Wednesday 30 November 2011

ईमानदारी की बात में भी ईमानदारी नहीं...

अब टीम  अन्ना ईमानदारी की नई परिभाषा गढ़ रही है । लोकपाल में एनजीओ को शामिल किए जाने से ना जाने क्यों उनकी परेशानी बढ़ गई है । लोकपाल में और किसे किसे शामिल किया जाए, इससे ज्यादा जोर टीम  अन्ना का इस पर है कि कैसे एनजीओ को इससे  बाहर किया जाए । अब आंदोलन की हकीकत इसी बात से सामने आती है । मेरा मानना है कि आप ये मांग तो कर सकते हैं कि लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री, जजों को भी शामिल किया जाना चाहिए, लेकिन आप ये मांग भला कैसे कर सकते हैं कि एनजीओ को इसके दायरे में नहीं लाया जाना चाहिए ।
मेरी समझ में तो नहीं आ रहा है, आप अगर समझ रहे हैं तो मुझे भी बताएं । इस मांग का मतलब तो यही है ना  कि " ए "  को चोरी करने की छूट होनी चाहिए, लेकिन   " बी " को चोरी करने का बिल्कुल हक नहीं होना चाहिए । एनजीओ को लोकपाल में लाने की खबर से टीम अन्ना की हवाइयां उड़ गईं । टीम के सबसे ईमानदार और मजबूत सहयोगी अरविंद केजरीवाल ने तो आनन फानन में  सरकार को रास्ता भी सुझा दिया, उनका कहना है कि चलो अगर एनजीओ को लोकपाल के दायरे में लाया ही जाना है तो सबको ना लाया जाए, सिर्फ उसे ही लाएं जो एनजीओ सरकारी पैसों की मदद लेते हैं । हाहाहाहहाहा हंसी आती इस ईमानदार सामाजिक कार्यकर्ता पर ।
अरे केजरीवाल साहब हम एनजीओ से तो ये उम्मीद करते हैं ना कि वो ईमानदारी से काम करते होंगे । फिर आपकी छटपटाहट की वजह क्या है ? अन्ना जी तो बेचारे हर जांच खुद अपने से शुरू करने की मांग करते हैं ।  वो कहते हैं कि सबसे पहले उनकी ही जांच हो , लेकिन आपको ऐसा करने में दिक्कत क्यों है । मैं दूसरे एनजीओ की चर्चा नहीं करुंगा,  पहले आपकी दूसरी सहयोगी किरन बेदी की बात कर लेते हैं । उनके एनजीओ को सरकार से पैसा मिला या नहीं, मै ये तो नहीं जानता , लेकिन पुलिस कर्मियों के बच्चों को कम्प्युटर और कम्प्युटर ट्रेनिंग के लिए माइक्रोसाप्ट कंपनी ने 50 लाख रुपये लिए गए । अब आरोप लग रहा है कि उन्होंने इस पैसे का दुरुपयोग किया । ये सरकारी पैसा भले ही ना हो, लेकिन सरकारी कर्मचारियों के बच्चों के नाम पर लिया गया पैसा था, अगर इसमें बेईमानी  हुई है तो शर्मनाक है और दोषी लोगों को सख्त सजा होनी ही चाहिए । आप  चाहते  हैं कि ऐसे लोगों  को हाथ  में तिरंगा लेकर ईमानदारी की बात करने की छूट होनी  चाहिए ।

आप खुद सोचें कि जो ईमानदारी की बडी बड़ी बातें कर रहे हैं, उनके दामन साफ नहीं है,  कोर्ट ने सुनवाई के बाद उनके खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कर जांच करने के आदेश दिए हैं, तो फिर और एनजीओ का क्या हाल होगा । आखिर अरविंद केजरीवाल को  इससे दिक्कत  क्यों है ? वो किसे बचाना चाहते हैं ? मेरा अनुभव रहा है कि बहुत सारे सामाजिक संगठन विदेशों  से पैसे लेते हैं, मकसद होता है का गरीबों को मुफ्त इलाज, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा,  गांव का विकास, बाल श्रम पर रोक, महिला सशक्तिकरण,  पर  क्या ईमानदारी से सामाजिक संगठन ये काम करते हैं, दावे के साथ कह सकता हूं.. नहीं । ऐसे में अगर इन्हें  लोकपाल के दायरे में लाने की बात हो रही है तो आखिर इसमे बुराई क्या है, क्यों केजरीवाल आग बबूला हैं  ?

मित्रों वैसे भी  एनजीओ पर शिकंजा कसना जरूरी  है,  क्योंकि यहां बडे पैमाने  पर धांधली हो रही है । मैं इस बात का जवाब टीम अन्ना  से चाहता हूं  कि तमाम लोग आयकर  में छूट पाने के लिए सामाजिक संगठनों को चंदा देते हैं और यहां से रसीद हासिल करके आयकर रिटर्न में उसे दर्ज करते हैं । जब आयकर में एनजीओ की रसीद महत्वपूर्ण अभिलेख है तो क्यों नहीं एनजीओ को लोकपाल  के दायरे में आना चाहिए । मैं देखता हूं कि कारपोरेट जगत ही नहीं बडे बडे नेताओं और फिल्म कलाकार अपने पूर्वजों के नाम पर सामाजिक संस्था बनाते हैं और पैसे को काला सफेद करते रहते हैं ।

यहां एक शर्मनाक वाकये की  भी चर्चा कर दूं । देश में बड़े बड़े साधु संत धर्मार्थ संगठन के नाम पर धोखाधड़ी  कर रहे हैं । साल भर पहले आईबीएन 7 के कैमरे पर कई बडे नामचीन साधु पकड़े गए थे, जो कालेधन को सफेद करने के लिए सौदेबाजी कर रहे थे । वो दस लाख रुपये लेकर 50 रुपये की रसीद दिया करते थे । धर्मार्थ संगठन गौशाला,  पौशाला, धर्मशाला, पाठशाला समेत कई अलग अलग काम के लिए सामाजिक संस्था बनाए हुए हैं । मेरा मानना है कि सामाजिक संस्थाओं  को सरकारी और गैरसरकारी जितनी मदद मिलती  है, अगर इसका ईमानदारी से उपयोग किया जाता तो आज देश  के गांव  गिरांव की सूरत बदल जाती । ये चोरी का एक आसान रास्ता  है, इसलिए पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी सेवा में रहते हुए एक  एनजीओ जरूर बना लेते हैं और सेवाकाल  के दौरान पद का दुरुपयोग करके इसे आगे बढाने में लगे रहते हैं, जिससे  सेवानिवृत्ति के बाद इसका स्वाद उन्हें मिलता रहे ।

अच्छा हास्यास्पद लगता है कि प्रधानमंत्री को लोकपाल  के दायरे में लाने की बात की जा रही है, जबकि देश में आज तक  कोई ऐसा प्रधानमंत्री नहीं  हुआ है, जिसके लूट खसोट से जनता परेशान हो गई हो । अब आज की केंद्र सरकार को ही ले लें, सब कहते हैं कि आजाद भारत की ये सबसे भ्रष्ट्र सरकार है, लेकिन प्रधानमंत्री को सभी  ईमानदार बताते हैं । इसलिए अगर  लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री को  एक बार ना भी शामिल किया जाए तो कोई पहाड़ टूटने वाला नहीं है, लेकिन जब सामाजिक  संगठनों की करतूतें सामने आने लगी हैं तो कोई कारण नहीं जो इन्हें लोकपाल  से अलग रखा  जाए । टीम अन्ना  से बस इतना ही कहूंगा  कि जनता देख रही है, कम से कम ईमानदारी की बात तो ईमानदारी से करो ।  

Sunday 27 November 2011

यादगार सफर का सच...

