यूपी चुनाव की सरगरमी बढ़ती जा रही है, सभी लोग अपनी अपनी तरह से चुनाव नतीजों को लेकर कयास लगा रहे हैं। ज्यादा संख्या ऐसे लोगों की है जो समाजवादी पार्टी की सरकार बनवा रहे हैं, जो थोड़ा संकोच कर रहे हैं, उनका कहना है कि सरकार तो समाजवादी पार्टी की ही बनेगी, बस देखना ये है कि वो अकेले सरकार बनाते हैं या फिर उन्हें कांग्रेस और आरएलडी की जरूरत पड़ती है। नतीजे कुछ भी हों, पर देखा जा रहा है कि मायावती को लेकर पूरे प्रदेश में भारी नाराजगी है। वैसे ये गुस्सा भी बेवजह नहीं है, गुस्से की मुख्य वजह है कि पूरे प्रदेश में कोई काम हुआ ही नहीं है।
मायावती की अगुवाई में बेईमानों का एक गिरोह सरकार में बना रहा, और चुनाव आते आते खुद मायावती भी समझ गईं कि उनके मंत्री निकम्में है, यही वजह है कि एक के बाद एक मंत्री को वो बाहर का रास्ता दिखातीं रहीं। हालाकि बेईमान मंत्रियों के खिलाफ कार्रवाई करने में देरी हो चुकी थी, क्योंकि कई मंत्री लोकायुक्त की जांच के दायरे में आ चुके थे। शुरु में माना जा रहा था कि यूपी में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच मुख्य लड़ाई होगी। हां अगर पूरे प्रदेश में एक ही दिन वोटिंग होती तो समाजवादी पार्टी बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब भी हो जाती। लेकिन मैं देख रहा हूं कि अब समाजवादी पार्टी का रास्ता आसान नहीं है।
यूपी में लगभग पांच हजार किलोमीटर का सफर और 50 से ज्यादा जिलों तक घूमने के बाद मै इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि पहले दो चरण के मतदान में बेहतर प्रदर्शन के के बाद समाजवादी पार्टी के लिए अब कुछ मुश्किलें खड़ी हो गई हैं। शुरू में तो ऐसा लग रहा था कि सूबे में समाजवादी पार्टी पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने जा रही है। लेकिन समाजवादी पार्टी के पक्ष में हवा चलते ही सिर्फ आम आदमी ही नहीं व्यापारी, डाक्टर, नौकरशाह तमाम लोगों के कान खड़े हो गए और ये लामबंद होकर एक ऐसा माहौल बनाने की कोशिश में जुट गए कि अगर ऐसा हुआ तो सब बर्बाद हो जाएगा। अभी तक प्रदेश में बेईमान सरकार थी और अब तो गुंडाराज कायम होने जा रहा है। इस हालात में तो लोगों का घर से निकलना बंद हो जाएगा, अच्छे प्रैक्टिस करने वाले डाक्टरों को यूपी छोड़कर दिल्ली की ओर रुख करना होगा, जेल से गुंडे छूटने लगेंगे और सड़कों पर महिलाओं का निकलना मुश्किल हो जाएगा। आज पूरे प्रदेश में ऐसी हवा चल रही है कि गुंडाराज को रोकना है, अब गुंडा राज को रोकने की बात हो तो जाहिर है कि लोगों को विकल्प तलाशना होगा। यूपी में विकल्प बीजेपी के अलावा कुछ हो ही नहीं सकता। वैसे भी मैने देखा है कि उत्तर प्रदेश में जब भी समाजवादी पार्टी मजबूत होती है तो बीजेपी अपने से मजबूत हो जाती है, या बीजेपी मजबूत होती है तो समाजवादी पार्टी की ताकत खुद ही बढ़ जाती है।
समाजवादी पार्टी के साथ जुड़ा गुंडाराज का दाग मिटाना उसके लिए आसान नहीं है। हालाकि पिछले दिनों बाहुबली नेता डी पी यादव को पार्टी में शामिल करने के सवाल पर हुए विवाद के बाद लग रहा है कि पार्टी बाहुबलियों से दूरी बनाए रखेगी, लेकिन ऐसा कब तक होगा, विश्वास के साथ कहना मुश्किल है। मुलायम के राज में यादव दरोगा अपने एसपी को कुछ नहीं समझता था, हालत ये थी कि एसपी अपने ही दरोगा से डरता था और अपनी सिफारिश उसी के जरिए कराता था। अगर मैं एक लाइन में कहूं कि उस समय कानून का राज पूरी तरह खत्म हो गया था, तो गलत नहीं होगा। मायावती से परेशान लोग जब मुलायम के गुंडाराज के बारे में सोचतें हैं तो उनकी रुह कांप जाती है, यही वजह है कि पहले दो चरण में बहुत अच्छा प्रदर्शन करने वाली समाजवादी पार्टी के लिए आगे का सफर बहुत मुश्किल भरा है। वैसे कुछ भी हो जाए, कितना भी उसके खिलाफ प्रचार हो जाए, लेकिन समाजवादी पार्टी और दलों के मुकाबले अच्छी बढ़त बना चुकी है और उसके खाते में 160 से अधिक सीटें आनीं लगभग तय है।
