Friday 29 July 2011

भगवा को बख्श दो बाबा.......

आइये आज एक बार फिर चलते हैं हरिद्वार के पतंजलि योग पीठ और बात करते है बाबा रामदेव के साथ ही उनके सहयोगी बालकृष्ण की। चोर पुलिस के खेल में जिस तरह बाबा रामदेव और बालकृष्ण के आगे पीछे पुलिस, सीबीआई दौड भाग कर रही है, इससे लगता है कि बाबा ने भगवा को भी दागदार कर दिया। इसलिए प्लीज बाबा इस कपडे पर रहम करो। मैं कोई ज्ञान की बात नहीं बता रहा हूं, ये सभी जानते हैं कि जिनके घर शीशे के होते हैं, वो दूसरों पर पत्थर नहीं फैंकते, लेकिन लगता है कि ये बाबा इस मूलमंत्र से भी नावाकिफ हैं।
पहले मैं बाबा की मांगो के बारे में आपको बता दूं कि विदेशों में जमा काला धन वापस आना चाहिए। मुझे लगता है कि जिनके पैसे बाहर हैं, उनके अलावा देश का कोई भी व्यक्ति इस मांग का विरोध नहीं करेगा। मैं भी बाबा के इस मांग का समर्थक हूं, लेकिन उनकी दूसरी मांग भ्रष्ट्राचारियों को फांसी पर लटका दो, मैं इसका विरोधी हूं। दुनिया भर के दूसरे देशों में आज एक बहस छिड़ी हुई है कि फांसी की सजा को खत्म कर दिया जाना चाहिए, क्योंकि ये अमानवीय है। हां सजा सख्त होनी चाहिए, इसमें कोई दो राय नहीं, लेकिन हर आदमी को सुधरने का मौका जरूर मिलना चाहिए।
जब मैं कहा करता था कि अन्ना के साथ बाबा रामदेव का नाम जोड़कर अन्ना को गाली नहीं दिया जाना चाहिए, तो तमाम बाबा समर्थक मेरे लिए अनर्गल बातें कर रहे थे। अब देखिए बाबा योग भूल गए हैं, पूरे दिन अपने ट्रस्टों और कंपनियों का लेखा जोखा दुरुस्त करने में लगे हैं। अब पूरी तरह से बचाव की मुद्रा में हैं। घबराए इतना हैं कि भाषा की मर्यादा भी बाबा भूल चुके हैं। मेरी समझ में एक बात नहीं आ रही है कि अगर बाबा रामदेव पाक साफ हैं तो सवालों से भागते क्यों हैं। जो कुछ जानकारी पुलिस चाहती है, उसे देने में आखिर क्या गुरेज है। बाबा जी आप पुलिस को क्यों नहीं बता देते कि आपके गुरु महाराज कहां हैं। वो अब इस दुनिया में हैं या नहीं। अगर हैं तो कहां हैं, नहीं हैं तो उन्होंने कैसे प्राण त्याग दिया ?
आजकल बाबा टीवी पर योग करते तो कम दिखाई देते हैं, अपने और बालकृष्ण पर लगे आरोपों पर सफाई देने में ही उनका समय कटता है। इतना ही नहीं बाबा से बात करो राम की तो वो रहीम की सुनाते हैं। यानि जब उनसे पूछा जाता है कि ये हजारों करो़ड़ का साम्राज्य आपने कैसे खडा किया, तो बाबा इसकी जानकारी नहीं देते, वो कहते हैं कि जो कुछ भी किया है, वो सौ प्रतिशत प्रमाणिकता के साथ किया है। बाबा जी सवाल का ये तो कोई जवाब नहीं है। ऐसे तो देश में जितने भी चोट्टे हैं, किसी के भी खिलाफ कार्रवाई करना संभव नहीं होगा। कालेधन का मामला आपने उठाया है तो पहले साफ कीजिए ना कि आपके साम्राज्य में काले धन का इस्तेमाल नहीं हुआ है। वैसे तो एक दिन आपने हिसाब देने की कोशिश की और अपने छह ट्रस्टों के बारे में कुछ पेपर पत्रकारों के सामने पेश कर दिया। लेकिन जब पत्रकारों ने उन 39 कंपनियों के बारे में जानकारी की तो आप बगले झांकने लगे। ऐसे में सवाल तो उठेगा ही एक संत को इतनी कंपनियां बनाने की जरूरत क्यों पडी, जाहिर है टैक्स चोरी करने के लिए।
बैसे भी बाबा रामदेव जी आजकल आपकी बाडी लंग्वेज भी बताती है कि आप सामान्य नहीं हैं। हमेशा तल्ख टिप्पणी, गुस्से से तमतमाया चेहरा, नेचुरल हंसी भी गायब है, चाल में भी आक्रामकता आ गई है। सच कहूं बाबा जी तो आप जब तक सामान्य ना हो जाएं प्लीज भगवा कपड़े पहनना छोड़ दीजिए। भगवा कपडे में आज करोड़ों हिंदुस्तानियों की आत्मा बसती है, लोग इस कपडे का सम्मान करते हैं। वैसे भी पुलिस से बचने के लिए आपने जिस तरह से महिलाओं का सलवार सूट पहना, उससे आपका भगवा वस्त्र पहनने का व्रत टूट चुका है। भगवा वस्त्र का व्रत टूटने के बाद इसे ऐसे ही दोबारा नहीं पहन सकते हैं। अब आपको कोर्ट, कचहरी, पुलिस, सीबीआई का सामना करना पड रहा है, हो सकता है जेल तक जाना पडे, ऐसे में इस भगवा का तब तक त्याग कर दें, जब तक आप सभी मामलों से पाक साफ बरी ना हो जाएं। देखिए नेताओं को जिन्हें आप पानी पी पी कर कोसते हैं, वो भी इतने नैतिक हैं कि आरोप लगने पर कुर्सी छोड़ देते हैं। मुझे लगता है कि आपको भी एक उदाहरण पेश करना चाहिए, लेकिन बाबा जी आप से ऐसी उम्मीद करना बेमानी है, क्योंकि आप में कानून के प्रति श्रद्धा होती तो फर्जी दस्तावेजों के आधार पर पासपोर्ट बनवाने वाले बालकृष्ण की पैरवी ना करते।

मुझे बालकृष्ण से ज्यादा शिकायत नहीं है। फर्जी सर्टिफिकेट के आधार पर तमाम लोग पायलट बन गए, कुछ दिन पहले इनकी पहचान हुई और इन्हें गिरफ्तार किया। मुझे पता है कि ये बालकृष्ण नेपाली है, उसका जन्मतिथि प्रमाण पत्र फर्जी है, उसकी डिग्रियां फर्जी हैं, इतना ही नहीं उसने फर्जी कागजातो के आधार पर पासपोर्ट तक हासिल कर लिया। ऐसा नहीं है कि बाबा रामदेव के धरने के बाद ये मामला खुला है, सच ये है कि इसकी जांच तीन साल पहले उत्तराखंड पुलिस ने की थी और अपनी रिपोर्ट में साफ कर दिया था कि बालकृष्ण नेपाली नागरिक है और गलत प्रमाण पत्रों के आधार पर इन्होंने पासपोर्ट लिया है। लेकिन उत्तराखंड में बीजेपी की सरकार है, जिसे बाबा रामदेव लाखों रुपये चंदा देते हैं। इसलिए इस मामले में वहां की सरकारने कोई कार्रवाई नहीं की। खैर बालकृष्ण जैसे आरोपी के बारे में ज्यादा चर्चा क्या करूं, इसकी जगह जेल है, और जाना भी तय है, जिस तरह से भागता फिर रहा है, उससे तो उस पर तरस आ रही है।
मित्रों बालकृष्ण की डिग्री फर्जी होने से ज्यादा शर्मनाक ये है कि बाबा रामदेव एक गलत आदमी के लिए सफाई दे रहे हैं। पुलिस जाती है सीबीआई की नोटिस लेकर, कहा जाता है कि बालकृष्ण आश्रम में नहीं हैं। पुलिस को नोटिस आश्रम में बालकृष्ण के कमरे के बाहर चस्पा करना पड़ता है, दो घंटे बाद भगवाधारी रामदेव आते हैं, वो कहते हैं कि बालकृष्ण आश्रम में ही हैं। बताइये संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति इनकी डिग्री को फर्जी बताते हैं, बाबा रामदेव कहते हैं कि इस सर्टिफिकेट से नौकरी तो नहीं मांग ली। इससे घटिया सोच भला क्या हो सकती है, एक बाबा ऐसी बातें करे, इससे भद्दा, फूहडपन भला क्या हो सकता है। बाबा जी अब आपके मुंह से सच्चाई, ईमानदारी, राष्ट्रवादी बातें बेईमानी नहीं गाली लगती हैं।

Monday 25 July 2011

भगवान के लिए सेना को बख्श दो...