पांच दिन से ब्लाग से पूरी  तरह कटा रहा हूं, वजह कुछ खास नहीं , बस आफिस टूर पर था, कुछ स्पेशल  स्टोरी शूट करने के लिए उत्तराखंड में चंपावत और खटीमा इलाके में टहल  रहा था । वैसे तो  मेरा इस इलाके में कई बार जाना हुआ है, पर इस बार ये दौरा मेरे लिए कुछ खास रहा । कुछ दिन पहले ही पता चला कि ब्लाग परिवार के मुखिया आद. रुपचंद्र शास्त्री  जी खटीमा ( रुद्रपुर)  में ही रहते हैं। मेरे रुट चार्ट में खटीमा भी शामिल था, मुझे वहां एक पूरे दिन रुकना था, क्योंकि एक स्टोरी मुझे इसी क्षेत्र में शूट करनी थी ।  मैने तय किया कि मुझे शास्त्री जी से मिलना चाहिए,  यहां आकर भी अगर उनसे मुलाकात ना करुं तो फिर ये बात ठीक  नहीं होगी ।
लेकिन सच बताऊं तो मेरे मन में कई सवाल थे,  क्योंकि मुझे जुमा जुमां सात महीने हुए हैं  ब्लाग पर कुछ लिखते हुए ।  ब्लाग लिखने वालों में दो एक लोग ही हैं, जिनसे मेरी  फोन पर बात हो जाती है, वरना तो सामान्य शिष्टाचार ही निभाया जा रहा है । मेरा अभी तक एक भी ब्लागर साथी ऐसा नहीं है, जिनसे मेरी आमने सामने बात हुई हो । ऐसे में शास्त्री जी के पास जाने में कुछ दुविधा भी थी,  पता नहीं शास्त्री जी मुझसे मिलना चाहेंगे या नहीं, कहीं ऐसा ना हो कि मैं फोन कर उनसे मिलने का समय मांगू और वो ये कह कर कि आज मैं व्यस्त हूं, फिर कभी मुलाकात होगी । इस तरह के सैकडों सवाल जेहन में घर  बनाते जा रहे थे ।

खैर मेरा मानना है कि जब आप किसी मुश्किल में हों और उससे उबरना चाहते हों तो परिवार से कहीं ज्यादा दोस्त पर भरोसा करना चाहिए। मैने भी अपने दोस्त का सहारा लिया, उन्होंने कहा क्या बात करते हैं, आप पहले उनके पास जाएं तो,  देखिए उन्हें बहुत अच्छा लगेगा। अच्छा मैं इस मत का हूं कि आप किसी भी मामले में मित्रों या परिवार के सदस्यों से राय तभी लें, जब उसे आपको मानना हो।  सिर्फ रायसुमारी के लिए राय नहीं ली जानी चाहिए। इसलिए जब मेरे दोस्त ने कहा कि आपको मिलना चाहिए, तो उसके बाद मेरे मन में कोई दूसरा सवाल नहीं  रहा।   मैने तुरंत शास्त्री जो को फोन लगाया और बताया कि मैं दिल्ली में रहता हूं और एक टीवी चैनल में काम करता हूं। मेरा एक ब्लाग है आधा सच इसमें  भी   कुछ लिखता  रहता हूं।   इस समय आपके शहर में हूं,  यहां  एक स्टोरी शूट करने के सिलसिले में आना हुआ है । बस दो मिनट मुलाकात करने का मन है। शास्त्री जी ने  कहा कि जब चाहें यहां आएं और हम बैठकर आराम से बातें करेंगे। शास्त्री जी  ने जिस तरह से पहले  वाक्य को पूरा किया, लगा ही नहीं कि हम किसी ऐसे शख्स से बात कर रहे हैं, जिनसे मेरी पहली बार बात हो रही है।

मित्रों मैं तो थोड़ा उदंड हूं ना, मुझे लगा कि कहीं शास्त्री जी भूल ना जाएं कि किससे बात हुई थी, मुझे  सारी बातें फिर से  ना दुहरानी  पड़े, लिहाजा मैने कहा  चलो  तुरंत सभी काम बंद करते हैं और पहले आद. शास्त्री जी से ही मुलाकात करते हैं ।  वैसे भी खटीमा एक छोटा सा कस्बा है। यहां लगभग सभी लोग सब को जानते हैं । उन्होंने एक नर्सिंग होम का नाम बताया और कहा कि यहां आकर किसी से पूछ  लें सभी लोग मेरे बारे में बता देगें , आपको यहां पहुंचने में असुविधा नहीं होगी।  फोन काटने के बाद मै अपने ड्राईवर को नर्सिंग होम के बारे में बता ही रहा था कि हमारे  वहां के स्थानीय मित्र ने कहा किसी से पूछने की जरूरत नहीं, चलिए मैं घर पहुंचाता हूं, और अगले पांच मिनट के बाद ही हम शास्त्री जी के घर के बाहर खड़े थे।
हमारी गाड़ी रुकते ही शास्त्री जी खुद बाहर आ गए, बड़े ही आदर के साथ हम लोगों से मिले और हम सब उनके निवास  परिसर में ही बने उनके आफिस में चले गए। दो मिनट के सामान्य परिचय के बाद लगा ही नहीं कि हम शास्त्री जी से पहली बार मिल रहे हैं। यहां मैं शास्त्री जी से माफी मांगते हुए मैं एक बात का  जिक्र करना चाहता हूं कि  मेरे मन मे शास्त्री  जी की जो तस्वीर थी, ये उसके बिल्कुल उलट थे। मुझे लगता था कि बुजुर्ग शास्त्री जी आराम कुर्सी पर बैठे होंगे, उनका कम्प्यूटर आपरेटर  उनकी  बातों को कंपोज करने के बाद  ब्लाग पर  डालता होगा..। लेकिन ऐसा कुछ नहीं, शास्त्री जी खुद कम्प्यूटर की बारीकियों को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं।  मैं उनके साथ बैठा, उन्होंने तुरंत मेरा ब्लाग खोला,  ब्लाग खोलने में कुछ दिक्कत आई।

शास्त्री जी ने  खुद ही देखा कि आखिर ऐसी क्या दिक्कत हो सकती है। उन्होंने तीन मिनट में ब्लाग की दिक्कतों को समझ लियाऔर अगले ही पल उसे दुरुस्त भी कर दिया। ब्लाग का  डिजाइन बहुत ही साधारण देख उन्होंने खुद ही कहा कि चलिए इसे  कुछ आकर्षक बनाते हैं।  ब्लाग के बारे में दो एक बातें करने के बाद उन्होंने देखते ही देखते  मेरे ब्लाग को बिल्कुल अपडेट कर दिया। मैं उनके कम्प्यूटर के प्रति प्रेम और जानकारी को देखकर हैरान था, सच बताऊं तो उन्होंने इसकी तकनीक से जुड़ी दो एक बातों के बारे में मुझसे पूछा तो मैं बगलें  झांकने लगा।

बहरहाल एक घंटे की मुलाकात में मैं समझ चुका था  कि शास्त्री ने जो अपना जो परिचय ब्लाग के पृष्ठ पर डाला है, वो उनका पूरा परिचय नहीं है, सच कहूं तो आधा भी नहीं । शास्त्री जी वो  व्यक्तित्व  हैं, जिन्हें लगता है कि लोग उनसे जितना कुछ हासिल कर सकते हैं कर लें. वो अपना पूरा ज्ञान और अनुभव युवाओं पर लुटाने को तैयार बैठे हैं, लेकिन हम उनसे सीखना  ही नहीं चाहते।  मेरी छोटी सी मुलाकात के दौरान मैने महसूस किया कि वो चाहते हैं कि हमे कितना कुछ हमें दे दें, लेकिन जब हम लेने को ही तैयार नहीं होंगे तो भला वो क्या कर सकते हैं।
सच बात  तो ये है  कि उनके पास से उठने का मन बिल्कुल नहीं हो रहा था, पर समय और ज्यादा देर तक बैठने की इजाजत भी नहीं दे रहा था,  क्योंकि पहाड़ों में शाम जल्दी हो जाती है, और शाम होते ही हमारा काम  बंद हो जाता है, यानि कैमरे भी आंखें मूंद लेते हैं। इसलिए मुझे बहुत ही बेमन से कहना पडा कि शास्त्री जी अब मुझे जाना होगा। मैने महसूस किया कि शास्त्री जी का भी मन नहीं भरा था बात चीत से, वो भी चाहते थे कि हम  थोड़ी देर और बातें करें, लेकिन मैने यह कह कर कि वापसी में मैं एक बार फिर आपसे मिलकर ही जाऊंगा, लिहाजा हम दोनों लोग कुछ सामान्य हुए।  
हम तो चलने के लिए उठ खड़े हुए,  लेकिन शास्त्री जी ये सोचते रहे कि कुछ देना अभी बाकी रह गया है, उन्होंने मुझे रोका और अपनी लिखी दो पुस्तकें मुझे भेंट कीं।  सच तो ये है कि शास्त्री जी से मुलाकात की कुछ निशानी मैं भी चाहता था, लेकिन मांगने की हिम्मत भला कैसे कर सकता था, पर शस्त्री जी इसीलिए आदरणीय हैं कि वो लोगों के मन की बात को भी पढना  जानते हैं।  बहरहाल इस यादगार मुलाकात के हर क्षण को मैं खूबसूरती से जीना  चाहता हूं।   



Monday 21 November 2011

चार जेपी और दो अन्ना पैग...

