Sunday 29 July 2012

दिल्ली : जंतर मंतर से live ...


जंतर-मंतर पर भव्य मंच तो सजाया गया है इसलिए कि लोगों को बताया जाए कि भ्रष्टाचार के चलते देश कहां पहुंच गया है, लेकिन पांच दिन से देख रहा हूं यहां भ्रष्टाचार की तो बात ही नहीं हो रही है, बात महज भीड़ की हो रही है। सबको चिंता इसी बात की है कि भीड़ कहां गायब हो गई। अच्छा मैं हैरान इस बात से हूं कि जो लोग इनके आंदोलन को समर्थन कर रहे हैं, टीम अन्ना  उन्हें "भीड़" कहती है। ये सुनकर मैं वाकई हैरान हूं। बहरहाल जंतर मंतर पर एक बार फिर लोग जमा हैं, उनका दावा है कि वो खाना नहीं खा रहे हैं। कह रहे हैं तो झूठ नहीं बोलेंगे, नहीं खा रहे होंगे। लेकिन एक बात आज तक मेरी समझ में नही आती है कि जो लोग भूख हड़ताल कर रहे हैं, वो सरकारी डाक्टर से जांच कराने से क्यों कतराते हैं, क्यों सरकारी डाक्टर को वापस लौटा कर निजी चिकित्सक की मदद लेते हैं। वैसे मुझे उम्मीद है कि आमरण अनशन कैसे होता है, इसके क्या तरीके हैं, ये आपको पता होगा, लेकिन संक्षेप में मैं इसलिए जिक्र कर देना चाहता हूं जिससे अगर किसी को कोई संदेह हो तो वो दूर हो जाए।

आमरण अनशन पर बैठने के लिए पहले आपको इसकी सूचना स्थानीय प्रशासन को देनी होती है, जिसमें उन मांगो का जिक्र करना होता है, जिसके लिए आप अनशन के लिए मजबूर हुए। इस सूचना पर स्थानीय प्रशासन की जिम्मेदारी है कि वो वहां अपेक्षित संख्या में पुलिस की ड्यूटी के साथ ही एक चिकित्सक की तैनाती करे, जिससे अनशन पर बैठे व्यक्तियों के स्वास्थ्य की रोजाना जानकारी प्रशासन को मिलती रहे। अब चिकित्सकों का दल जब अरविंद, मनीष और गोपाल के स्वास्थ्य की जांच करने पहुंचा, तो इन लोगों ने डाक्टरों के दल को वापस भेज दिया। चूंकि ये टीम बदजुबान के साथ बद्तमीज भी होती जा रही है, इसे पता ही नहीं है कि डाक्टर आपकी मदद के लिए  हैं और उनकी रिपोर्ट मायने रखती है।

आपको याद होगा कि पिछली बार अन्ना ने 13 दिन से ज्यादा अनशन किया और उसके बाद जब अनशन खत्म हुआ तो लालू यादव जैसे लोगों ने उनके अनशन पर ही सवाल खड़े कर दिया। उन्होंने कहा कि पहले इस बात की जांच हो कि अन्ना बिना खाए पीए 13 दिन रह कैसे गए ? उनके कहने का मकसद साफ था कि सरकारी डाक्टरों ने तो इनके स्वास्थ्य का परीक्षण किया नहीं और निजी चिकित्सक की बात का कोई मतलब नहीं है। इसी का फायदा उठाते हुए लालू ने तो यहां तक कहा कि बाबा रामदेव नौ दिन अनशन नहीं कर पाए, उनकी सांस टूटने लगी, जबकि वो तो व्यायाम वगैरह भी करते हैं,  तब  अन्ना 13 दिन कैसे भूखे रह सकते हैं ? ये सवाल उठाया गया और इसका किसी के पास कोई ठोस जवाब नहीं था। यही सब इस बार भी हो रहा है, निजी चिकित्सकों ने पहले ही दिन कहा कि अरविंद को शूगर है और उनकी तबियत बिगड़ गई है, जबकि तीन दिन बाद कहा गया कि वो सामान्य हैं। ऐसी मेडिकल रिपोर्ट भी बेमानी है, क्योंकि ये विश्वसनीय नहीं रही।
सच तो ये है कि अनशनस्थल के पीछे बने कैंप में बहुत ज्यादा समय अरविंद, मनीष और गोपाल बिताते हैं।  इसलिए वहां भी ज्यादातर लोग यही चर्चा कर रहे हैं कि ये आमरण अनशन कई साल चल सकता है, क्योंकि सब कुछ ना कुछ खा पी रहे हैं, वरना छठें दिन तो हालत पतली हो ही जाती है, जबकि अनशनकारी पहले से ज्यादा टनाटन नजर आ रहे हैं। अच्छा मीडिया भी अनशनकारियों से ये सवाल पूछ रही है कि जनता को आपके अनशन पर भरोसा नहीं रहा,  उसे लगता है कि आप खा पी रहे हैं।  बहरहाल सच तो अनशनकारी ही बता सकते हैं, लेकिन जब सभी स्वस्थ हैं तो सरकार भी मस्त है, चलो खाते पीते रहो, कोई दिक्कत नहीं। इसलिए अब इसे कथित अनशन कहना ज्यादा ठीक होगा, क्योंकि ये खा रहे हैं या नहीं खा रहे हैं, इस बारे में भरोसे के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता।