काफी दिनों से देख रहा हूं कि देश में कुछ ऐसे मुद्दों पर बहस छिड़ि हुई है, जिसके चलते अहम मुद्दे पर लोग की नजर नहीं जा रही है। मित्रों जिस तरह पड़ोसी देशों से हमारे रिश्ते लगातार खराब हो रहे हैं, उससे सेना की भूमिका को कोई नजरअंदाज नहीं कर सकता। हमारी सेना की ताकत पाकिस्तान के मुकाबले कई गुनी ज्यादा है, फिर भी पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है, जिससे सीमा पर तनाव बना ही रहता है। साल दो साल से चीन की नजर भी टेढी है। हालत ये है कि चीनी सीमा से लगे भारतीय इलाकों में हम विकास का काम भी नहीं कर पा रहे हैं, चाहे अरुणाचल, उत्तराखंड से लगी सीमा हो या फिर गंगटोक से। चीनी सेना हमें सड़क और पुल बनाने से भी रोक देती है। नत्थी बीजा का मामला अभी तक नहीं सुलटा है। ये बातें मैं महज आपको इसलिए बता रहा हूं कि आज देश की सीमाएं भले ही सुरक्षित हों, पर यहां तनाव तो बना ही हुआ है। ऐसे में सेना से जुडे़ अहम मसलों पर जिस तरह संजीदा होकर फैसले लेने चाहिए, वो नहीं लिए जा रहे हैं।
ताजा विवाद सेना प्रमुख जनरल वी के सिंह को लेकर है। इस मामले में लिखने का मकसद ही यही है कि मैं आपको सच्चाई की जानकारी दे सकूं। मित्रों दरअसल सेना का मसला ऐसा गुप्त रखा जाता है कि आसानी से यहां चल रहे गोरखधंधे को जनता के सामने लाना आसान नहीं होता है। मैं एक बात दावे के साथ कह सकता हूं कि जितना भ्रष्टाचार सेना में है, शायद और कहीं नहीं होगा। दूसरे मंत्रालय साल भर में जितना घोटाला करते होंगे, सेना के एक सौदे में उससे बड़े रकम की हेराफेरी हो जाती है। बहरहाल इन खराब हालातों के बावजूद जनरल वी के सिंह की छवि एक सख्त और ईमानदार जनरल की है। सेना प्रमुख होने की पहली शर्त ही ये है कि आपकी पहले की सेवा पूरी तरह बेदाग होनी चाहिए। इस पर खरा उतरने के बाद ही जनरल को सेनाप्रमुख बनाया गया।
अब आप देखें कि सेना में आखिर हो क्या रहा है। ईमानदार जनरल के चलते आर्म्स लाबी ( हथियारों के सौदागर) नाराज हैं। वो चाहते हैं कि सेना के लिए हथियारों की खरीददारी पहले की तरह होती रहे। यानि सेना के अफसरों, नेताओं, कांट्रेक्टर्स सबकी चांदी कटती रहे। लेकिन जनरल बीके सिंह के सेना प्रमुख रहते ये सब संभव नहीं है। इसलिए एक साजिश के तहत सभी रक्षा सौदों में देरी की जा रही है। इतना ही नहीं ये लांबी इतनी ताकतवर है कि इसने अब सेना प्रमुख को रास्ते से हटाने का रास्ता साफ कर दिया। जनरल के जन्मतिथि विवाद को लेकर उन्हें अब साल भर पहले ही रिटायर करने की तैयारी हो गई है और सरकार ने भी इस पर अपनी मुहर लगा दी। ऐसे में अहम सवाल ये क्या इस गोरखधंधे में सरकार के भी कुछ नुमाइंदे शामिल हैं। ये सब मैं आप पर छोड़ता हूं, लेकिन पूरी तस्वीर आपके सामने मैं हुबहू रखने की कोशिश करता हूं।
मित्रों सेना प्रमुख के हाईस्कूल के प्रमाण पत्र में उनकी जन्मतिथि 10 मई 1951 दर्ज है। इस हिसाब से उन्हें जून 2013 में रिटायर होना चाहिए, लेकिन यूपीएसई में कमीशन के दौरान सेना मुख्यालय में जो रिकार्ड है, उसमें उनकी जन्मतिथि 10 मई 1950 लिखा है। इस हिसाब से उन्हें अगले ही साल जून में रिटायर होना होगा। देश में यही परंपरा रही है कि अगर कोई अभ्यर्थी हाईस्कूल पास है तो उस सर्टिफिकेट में जो जन्मतिथि दर्ज है, वही मान्य होगी। अगर कोई हाईस्कूल पास नहीं है तो जन्म के दौरान नगर पालिका के स्वास्थ्य विभाग या फिर ग्राम पंचायत में दर्ज जन्म की तारीख को ही मान्यता दी जाएगी। लेकिन सेनाप्रमुख के मामले में ऐसा नहीं किया गया, उनके हाईस्कूल के सर्टिफिकेट में दर्ज जन्मतिथि को खारिज करते हुए सेना के रिकार्ड में दर्ज जन्मतिथि को स्वीकार कर लिया गया। हालांकि जनरल वी के सिंह अगर इस मामले में कोर्ट का सहारा लें तो उन्हें निश्चित रूप से राहत मिल जाएगी, लेकिन वो सेना प्रमुख जैसे पद को विवाद में लाने के खिलाफ हैं।