मित्रों दो दिन पहले मैं कुछ दोस्तों के साथ यहां पांच सितारा होटल के बार में था। हमारा मित्र आस्ट्रेलिया से आया हुआ था, उसे वापस जाने के लिए रात तीन बजे की फ्लाइट पकड़नी थी, हम सबको साथ मिले भी काफी समय हो गया था, तो तय हुआ कि यहीं बार में  बैठकी कर ली जाए । सो हम सब  वहां जमा हो गए। वैसे " बार "में   अक्सर आना जाना रहता है, पर आज यहां  मुझे कुछ नई चीज देखने को मिली।

सच बताएं, मैं तो  समझता था कि देश का अमीर तपका बाकी देश और लोगों से पूरी तरह कटा हुआ है। उसे कोई मतलब नहीं कि देश में हो क्या रहा है। लेकिन मेरा ये भ्रम इस पांच सितारा होटल के बार में टूट गया। मैन महसूस किया कि देश का अमीर तपका भी इस गंदगी से उतना ही त्रस्त है, जितना आम आदमी।

पांच सितारा  बार में अंग्रेजी में गिट पिट करने वालों के मुंह से  देश, ईमानदारी, भ्रष्टाचार, अनशन, रथयात्रा, जेल, रामलीला मैदान,  जंतर मंतर, जेपी, अन्ना   जैसे शब्द सुनकर मै हैरान था। हुआ ये कि  पास  की ही  टेबिल पर कुछ नौजवान अपनी गर्ल फ्रैंड का  बर्थडे  सेलीबिरेट कर रहे थे। इस दौरान उनकी बात चीत का विषय जेपी आंदोलन बनाम अन्ना  का आंदोलन था। मुझे लगा कि इस इंडिया ( यानि बार ) में भी भारत की चर्चा होती है, मैं वाकई हैरान था। हांथ मे वाइन का गिलास थामें  लड़कियों का  कहना था कि जेपी के आंदोलन के मुकाबले अन्ना का आंदोलन बहुत बड़ा है,  जबकि इसी टेबिल पर बैठे  कुछ लोगों का कहना था कि नहीं नहीं जेपी के आंदोलन का कोई मुकाबला हो ही नहीं सकता।

जो यहां सबसे ज्यादा समझदार नजर आ रहा था, उसने फैसला दिया कि भाई आप लोगों ने जेपी आंदोलन को तो किताबों में पढ़ा है और अन्ना के आंदोलन को देख रहे हैं। इस लिए भावनात्मक रुप से आप अन्ना के साथ जुड़े हैं। वैसे भी जेपी की लड़ाई आसान नहीं थी, वो  अब तक की सबसे मजूबत  प्रधानमंत्री स्व. श्रीमति इंदिरा गांधी के खिलाफ लड़ रहे थे और अन्ना अब तक के सबसे मजबूर प्रधानमंत्री से संघर्ष  कर रहे हैं। इसलिए इस पर तो विवाद  तो होना ही नहीं  चाहिेए कि कौन सा आंदोलन बड़ा था,  और कौन सा छोटा है।

बहरहाल ये बात चल  ही रही थी कि  इस बीच उनके टेबिल पर वेटर आ गया। वेटर को  एक नौजवान आर्डर नोट कराने लगा।  बोला चार जेपी पैग और दो अन्ना पैग के साथ  सींक कबाब लाना मत भूलना। हालाकि  वेटर के चेहरे से साफ लग रहा था कि वो जेपी पैग और अन्ना पैग समझ नहीं पा रहा है, लेकिन दोबारा पूछ लिया तो फिर पांच  सितारा के वेटर की काबीलियत पर  सवाल नहीं खड़ा हो जाएगा। लिहाजा वो चुपचाप  अपने सुपरवाईजर के पास गया और बताया कि ऐसा आर्डर किया गया, जो उसकी समझ में ही नहीं आ रहा है। काफी देर तक पूरे बार में तैनात अधिकारी कर्मचारी परेशान रहे, लेकिन ये आर्डर किसी के समझ में नहीं आया। लिहाजा उनका सुपरवाईजर खुद टेबिल पर आया और पूछा कि जेपी पैग और अन्ना पैग को लेकर हम सब कुछ कनफ्यूज हैं।  कुछ और बताइये । टेबिल पर बैठे लडकों ने ठहाका लगाया और सुपरवाईजर से पूछा देश में जेपी  का आंदोलन बडा था या फिर अन्ना का। उसने  जवाब दिया कि सर जेपी का आंदोलन बड़ा था। युवकों कहा सिम्पल फिर क्या बात आपकी समझ में नहीं आ रही है। जेपी मतलब बडा़ यानि पटियाला पैग 60 एमएल और अन्ना मतलब छोटा 30 एमएल का पैग दो।

सुपरवाईजर मुस्कुराया और आर्डर की तैयारी में लग गया। बहरहाल नौजवानों की ये बात सुनकर पहले तो थोडा मुझे भी हंसी आई, पर मुझे इस बात का संतोष था कि देश  का युवक भी कम से कम आम आदमी के सरोकारों से जुडा तो हैं। भले ही उसका अंदाज कुछ भी हो।

बहरहाल मित्रों देश मे एक बार फिर लड़ाई की बिसात बिछ चुकी है। कल यानि 22 नवंबर से संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होना है। इसमे फैसला हो जाएगा कि सरकार वाकई भ्रष्टाचार को लेकर गंभीर है या नहीं। संसद में टीम अन्ना के मनमाफिक जनलोकपाल बिल लाया जाता है, या फिर महज खानापूरी की जाती है, इस पर  सभी की निगाह टिकी हुई है। लेकिन इतना तो तय है कि देशवासी इस मसले को लेकर गंभीर  हैं, उन्हें भी टीम अन्ना की तरह ही खाते पीते सोते जनलोकपाल बिल की चिंता सताए जा रही हैं।

ऐसे में मुझे लगता है कि सरकार किसी तरह का रिस्क लेने को तैयार नहीं होगी, क्योंकि विपक्ष भी इस मामले को लेकर  गंभीर है। आडवाणी जी ने अपनी यात्रा के जरिए देश को जगाने का काम किया है, पता नहीं वो कांग्रेस नेताओं को जगाने में कामयाब हो पाए या नहीं, ये तो संसद में बिल पेश किए जाने पर ही पता चलेगा।

Thursday 17 November 2011

ये क्या है राष्ट्रपति जी...

चित्र देखकर आप हैरान होंगे, हालाकि ये तस्वीर घिनौनी जरूर दिख रही है, लेकिन इसके पीछे मकसद बहुत ही साफ सुथरा है। दरअसल चीन जिस तरह से लगातार अपनी ताकत बढा रहा है उससे अमेरिका का चिंतित होना स्वाभाविक है। मेरा मानना कि भविष्य में अगर अमेरिका को किसी दूसरे देश से चुनौती मिली तो शायद वो चीन ही होगा। इसी तरह दुनिया के कई और देशों के भी अपने पड़ोसी से या फिर दूसरे देशों संबंध सही नहीं है। इसी तरह की नफरत और घृणा को खत्म करने के लिए "अनेहेट कैंम्पेन" के नाम से एक अनोखा प्रचार शुरू किया है जानी मानी कंपनी बेनेटन ने।
आपको याद होगा कि 1990 के दशक में एक पादरी और नन के लिपलाक ( चुंबकीय संबंध) की तस्वीर जारी कर ये कंपनी दुनिया भर में छा गई थी। इस कंपनी एक बार फिर कुछ ऐसी तस्वीरें जारी की हैं जिसने पूरी दुनिया में बखेडा़ खड़ा कर दिया है। बेनेटन द्वारा जारी एक तस्वीर ब्लाग पर दे रहा हूं।  इस तस्वीर में अमेरिका के राष्ट्रपति  बराक ओबामा औरचीन के राष्ट्रपति जिनताओ हैं जो एक दूसरे से लिपलांक करते दिखाई दे रहे हैं। हालांकि कपनी ने सावधानी बरतते हुए इस बार तस्वीर जारी की है। उसका मकसद भले ही इस तस्वीर के जरिए विवाद खड़ा करना हो, लेकिन कंपनी ने इसका नाम "अनहेट कैंपेन" रखा है, जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे।
वेनेटन ने इस कैंपेन के तहत लिपलाक करती कुल छह तस्वीरे जारी की हैं। इनमें फ्रांस के राष्ट्रपति निकोला सरकोजी, जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्केल, इस्राइल के बेंजामिन नेतान्याहू समेत कुछ और लोग शामिल हैं। एक तस्वीर में तो पोप को अल-अजहर मस्जिद के सेख अहमद-अल-तैयब से लिपलॉक करते दिखाया गया है। हांलाकि ये तस्वीरें सच नहीं हैं, इन सभी  तस्वीरों में छेड़छाड़ कर ऐसा किया गया है।
इस कैंपेन को शुरू करते हुए बेनेटन के इक्ज्क्यूटिव डिप्टी चेयरमैन ने पैरिस में कहा कि ये तस्वीरें 'नफरत खत्म' करने के विचार से प्रभावित हैं। उन्होंने कहा कि इसे सेक्शुअल नजरिए से नहीं देखना चाहिए। उन्होंने ये भी साफ किया कि ये तस्वीरें थोड़ी सख्त जरूर हैं, लेकिन इसके पीछे का संदेश भी कड़ा है। अब आप इस तस्वीर को देखें और बताएं कि इस तस्वीर सै कैसे अंतर्राष्ट्रीय संबंध मजबूत होते हैं।

एक खबर और...

