्व कमजोर हाथो में होता है। मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि अगर आज मैं बीजेपी का अध्यक्ष होता तो लालकृष्ण आडवाणी को दो विकल्प देता। पहला वो अपने वक्तव्य को वापस लेते हुए माफी मांगे, दूसरा माफी नहीं मांगते हैं तो पार्टी से बाहर जाएं। बीजेपी ने अगर अब सख्त फैसला लेना शुरू नहीं किया तो पार्टी को और बुरे दिन देखने पड़ सकते हैं।