अब आसानी से समझा जा सकता है कि सेना में किसकी चलती है। मुझे पक्का भरोसा है कि सेना में ऐसा नहीं होता होगा, लेकिन खबरें तो यहां तक आती रहती हैं कि सेना में " पंजाबी वर्सेज अदर्स " के बीच छत्तीस का आंकडा है और जो जहां भारी पड़ता है वो एक दूसरे पटखनी देने से नहीं चूकता। पिछले दिनों जनरल वी के सिंह ने सियाचिन, लेह और लद्दाख के दौरा करने के दौरान पाया कि यहां सीमा पर तैनात जवानों को घटिया किस्म का खाना दिया जा रहा है। इस पर उन्होंने सख्त एतराज जताया था। सीमा पर तैनात जवाबों के लिए रोजाना चंडीगढ से सब्जी और मांस की खरीददारी की जाती है। बताते हैं कि इसमें भी काफी घपलेबाजी की जा रही थी, जो सड़ी गली सब्जी आढ़त पर बची रह जाती थी, जिसका कोई खरीददार नहीं होता था, वही घटिया सब्जी सेना के जवानों के लिए भेज दी जाती थी। इसके अलावा घटिया किस्म के अंडे की भी सप्लाई होती थी। मांस निर्धारित मात्रा से कम दिया जाता था। वी के सिंह को ये सब नागवार लगा और उन्होंने मांस की मात्रा भी बढवा दी और ये भी सुनिश्चित की किया कि ताजी सब्जियां ही खरीदी जाएं। इन सब में काफी धांधली हुआ करती थी, इन सबको एक एक कर सेना प्रमुख ने चेक कर लिया।
हैरत की बात तो ये सेना के जवाब जिस ठंड में 24 घंटे तैनात रहते हैं, उन्हें जूते भी घटिया किस्म के दिए जाते थे। इससे उनके पैरों की उंगलियां सड़ने लगी थीं। इस मामले को भी जनरल ने बडे ही गंभीरता से लिया था। इसे लेकर भी कुछ बडे अधिकारी जनरल से नाराज चल रहे थे। खैर सैन्य अफसर एक दूसरे से नाराज हों और खुश हों, ज्यादा फर्क नहीं पड़ता, लेकिन जब सियासी लोग भी इसमें पार्टी बन जाते हैं तो कहीं ना कहीं दाल में कुछ काला जरूर नजर आता है।
सेना प्रमुख के जन्मतिथि विवाद को जिस तरह से आनन फानन में निपटाया गया और हाईस्कूल की सर्टिफिकेट को ही रद्द कर दिया गया, इससे कई सवाल खड़े हो गए हैं। बताया जा रहा है कि जिसको अगले साल सेना प्रमुख की कुर्सी मिलने वाली है, उनकी प्रधानमंत्री से बहुत अच्छी मुलाकात है, तो क्या इस पूरे मामले में पीएमओ तो शामिल नहीं है। बहरहाल मैं तो नेताओं से यही कहूंगा कि सेना को अनुशासन की पटरी पर रहने दें, कहीं सेना पटरी से उतरी तो ये सियासियों पर बहुत भारी पड़ेगा। पडोसी देश पाकिस्तान से ही सबक ले लो। इसीलिए मैं कहता हूं कि भगवान के लिए सेना को बख्श दो। मुझे लगता है कि जनरल वी के सिंह के मामले में खुद प्रधानमंत्री को हस्तक्षेप करना चाहिए, जिससे सेना की साख पर कोई धब्बा ना लगे। दरअसल दोस्तों हम गैरजरूर मामलों में ही इतना घिरे रहत हैं कि गंभीर मसले हमारी नजरों में आते ही नहीं। सेना को लेकर जिस तरह आज सियासत चल रही है, निश्चित ही ये दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है।

Thursday 14 July 2011

ट्रेन हादसा: पत्रकारों का पागलपन

मित्रों  

आज बात तो रेल हादसे पर करने आया था, लेकिन मुंबई ब्लास्ट का जिक्र ना करुं तो लगेगा कि मैने अपनी जिम्मेदारी ईमानदारी से नहीं निभाई। मुंबई में तीन जगह ब्लास्ट में अभी तक लगभग 20 लोगों की मौत हो चुकी है, लेकिन कई लोग गंभीर रूप से घायल होकर अस्पताल में इलाज करा रहे हैं। ब्लास्ट दुखद है, हम सभी की संवेदना उन परिवारों के साथ है, जिन्होंने इस हादसे में अपनों को खोया है। लेकिन ब्लास्ट के बाद सरकार के रवैये पर बहुत गुस्सा आ रहा है।

बताइये किसी देश का  गृहमंत्री यह कह कर सरकार का बचाव करे कि 31 महीने के बाद मुंबई में हमला हुआ है। इसे अपनी उपलब्धि बता रहा है। इससे ज्यादा तो शर्मनाक कांग्रेस के भावी प्रधानमंत्री राहुल गांधी का है। वो कहते हैं कि ऐसे हमलों को रोकना नामुमकिन है। ऐसे बयानों से तो इनके लिए गाली ही निकलती है, लेकिन ब्लाग की मर्यादा में बंधा हुआ हूं। फिर इतना जरूर ईश्वर से प्रार्थना करुंगा कि आगे जब भी ब्लास्ट हो, उसमें मरने वालों में मंत्री का भी एक बच्चा जरूर हो। इससे कम  से कम ये नेता संवेदनशील तो होंगे। चलिए अब मैं आता हूं अपने मूल विषय रेल दुर्घटना पर...