एक राष्ट्रीय चैनल पर कल से लगातार ड्रग माफिया, भगोडा इकबाल मिर्ची का इंटरव्यू चल रहा है। सरकार ने इसे 1994 में भगोड़ा घोषित कर दिया था। संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ की एक  रिपोर्ट में तो उसे दुनिया के खूंखार ड्रग माफियाओं की सूची में शामिल किया गया है। इसके अलावा  इंटरपोल ने उसके खिलाफ 1994 में रेड कॉर्नर नोटिस जारी किया था।
इसके इंटरव्यू को जितनी प्राथमिकता के साथ प्रसारित किया जा रहा है, इसका कारण मेरी समझ से तो परे है। सच में मैं नहीं समझ पा रहा हूं इससे ये चैनल क्या संदेश देना चाहता है। दावा किया जा रहा है कि माफिया का ये पहला इंटरव्यू है। आज तक उसने किसी समाचार पत्र या टीवी चैनल को इंटरव्यू नहीं दिया। मैं तो ये देख कर हैरान हूं। मैं वैसे भी जानना चाहता हूं कि कौन सा भगोड़ा किसी को इंटरव्यू देता हैं। फिर क्या ऐसे लोगों का इंटरव्यू इसी तरह चलाया जाना चाहिए, जैसे चलाया जा रहा है।
मुझे तो लगता है कि इकबाल मिर्ची मीडिया के जरिए ये देखना चाहता है कि क्या अभी भारत वो आए या ना आए। क्योंकि लंदन में अगले साल फरवरी तक ही रहने का उसका वीजा है। इसके बाद उसे लंदन छोडना ही होगा। मेरा सवाल है कि 15 साल से लंदन में छिपे मिर्ची को अब देश के कानून में आस्था क्यों नजर आ रही है। सच ये है कि मिर्ची लंदन में बैठ कर इंटरव्यू के बाद देश में होने वाले रियेक्शन को देख रहा है कि अब सीबीआई का रुख क्या है। अगर सीबीआई रुख उसे सख्त लगा तो वो किसी और देश में शरण ले लेगा।
अहम सवाल ये है कि पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस मार्केंडेय काटजू ने मीडिया पर सख्त टिप्पणी की थी। उन्होंने यहां तक कहा कि अब पढने लिखने की आदत मीडियाकर्मी भूल चुके हैं। मीडिया को नियंत्रित करने की बात भी चल रही है, जिसका पुरजोर विरोध हो रहा है और होना भी चाहिए।
बहरहाल अब वक्त आ गया है कि हम खुद आत्ममंथन करें और क्या सही है क्या गलत, इसे जाने। वरना जिस तरह से मीडिया की छवि समाज में लगातार गिर रही है, उससे हमारी विश्वसनीयता और ईमानदारी पर भी सवाल खड़े होने लगेंगे। इस इंटरव्यू में गंदगी की बू आ रही है। अन्ना और मिर्ची दोनों एक साथ नहीं हो सकते ना। जय हो....

(दोनों तस्वीरें गुगल से साभार)

Tuesday 15 November 2011

जहर उगलता है ये गांधी...

यूपी में कांग्रेस वापसी के लिए बेताब है, होना भी चाहिए, क्योंकि देश के एक महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रेदश में राष्ट्रीय पार्टी की औकात क्षेत्रीय दल की भी नहीं है। फिर हैरानी तब और बढ जाती है, जब मैं देखता हूं कि कांग्रेस वापसी की कठिन राह पार करने के लिए दांव लंगडे घोडे़ पर लगा रही है। सबको पता है कि राहुल गांधी अभी राजनीति के लिए "अमूल बेबी" से ज्यादा कुछ नहीं है।

बहरहाल मैने पहले कहा था कि इस गांधी की जुबान फिसलती है और अब मैं इसमें बदलाव करना चाहता हूं। इस गांधी की जुवान फिसलती नहीं है, इसकी जुबान में गंदगी है। यानि ये गांधी जानबूझ कर जहर उगलता है। यूपी की जनता के बीच में यह कहना कि कब तक महाराष्ट्र में जाकर भीख मांगोगे, कब तक पंजाब में जाकर मजदूरी करोगे ? इसका मतलब ये कि यूपी के लोग जो बाहर जाकर नौकरी या मजदूरी कर रहे हैं, वो राहुल गांधी की नजर में भिखमंगे हैं। सोमवार को राहुल गांधी ने जब सार्वजनिक मंच से इतनी बेहूदी टिप्पणी की तो मुझे लगा कि इस गांधी की जुबान पहले भी फिसलती रही है, इस बार भी फिसल गई होगी और शाम तक इन्हें अपनी गल्ती का अहसास होगा और पार्टी राहुल गांधी के दिए बयान पर अफसोस जाहिर कर मामले को रफा दफा करेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, उल्टे कांग्रेस नेता राहुल की गांधी के भाषण का मतलब समझा रहे हैं, यानि वो ये बताने की कोशिश कर रहे हैं कि राहुल ने जो कहा वो उनके मुंह से गलती से नहीं निकला है, बल्कि यही उनका नजरिया है।

दरअसल मित्रों बडे लोगों की बातें भी बडी़ होती हैं। आपको पता ही होगा कि नौकरी के दौरान एक बाबू की मौत हो जाए तो मृतक आश्रित के तौर पर उसके परिवार के किसी सदस्य को नौकरी पाने में नाकों चने चबाने पड़ जाते हैं, लेकिन राजनीति में ऐसा नहीं होता है। आयरन लेडी, पूर्व प्रधानमंत्री स्व. श्रीमती इंदिरा गांधी की प्रधानमंत्री का कार्य करने के दौरान हत्या हो गई, उसके तुरंत बाद उनके बड़े बेटे स्व. राजीव गांधी को मृतकआश्रित के तौर पर प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी गई। राजीव गांधी की हत्या के बाद ये पद श्रीमति सोनिया गांधी को सौंपा जा रहा था, पर उन्होंने लेने से इनकार कर दिया। उस समय राहुल की उम्र कम थी, अब उम्र हो गई है, लोग भी चाहते हैं कि वो ये पद ले लें, लेकिन सच ये है कि राहुल को पता है कि अभी वो इस पद के काबिल नहीं हैं। बहरहाल मुझे लगता है कि सियासत में मृतक आश्रित के तौर पर उसी पद पर परिवार के किसी सदस्य की ताजपोशी पर रोक होनी चाहिए। चार दिन की नेतागिरी में बड़ी बड़ी बातें इसीलिए मुंह से निकलती हैं, क्योंकि वो बिना संघर्ष के मुकाम तक पहुंच जाते हैं।
 
चलिए राहुल जी विषय पर आते हैं। यूपी वालों को जो आपने कहा, उन्होंने स्वीकार कर लिया कि वो दूसरे राज्य में नौकरी नहीं कर रहे बल्कि भीख मांग रहे हैं। लेकिन ये बात सियासत में भी लागू होनी चाहिए ना। आपकी ही पार्टी से शुरू करता हूं। आपकी माता जी सोनिया गांधी कहां पैदा हुईं, इटली में, वोटो की भीख कहां मांग रही हैं यूपी में। राहुल जी आप कहां पैदा हुए, दिल्ली में। पढाई कहां की, दून और कैंब्रिज में। वोटों की भीख कहां मांगते हैं अमेठी में। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह रहने वाले पंजाब के राज्यसभा के सदस्य बने असम से। आपकी नजर में पंजाब का आदमी दूसरे राज्य में भीख ही मांगता है। महाराष्ट्र में प्रदेश कांग्रेस की कमान आपने यूपी के कृपा शंकर सिंह को सौंपी है। जौनपर के रहने वाले कृपा शंकर सिंह मुंबई में भीख ही मांग रहे हैं ना। कानपुर के रहने वाले केंद्रीय मंत्री राजीव शुक्ला महाराष्ट्र से राज्यसभा सदस्य हैं। वो भी यूपी से महाराष्ट्र जाकर भीख मांग रहे हैं। राजनीति में ऐसे सैकड़ों उदाहरण है,जो दूसरे प्रदेशों में जाकर चुनाव लड़ते हैं, उनके लिए राहुल गांधी ये क्यों नहीं कहते हैं को सियासी लोग दूसरे प्रदेश में जाकर भीख ना मांगे।

दरअसल में इसमें राहुल गांधी की गल्ती नहीं है। उनका पालन पोषण जिस वातावरण में हुआ है, उसमें गरीब आदमी की कोई जगह ही नहीं है। इसीलिए उन्हें आप हर गांव मुहल्ले और मंच से ये कहते सुनेंगे कि उन्हें भारतीय होने पर शर्म आती है। समस्याओं से घिरने पर गुस्सा आता है। आपको एक जानकारी दे दूं, राहुल गांधी में भारतीय होने को लेकर हीनभावना काफी पहले से रही है। 1995 में कैब्रिज यूनिवर्सिटी से एमफिल करने के बाद उन्होंने तीन साल तक माइकल पोर्टर की प्रबंधन परामर्श कंपनी 'मानीटर ग्रुप' के साथ काम किया। इस कंपनी में काम करने के दौरान उन्होंने अपना नाम राहुल गांधी नहीं बताया बल्कि वो 'रॉस विंसी' के नाम से काम करते रहे। आपको हैरानी होगी कि उनके सहकर्मियों को भी ये नहीं पता था कि ये भारतीय हैं, दरअसल यही बात राहुल छिपाना चाहते थे। आपको बता दूं राहुल के आलोचक उनके इस कदम को उनके भारतीय होने से उपजी उनकी हीनभावना मानते हैं, जबकि, काँग्रेसी कहते हैं कि ऐसा उन्होंने सुरक्षा कारणों से किया था।