बहरहाल कथित अनशन का आज पांचवा दिन है, इन पांच दिनों में मंच से या फिर टीवी पर चर्चा क्या हो रही है आपको पता है ? चर्चा ये हो रही है कि आज  भीड़ आई , कल नहीं आई थी। इसकी क्या वजह है। चैनलों के रिपोर्टर बताते हैं कि पहले दो दिन बहुत गर्मी थी,  शनिवार और रविवार को छुट्टी के साथ ही मौसम बहुत सुहाना हो गया, लिहाजा बड़ी संख्या में लोग यहां जुटे।  मतलब भ्रष्ट्राचार का मुद्दा खत्म हो कर  मुद्दा भीड़ में बदल गया है। पांच दिन से सिर्फ यही एक बात हो रही है। कहा जा रहा है कि पहले तीन दिन तो सौ दो सौ लोग ही यहां थे। एक दिन बाबा रामदेव समर्थन देने आए तो उनके साथ हजार बारह सौ लोग आए, लेकिन वो भी रामदेव के जाते ही खिसक गए। फिर कथित अनशन  का कामयाब बनाने के लिए भगवान ने मदद की। यहां बारिश नहीं  हुई, लेकिन पूरे दिन काले बादल से मौसम थोड़ा खुशनुमा हो गया और सबसे बड़ी बात शनिवार और रविवार की छुट्टी हो गई। तो लोग वीकेड  इन्ज्वाय करने पहुंच गए जंतर मंतर।
वैसे यहां आने पर लोग मायूस हुए, लोगों को उम्मीद थी कि जिस तरह रामलीला मैदान में अनशन के दौरान देशी घी की पूड़ी कचौड़ी का फ्री में इंतजाम था, वैसा कुछ इस बार भी  होगा, पर यहां इस बार ऐसा कुछ नहीं, लिहाजा लोग यहां आए और कुछ देर तमाशा देख कर खिसक गए कनाट प्लेस की ओर। वैसे इस कथित अनशन से एक बात और साफ हो गई जो कुछ साख बची है वो सिर्फ अन्ना हजारे की है। क्योंकि जब तक अरविंद की अगुवाई  में ये शोर शराबा चल रहा था तो यहां गिने चुने लोग ही मौजूद थे। लेकिन रविवार को जब अन्ना इस अनशन मे शामिल हुए तो जरूर कुछ  लोग घर से निकले और जंतर मंतर पहुंचे। अन्ना की वजह से ये आंदोलन शांतिपूर्ण  है, वरना इस अनशन में जिस तरह उपद्रवी शामिल हैं,  ये तो दूसरे ही दिन पिट पिटाकर कुछ जेल चले जाते और बाकी घर में दुबक कर बैठ जाते। मंच से कुमार विश्वास जिस तरह से अनर्गल बातें कर माहौल खराब कर रहे हैं,  उससे भी आंदोलन पर खराब असर पड़ रहा है।

आप खुद भी देखें जंतर मंतर पर लगे मजमें कुछ नया भी नही है। अन्ना दो साल  से एक ही बात जनता को समझा रहे हैं कि वो देश के मालिक है और संसद में बैठे लोग सेवक है। हंसी आती है उनकी बात सुनकर..। अरे अन्ना जी ये बात तो हम सब जानते है, पर हम कैसे मालिक हैं ये आप भी जानते हो। टीम अन्ना की बात करें तो वो अब बातों से हार कर गाली गलौच पर उतर आई हैं। दरअसल हर जगह कुछ ऐसे लोग होते हैं जो संतुष्ट नहीं होते। ऐसी ही एक बड़ी संख्या नौकरशाहों में है। सिस्टम से असंतुष्ट कहें, या अवसर ना मिलने से हताश कुछ नौकरशाह इस टीम के संपर्क में हैं, जो इक्का दुक्का सरकारी अभिलेख इन तक पहुंचाते हैं, जिसके बल पर ये कुछ मंत्रियों की चार्जशीट लिए फिर रहे हैं। हालाकि मैं जानता हूं कि इन्हें मेरे सलाह की जरूरत नही है, लेकिन सच ये है कि अगर आंदोलन को वाकई एक  सही  दिशा देनी है तो कुछ और करना पड़ेगा। टीवी चैनल और मीडिया के बूते पर आंदोलन अधिक दिन तक टिका नहीं रह सकता। आज ये पूरा आंदोलन मीडिया संभाले हुए है। बातें गांधी की करते हैं, तो दो एक चीजें उनसे सीख भी लें, और कश्मीर से कन्याकुमारी तक पदयात्रा करें। हर कोने से पदयात्रा निकालें जो एक जगह मिले। जमीन पर काम नहीं सीधे दिल्ली से टकराना आसान नहीं मूर्खता  है। आप जैसा अनशन चला रहे हैं चलाते रहिए, क्योंकि आपके अनशन पर जनता को ही भरोसा नहीं है तो सरकार को क्या होगा। सब यही चर्चा कर रहे हैं,  टीम अन्ना भोजन छाजन मस्ती से कर रही है।