 बीता रविवार मनहूस बनकर आया। मेरे आफिस और बच्चों के स्कूल की छुट्टी थी, लिहाजा घर में आमतौर पर सुबह से शुरू हो जाने वाली भागदौड़ नहीं थी। आराम से हम सब ने लगभग 11 बजे सुबह का नाश्ता किया और लंच में क्या हो, ये बातें चल रही थीं। इस बीच आफिस के एक फोन ने मन खराब कर दिया। चूंकि आफिस में मैं रेल महकमें जानकार माना जाता हूं, लिहाजा मुझे बताया गया कि यूपी में फतेहपुर के पास मालवा स्टेशन पर हावडा़ कालका मेल ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त हो गई है और इससे ज्यादा कोई जानकारी नहीं है। मुझे इतना भी समय नहीं दिया गया कि मैं दुर्घटना के बारे में आगे कोई जानकारी कर सकूं और मेरा फोन सीधे एंकर के साथ जोड़ दिया गया।
चूंकि कई साल से मैं रेल महकमें को कवर करता रहा हूं और कई तरह की दुर्घटनाओं से मेरा सामना हो चुका है, लिहाजा सामान्य ज्ञान के आधार पर मैं लगभग आधे घंटे तक दुर्घटना की बारीकियों यानि ऐसे कौन कौन सी वजहें हो सकती हैं, जिससे इतनी बड़ी दुर्घटना हो सकती है, ये जानकारी देता रहा। बहरहाल मैने आफिस को बताया कि थोड़ी देर मुझे खाली करें तो मैं इस दुर्घटना के बारे में और जानकारी करूं। आफिस में हलचल मची हुई थी, कहा गया सिर्फ पांच मिनट में पता करें, आपको दुबारा फोन लाइन पर लेना होगा।
बहरहाल मैने रेल अफसरों को फोन घुमाना शुरू किया। अब इस बात पर जरूर गौर कीजिए.. पहले तो दिल्ली और इलाहाबाद के कई अफसरों ने  फोन ही नहीं उठाया, क्योंकि छुट्टी के दिन रेल अफसर फोन नहीं उठाते  हैं। इसके अलावा सात आठ अधिकारियों को रेल एक्सीडेंट के बारे में कोई जानकारी ही नहीं थी। उन्होंने उल्टे  मुझसे पूछा कि क्या यात्री ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त हुई है या मालगाड़ी। अब आप समझ सकते हैं कि देश में रेल अफसर ट्रेन संचालन को लेकर कितने गंभीर हैं
खैर बाद में रेलवे के एक दूसरे अफसर से बात हुई। मोबाइल उन्होंने आंन किया, लेकिन वो रेलवे के फोन पर किसी और से बात कर रहे थे, इस दौरान मैने इतना भर सुना कि सेना को अलर्ट पर रखना चाहिए, क्योंकि उनके आने से क्षतिग्रस्त बोगी में फंसे यात्रियों को सुरक्षित बाहर निकालने में आसानी होगी। ये बात सुनते ही मेरे कान खड़े हो गए,  क्योंकि ये साफ हो गया कि एक्सीडेंट छोटा मोटा नहीं है। बहरहाल इस अधिकारी ने इतना तो जरूर कहा कि महेन्द्र जी बडा एक्सीडेंट है, लेकिन इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं बता सकता, कोशिश है कि पहले कानपुर और इलाहाबाद की एआरटी (एक्सीडेंट रिलीफ ट्रेन) जल्द घटनास्थल पर पहुंच जाए।
अफसर का फोन काटते ही मैने आफिस को फोन घुमाया और बताया कि दुर्घटना बड़ी है, क्योंकि सेना को अलर्ट किया गया है। बस इतना सुनते ही आफिस ने फिर ब्रेकिंग न्यूज चला दी और मेरा फोन एंकर से जोड़ दिया गया। इस ब्रेकिंग को लेकर मैं काफी देर तक एंकर के साथ जुडा रहा और ये बताने की कोशिश की किन हालातों में सेना को बुलाया जाता है। चूंकि रेल मंत्रालय सेना को बुला रहा है इसका मतलब है कि कुछ बड़ी और बुरी खबर आने वाली है। खैर कुछ देर बाद ही बुरी खबर आनी शुरू हो गई और मरने वाले यात्रियों की संख्या तीन से शुरू होकर आज 69 तक पहुंच चुकी है।
ट्रेन हादसे की वजह
ट्रेन हादसे की वजह को आप ध्यान से समझें तो आपको पत्रकारों के पागलपन को समझने में आसानी होगी। हादसे की तीन मुख्य वजह है। पहला रेलवे के ट्रैक प्वाइंट में गड़बड़ी। ट्रैक प्वाइंट उसे कहते हैं जहां दो लाइनें मिलतीं हैं। कई बार ये लाइनें ठीक से नहीं जुड़ पाती हैं और सिगनल ग्रीन हो जाता है। इस दुर्घटना में इसकी आशंका सबसे ज्यादा जताई जा रही है। दूसरा रेल फ्रैक्चर । जी हां कई बार रेल की पटरी किसी जगह से टूटनी शुरू होती है और ट्रेनों की आवाजाही से ये टूटते टूटते इस हालात में पहुंच जाती है कि इस तरह की दुर्घटना हो जाती है। इसके लिए गैंगमैन लगातार ट्रैक की पेट्रोलिंग करते हैं, पटरी टूटने पर वो इसकी जानकारी रेल अफसरों को देते हैं और जब तक पटरी ठीक नहीं होती, तब तक ट्रैक पर ट्रेनों की आवाजाही बंद रहती है। तीसरी वजह कई बार इंजन के पहिए में  दिक्कत हो जाती है इससे भी ऐसी गंभीर दुर्घटना हो सकती है।
ट्रेन के ड्राईवर ने अफसरों को बताया है कि वो पूरे स्पीड से जा रहा था, अचानक इंजन के नीचे गडगड़ाहट हुई, और इसके पहले की मैं कुछ समझ पाता ट्रेन दुर्घटना हो चुकी थी। बताया जा रहा है कि ट्रैक प्वाइंट आपस में ठीक तरह से नहीं जुड पाया और तकनीकि खामी के चलते सिग्नल ग्रीन हो गया। कालका मेल अपनी पूरी रफ्तार से दिल्ली की ओर बढ रही थी,  एक झटके में वो पटरी से उतर गई और उसके कई डिब्बे एक दूसरे के ऊपर चढ गए।
दुर्घटना सहायता ट्रेन
हां दुर्घटना के बाद राहत का काम कैसे चला इसकी बात जरूर की जानी चाहिए। मित्रों ट्रेनों का संचालन मंडलीय रेल प्रबंधक कार्यालय में स्थापित कंट्रोल रुम से किया जाता है। जैसे ही कोई ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त होती है, उसके आसपास के बड़े रेलवे स्टेशनों पर सायरन बजाए जाते हैं, जिससे रेल अफसर, डाक्टर और कर्मचारी बिना देरी किए एक्सीडेंट रिलीफ ट्रेन (एआरटी) में पहुंच जाते हैं। इस एआरटी में एक उच्च श्रेणी का मेडिकल वैन भी होता है, जिसमें घायल यात्रियों को भर्ती करने का भी इंतजाम होता है। सूचना मिलने के बाद 15 मिनट के भीतर कानपुर और इलाहाबाद से एआरटी को घटनास्थल के लिए रवाना हो जाना चाहिए था और 45 मिनट से एक घंटे के भीतर इसे मौके पर होना चाहिए था। लेकिन रेलवे के निकम्मेपन की वजह से ये ट्रेन चार घंटे देरी से घटनास्थल पर पहुंची। सच ये है कि अगर रिलीफ ट्रेन सही समय पर पहुंच जाती तो मरने वालों की संख्या कुछ कम हो सकती थी।
पत्रकारों का पागलपन
जी हां अब बात करते हैं पत्रकारों के पागलपन की या ये कह लें उनकी अज्ञानता की। रेलवे के अधिकारी अपने निकम्मेपन को छिपाने के लिए
अक्सर कोई भी दुर्घटना होने पर इसकी जिम्मेदारी ड्राईवर पर डाल देते हैं। जैसे एक ट्रेन दूसरे से टकरा गई तो कहा जाता है कि ड्राईवर ने सिगनल की अनदेखी की, जिससे ये दुर्घटना हुई। रात में कोई ट्रेन हादसा हो गया तो कहा जाता है कि ड्राईवर सो गया था, इसलिए ये हादसा हुआ। मित्रों आपको इस बात की जानकारी होनी चाहिए, अगर कोई एक्सीडेंट होता है तो सबसे पहले ड्राईवर की जान को खतरा रहता है, क्योंकि सबसे आगे तो वही होता है। लेकिन निकम्मे अफसर ड्राईवर की गल्ती इसलिए बता देते हैं कि ज्यादातर दुर्घटनाओं में ड्राईवर की मौत हो जाती है, उसके बाद जांच का कोई निष्कर्ष ही नहीं निकलता।
ऐसी ही साजिश इस दुर्घटना में भी की गई। कहा गया कि ड्राईवर ने इमरजेंसी ब्रेक लगा दिया, इसकी वजह से दुर्घटना हुई। अब इनसे कौन पूछे कि अगर इमरजेंसी ब्रेक इतना ही खतरनाक है तो इसका प्रावीजन इंजन में क्यों किया गया है। इसे तो हटा दिया जाना चाहिए। लेकिन नहीं, पागलपन की इंतहा देखिए, पत्रकारों ने घटनास्थल से चीखना शुरू कर दिया कि इमरजेंसी ब्रेक लगाने से दुर्घटना हुई और ये क्रम दूसरे दिन भी जारी रहा।
हकीकत ये है दोस्तों को अफसरों को लगा कि इतनी बड़ी दुर्घटना हुई है ड्राईवर की मौत हो गई होगी, लिहाजा उस पर ही जिम्मेदारी डाल दी जाए। लेकिन जैसे ही पता चला कि ड्राईवर और सहायक दोनों जिंदा हैं तो रेल अफसरों ने कहना शुरू कर दिया कि इमरजेंसी ब्रेक से ऐसी दुर्घटना नहीं हो सकती। लेकिन तब तक पत्रकारों ने माहौल तो खराब कर ही दिया था।   