बहरहाल मेरी कांग्रेस से हमदर्दी है। कांग्रेस ने देश का बहुत समय तक नेतृत्व किया है और देश ने तरक्की भी की है। राहुल गांधी अब एक्सपोज हो चुके हैं, उन्हें सियासत की बिल्कुल समझ नहीं है। वो सियासी गुलदस्ते में लगे ऐसे फूल हैं जो देखने में अच्छा लगता है, पर उसमें खुशबू बिल्कुल नहीं है। सच तो ये है कि राहुल खुद भी जानते हैं, उनकी पूछ सिर्फ इसलिए है कि उनके नाम के आगे "गांधी" लिखा हुआ है। सब को पता है कि राहुल यूपी के पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान भी सक्रिय रहे हैं और नतीजा ये रहा कि 403 संख्या वाली विधानसभा में कांग्रेस को महज 20 सीटें मिलीं। बहरहाल उस चुनाव में मिली करारी हार के बाद जब लोगों ने राहुल गांधी पर निशाना साधा,तो उनके बचाव में उतरे नेताओं ने कहा कि अभी राहुल गांधी का मुल्यांकन करना जल्दबाजी है। उन्हें और समय दिया जाना चाहिए।

राहुल को पता है कि इस बार यूपी में कांग्रेस की हार का ठीकरा उन्हीं पर फूटने वाला है। इसलिए वो ऐसे हथकंडे अपना रहे हैं, जिससे बदबू आ रही है। राहुल हर सभा में भट्टा पारसौल गांव की चर्चा करते हैं। यहां दौरा करने के बाद राहुल ने कहा था कि  गांव के तमाम लोगों को जिंदा जला दिया गया, लेकिन जांच में गांव के सभी आदमी साबूत मिले। कहने का मतलब राहुल बिना सोचे समझे अब कुछ भी बोलते हैं।


Saturday 12 November 2011

भिखारियों का अंबानी...


अटपटा लग रहा है ना आपको। ये क्या बात है, कोई भिखारियों का अंबानी भी है ? चौंकिए बिल्कुल मत, मैं आपको बताता हूं, भिखारियों का अंबानी है, और आज मैं आपकी इससे मुलाकात भी कराऊंगा। मैं बताता हूं कि इस अंबानी की सिर्फ एक ही जगह नहीं है, बल्कि देश के कई शहरों में इसका ठिकाना है और ये ठिकाने हासिल करने में इसे 35 साल लग गए।
दरअसल पिछले दिनों मैं दिल्ली में कनाट प्लेस से कुछ जरूरी काम निपटाने के बाद लौट रहा था। एक चौराहे के करीब से गुजरने के दौरान कार का एक पहिया पंचर हो गया। कार को साइड में लगाकर मैं नीचे उतरा। वैसे तो मैं चाहता तो खुद ही चक्का बदल सकता था, लेकिन मैने देखा कि गाडी़ में कोई टूल्स ही नहीं हैं, फिर तो एक ही चारा बचता है कि किसी मिस्त्री को यहीं बुलाया जाए। बहरहाल मैंने फोन कर मिस्त्री को बुलाया, जब तक वो यहां पहुंचता, मैं चौराहे के पास ही एक पेड़ की छाया में खड़ा हो गया।
यहां मैने देखा कि एक भिखारी किसी से मोबाइल फोन पर बात कर रहा है और एक कापी में कुछ लिखता जा रहा है। मैं हैरान होकर उसे देखता रहा। बात करने के दौरान उसमें किसी तरह की जल्दबाजी भी नहीं दिखी, यानि उसे ये फिक्र भी नहीं थी कि फोन को फिर रिचार्ज कराना पडेगा, इसलिए बात छोटी और जल्दी करे। लगभग पांच मिनट तक उसने फोन पर बात की और कापी पर लिखने के बाद, उसने अपनी पोटली से नीले रंग की पाकेट डायरी निकाली और उसके पन्ने पलटने लगा। बाद में इसी पाकेट डायरी मे दर्ज कोई नंबर मिलाने की कोशिश करने लगा।
बहरहाल इतना तो मैं समझ चुका था कि ये भिखारी भले हो, लेकिन साधारण भिखारी नहीं है। मुझसे रहा नहीं गया। मै दो कदम आगे बढा और उससे पूछ लिया अरे बाबा इतनी लंबी बात करोगे तो बहुत पैसा कट जाएगा। उसने मेरी बात का जबाब देने के बजाए बोला...आप दिल्ली के रहने वाले नहीं हैं। मैने कहा हां ये तो सही है, लेकिन ये तुम्हे कैसे पता। जबाव देने के बजाए लगा सिस्टम को गाली देने। बोला देखो बाबू जी, आप दिल्ली के नहीं है, फिर भी आपकी कार पर दिल्ली का नंबर है, आपने कुछ जुगाड़ कर लिया होगा। लेकिन बाबू जी हमें तो मोबाइल का सिमकार्ड लेने भर में रुला दिया लोगों ने। आप पैसा कटने की बात करते हैं, मुझे तो हफ्ते भर के लिए ये सिमकार्ड मिला है, इसका भी किराया देता हूं। तो ये सिम तुम्हारे नाम नहीं  है। बाबू जी आप भी कमाल करते हैं, मै कौन सा पहचान पत्र दिखाऊंगा कि मुझे सिम मिल जाएगा। ये सिम किसी और का है, जो मुझसे सिम का हफ्ता वसूलता है।
मैने पूछ लिया सिम किसका है। अब वो थोडा ऐंठ सा गया, बोला मैने तो आप से इसलिए बात कर ली कि आप दिल्ली के रहने वाले नहीं हैं, हमारी तरह आप भी परेदेसी हैं। वरना तो मैं दिल्ली वालों से बात भी नहीं करता हूं, भीख दें या ना दें। मेरा खर्चा दिल्ली वालों से नहीं चलता है बाबू जी। 35 साल से हूं इस लाइन में, मैने भी अब इतना बना लिया है कि भूखों नहीं मर सकता। अपने सभी ठिकानों को बेच भर दूं तो डेढ से दो लाख रुपये कहीं नहीं गए हैं। मैं हैरत में पड़ गया कि किस ठिकाने की बात कर रहा है। हालांकि जिस ऐंठ में ये भिखारी बात कर रहा था, वो अच्छा तो नहीं लग रहा था, फिर ये जानकर की ये भिखारी साधारण नहीं है, इस पर तो चैनल के लिए स्टोरी हो सकती है, मैने थोडी और पूछताछ शुरू की।
बाबा ये तुम बार बार अपने ठिकानों की बात कर रहे हो, तुम्हारा ठिकाना कहां कहां है। वो बोला बाबू जी आपकी कार पंचर है, मिस्त्री आने को होगा, तब तक आप हमारे साथ टैम पास (टाइम पास) कर रहे हो। हमारे बारे में जानने तो आप यहां आए नहीं हो। आपने मुझे "बाबा" कह कर बात की तो हमने भी दो बातें कर लीं। वरना तो ये दिल्ली वाले .. ये जितनी बडी गाडी में होते हैं, अंदर से उतने ही छोटे। बाबू जी पांच साल से ज्यादा हो गए हैं, महीने दो महीने के लिए यहां आता हूं, बाहर से ही इतना लेकर आता हूं कि इन दिल्ली वालों के आगे हाथ फैलाने की जरूरत ना पडे़। एक भिखारी की दिल्ली से इतनी नाराजगी देख मैं सन्न रह गया।
कई बार तो इस भिखारी पर मुझे शक भी हुआ। क्योंकि दिल्ली में तमाम गुप्तचर संस्था से जुडे लोग कई तरह की वेषभूषा में घूमते रहते हैं। मुझे लगा कि कहीं ये आईबी या फिर रा का आदमी तो नहीं है। लेकिन वो जिस तरह से गंदे बर्तनों को इस्तेमाल कर रहा था, उससे लगा कि ये भिखारी ही है।
थोडी देऱ खामोश रहने के बाद उसने फिर बोलना शुरू किया। अब की उसने अपने कुछ ठिकानों की गिनती कराई। बोला बाबू जी हरिद्वार और ऋषिकेश में ही कुल 14 मंदिरों के बाहर मेरी जगह है। तुम्हारी जगह.. क्या वहां जमीन या प्लाट है। बाबू जी आप तो जमीन ही समझ लो। मैने ये जगह दस साल पहले 21 हजार रुपये में खरीदी है। वहां मेरा एक बेटा है, जो ये सब देखता है। उसने सभी जगहों को आधे पर दे रखा है। उसका मतलब था जो भिखारी वहां बैठते हैं, दिन भर में जितना कमाते हैं, उसका आधा पैसा मेरे बेटे को दे देते हैं।
उसने देखा कि मैं उसकी बातों को गौर से सुन रहा हूं, तो उसने अपनी और जगहों के बारे में बताना शुरू किया। कोलकता में काली मंदिर की चर्चा करते हुए उसने बताया कि वहां तो बहुत ही बेहतर यानि प्राइम लोकेशन  पर मेरी जगह है। रोजाना सौ रुपये से ज्यादा की ये जगह है। लेने देने के बाद 80 रुपये रोज बचते हैं। मैं तो ज्यादा समय यहीं बिताता हूं। इलाहाबाद और वाराणसी में भी मेरी अच्छी जगह थी, लेकिन मैने अपनी बेटी की शादी में वो अपने दामाद को दे दिया। उसने बताया कि  उज्जैन, गया, शिरडी साईंबाबा, शनि महाराज, मथुरा बृंदावन, पुरी, द्वारिका, कामाख्या देवी, केदारनाथ, बद्रीनाथ के साथ ही कई और शहरों में पुश्तैनी जगह है। नेपाल में बाबा पशुपतिनाथ की जगह को मैने पिछले साल ही वहीं के एक भिखारी को बेच दिया।
पंद्रह बीस मिनट की बात चीत में ये भिखारी काफी खुल चुका था। उसने बताया कि ऐसे मंदिर के बाहर बैठने की  कीमत ज्यादा होती है, जहां कई देवी देवताओं की मूर्तियां हैं। अगर सिर्फ हनुमान मंदिर हैं, तो वहां मंगलवार को ही लोग आते हैं। इसी तरह साईं बाबा मंदिर में गुरुवार को, शनिदेव मंदिर में शनिवार को लोग आते हैं। बाकी दिन उस मंदिर में कोई आता नहीं, लेकिन भिखारियों को तो रोज भोजन चाहिए। इसलिए हमारी कोशिश होती है कि उसी मंदिर के बाहर की जगह खरीदी जाए, जहां रोजाना दर्शनार्थियों का आना जाना हो।
बाबू जी अब तो मंदिरो से ही कमाई हो पाती है। पहले तो हम लोगों के घर घर जाकर भीख मांगते थे, लेकिन अब हमलोगों ने घर घर जाकर भीख मांगना बंद कर दिया है। किसी मोहल्ले में चोरी हो जाती है, तो लोग सबसे पहले भीख मांगने वालों को ही मारना पीटना शुरू कर देते हैं। ऐसी घटनाओं की जानकारी जब कई जगह से मिलने लगी तो हमलोगों ने घर जाना बंद ही कर दिया। भिखारियों को होने वाली तमाम दिक्कतों की भी इसने चर्चा की। इसे पुलिस वालों से कोई शिकायत नहीं है। कहता है कि उनकी फीस तय है, हम उन्हें दे देते हैं, फिर वो हमें परेशान नहीं करते। लेकिन कई जगहों के नगर पालिका वाले हमलोगों को ज्यादा तंग करतें हैं, जबकि पुलिस वालों से ज्यादा इन्हें फीस देते हैं। आखिर में उसने बताया कि देश में जितने उसके ठिकाने और आमदनी है, उस हिसाब से वो टाप फाइव भिखारियों में एक है। यानि ये भिखारियों का अंबानी है।  
दोनों पैर से विकलांग ये भिखारी रजिस्टर्ड है। रजिस्टर्ड भिखारियों की आपस में इतनी पैठ होती है कि अगर ये दूसरी जगह जाते हैं तो हर जगह उन्हें अपनी ट्राई साईकिल नहीं ले जानी होती है, वहां उन्हें निशुल्क ट्राई साईकिल इस्तेमाल के लिए मिल जाती है। इनके लिए ये बहुत बडी सुविधा है। इसके तीन बच्चे हैं, तीनों बच्चों की शादी हो चुकी है। बेटे के शादी में इन्हें भी कई स्थानों पर भीख मांगने की प्राइम लोकेशन दहेज में मिली है। खाने में एक टाइम नानवेज जरूरी है। मित्रों वैसे तो इस भिखारी का नाम और ये कहां का रहने वाला है, ये सबको बताना चाहता था, मैं तो इस भिखारी अंबानी की तस्वीर भी लोगों के सामने रखना चाहता था, पर मुझे लगता है कि ऐसा करने से कहीं उसका धंधा ना प्रभावित हो।
बहरहाल आप सफर में हों और कार पंचर हो जाए तो, आपको खराब लगता है, मुझे भी लगा। लेकिन इससे बात चीत के बाद जब मैं कार में सवार हुआ तो मन में एक नई जानकारी के लिए संतोष तो था, लेकिन दिल्ली वालों पर गुस्सा भी। क्या भाई आपका सड़क पर व्यवहार ऐसा है कि स्वाभिमानी भिखारी भी आपसे बात नहीं करना चाहता। 