चलिए ये तो रही बात कथित अनशन की। लेकिन जिस मांग को लेकर ये अनशन चल रहा है, वो मुद्दा कहीं पीछे छूट गया है। पिछले तीन दिनों में अन्ना ने कई न्यूज चैनल से बात की। इस बात चीत में एक नई बात सामने  आई। अन्ना ने स्वीकार किया है कि अब उन्हें इस सरकार से कोई उम्मीद नहीं है। इस लिए उनकी कोशिश होगी कि दो साल बाद होने वाले लोकसभा के चुनाव में देश भर में सच्चे और ईमानदार उम्मीदवार  को समर्थन दिया जाएगा। मतलब अब अन्ना देश की सियासत में भी अपनी भूमिका  तलाश रही है। वैसे तो इस टीम पर पहले ही आरोल लगा करता था कि ये जनलोकपाल और भ्रष्ट्राचार की आड़ में राजनीति कर रहे हैं और खासतौर पर इनके पीछे आरएसएस का हाथ है। बहरहाल इनके पीछे किसका हाथ है, ये तो टीम अन्ना ही जाने, लेकिन इतना तो साफ है कि कुछ ना कुछ तो छिपा एजेंडा जरूर है, जिस पर ये काम कर रहे हैं।

वैसे इस कथित अनशन से सरकार कनफ्यूज्ड है। मीडिया वाले जब किसी मंत्री से पूछते हैं कि आप अनशनकारियों से बात कब करेंगे ? मंत्री उल्टे सवाल पूछते हैं कि आप ही बताइये ये अनशनकारियों की मांग क्या है। बताया जाता है कि वैसे तो उनकी मांग जनलोकपाल है, लेकिन अभी वो 15  भ्रष्ट मंत्रियों के खिलाफ जांच चाहते हैं। तब मंत्री का सवाल  होता है कि अब ये मांग बेचारे प्रधानमंत्री कैसे मान सकते हैं। उनकी सूची में प्रधानमंत्री भी शामिलि हैं, फिर तो उन्हें ये मांग सरकार से नहीं करनी चाहिए। जिसके खिलाफ आप अनशन कर रहे हैं, उसी से मांग पूरी करने को दबाव बना रहे हैं, ये तो सामाजिक न्याय के भी  खिलाफ है। मंत्री जी बात तो आपकी सही है, लेकिन आप ही बताएं उन्हें करना क्या चाहिए ? बोले अरे उनके यहां तो जाने माने वकील है, वो मंत्रियों के भ्रष्टाचार से संबंधित जो भी फाइलें हैं, वो लेकर सुप्रीम कोर्ट चले जाएं, जांच का आदेश करा लें।

बहरहाल सरकार और टीम अन्ना के बीच चूहे बिल्ली का खेल चलता रहेगा। ना सरकार कानून लाने वाली, ना टीम अन्ना आंदोलन खत्म करने वाली। अच्छा सरकार भी चाहती है कि ये आंदोलन चलता रहे, जिससे देशवासियों का ध्यान मुख्य समस्या से हटा रहे। टीम अन्ना भी चाहती है कि मांग पूरी ना हो, जिससे उनकी दुकान भी चलती रहे। दुश्यंत कुमार की दो लाइनें याद आ रही हैं..

कैसे मंजर सामने आने लगे हैं,
गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं।
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो,
ये कंवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।
   

Thursday 26 July 2012

अनशन: टीम अन्ना का टीवी प्रेम ...