Tuesday 12 July 2011

..तो मनमोहन क्यों हैं पीएम

आपको ये सवाल अजीब लग सकता है या आप इसे छोटी मुंह बड़ी बात भी कह सकते हैं, लेकिन केंद्र सरकार के नए मंत्रिमंडल पर गौर फरमाना जरूरी है। महीनों से कहा जा रहा था कि एक ऐसा फेरबदल किया जाएगा, जिससे जनता में संदेश जाएगा कि सरकार वाकई भ्रष्टाचार और बढती मंहगाई से चिंतित है और कुछ ठोस पहल करना चाहती है। लेकिन जो कुछ किया गया है, वो हास्यास्पद है। सच तो ये है कि ये बदलाव करने के लिए मंत्रिमंडल का विस्तार बिल्कुल नहीं किया गया है।
चलिए एक सवाल आप से ही पूछता हूं। आज नए मंत्रिमंडल में पुराने सात मंत्रियों की छुट्टी कर दी गई। कहा गया कि इनका परफार्मेंस ठीक नहीं है। यही बात मैं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से पूछना चाहता हूं कि फिर आप  कैसे कुर्सी पर जमें हुए हैं। आपकी छुट्टी क्यों नहीं की गई। मुझे नहीं देश भर को लगता है कि प्रधानमंत्री का परफार्मेंस सबसे ज्यादा खराब रहा है। उनकी देखरेख में भ्रष्टाचार पनपता रहा और जानते हुए भी ए राजा पर नियंत्रण नहीं कर पाए और उनके मंत्री को जेल जाना पड़ा। उनकी अगुवाई वाले सरकार के एक और मंत्री किसी भी समय जेल जा सकते हैं। कामनवेल्थ गेम में भ्रष्टाचार की सभी हदें पार हो गईं, ये अलग बात है कि कांग्रेस सांसद सुरेश कलमाड़ी को जेल भेज दिया गया। मनमोहन जी मंहगाई पर अंकुश लगाने में आप पूरी तरह फेल रहे।
भ्रष्टाचार में अभी तक सहयोगी दलों के नेताओं और मंत्रियों का नाम  सामने आ रहे थे। लेकिन मनमोहन जी अब तो टू जी स्पेक्ट्रम के मामले में पी चिंदम्बर में का नाम भी जुड गया है, क्योंकि जो कुछ भी ए राजा ने किया, वो उनकी सहमति से किया है। लेकिन चिंदबरम के मामले में आप खामोश हैं। अंबानी बंधुओं को फायदा पहुंचाने के आरोप कपिल सिब्बल पर भी लग रहे हैं। वैसे सच तो ये है कि  आप  राजा और मारन को अभी तक अपने सिर पर बैठाए रखते, वो तो भला हो सुप्रीम कोर्ट का, जिसने सरकार पर थोड़ा लगाम लगाया और जिसकी वजह से ये मंत्री जेल पहुंचे।
प्रधानमंत्री जी आपको लोग भले ही ईमानदार कहते फिरें, मैं नहीं कह सकता,  जिस तरह से आपने नेता विपक्ष की आपत्ति के बावजूद पी वी थामस को सीवीसी बनाया और सुप्रीम कोर्ट ने जब पीएमओ को  कटघरे में खड़ा किया तो थामस को जाना पड़ा। भले ही आप चिदंबरम के कहने में थामस के नाम पर अड़े रहे, लेकिन थामस के मामले में कोर्ट के सख्त रुख से किरकिरी चिदंबरम की नहीं प्रधानमंत्री जी आपकी हुई। आपके कार्यकाल के सैकडों ऐसे मामले गिना सकता हूं जहां आपको सख्त निर्णय लेना चाहिए था, लेकिन आप नहीं ले पाए।
चलिए सारी बातों दरकिनार कर दीजिए.. देखते हैं कि कितने मजबूर हैं हमारे ये प्रधानमंत्री। सबसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों में रेल मंत्रालय का नाम आता है। आए दिन दुर्घटनाओं से महकमा पूरी तरह पटरी से उतर चुका है, लेकिन कमजोर प्रधानमंत्री ये मंत्रालय बहुत ही कम अनुभवी टीएमसी के सांसद दिनेश त्रिवेदी को देने को मजबूर हो गए।
मंत्रिमंडल से अमेरिका नाखुश
एक बार फिर आपको अटपटा लग रहा होगा कि भारत के मंत्रिमंडल से अमेरिका नाखुश क्यों। जी लेकिन सच है अमेरिका नाराज है। सरकार कभी मानने को तैयार नहीं होगी कि मंत्रिमंडल के गठन में दूसरे देशों का कोई हस्तक्षेप होता है, लेकिन ये बात सही नहीं है। दरअसल जो बाहरी लोगों को मंत्री बनाने की बात थी, उसमें सबसे ऊपर नाम था मांटेक सिंह अहलूवालिया का और अमेरिका उन्हें वित्त मंत्रालय दिलवाना चाहता था। बताते हैं कि इसकी तैयारी पूरी हो गई थी। वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी को उप प्रधानमंत्री बनाकर गृहमंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपी जानी थी। इसके अलावा चूंकि चिदंबरम पर भी टू जी की आंच आ रही है, लिहाजा उन्हें विदेश विभाग देकर किनारे लगाने की तैयारी थी। यही वजह है कि सोनिया और मनमोहन की कई दौर की बातचीत आखिरी समय तक होती रही। सरकार को लग रहा था कि संसद का मानसून सत्र हंगामेदार होने वाला है, ऐसे में प्रणव दा की जिम्मेदारी बढा दी जाए और वो ही विपक्ष का मुकाबला करें। इसके अलावा लालू यादव को मंत्री बनाने के लिए तो सरकार तैयार थी, लेकिन मंत्रालय के नाम पर बात नहीं बनी। लालू को भी इसी लिए सरकार में लेने की बात की जा रही थी, जिससे वो विपक्ष को करारा जवाब दे सकें। खैर मुझे लगता है कि सरकार अमेरिका की नाराजगी ज्यादा दिनों तक नहीं झेल पाएगी और मानसून सत्र के बाद मंत्रिमंडल में एक बार फिर फेरबदल तय है।
बेईमानों की कुर्सी सुरक्षित
जी हां... बेईमानी का रिकार्ड तोड़ने वाली पार्टी द्रमुक के लिए अच्छी खबर है। उनके दोनों मंत्री ए राजा और दयानिधि मारन के महकमें सुरक्षित हैं। कपिल सिब्बल पहले की तरह टेलीकाम विभाग की अतिरिक्त जिम्मेदारी संभालते रहेंगे। इसी तरह कपड़ा मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार आनंद शर्मा को दिया गया है। मतलब साफ है कि द्रमुक जब चाहे अपने दो लोगों को मंत्री बना सकती है उनका महकमा सुरक्षित है। खैर जो कुछ बदलाब हुआ है, उसमें मजबूती कम मजबूरी ज्यादा दिखाई दे रही है।

( उत्तर प्रदेश में हुए रेल हादसे के बारे में मैं आपको गंभीर जानकारी देना चाहता था, लेकिन आज इन सियासियों ने वक्त जाया कर दिया, लेकिन दो दिन के भीतर मैं बताऊंगा दुर्घटना का पूरा सच )