Wednesday 9 November 2011

बिग बास का स्वामी...

ये है बिग बास का घर। यहां कोई किसी का सगा नहीं। इस घर में आने का मौका उसे ही मिलता है, जिसमें बिग बास को कुछ " खास " नजर आता है। आपको हैरानी होगी, लेकिन सच ये है कि एक बार इस घर में शामिल होने का न्यौता मुझे भी मिला था। मैं इंटरव्यू के लिए बिग बास के सामने बैठा। उन्होंने मेरा नाम पूछा, मैने नाम बताया। अगला सवाल था कि क्या आप ज्वाइंट फैमिली में रहते हैं ? मैने कहा हां, बिग बास को मेरा जवाब अच्छा नहीं लगा। फिर पूछा सड़क चलते आपकी किसी से कितनी बार तू-तू मै-मै हुई है, मैने बताया, मेरे साथ तो ऐसा नहीं हुआ। बस इतना कहना था कि बिग बास ने एक बहुत भद्दी सी गाली दी, मैं चौंक गया और मैं उन्हें ऊपर से नीचे तक देखता रह गया। मेरे मन में बिग बास को लेकर बहुत इज्जत थी, जो एक मिनट में खत्म हो गई। मैं आगे कुछ बात किए बगैर निकल आया।
बाहर मेरी मुलाकात हुई ऐसे शख्स से जिसे दो दिन बाद बिग बास के घर में होना था। मेरा लटका हुआ चेहरा देखकर उसने पूछा क्या हुआ। मैने उसे पूरी बात बताई तो वो हंसने लगा। बोला आप तो वाकई बेवकूफ हैं, ज्वाइंट फैमिली में रहने वाले का यहां क्या काम है? बताइये रास्ते चलते आप चीखेगे चिल्लाएंगे नही तो आपको आगे जाने का रास्ता कौन देगा? इसके बाद भी बिग बास ने आपको गाली देकर अंतिम समय तक जागने का मौका दिया। अगर आप बिग बास के गाली देते ही..उनकी मां का साकी नाका....कर देते तो भी आपका चुना जाना तय था। चलिए कोई नहीं, आप केबीसी की तैयारी कीजिए, बिग बास से आपकी नहीं बनी तो क्या हुआ बिग बी से जरूर बनेगी।
हालांकि मैं इस बात जिक्र करना नहीं चाहता था, मुझे लोगों को ये बताने में बुरा लग रहा है कि बिग बास ने मुझे गाली दी और मै सुन कर चला आया। लेकिन जब आज मैने स्वामी अग्निवेश को घर के भीतर पाया तो मुझे बिग बास के साथ अपना इंटरव्यू याद आ गया। बिल्कुल ठीक बात है, स्वामी जी परिवार के साथ नहीं रहते। आप सब ने टीवी पर देखा होगा कि टीम अन्ना से दूरी बढ़ी तो वो किस तरह फोन पर अन्ना टीम को पागल हाथी बताते हुए इन्हें सबक सिखाने की पैरवी कर रहे थे। अच्छा रास्ते चलते पंगा लेने की इन्हें आदत भी है, तभी तो अमरनाथ यात्रा को इन्होंने पाखंड कह दिया। अब सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा कि स्वामी जी सार्वजनिक जीवन में गंभीरता बरतें।
बहरहाल आइये अब बात करते हैं मुद्दे की। इस सवाल का जवाब पूरा देश तलाश रहा है कि आखिर स्वामी जी ने बिग बास के घर जाने का फैसला क्यों किया। मुझे भी लग रहा है कि 72 वर्षीय स्वामी 7 सुंदरियों और हिजड़े का वाथरूम साफ करने तो वहां नहीं ही गए हैं। अन्ना के बारे में जो कुछ भी कहते हुए वो कैमरे पर पकड़े गए, उसके बाद स्वामी की रही सही विश्वसनीयता भी खत्म हो गई है। आमतौर पर अब उनकी इमेज सरकार के एक 'लंपू' की रह गई है, जिसका काम होता है कि सरकार के खिलाफ होने वाले आंदोलन से जुडे और वहां की खबरें सरकार तक पहुंचाए। स्वामी जी अब टीम अन्ना से बाहर हो चुके हैं तो उन्हें अपनी इमेज भी दुरुस्त करनी है।
आपको पता है कि बिग बास के घर साप्ताहिक टास्क कई बार बडे उल्टे सीधे होते हैं। पिछले दिनों एक टास्क मे घर के आधे सदस्यों को कुत्ता बनना था और बाकी को उसका मालिक। कुत्ता बने सदस्य को पूरे दिन कुत्ते की तरह ही चलना होता था, और कुत्ते का कपडा भी पहनना होता है। अगर ये टास्क रिपीट हुआ तो क्या स्वामी जी कुत्ता बनने को तैयार होगें। एक टास्क के दौरान हिजडे लक्ष्मी ने पैंट पहनने से इनकार कर दिया और खूब रोई। अगर किसी टास्क में स्वामी को पैंट पहनाया गया या फिर घर के अंदर डांस शो में स्वामी के लिए बिग बास ने ड्रेस बिकनी भेज दिया और महक के साथ डांस करने को कहा तो स्वामी ये टास्क करेंगे। बहरहाल ये सब तो शो देखने से ही साफ होगा।
जानकारों का मानना है कि बिग बास के घर में कुछ भी किसी के बारे में कहो, कोई मानहानि का मुकदमा नहीं हो सकता, क्योंकि यहां तो सब अपनी अपनी गासिफ कर रहे हैं। अब स्वामी जी यहां से रोजाना अन्ना और उनकी टीम के सदस्यों पर सीधा हमला बोलेगें। अब एक मनोरंजक चैनल के कार्यक्रम पर कोई कमेंट तो करेगा नहीं, लेकिन हां स्वामी जी में लोगों को अपनी बात समझाने की क्षमता है, वो वहां रोजाना यही काम करेंगे।
वैसे भी सरकार के एक बडे़ मंत्री को इस समय जिम्मेदारी दी गई है कि वो अन्ना को काबू करने के लिए काम करें। कहा तो यहां तक जा रहा है कि स्वामी का घर के अंदर जाना भी इसी अभियान का एक हिस्सा है। इसके अलावा जल्दी ही एक अंग्रेजी के समाचार पत्र में अन्ना के खिलाफ एक खास रिपोर्ट भी प्रकाशित कराने की साजिश चल रही है। कुल मिलाकर सरकार के कुछ लोग चाहते हैं कि शीतकालीन सत्र के पहले टीम अन्ना को अगर काबू में नहीं किया गया तो विपक्ष के साथ ही ये टीम उनके लिए बडी मुश्किल खड़ी कर सकती है।
बहरहाल इस समय तो स्वामी अग्निवेश की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। अग्निवेश की प्रतिष्ठा कहना शायद गलत होगा, मेरे हिसाब से स्वामी ने भगवा कपडे की प्रतिष्ठा को जरूर दांव पर लगा दिया है। वैसे भाई मेरा फेवरिट शो है बिग बास और मुझे भी इंतजार है कि स्वामी जी को छोटे छोटे कपडे़ पहनी सुंदरियों से बाथरुम में गासिफ करते देखने का। मै देखना चाहता हूं कि वो  बाथरूम में कितनी देर तक गपबाजी करते हैं और वो भी भगवा कपडे को दागदार बनाए बगैर। तो मित्रों आज रात से देखिए और मुझे भी बताइये कैसा लग रहा है हमारे स्वामी का परफार्मेस......।