इस पूरे चुनाव में अगर किसी के लिए अच्छी खबर है तो वो है बीजेपी के लिए। लेकिन ऐसा नहीं है कि नीतिन गडकरी, राजनाथ सिंह कमाल कर रहे हैं, या फिर उमा भारती का जादू चल रहा है। बस समाजवादी पार्टी के गुंडाराज को सोच कर लोगों ने बीजेपी की ओर रुख कर लिया है। वैसे तो बीजेपी की हालत ये है कि उनके प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही की ही जीत आसान नहीं है, पार्टी में सिर फुटव्वल किसी से छिपी नहीं है। बीएसपी से आए बाबूलाल कुशवाह के मामले को लेकर विनय कटियार सरीखे नेता खामोश बैठे हैं। पार्टी में अहम का टकराव चरम पर है, पर यूपी के बड़े नेताओं को पता है कि अगर सूबे में अपनी नाक बचानी है तो कुछ सीटें भी जीतनी जरूरी है। यही वजह है कि लगे तो सब हैं, पर कितने मन से कौन लगा है ये सबको पता है। दिल्ली के ड्राइंग रूम नेताओं की सभा यूपी में लगाई जा रही है, जो 10 वोट इधर उधर नहीं करा सकते, वो यूपी के आसमान में उडन खटोला लिए कुलाचें मार रहे हैं। बहरहाल कुल मिलाकर आज ये हालत है कि बीजेपी 75 प्रतिशत सीटों पर कड़ी टक्कर दे रही है और 90 से 100 सीटों को जीतने के करीब पहुंच चुकी है।
इस बार हम बीएसपी से किसी तरह की अप्रत्याशित परिणाम की उम्मीद नहीं कर सकते। पार्टी की छवि पर जो धब्बा लगा हुआ है, उसे धोना मायावती के लिए आसान नहीं है। हम कह सकते हैं अब बहुत हो गया। आइये कुछ जिलों की चर्चा कर लेते हैं। 2007 में बीएसपी ने बलिया में 6 सीटें जीतीं थी, इस बार सिर्फ एक सीट की उम्मीद है। यहां चार सीटें समाजवादी पार्टी और दो बीजेपी के खाते में जाने वाली हैं। आजमगढ में भी पिछले चुनाव में बीएसपी को 6 सीटें मिलीं थी, इस बार बमुश्किल उसे एक सीट मिल सकती है, यहां भी पांच सीटें समाजवादी पार्टी के खाते में जा रही है, जबकि एक बीजेपी को मिल सकती है। जौनपुर में बीएसपी की पांच सीटें थीं, इस बार दो ही हाथ हाने वाली है, अमेठी में एक थी वो भी नहीं मिलने वाली। सुल्तानपुर में बीएसपी की चार थीं दो मिल सकती है। सबसे तगड़ा झटका बीजेपी को इलाहाबाद से लगने जा रहा है, यहां उसकी आठ सीटें थीं, दो ही वापस मिलने वाली हैं। यहां बीजेपी को चार और चार ही समाजवादी पार्टी को मिल सकती है।
यहां हमने कुछ जिलों का जिक्र करके वो ट्रेंड बताने की कोशिश की है, जो यूपी में देखा जा रहा है। अगर हम कुछ और जिलों का जिक्र करें तो बाराबंकी, फैजाबाद, बहराइच,गोंडा, बलरामपुर, गोरखपुर, वाराणसी, मिर्जापुर, सोनभद्र, भदोही, फतेहपुर, कानपुर, बांदा, झांसी, आगरा, मथुरा, मेरठ समेत तमाम और जिलों में बीएसपी को जहां भारी नुकसान हो रहा है, वहीं समाजवादी पार्टी को फायदा हो रहा है। जबकि कई सीटों पर बीजेपी भी मुकाबले में आ गई है। वैसे इन तमाम निगेटिव वोट के बाद भी बीएसपी का अस्तित्व पूरी तरह खत्म नहीं होने जा रहा है, यहां 70 से 80 सीटें बीएसीपी को मिल सकती है और उसके हाथ में सरकार की चाभी हो सकती है।