Friday 8 July 2011

राजनीति: अज़ब प्रेम की गज़ब कहानी


राजनीति में सौ - सौ जूते खाने पड़ते हैं,
कदम- कदम पर सौ- सौ बाप बनाने पड़ते हैं।
मुझे याद नहीं कि कब और कहां ये लाइनें मैने सुनीं, लेकिन इतना मुझे जरूर याद है कि जब कवि सम्मेलन में किसी कवि ने ये लाइनें पढी तो पूरा पंडाल तालियों की गडगड़ाहट से गूंज उठा था। लगभग दस हजार लोगों की भीड़ ने इस लाइन पर जिस तरह से समर्थन जताया, उससे मैं ये बात दावे के साथ कह सकता हूं कि लोगों के दिलो दिमाग में सियासियों की छवि बहुत ही घटिया स्तर की है। हो भी क्यों ना, कुर्सी पाने और बचाने के लिए ये एक दूसरे के जूते सिर पर सजाने को तैयार बैठे रहते हैं।
ऐसा नहीं कि छोटे नेता इस तरह की हरकतें करते हैं, सच तो ये है कि बडी पार्टी के नेता इस खेल के हीरो हैं। चलिए दो एक उदाहरण देता हूं कि कैसे ये कदम कदम पर जमीर को ताख पर रख कर सियासी मलाई चाटने के लिए लार टपकती हुई जीभ निकाले  घूमते फिरते हैं। आज कांग्रेस के राजकुमार यूपी सरकार को दलालों की सरकार बताते फिर रहे हैं। मैं उनकी इस बात से सहमत हूं कि यूपी में कम से कम कानून का राज तो नहीं रह गया है, लेकिन तस्वीर का ये दूसरा रुख है।
सोनिया गांधी 10 जनपथ पर मायावती के साथ नही हैं, ये मायावती के घर आई हुई हैं। यहां आने की वजह तो मायावती को जन्मदिन की बधाई बताई जा रही है, लेकिन सोनिया जी आप बधाई दें और वो भी मायावती के घर आकर, बात जरा जम नहीं रही है। मायावती का जन्मदिन इसके पहले भी आया, लेकिन घर जाकर बधाई देना तो दूर आपने फोन भी नहीं किया। ये दाल जरूर काली है। सच तो ये  है कि कांग्रेस को जब मायावती की जरूरत थी, तो पार्टी की मालकिन सोनिया गाधी जन्मदिन की बधाई देने मायावती के घर जा धमकी। ऐसा नहीं  है कि मायावती जो कुछ आजकल कर रही हैं, वो इसके पहले नहीं कर रही थीं। या उनकी छवि के बारे में लोगों को पता नहीं था। लेकिन नहीं सोनियां गांधी सब जानते हुए सिर्फ वो रास्ता खोलने गईं थी कि लोकसभा चुनाव के पहले या बाद में गठबंधन की जरूरत पडे़ तो सोनिया गांधी को मायावती से बात करने में कोई मुश्किल ना हो। इस तस्वीर से आप समझ सकते हैं कि सियासी लोगों के ये गुलदस्ते बहुत कीमती होते हैं, क्योंकि इसमें जन्मदिन का प्रेम, स्नेह नहीं सरकार की सौदेबाजी छिपी हुई है। राहुल आज मायावती सरकार को दलाल तो बता रहे हैं, लेकिन इस पर खामोश हैं कि केंद्र सरकार में मायावती का भी समर्थन है।
चलिए अब बात लालू यादव की करते हैं। देश की घटिया राजनीति का इन्हें जनक भी कह सकते हैं। राजनीति के शुरुआत इन्होंने लोकनायक जयप्रकाश के साथ की, ये कहते हुए तो मुझे शर्म महसूस हो रही है। जेपी मूवमेंट में ऐसे लोग भी थे, जो अपने फायदे के लिए कुछ भी कर सकते हैं, कितना भी गिर सकते हैं। हम आप जितने कान्फीडेंस से सच नहीं बोल सकते, उससे दोगुना कान्फींडेस से लालू झूठ बोल सकते हैं। मुझे हैरत हुई रेलमंत्री रहने के दौरान लालू कैसे पूरे देश की आंख में धूल झोंकते रहे। हां कांग्रेस में आपसी सिर फुटव्वल का लालू ने खूब फायदा उठाया। इनकी चमचागिरी से पार्टी के मठाधीसों की नौकरी खटाई में पड़ गई थी, क्योंकि सोनियां गांधी और मनमोहन सिंह लालू पर ही सबसे ज्यादा भरोसा करते थे। यूपीए सरकार में रेलमंत्री के तौर पर कई साल तक मलाई काटने के बाद इन्होंने लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को उसकी औकात बता दी। 



बिहार में अपने पुराने विरोधी रामविलास पासवान को गले लगाया और कांग्रेस को लोकसभा की 54 सीटों में तीन पर लड़ने का न्यौता दिया। इससे कांग्रेसी ऐसा तिलमिलाए कि सोनिया गांधी ने तो लालू से मिलने तक से इनकार कर दिया। लोकसभा और विधानसभा में करारी  हार के बाद अब लालू औकात में हैं। अब उनके सिर से राजनीति का पगलापन दूर हो गया है। अब वो बनियान पहन कर टीवी पर बात करते नहीं दिखाई दे रहे हैं।
द्रमुक मंत्री चोरी में पकडे गए तो अब लालू की बांछे खिल गई हैं। लगातार 10 जनपथ का चक्कर काट रहे हैं। सोनिया को भी लग रहा है कि कहीं सरकार मुश्किल में ना आ जाए, इसलिए लालू को भी दाना डाले हुए हैं। संसद में कांग्रेस पर हमला बोल रहे लालू को लगने लगा है कि थोडी चमचागिरी करके कुर्सी पाई जा सकती है, सो सोनिया की चंपुई करने में लग गए हैं, लेकिन ये कांग्रेस है, पूरी जिल्लत कराने के बाद कोई ऐरा गैरा मंत्रालय थमा देगी।

द्रमुक नेता बेईमान हैं, ये देश के ईमानदार प्रधानमंत्री को पहले ही पता था। यही वजह है कि चुनाव जीतने के बाद सरकार बनाने की बारी आई तो उन्होंने टी आर बालू और ए राजा को मंत्रिमंडल में लेने से साफ इनकार कर दिया, लेकिन गठबंधन की मजबूरी होती है, जिसे मना किया, मजबूरी में उसे ही मंत्री बनाना पड़ा। पहले तो ए राजा को मंत्री बनाने और बाद में इन्हें संचार मंत्रालय महकमा दिलाने के लिए जिस तरह से कारपोरेट जगत ने लाबिंग की, वो बेमिशाल है। मेरा एक सवाल प्रधानमंत्री से भी है, जब आप राजा को जानते थे कि वो बेईमान है, तो आपने क्यों उसे संचार मंत्रालय दिया। खैर इस समय द्रमुक नेता किस तरह से सरकार की फजीहत करा रहे हैं, ये पूरा देश नहीं दुनिया देख रही है। लेकिन आप हैरान तब होंगे जब ए राजा के एवज में द्रमुक से कोई दूसरा ए राजा मंत्री बनेगा। चोरों की जमात द्रमुक से रिश्ता तोड़ना भी नहीं चाहते हमारे ईमानदार प्रधानमंत्री।
इसीलिए कहते हैं...
राजनीति में सौ - सौ जूते खाने पड़ते हैं,
कदम- कदम पर सौ- सौ बाप बनाने पड़ते हैं।

Tuesday 5 July 2011

राहुल गांधी: ट्रेनी महासचिव !