Monday 7 November 2011

जेपी बनाम अन्ना

मित्रों, देश में एक नई बहस शुरू  हो  चुकी है,  जेपी आंदोलन बनाम अन्ना का आंदोलन । मैं हैरान इस बात से  हूं कि  लोग  आंदोलन की समीक्षा निष्पक्ष होकर नहीं कर रहे हैं और कुछ  लोग जेपी  को नीचा  दिखाने की कोशिश कर रहे हैं तो कुछ अन्ना को।
पहले मैं संक्षेप में दूसरों के विचारों से  आपको अवगत करा दूं। कहा जा रहा है कि जेपी ने आंदोलन की शुरूआत नहीं  की थी । देश में 1974 में बेरोजगारी, मंहगाई और भ्रष्ट्राचार को लेकर युवा वर्ग खुद ही आगे आया और देश भर में एक  अभियान की शुरुआत  हुई । बाद में इसी आंदोलन को जेपी  ने नेतृत्व दिया ।  जेपी आंदोलन की ये कहकर भी आलोचना की जा रही है कि  उनका  आंदोलन हिंसात्मक  हो चुका था ।  उस आंदोलन ने देश में अस्थिरता का माहौल  बना दिया था । आगजनी, रास्ता जाम, हिंसा आम बात हो चुकी थी । जेपी की आलोचना करने वाले  यहां तक कह रहे हैं कि आंदोलन के दौरान हिंसा में तमाम लोग मारे गए, लेकिन जेपी  ने इसके लिए कभी  खेद नहीं जताया ।
अन्ना की प्रशंसा में कहा जा रहा है कि देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना और उनकी टीम ने पूरा आंदोलन खड़ा किया है । ये  आंदोलन हिंसात्मक भी नहीं है । खुद अन्ना लगातार लोगों से अपील करते हैं कि  आंदोलनकारी किसी तरह की हिंसा से दूर रहें । इस आंदोलन को सिविल  सोसायटी के  लोगों ने आमजनता का आंदोलन बना दिया है । अब देश भर से भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठने लगी है । मैं भी  अन्ना तू भी अन्ना के नारे देश भर में लग रहे हैं ।
मित्रों दोनों की बातें आपके  सामने है । इसी आधार पर कुछ  लोग जेपी को छोटा और अन्ना को बड़ा बताने की कोशिश कर रहे हैं , लेकिन जेपी को छोटा बताने वालों से मेरा एक सवाल  है ।  दोस्तों क्या आप बता सकते  हैं कि जिस दौरान जेपी का आंदोलन चल रहा था क्या उस समय भी इलेक्ट्रानिक मीडिया इतनी ही मजूबत थी ? आज अन्ना को  कोई संदेश लोगों तक पहुंचाना हो तो  वो टीवी चैनलों के जरिए वो  देशवासियों से सीधा संवाद कर सकते हैं, पर उस दौरान ऐसा नहीं  था ।   जेपी आंदोलन से जुडे लोगों को अपनी बात ही लोगों तक पहुंचाने में पसीने छूट जाते थे ।
जेपी जिस सशक्त सरकार और मजबूत प्रधानमंत्री स्व. इंदिरागांधी से संघर्ष कर रहे थे, क्या अन्ना की लड़ाई उतनी मजबूत सरकार और तेजतर्रार प्रधानमंत्री से  है । अन्ना का आंदोलन मजबूत ही इसलिए है कि देश में कमजोर  प्रधानमंत्री है और  सरकार डायलिसिस पर है । इस सरकार को हर दिन डायलिसिस पर रखा  जाता है, तब जाकर इसकी सांसे चलती हैं।  इदिरा जी सरकार मे अरविंद केजरीवाल जैसे लोग हिम्मत जुटा पाते प्रधानमंत्री कार्यालय को   जुर्माने की राशि भेजने की ।  हवाई यात्रा के किराए में चोरी करने वाली किरन वेदी की हिम्मत होती कि वो रामलीला मैदान में सिर पर डुपट्टा डाल कर सांसदों की नकल करतीं ।  इस आंदोलन को मजबूत करने में सबसे बडा योगदान कमजोर प्रधानमंत्री का ही है।
मुझे ये कहने में कत्तई संकोच  नहीं है कि आजाद हिंदुस्तान की ये सबसे भ्रष्ट सरकार है । लोग प्रधानमंत्री को क्यों ईमानदार कहते हैं, ये तो वही जानें । मेरा मानना है कि  टूजी के मामले में ज्यादातर फैसले प्रधानमंत्री और ग्रुप आफ मिनिस्टर की जानकारी में थी, इसलिए इस चोरी के लिए सभी बराबर के जिम्मेदार हैं । वैसे मनमोहन  सिंह की स्थिति  भी सरकार में बेचारे की है। संविधान के  मुताबिक देश का प्रधानमंत्री वो होगा, जो  चुने हुए  सांसदों का नेता होगा । मनमोहन बेचारे  नेता तो हैं नहीं, वो तो प्रधानमंत्री की कुर्सी नहीं बल्कि  सोनिया गांधी की खडाऊं से संभाल रहे हैं।
इस सबके बाद कुछ लोग अन्ना  को जेपी से बड़ा और काबिल बता रहे हैं । कई साल तक जेल में रहकर  जेपी और उनके समर्थकों ने देश में कांग्रेस सरकार का सूपड़ा साफ कर दिया । मोरारजी  भाई  देसाई के अगुवाई में यहां पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने मे जेपी कामयाब रहे । और अन्ना की टीम ने हिसार में कांग्रेस उम्मीदवार के खिलाफ पूरी ताकत झोंक दी, इसके बाद भी कांग्रेस उम्मीदवार को डेढ लाख से  ज्यादा वोट मिले । अन्ना और केजरीवाल अपनी पीठ खुद थपथपाते रहे, लेकिन आप हिसार मे किसी से भी पता कर लें, कांग्रेस ने जिसे उम्मीदवार बनाया था, वो पहले दिन से ही तीसरे नंबर पर था और चुनाव नतीजे भी उसी के अनुरुप रहा । हां अगर कांग्रेस  उम्मीदवार यहां चौथे  स्थान पर चला जाता तो मैं ये मानने को तैयार हो  जाता कि अन्ना की टीम के विरोध का कुछ असर हुआ ।  
मित्रों मुझे लगता है कि जो लोग  जेपी आंदोलन को नीचा दिखा रहे हैं, उनकी मंशा लोकनायक जयप्रकाश के आँदोलन को नीचा दिखाना नहीं, बल्कि उस आंदोलन  से अन्ना की तुलना कर अन्ना को बडा बनाने की साजिश  है । सच तो ये है कि आजाद भारत में अगर सबसे  बडा कोई आंदोलन है तो वो जेपी  आंदोलन ही है, और अगर हम उससे किसी दूसरे आंदोलन की तुलना करें  तो जाहिर है कि दूसरे आंदोलन का कद बढता है । वैसे  मैं लेखकों से आग्रह करुंगा का ऐसा  कुछ ना  लिखें कि इतिहाल  कलंकित हो ।
 