आज एक बार फिर जरूरी हो गया है कि टीम अन्ना की बात की जाए ।वैसे तो मेरा मानना है कि इनके बारे में बात करना सिर्फ समय बर्बाद करना है, लेकिन दिल्ली में जो माहौल है, उसमें जरूरी हो गया है कि कुछ बातें कर ली जाए। मैं जानता हूं कि एक सवाल आप सब के मन में होगा कि हर बार टीम अन्ना का अनशन सुबह आठ बजे के करीब शुरू हो जाता था, आज क्या वजह थी कि ये अनशन दोपहर बाद शुरू हुआ। इस सवाल का जवाब आप जानेगें तो चौंक जाएंगे। इसकी वजह और कुछ नहीं दिल्ली की टीवी मीडिया रही। दरअसल देश के 13 वें राष्ट्रपति के रूप में प्रणव मुखर्जी को संसद भवन के सेंट्रल हाल में आज शपथ लेना था। इसके चलते सभी न्यूज चैनल पर राष्ट्रपति के शपथ ग्रहण समारोह का सीधा प्रसारण हो रहा था। अब टीम अन्ना को लगा कि अगर वो भी इसी समय अनशन शुरू करते हैं तो कैमरे का फोकस उनके ऊपर नहीं रहेगा। फिर जंगल में मोर नाचा किसने देखा.. हाहाहहाहाह
बस यही वजह थी कि टीम अन्ना के सदस्य भी सुबह से घर में बैठ कर शपथ ग्रहण समारोह का आनंद लेते रहे। जब ये समारोह समाप्त हो गया तो वो भी घर से निकले, उन्हें लगा कि अब उन्हें भी न्यूज चैनलों में जगह मिल जाएगी। मित्रों अगर आप हमारे पुराने लेखों को ध्यान से पढें तो आपको पता चल जाएगा कि इस टीम का असल मकसद क्या है। वैसे तो मैं पहले से कहता रहा हूं टीम अन्ना सुर्खियों में रहना चाहती है। मैं सौ फीसदी दावे के साथ कह सकता हूं कि अगर जंतर मंतर से न्यूज चैनलों के कैमरे हटा लिए जाएं, तो आमरण अनशन सुबह से शुरू होकर शाम को खत्म हो जाएगा। वैसे टीम अन्ना के सदस्य आजकल जिस तरह बहकी बहकी बातें कर रहे हैं, उससे उनकी झल्लाहट साफ झलकती है। माइक हाथ में लेने के बाद ये बेकाबू हो जाते हैं, इन्हें समझ मे नहीं आता दरअसल ये किसके बारे में और क्या कह रहे हैं।

आज जब देश के राष्ट्रपति के रूप में प्रणव दा शपथ ले रहे थे, उस समय टीम अन्ना का एक कारिंदा मंच से कह रहा था कि अगर लोकपाल होता तो प्रणव दा राष्ट्रपति नहीं बन पाते। वैसे ये बात तो उन्होंने मंच से नहीं कहा, लेकिन उनके कहने का मकसद यही था कि अगर लोकपाल होता तो दादा राष्ट्रपति भवन में नहीं बल्कि जेल में होते। देश में इस तरह की आराजकता तब होती जब सरकार का नेतृत्व कमजोर हाथो में होता है। केंद्र की सरकार जितना पीछे हटती है, ये बिगडैल उतना ही आगे बढ़ जाते हैं। इन्हें पता नहीं क्यों लगता है कि इन पर हाथ डाला तो देश मे तूफान खड़ा हो जाएगा। सरकार अगर मजबूत होती तो आज कुछ लोग देश को इस तरह गुमराह नहीं कर पाते। सच तो ये है कि जनता का ये आंदोलन भटक गया है, फिर भी टीम अन्ना को लगता है कि वो एक सामान्य नागरिक नहीं बल्कि भगवान हैं। उनमें इतनी शक्ति है कि वो लोगों को देख कर बता सकते हैं कि ये ईमानदार है और ये बेईमान है। मैं जब भी तर्क और साक्ष्य के साथ कोई बात कहता हूं तो मुझपर कांग्रेसी होने का आरोप लगा दिया जाता है। मैं जानता हूं कि वही बात फिर दुहराई जाएगी, पर मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता, मैं सच्चाई को ठोंक कर कहने की हिम्मत रखता हूं।

मैं हमेशा से एक बात कहता रहा हूं कि बेईमानी की बुनियाद पर ईमानदारी की इमारत खड़ी नहीं की जा सकती। जब टीम अन्ना अनशन में ईमानदारी नहीं बरत सकती तो उन्हें ईमानदारी की बात करने का कम से कम नैतिक हक तो बिल्कुल नहीं है। चलिए पहले मैं आपको बताने की कोशिश करता हूं कि अनशन के मायने क्या हैं ? टीम अन्ना और गांधी के अनशन में अंतर क्या है ? आपको पता है महात्मा गांधी के लिए अनशन का अर्थ क्या था ? गांधी के लिए अनशन का अर्थ धर्म से जुड़ा हुआ था, इसका एक लक्ष्य हुआ करता था। यानि शरीर और आत्मा की शुद्धि। गांधी जी कहा करते थे कि उपवास या अनशन कभी भी गुस्से में नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि गुस्सा एक प्रकार का पागलपन है। टीम अन्ना तो गुस्से में ही अनशन करती है, ये तो अलग बात है कि टीवी पर गाली गलौज नहीं दिखाया जा सकता, वरना इनकी भाषा तो ऐसा ही लगता है कि खामोश हो जाओ, वरना ये तो किसी की भी मां बहन कर सकते हैं। गांधी जी का मानना था कि अनशन का अर्थ बिना कुछ कहे अपनी बात लोगों तक पहुंचाना है। बापू अनशन के जरिए दुश्मनों को दोस्त बनाने का काम करते थे, जबकि टीम अन्ना दुश्मन से और दूरी बढ़ाने का काम करती है।