आप सोच रहे होंगे कि अभी तक मैने कांग्रेस की कोई बात ही नहीं की। सही बात तो यही है कि यूपी में भी कांग्रेस की कोई बात नहीं कर रहा है। कांग्रेस की बात दिल्ली में हो रही है। वो भी इलेक्ट्रानिक मीडिया में। दरअसल इलेक्ट्रानिक मीडिया राहुल को लेकर बहुत गंभीर है। इलेक्ट्रानिक मीडिया के ज्यादातर कर्ताधर्ता जमीनी हकीकत से वाकिफ नहीं हैं, उन्हें लगता है कि राहुल गांधी इतने दलितों के यहां जाकर भोजन कर चुके हैं, इसलिए दलित तो राहुल को ही वोट देगें। मैने एक दलित से पूछा कि भाई आपके यहां राहुल गांधी आकर भोजन कर गए और आप उन्हें वोट नहीं देगें। वो बोला अरे हमने उन्हें भोजन कराया है, उनका भोजन किया थोड़े ही है, उनका कोई हम पर अहसान थोड़े है। वोट उसे देगें जिसे ठीक समझेंगे। खैर बात तो इसकी भी सही है। इसके अलावा कांग्रेस मुस्लिम वोटों को रिझाने के लिए जिस तरह नंगई पर उतारू रही, इससे खुद मुसलमान कांग्रेस से नफरत कर रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि कांग्रेसी हमें वोट बैंक समझते हैं और चौराहे पर खड़ा करके हमारी इज्जत तार तार कर रहे हैं। वो खुद कहते हैं कि आरक्षण का मुद्दा सलमान खुर्शीद ने उस समय क्यों नहीं उठाया जब चुनाव आचार संहिता लागू नहीं हुई थी। सुर्खियों में आने और बीबी के लिए वोट बटोरने के लिए उन्होंने ये घटिया बयान दिया। कांग्रेस ने बेनी प्रसाद वर्मा पर भरोसा किया और लगभग 80 टिकट उनके कहने के अनुसार दिए। हालत ये है कि बेनी बाबू अपने बेटे राकेश को ही जिता लें तो उनके लिए बड़ी सफलता होगी। जगदंबिका की सिफारिश तो नहीं चली, लेकिन वो भी अपने बेटे को टिकट दिलाने में कामयाब हो गए। पर बेटा बेचारा चक्रव्यूह में फंस गया है। जो हालात हैं, उससे तो लगता है कि सलमान एक बार फिर बीबी को लखनऊ पहुंचाने में कामयाब नहीं हो पाएँगे। लेकिन मरी गिरी हालत में भी कांग्रेस 2007 से बेहतर प्रदर्शन करेगी और वो 40-45 सीटें जीतने में कामयाब हो जाएगी। चौधरी अजित सिंह के सरकार में शामिल होने से जाट बहुत नाराज हैं। पर आखिर जाट जो जाट ही हैं, वो आखिर में जाट के पक्ष में ही जाएंगे और 10 से 12 सीटें चौधरी के खाते में आ सकती हैं। लेकिन चौधरी के बेटे जयंत जीतेंगे ये कहना मुश्किल है।
यूपी में कई बार छोटे दल बड़ी भूमिका में आ जाते हैं। सोनेलाल पटेल के बाद अब अपना दल का दम निकल चुका है। हालाकि इसमें जान फूंकने की बहुत कोशिश हो रही है, पर मैदान में कही दिखाई नहीं दे रहा है अपना दल का दम। हां दो एक बाहूबली अपने दम पर जीत हासिल कर लें तो ये अलग बात है। लेकिन अपना दल का जो जनाधार तेजी से बढ़ रहा था, वो अब कहीं दिखाई नहीं दे रहा है। इस बार चुनाव में पीसपार्टी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। कहा तो ये जा रहा है कि पीस पार्टी को भगवाधारी फंडिंग कर रहे हैं, जिससे वो मुसलमानों के वोटों को काटे और इसका फायदा भगवा उम्मीदवारों को मिले। इस बात में कितनी सच्चाई है, ये तो पीसपार्टी के कर्ताधर्ता ही बता सकते हैं। लेकिन ये बात को जानना जरूरी है कि इस पार्टी को फंड कहां से मिल रहा है। वैसे इतना तो जरूर है कि पीसपार्टी की चर्चा पूरे चुनाव में है। भले लोग इसे वोट कटुवा पार्टी ही क्यों ना कहें। लेकिन दो तीन सीटें पीसपार्टी के खाते में आ जाए, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। उलेमा काउंसिल लगभग खत्म हो चुकी है, इस चुनाव के बाद अब इसका कोई नाम लेवा नहीं रहेगा।
सोमवार यानि कल अब मैं पश्चिमी उत्तर प्रदेश की ओर रुख कर रहा हूं। इसमें मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, बिजनौर, मुरादाबाद, रामपुर, बदायूं, बरेली, पीलीभीत, शाहजहांपुर और आखिर में लखीमपुर जाना है। 29 फरवरी को पूरे प्रदेश का भ्रमण खत्म हो जाएगा। उसके बाद मैं एक बार फिर आपके साथ चुनाव के रुझान के साथ मौजूद रहूंगा।