Wednesday 2 November 2011

दलितों का बहुत खा चुके राहुल...


मेरा अभी भी मानना है कि कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के बारे में कुछ लिखना, पढ़ना सिर्फ समय खराब करने से ज्यादा कुछ नहीं है। राहुल जब से राजनीति में आए हैं, अगर हम जानना चाहें कि उन्होंने इस दौरान किया क्या है ? तो मुझे तो सिर्फ दो बातें याद आ रही हैं। पहला उन्होंने घूम घूम कर दलितों के घर भोजन किया और दूसरा वो भारतीयों की दुर्दशा से इतने परेशान है कि अब उन्हें भारतवासी होने पर शर्म आती है।
देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस की पूरी राजनीति गांधी परिवार के ही इर्दगिर्द घूमती रहती है। बीमारी के बाद सोनिया गांधी स्वस्थ तो हैं, पर पहले की तरह एक्टिव नहीं हैं। चूंकि कांग्रेसियों को गांधी परिवार के अलावा किसी और का नेतृत्व स्वीकार ही नहीं है, इसलिए अभी से राहुल बाबा को कमान सौंपने के लिए एक ग्रुप पूरी ताकत से जुट गया है। बहरहाल ये उनका घरेलू मामला है, मैं इसमें क्या कहूं, लेकिन हां अगर राहुल के हाथ में सरकार की कमान आती है तो देश का दुर्भाग्य ही होगा, क्योंकि मेरा मानना है कि राहुल गांधी से बेहतर है कि जिस दलित के यहां भोजन कर राहुल कुर्सी पाने की कोशिश कर रहे हैं, उस दलित को ही कुर्सी सौंप दी जाए। कम से कम उसे ये तो पता है ना कि गरीबी क्या होती है। आटा चावल दाल की कीमत भी वो जानता है। बहरहाल.....

मेरे मन में कई दिन से एक सवाल है। अगर अखबार में राहुल गांधी की कोई खबर है तो सिर्फ यही की वो यूपी के किसी गांव में दलित परिवार के घर पहुंचे और उनके यहां भोजन भी किया। विदर्भ की कलावती के यहां से शुरू हुआ भोजन का ये सिलसिला कम थमेगा, ये तो मैं नहीं कह सकता। लेकिन इतना तो जरूर है कि जिस दिन अखबारों ने ये तस्वीर छापनी बंद कर दी, तो यकीन मानिये ये सिलसिला भी थम जाएगा। अच्छा राहुल के गांव पहुंचने की एक खास बात और होती है, उनके आने की जानकारी जिला प्रशासन को नहीं होती है, लेकिन अखबार बालों को दी जाती है, जिससे कम से कम कैमरे तो वहां पहुंच ही जाएं।
चलिए आपके भोजन करने से भी हमें कोई ऐतराज नहीं है। मैं जानता हूं कि दलित तो बेचारे अतिथि देवो भव:  को मानने वाले हैं, देर रात कोई भी भूखा अगर उनके यहां आएगा, तो उसे अपने हिस्से की भी रोटी खिला देगें। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि राहुल गांधी दलितों के यहां भोजन किस भाव से करते हैं। क्या उन्हें सच में भूख इतनी तेज लगी होती है, कि वो होटल पहुंचने का इंतजार नहीं कर पाते और दलित के यहां बैठ जाते हैं खाना खाने। या वो छोटे-बडे़, जात-पात में अंतर नहीं समझते
हैं, ये संदेश लोगों को देना चाहते हैं, इसलिए उनके बीच भोजन करते हैं। या फिर दलित की रोटी से अपनी सियासत की भूख को शांत करते हैं।
इन सवालों का जवाब तो राहुल ही दे सकते हैं, लेकिन मैं दलितों की ओर से कुछ कहना चाहता हूं। क्योंकि राहुल से दलित बेचारे तो ये बात कह नहीं सकते। इसलिए मैं कहता हूं, वो  भी पूरी जिम्मेदारी के साथ। राहुल अगर दलित के यहां भोजन करना ड्रामेबाजी नहीं है, इसमें गंभीरता है, तो बहुत भोजन तुमने दलितों के यहां कर लिया। अब दलितों की बारी हैं। उन्हें भी अपने घर बुलाओ और जैसे तुम डाईनिंग टेबिल पर खाना खाते हो, वैसे उन्हें भी अपने बराबर बैठाकर भोजन कराओ। दलितों ने तुम्हें सोने के लिए अपनी सबसे साफ चादर सौंपी, तुम उन्हें भी अपने बेडरुम में एक रात गुजारने का मौका दो। अगर ऐसा करते हो, तब तो हुई बराबरी की बात, वरना ये फोटो छपवाते रहो, इसका अब किसी पर असर नहीं हो रहा।
चलिए आपसे भी एक सवाल पूछता हूं। राहुल गांधी किसी भी गांव में पूरे काफिले के साथ रात के दस ग्यारह बजे किसी वक्त पहुंच जाते हैं और वहां दलित परिवार का दरवाजा खटखटा दिया जाता है। दिल्ली में अगर दलित परिवार अचानक रात में राहुल गांधी के घर तो दूर आसपास भी पहुंच जाए तो तस्वीर तो उसकी भी छप जाएगी अखबारों में, लेकिन फोटो के नीचे ये नहीं लिखा होगा कि दलित परिवार के लोग अपनी समस्या लेकर राहुल से मिलने आए थे, और सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें मार गिराया, बल्कि ये लिखा होगा कि राहुल गांधी पर हमला करने आए लोगों को पुलिस ने मार गिराया। दलितों के शव के पीछे कुछ पुलिसकर्मी खड़े होंगे और ये तस्वीर सभी अखबारों को जारी कर दी जाएगी। खैर मेरा तो यही मानना है, आप हो सकता है कि इस बात से सहमत ना भी हों।
अच्छा लोगों से मिलने राहुल कभी भी कहीं भी चले जाते हैं, लेकिन उनसे मिलने यहां कोई नहीं आ सकता। अन्ना के गांव रालेगावसिद्धि से पंचायत प्रतिनिधि दिल्ली राहुल गांधी से मिलने आए। उन्हें कांग्रेस के सांसद ने ही राहुल गांधी से मिलने को बुलाया था। दो दिन तक बेचारे यहां धक्के खाते रहे, लेकिन राहुल दिल्ली में होने के बाद भी नहीं मिले। बाद में सांसद ने तो माफी मांग ली, राहुल गांधी ने तो ऐसी चुप्पी साधी जैसे उन्हें कुछ पता ही नहीं।
बहरहाल मैं तो इसी मत को हूं कि अगर कोई मुझे एक बार भोजन कराए, तो मेरी कोशिश होती है कि उसे दो बार भोजन करा दूं। लेकिन गांधी परिवार में ये प्रचलन नहीं होगा, उनके यहां सिर्फ दूसरों का भोजन गटकने का ही प्रचलन होगा। तभी तो तीन चार साल से राहुल दर दर जाकर लोगों की रोटी तोड़ रहे हैं, लेकिन उन्हें रोटी खिलाने की कभी नहीं सोच रहे।


जब नाले भी हो गए पूजनीय
जी हां, ये बजबजाते, बदबूदार ऐसे नाले हैं कि इसके आसपास से गुजरना मुश्किल होता है, लेकिन आज जब अपने पूर्वांचल की महिलाओं को यहां छठ पूजा करते देखा तो हैरान रह गया। खैर हम धार्मिक रूप से बहुत ही सहिष्णु हैं, होना भी चाहिए। लेकिन स्थानीय प्रशासन को क्या कहें, अगर वो छठ पूजा के लिए बेहतर प्रबंध करे, तो लोग भला यहां क्यों पूजा करेंगे।