सच तो ये है कि राहुल गांधी पर कुछ लिखना सिर्फ अपना समय खराब करना है, लेकिन आज सुबह से खबरिया चैनल जिस तरह से राहुल के आगे पीछे दौड़ लगा रहे हैं उससे मैं भी मजबूर हो गया कुछ लिखने के लिए। दो महीने पहले पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव के दौरान केरल के पूर्व मुख्यमंत्री वी एस अच्युदानंद ने जब राहुल को "अमूल बेबी " कहा तो तमाम लोगों के साथ ही मुझे भी अच्छा नहीं लगा। मुझे लग रहा था कि एक राष्ट्रीय पार्टी के महासचिव पर इस तरह व्यक्तिगत हमले से बचा जाना चाहिए। लेकिन अब जिस तरह की हरकतें राहुल गांधी कर रहे हैं, उससे मैं " अमूल बेबी " टिप्पणी को गलत नहीं मानता।
दरअसल राहुल जो कुछ कर रहे हैं उससे उन्हें अमूल बेबी कहना बिल्कुल गलत नहीं है। सच में उनकी सियासी हरकतें बचकानी लगतीं हैं। एक राष्ट्रीय पार्टी का महासचिव बचकानी हरकत करे, तो हैरत होती है। आज कांग्रेस के ही मित्रों से जब राहुल गांधी को लेकर बात होती है तो वो कहतें है कि राहुल अभी कांग्रेस के ट्रेनी महासचिव हैं। मुझे लगता है कि शायद इसीलिए राहुल के साथ एक फुलटाइम महासचिव दिग्विजय सिंह पूरे टाइम बने रहते हैं। वैसे राहुल का कान्वेंट शैली का भाषण लोगों को सुनने में अच्छा तो लगता ही है, वो खूब मजे लेकर राहुल को सुनते हैं। अपने राहुल बाबा मुंगेरी लाल के हसीन सपनों में खो जाते हैं कि लोग उन्हें पसंद कर रहे हैं।
आइये मुद्दे की बात करते हैं। राहुल उत्तर प्रदेश में पार्टी और खुद को मजबूत करना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि इसके लिए अधिक से अधिक समय यूपी में बिताया जाना चाहिए। ये अच्छी बात है, लेकिन राहुल को क्यों लगता है कि भट्टा पारसौल गांव और आसपास (नोएडा) के किसानों का मुद्दा उठाने से ही उनकी पार्टी मजबूत होगी। यहां के किसानों से बदतर हालत में पूर्वांचल और बुंदेलखंड के किसान रह रहे हैं, लेकिन राहुल को उनकी याद नहीं आती। शायद आपको ना पता हो कि भट्टा पारसौल गांव में इक्का दुक्का किसान ही ऐसे होंगे जो करोडपति ना हों। इन पैसे वाले किसानों के बजाए और किसानों के गम का भागीदार क्यों नहीं बन रहे हैं राहुल बाबा।
वैसे राहुल बाबा से यहां की महिलाएं पहले ही काफी नाराज हैं। दो महीने पहले जब राहुल यहां आए तो उन्होंने पुलिस की बर्बरता की कहानी प्रधानमंत्री को सुनाते हुए कहा कि यूपी पुलिस ने किसानों पर फायरिंग तो की ही, महिलाओं के साथ बलात्कार भी किया। इसके बाद से महिलाएं नाराज हैं। उनका कहना है कि वो ऐसी दबी कुची महिलाएं नहीं है कि पुलिस वाले उनके साथ कुछ भी कर लेगें। महिलाओं ने साफ कहा कि राजनीति के लिए उनकी इज्जत को दांव पर ना लगाएं। इस मामले की जानकारी के बाद काफी दिन तक राहुल भट्टा पारसौल के मामले में खामोश रहे। आज तड़के जब राहुल अचानक इसी गांव में फिर पहुंचे तो, सवाल उठा कि आखिर राहुल को हो क्या गया है वो नोएडा के महासचिव नहीं हैं, वो तो पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव हैं। आखिर क्या चाहते हैं, तो पता चला कि उन्हें किसानों की समस्याओं से ज्यादा लेना देना नहीं है, बस भट्टा पारसौल की बात होती है तो मुख्यमंत्री मायावती को मिर्ची लगती है, बस इसीलिए वो यहां आ जाते हैं। फिर दिल्ली के करीब होने से मीडिया में भी छाए रहते हैं। कहावत है ना हर्रे लगे ना फिटकरी रंग चोखा।
चलिए छो़ड़ दीजिए की राहुल कब, क्या और कैसे करते हैं। लेकिन एक बात कांग्रेसियों को भी खटकती है कि उनके राष्ट्रीय महासचिव राष्ट्रीय मुद्दों पर क्यों खामोश रहते हैं। आज देश भर में जनलोकपाल बिल को लेकर माथापच्ची चल रही है। लेकिन राहुल गांधी खामोश हैं। कालेधन के मामले में पूरे देश में बहस छिड़ी हुई है, यहां तक कि सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार की ऐसी तैसी करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी, लेकिन राहुल पर इसका कोई असर नहीं। महिलाओं पर अत्याचार को लेकर राहुल काफी संवेदनशील दिखने की कोशिश करते हैं। अत्याचार की ऐसी घटनाओं पर संवेदना व्यक्त करने चोरी छिपे वो कहां कहां पहुंच जाते हैं। लेकिन चार जून को रामलीला मैदान में पुलिस लाठीचार्ज में घायल महिला राजबाला को देखने वो आज तक नहीं गए, जबकि उसकी हालत अभी भी गंभीर बनी हुई है।
एक सवाल दिग्विजय सिंह से करना जरूरी लग रहा है। उन्हें राहुल गांधी में ऐसा क्या दिखाई देता है जिसके आधार पर वो दावा करते हैं कि राहुल में अच्छे प्रधानमंत्री के सभी गुण मौजूद हैं। ठाकुर साहब कहीं ये तो नहीं सोच रहे हैं कि महासचिव राहुल को महासचिव की बारीकियां समझाने की जो जिम्मेदारी वो अभी निभा रहे हैं, अगर राहुल प्रधानमंत्री बनते हैं तो उन्हें प्रधानमंत्री का काम सिखाने की जिम्मेदारी भी उन्हीं की होगी और राहुल को मुखौटा बनाकर पीछे से प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी वो खुद निभाएंगे।
सरकार की हालत आज इतनी खराब हो चुकी है कि इसे कोई भी धमका ले रहा है। बेचारे मजबूर प्रधानमंत्री को खुद को मजबूत बताने के लिए खुद ही आगे आना पड़ रहा है। पिछले सत्र के दौरान विपक्ष ने सरकार को घुटने टेकने को मजबूर कर दिया। अब सिविल सोसाइटी ने सरकार का पसीना निकाल दिया है। मुश्किल में फंसी सरकार को सहारा देने के लिए राहुल कभी आगे नहीं आते। कई बार तो लगता है कि पार्टी का एक तपका चाहता है कि पार्टी इतनी मुश्किलों से घिर जाए कि लोग खुद मांग करने लगें कि अब राहुल को गद्दी सौंप दी जानी चाहिए। भाई राहुल मेरी आपको सलाह है कि आप सियासी काम चोरी छिपे करना बंद करें। ताल ठोंक कर जाएं, जहां जाना हो। शुरू में एक दो बार तो ये बात समझ में आ रही थी, लेकिन अब तो वाकई ड्रामेबाजी लगती है। इतना ही नहीं विषय की गंभीरता भी नहीं रह जाती। इस तरह आपके निकलने से पूरे दिन मीडिया में मुद्दों की चर्चा नहीं होती, राहुल कैसे मोटर वाइक से गए, गर्मी में कैसे वो पैदल चले, क्या खाया-पिया, किसके घर रुके इन्हीं बातों की चर्चा होकर खत्म हो जाती है।
केंद्र सरकार के काम काज की बात की जाए तो मुझे स्व. शरद जोशी की याद आ जाती है। वो कहते हैं कि सरकार किसी काम के लिए ठोस कदम उठाती है, कदम चूंकि ठोस होते हैं, इसलिए उठ नहीं पाते। मैने एक नेता से पूछा आप ये ठोस कदम क्यों उठाते हैं, पोले यानि हल्के कदम उठाएं, उठ तो जाएंगे, नेता जी आंख मार कर बोले कदम तो हल्के ही हैं, मैने पूछा फिर उठाते क्यों नहीं, बोले नहीं उठाते इसीलिए तो ठोस हैं। सरकार और हमारे ट्रेनी महासचिव का हाल भी कुछ ऐसा ही है।


Friday 1 July 2011

ये पब्लिक है सब जानती है..