मित्रों अनशन में शरीर को तपाया जाता है, मकसद को हासिल करने के लिए शरीर को कष्ट दिया जाता है। अनशनकारियों को ऐसा कोई कृत्य नहीं करना चाहिए, जिससे उनकी वजह से दूसरों को कष्ट हो या वो आहत हों। केजरीवाल की जो भाषा है, उसका भगवान ही मालिक है। कई बार तो उनकी बात से ऐसा लगता है कि जैसे उन्होंने किसी से बयाना ले लिया है कि वो सरकार की ऐसी तैसी कर देंगे, लेकिन जब वो इसमें नाकाम रहते हैं तो अभद्र और अशिष्ट भाषा का इस्तेमाल करते हैं। टीम अन्ना बड़ी बड़ी बातें करती हैं, लेकिन मेरी समझ में नहीं आता कि अनशन के लिए करोंड़ो रुपये फूंकने की क्या जरूरत है ? अनशन तो जंतर मंतर पर एक दरी बिछा कर भी की जा सकती है, फिर ये फाइव स्टार तैयारी क्यों की जाती है ? आप नहीं समझ सकते, क्योंकि ये आपका विषय नहीं है। आपको याद होगा कि यही टीवी चैनलों ने गुजरात के मुख्यमंत्री के सद्भावना उपवास का मजाक बनाया था और कहा कि ये फाइव स्टार उपवास दिखावटी है, तो उनकी नजर इस अनशन पर क्यों नहीं है? क्या ये दोहरा मापदंड नहीं है ?

मंच तैयार किए जाने के दौरान ये कई बार टीवी चैनलों के कैमरामैन से भी बात करते हैं कि मंच की ऊंचाई कितनी रखी जाए कि अनशनकारी ठीक से चैनल पर दिखाई दें। इन्हें मकसद से ज्यादा मतलब नहीं होता,ये बार बार कैमरे की ओर नजर गड़ाए रहते हैं। वैसे आज इन्हें चैनलों पर ज्यादा जगह नहीं मिल पाई। वैसे भी आज तो दोपहर बाद यानि लगभग दो बजे तो अनशन शुरू ही हो पाया। खैर इन्हें पहले पता होता कि टीवी चैनल उनका अनशन छोड़कर प्रणव दा के शपथ ग्रहण समारोह में भाग जाएंगे तो मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि ये टीम अपना अनशन कब का आगे बढ़ा चुकी होती। हो सकता है कि आप मेरी बात से सहमत ना हों, पर जब देश के प्रथम नागरिक यानि राष्ट्रपति का शपथ ग्रहण समारोह चल रहा था, जिसे दुनिया भर के लोग देखते रहे थे, उस दौरान अपने ही देश के प्रथम नागरिक प्रणब मुखर्जी के लिए अनाप शनाप बातें करके टीम अन्ना के सहयोगी अरविंद ने साफ कर दिया कि उनमें नैतिकता का पतन हो चुका है, फिर ये देश के लिए बड़ी बड़ी बातें करते हैं तो हंसी आती है।

वैसे इस बार अन्ना भी अपनी टीम का इम्तहान ले रहे हैं। वे चाहते तो टीम के साथ आज भी अपना अनशन शुरू कर सकते थे, पर वो अपनी टीम की ताकत देखना चाहते हैं। दरअसल मुंबई में अन्ना का अनशन फ्लाप हुआ तो टीम के सहयोगी अन्ना की बुराई करने लगे। लोगों मे सुगबुगाहट हुई की अन्ना भले ही महाराष्ट्र के रहने वाले हैं, पर उनकी वहां कोई पूछ नहीं है। इसीलिए मुंबई का अनशन कामयाब नहीं हो पाया। दिल्ली में अनशन इसलिए कामयाब हुआ कि टीम अन्ना के सहयोगियों को दिल्ली वाले हांथो हाथ लेते हैं। बस इसी बात से खफा अन्ना देखना चाहते हैं कि उनके बिना इस अनशन में कितने लोग जमा होते हैं और ये टीम कितने दिन भूखी रह सकती है ? और हां बड़ी बड़ी बातें करने वाली टीम अन्ना पहले ही दिन से उस रास्ते की तलाश कर रही है कि कैसे इस अनशन को सम्मान के साथ समाप्त किया जाए।

टीम अन्ना को पता है कि लोकपाल बिल मानसून सत्र मे पास होने वाला नहीं है, जिन मंत्रियों के खिलाफ जांच की बात की जा रही है, वो बात मानी नहीं जा सकती। सरकार अब बात चीत के लिए तैयार भी नहीं दिखाई दे रही है। अभी तक जो लोग सरकार से बातचीत कर रहे थे, वो अनशन पर हैं, उनकी मांग है कि अब सरकार से बात जनता के सामने मंच पर होगी, ये संभव नहीं है। अब अनशनकारी बेचारे यही सोच रहे हैं कि कैसे रास्ता निकाला जाए, जिससे अनशन तोड़ने में आसानी हो..।