सच तो ये है कि अब सड़े गले सरकारी तंत्र से बदबू आने लगी है। अगर हम भ्रष्ट्राचार पर नजर डालें तो देश में इसकी शुरुआत आजादी के एक साल बाद 1948 में ही हो गई थी, जब लेह और कश्मीर सीमा पर चौकसी के लिए जीपें खरीदें जानी थीं। विदेशों से खरीदी गई इन जीपों का कीमत से दोगुना भुगतान किया गया और ये जीपें जब देश में आईं, तो इनकी गुणवत्ता भी ठीक नहीं थी। इस भ्रष्टाचार में अहम किरदार था, एक भारतीय राजदूत का। हालाकि अब नेता, अफसर जिसे जब और जहां मौका मिला, वो हाथ साफ करने से पीछे नहीं है। हम कह सकते हैं कि आज इस गोरखधंधे में किसी का दामन बेदाग नहीं है. यहां तक की मीडिया का भी।
आप हैरान हो सकते हैं, लेकिन सच ये है कि आज भी अगर लोग किसी काम से अफसर या नेता से मिलने जाते हैं और नेता ने बात सुनने के बाद कहा कि ठीक है, काम हो जाएगा, तो लोगों को भरोसा ही नहीं होता है कि उनका काम हो जाएगा, क्योंकि नेता ने पैसे की बात तो की ही नहीं, और बिना पैसे के भला काम कैसे हो जाएगा। आज नेताओं और अफसरों  ने जनता में ये भरोसा ही खो दिया है कि बिना पैसे के भी काम हो सकता है।
सवाल उठता है कि जब लोग खुद पैसे देने को तैयार हैं तो आखिर गडबड़ी कहां हुई। क्यों इतना बड़ा आंदोलन सड़कों पर आ गया। मै बताता हूं,  गडबड़ी इसलिए हुई लोगों की बढ़ती लालच ने देश में भ्रष्ट्राचार को भी भ्रष्ट्र कर दिया। आप नहीं समझे, मैं समझाता हूं। उदाहरण के तौर पर हमने किसी काम के लिए नेता या नौकरशाह को पैसे दिए.. ये तो हुआ भ्रष्ट्राचार। लेकिन पैसे लेने के बाद भी उसने काम नहीं किया और पैसा भी डकार गया। ये हुआ भ्रष्ट्राचार को भ्रष्ट्र करना। मुझे लगता है कि अगर भ्रष्ट्राचार में ये नेता और नौकरशाह ईमानदारी बरतते तो उनकी चांदी कटती रहती। लेकिन बेईमानों सावधान हो जाओ..अब देश की जनता जाग गई है।
सरकारी तंत्र में जब ईमानदार की तलाश की जाती है तो बहुत मुश्किल होता है, क्योंकि एक भी नहीं मिलता, जिसे दावे के साथ ईमानदार कहा जा सके। यहां तो सब चोर हैं,  फर्क महज बड़े और छोटे का रह गया है। एक जमाना था की गांव में बड़े बुजुर्गों को जब आप प्रणाम करते थे तो आशीर्वाद मिलता था "बेटवा दरोगा बन जा "। ये आशीर्वाद अब क्यों नहीं ? क्योंकि खाकी वर्दी पर अब हमारा भरोसा  ही नहीं रहा। ये वर्दी डीजीपी की हो या फिर कांस्टेबिल की। सब जानते हैं कि ये वर्दी दागदार है जो बदमाशों को संरक्षण देती है।
आइये.. देश के  इंजीनियरों की भी बात कर लें, क्योंकि विकास के लिए सबसे बड़ी जिम्मेदारी इन्हीं की है। आसानी से समझाने के लिए एक छोटी सी कहानी सुनाता हूं। भगवान श्री राम जब लंका पर चढ़ाई करने जा रहे थे, तो एक समय ऐसा आया जहां वो भी फेल हो गए। ये मुश्किल घड़ी थी कि समुंद्र को कैसे पार किया जाए ?  भगवान राम की समझ में ये नहीं आ रहा था। फिर यहां उनकी मदद की नल और नील ने। वो अपने हाथ से पत्थर उठा कर भगवान श्रीराम को देते और भगवान उस पत्थर को फूंक मारकर समुंद्र में डालते तो वो पत्थर तैरने लगते थे और इस तरह समुंद्र पर पुल का निर्माण हुआ। जिससे भगवान राम की सेना समुद्र् पार कर पाई। कहते हैं उसी समय भगवान राम ने नल और नील को आशीर्वाद दिया कि जाओ कलयुग तुम दोनों जेई और एई बनकर राज करोगे, कैसा भी पुल बनाओगे, तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा। तब से इंजीनियर मस्त हैं।

ये संघर्ष आमआदमी का संघर्ष है, क्योंकि भ्रष्ट्राचार से सबसे ज्यादा  आम आदमी ही प्रभावित है। अन्ना जी, देश आपके साथ है, मैं भी आपके साथ हूं। लेकिन कई बार डर लगता है, वो इसलिए कि हम "जनलोकपाल" बना भी लें, तो इस बात की क्या गारंटी है वो ईमारदार ही होगा। सुप्रीम कोर्ट को हम न्याय का मंदिर मानते है, लेकिन यहां भी के जी बालाकृष्णन जैसे लोग चीफ जस्टिस बन रहे हैं। निर्वाचन आयोग को अगर टीएन शेषन ने सम्मान दिलाने का काम किया तो दूसरे निर्वाचन आयुक्त नवीन चावला ने इस संस्था को कांग्रेस पार्टी का गिरवी बना दिया। सीबीआई से ईमानदारी की अपेक्षा करना अब चुटकुला लगता है। इसलिए मुझे लगता है कि जब तक लोगों में नैतिक बल मजबूत नहीं होगा, ईमानदारी की उम्मीद नहीं की जा सकती। 121 करोड़ की आबादी को कानून के दायरे में नहीं बांधा जा सकता। आज केंद्रीय मंत्रिमंडल चोरों की जमात है, और मनमोहन उसके सरदार। पीएम मानते ही हैं गठबंधन की बहुत कुछ मजबूरी होती है, लेकिन मनमोहन जी चोरों का सरदार बने रहने की कोई मजबूरी नहीं। आप चाहें तो हट सकते हैं, लेकिन नहीं कुर्सी बगैर तो आप भी नहीं रह सकते।
एक छोटी सी बात अन्ना जी को फिर दुहराना चाहूंगा। आप बेईमान नेताओं के दरवाजे पर कितनी भी दस्तक दे लें, ये जनलोकपाल के लिए सहमत नहीं होंगे। आपकी ताकत देश की जनता है और इसी ताकत के बल पर हम जनता के मनमाफिक कानून बनवा सकते हैं। पहले ही आप ड्राफ्ट कमेटी में शामिल होकर दो महीने खराब कर चुके हैं, अब इन नेताओं के चक्कर काट कर और समय ना खराब करें। मैं देख रहा हूं कि तमाम नेता आफ द रिकार्ड बातचीत में आपकी खिल्ली उडा रहा है। प्लीज आप देश भर में यात्रा कर लोगों को जगाने का काम करें। जनलोकपाल बिल इनके पिता जी को संसद में पास करना होगा।

और हां प्रधानमंत्री जी, मुझे पता है कि आप मजबूत नहीं मजबूर प्रधानमंत्री हैं। इसलिए आप अपने मंत्रियों को चोर और भ्रष्ट्र तो नहीं कह सकते, लेकिन एक पत्र सभी मंत्रियों को जरूर लिख सकते हैं। वो यह कि वही मंत्री अपने आफिस में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का चित्र लगाए, जो वाकई ईमानदारी से काम कर रहा है। वरना गांधी जी के चित्र को वापस कर दे। देखिए क्या वाकई आपके मंत्री  ईमानदारी से चित्र वापस करते हैं, या फिर इंतजार करते हैं कि जब तक न्यायालय उन्हें चोर नहीं कहता है तो भला वो चोर कैसे हो गए। वैसे सच्चाई यह है कि हर मंत्री, हर नेता, हर अफसर और हर जज के बारे में सभी को पता है कि कौन अन्ना है और कौन ए.राजा, क्योंकि ये पब्लिक है सब जानती है।