चलते - चलते आज तो टीम अन्ना ने हद ही कर दी। सुर्खियों में आने के लिए कुछ नौजवानों के साथ जानबूझ कर धक्का मुक्की की गई और मीडिया में शोर मचाया गया कि कांग्रेस के छात्र संगठन ने टीम अन्ना पर हमला किया। दरअसल सच ये है कि आज अनशन को कोई भी चैनल इतनी गंभीरता से नहीं ले रहा था, लिहाजा सुर्खियों मे आने के लिए ये एक साजिश रची गई, और कहा गया कि कांग्रेसियों ने जंतर मंतर आकर हमला किया।

 

Wednesday 18 July 2012

क्योंकि मैं हूं सोनिया गांधी ...


मैं चाहे ये करुं, मैं चाहे वो करुं मेरी मर्जी। अरे अरे आप सब तो गाना गुनगुनाने लगे। ऐसा मत कीजिए मै बहुत ही गंभीर मसले पर बात करने जा रहा हूं। मैं इस बात को मानने वाला हूं कि देश की कोई भी संवेधानिक संस्था हो, उसकी गरिमा बनी रहनी चाहिए। मैं ये भी मानता हूं कि अगर संवैधानिक संस्थाएं कमजोर हुईं तो देश नहीं बचने वाला। अच्छा संवैधानिक संस्थाओं को बचाने की जिम्मेदारी जितनी संस्था के प्रमुखों की है, उससे कहीं ज्यादा हमारी और आपकी भी है। सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति चुनाव के ठीक पहले मतदाताओं को पांच सितारा होटल में लंच देकर चुनाव की आदर्श आचार संहिता को तोड़ा है, लेकिन निर्वाचन आयोग पूरी तरह खामोश है। मैं देखता हूं कि जब कहीं भी मामला सोनिया गांधी का आता है तो यही संवैधानिक संस्थाएं ऐसे दुम दबा लेतीं हैं कि इनकी कार्यशैली पर हैरानी होती है।
टीम अन्ना जब दागी सांसदों पर उंगली उठाती है, तो मैं उनका समर्थन करता हूं। लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, पप्पू यादव, ए राजा, सुरेश कलमाड़ी, मायावती ऐसे तमाम नेता हैं, जिनका नाम लेकर अगर कोई बात की जाए, तो मुझे लगता है कि कोई भी आदमी इन नेताओं के साथ खड़ा नहीं हो सकता, क्योंकि ये सब किसी ना किसी तरह करप्सन में शामिल हैं, सभी पर कोई ना कोई गंभीर आरोप है। लेकिन गिने चुने नेताओं को लेकर जब आप संसद पर हमला करते हैं और तब सबसे पहले मैं टीम अन्ना के खिलाफ बोलता हूं, क्योंकि मेरा मानना है कि संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर करके हमें ईमानदारी नहीं चाहिए। पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान की  जो हालत है ये इसीलिए है कि वहां संवैधानिक संस्थाएं कमजोर हो गई हैं। ऐसे में वहां तख्तापलट जैसी घटनाएं होती रहती हैं। आपको याद दिला दूं कि जिस तरह देश में एक ईमानदार पूर्व सेना प्रमुख जनरल वी के सिंह के साथ सरकार ने व्यवहार किया है, अगर वैसा पाकिस्तान में होता तो वहां सरकार नहीं रहती, बल्कि वहां का सेना प्रमुख तख्ता पलट कर सत्ता पर काबिज हो जाता। पर हमारे देश मे संवैधानिक संस्थाओं की मजबूती और उनके अनुशासन का ही परिणाम है कि आज भी देश में लोकतंत्र है और ये मजबूत भी है।

अब बात भारत निर्वाचन आयोग की। एक जमाना था कि निर्वाचन आयोग मे और रोजगार दफ्तर में कोई अंतर नहीं था। क्योंकि इन दोनों को नान परफार्मिंग आफिस माना जाता था। लेकिन पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषन ने बताया कि निर्वाचन आयोग का महत्व क्या है। उसके बाद दो एक और निर्वाचन आयुक्तों में भी शेषन की छवि दिखाई दी। पर अब धीरे धीरे निर्वाचन आयोग अपनी पुरानी स्थिति में पहुंचता जा रहा है। दस पंद्रह साल से लगातार चुनाव आचार संहिता की बहुत चर्चा हो रही है। यानि ग्राम प्रधान, ब्लाक प्रमुख, विधायक और सांसद के चुनाव में निर्वायन आयोग ये अपेक्षा करता है कि वोटों की खरीद फरोख्त ना हो, मतदाताओं को लालच ना दिया जाए, खर्चों की एक निर्धारित सीमा होती है, उसके भीतर ही उम्मीदवार चुनाव लड़े। इसके लिए देश भर में आयोग पर्यवेक्षक भेजता है। पर्यवेक्षक देखते हैं, जहां कहीं कोई उम्मीदवार अगर लोगों को दावत देता है, तो वो अनुमान लगाता है कि इस दावत में कितना खर्च हुआ होगा और ये पैसा उसके खर्च रजिस्टर में दर्ज कर दिया जाता है।

लेकिन देश के पहले नागरिक यानि राष्ट्रपति के चुनाव में आयोग की आचार संहिता कहां है ? मैं पूछना चाहता हूं आयोग से राष्ट्रपति के चुनाव में खर्च की सीमा कीतनी है ? इस चुनाव में पर्यवेक्षक कौन है ? आदर्श आचार संहिता तोड़ने वालों के खिलाफ रिपोर्द दर्ज कराने की जिम्मेदारी किसकी है ? वोटों की खरीद-फरोख्त पर नजर कौन रख रहा है? हो सकता है कि निर्वाचन आयोग को ये सब दिखाई नहीं दे रहा हो, लेकिन राष्ट्रपति के यूपीए उम्मीदवार को जिताने के लिए सरकारी खजाने का खुलेआम दुरुपयोग किया जा रहा है। वोट हासिल करने के लिए राज्यों को पैकेज देने की तैयारी है। यूपी के अफसरों के साथ तो बैठक भी हो गई और 45 हजार करोड मिलना लगभग तय हो गया है। बिहार में कहां एक केंद्रीय विश्वविद्यालय को लेकर यूपीए सरकार के मंत्री कपिल सिब्बल और बिहार सरकार के बीच ठनी हुई थी, जेडीयू का समर्थन मिलते ही वहां दो केंद्रीय विश्वविद्यालय की बात मान ली गई। मायावती को कोर्ट के जरिए एक बड़ी राहत यानि आय से अधिक मामले को लगभग खत्म करा दिया गया। ये सब तो ऐसे मामले हैं जो आम जनता तक पहुंच चुकी हैं, इसके अलावा अंदरखाने क्या क्या सौदेबाजी हो रही होगी, ये सब तो जांच का विषय है। पर सवाल ये है कि कौन करेगा जांच और इस जांच का आदेश कौन देगा ?

अब चुनाव के लिए कल यानि 19 जुलाई को वोटिंग है। इसके ठीक पहले आज यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी ने सभी वोटर सांसदों को लंच पर निमंत्रित किया। लंच के बहाने वो प्रणव दा की जीत को पूरी तरह सुनिश्चित करना चाहती हैं। मेरा सवाल है कि अगर ग्राम प्रधान के चुनाव में उम्मीदवार बेचारा गांव वालों को एक टाइम का भोजन करा देता है तो उसके खिलाफ चुनाव की आदर्श आचार संहिता को तोड़ने का मामला दर्ज करा दिया जाता है। सोनिया गांधी दिल्ली के पांच सितारा होटल अशोका में लंच के बहाने सिर्फ यूपीए ही नहीं उन सब को भोजन पर बुलाया है जो प्रणव दा को वोट कर रहे हैं। मसलन समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी के अलावा कई और ऐसे दल आमंत्रित हैं, जिसने दादा को समर्थन देने का ऐलान किया है। मैं पूछता हूं कि क्या ये लंच चुनाव की आदर्श आचार संहिता के खिलाफ नही है? और अगर है तो क्या निर्वाचन आयोग इस मामले में रिपोर्ट दर्ज कराएगा ?

मुझे जवाब पता है कुछ नहीं होने वाला है। क्योंकि देश में राष्ट्रपति सोनिया बनाती हैं, उप राष्ट्रपति सोनिया बनाती हैं, प्रधानमंत्री सोनिया बनाती हैं, लोकसभा स्पीकर सोनिया बनाती हैं, मुख्यमंत्री सोनिया गांधी के सहमति से बनते हैं, राज्यपाल सोनिया गांधी की सहमति से बनते हैं, निर्वाचन आयोग के मुख्य निर्वाचन आयुक्त भी सोनिया बनाती हैं। ये सब देखने मे भले लगते हों कि लोग एक निर्धारित प्रकिया से चुन कर आते हैं या फिर सरकारी सिस्टम से बनते हैं, पर ये सब गलत है, सच है कि हर तैनाती में सोनिया की ना सिर्फ राय होती है बल्कि उनकी अहम भूमिका होती है।  ऐसे में भला सोनिया के खिलाफ ये मामला कैसे दर्ज हो सकता है। बहरहाल मामला भले ना दर्ज हो, पर मैडम..ये पब्लिक सब जानती है।




   

Sunday 15 July 2012

बाबा रे बाबा - रामदेव का रामराज



बाबा  रामदेव योग गुरु के रुप में देश दुनिया में जाने जाते हैं, पर इन दिनों वो योग को छोड़ कई दूसरे मामलों में अपनी टांग फंसा चुके हैं। इसलिए वह आए दिन किसी न किसी विवाद में उलझे ही रहते हैं। वो कालेधन का विरोध करते और स्वदेशी की बात भर करते तो किसी को कोई आपत्ति नहीं थी। लेकिन स्वदेशी की आड़ में वो अपने खुद के उत्पादों की मार्केटिंग कर रहे हैं। अच्छा रामदेव नियम कायदे से इन कंपनियों का संचालन करते तो  शायद इतना ज्यादा विरोध नहीं होता, लेकिन वो भी बाजार की उसी गोरखधंधे का हिस्सा है जो दूसरे लोग कर रहे हैं। यानि अधिक धन की लालसा में टैक्स की चोरी समेत तमाम गैरकानूनी हथकंडे अपनाने के आरोप उनकी कंपनियों पर लगते  रहे हैं।  बाबा दूसरी कंपनियों के उत्पादों को घटिया और अपने उत्पादों को शुद्ध बताने के साथ सस्ता भी कहते हैं, पर इसमें उतनी सच्चाई बिल्कुल नहीं, जितना दावा  किया जा रहा है।

कुछ समय पहले मेरे एक लेख पर बाबा के कुछ समर्थकों ने यहां अभद्र टिप्पणी से वातावरण को दूषित किया। लेकिन मेरा मानना है कि सच को दबाने का ये तरीका सही नहीं है। इसलिए मैने कोशिश की है कुछ और प्रमाणिक तथ्यों के साथ आप सबके पास आऊं। 11 हजार करोड़ से अधिक कारोबारी साम्राज्य के ‘मालिक’ रामकिशन यादव उर्फ बाबा रामदेव आज विवादों में हैं। केंद्रीय एजेंसी प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) उनकी संस्थाओं द्वारा विदेशी लेन-देन की जांच कर रही है, तो उत्तराखंड का बिक्रीकर विभाग उनके विभिन्न ट्रस्टों के खिलाफ टैक्स चोरी की तहकीकात कर रहा है। अब आए दिन दवाओं से लदे उनके ट्रक पकड़े जा रहे हैं। जब इसकी जांच  की जाती है तो, भारी टैक्स चोरी का पता चलता है। सबको  पता है कि उनका महर्षि पतंजलि आश्रम भी कई तरह के विवादों में घिरा रहा है। बाबा की व्यावसायिकता से परेशान हो उनके तमाम पुराने सहयोगियों ने यहां से किनारा कर लिया है।

हंसी आती है, जब हम बाबा की पुरानी बातों को सुनते हैं। वो कैंसर व एड्स जैसी जानलेवा बीमारियों को जड़ी-बूटियों से ठीक कर दिए जाने के ‘उल्टे-सीधे’ दावे किया करते थे। इसके खिलाफ मेडिकल काउंसिल भी बाबा रामदेव को कठघरे में खड़ा करने के लिए एकजुट होने लगा था। इसके संभावित खतरे को बाबा भी भांप गए। इसलिए अपने बचाव में उन्होंने हाथ-पांव मारना शुरू कर दिया है। वे कभी अखिलेश यादव-मुलायम सिंह यादव के दरबार में मत्था टेक रहे हैं। यदि वे अखिलेश सरकार के साथ ही उत्तराखंड सरकार का भी गुणगान करते नजर आएं, तो हैरानी की बात नहीं होगी। सवाल भी तो हजारों करोड़ के साम्राज्य को बचाने का है। वैसे इस बात में कोई दो राय नहीं  कि योग को व्यावहारिक बनाने और जन-जन तक पहुंचाने में रामदेव का परिश्रम बेजोड़ है। लेकिन काले धन के सवाल पर केंद्र सरकार को मुश्किल में डालने वाला योग गुरु बाबा रामदेव खुद भी बड़ी मुश्किल में फंसते नजर आ रहे हैं। उनके खिलाफ जांच कर रही केंद्रीय एजेंसी प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने अपनी गोपनीय रिपोर्ट में रामदेव की ट्रस्ट की ओर से संचालित कंपनियों के विदेशी लेन देन में गड़बड़झाले की बू सूंघ ली है।

सूत्रों के मुताबिक ईडी ने कुछ ऐसे लेन देन पकड़े हैं, जिनमें उसे घपले-घोटाले का अंदेशा है। रिपोर्ट में ये भी बताया जा रहा है कि बाबा की कई सस्थाएं कालेधन के खेल में शामिल हो सकती हैं। इतना ही नहीं, उत्तराखंड के बिक्री कर विभाग ने भी बाबा की कंपनियों के खिलाफ कई मामले दर्ज किए हैं। बाबा की कहानी शुरू करने से पहले यहां यह बताना जरूरी है कि कुल 34 कंपनियों के किसी भी निदेशक मंडल में बाबा रामदेव नहीं हैं। इसी तकनीकी पहलू का लाभ उठाते हुए वे छाती ठोक कर कहते हैं कि उनके पास ब्लैकमनी का एक भी पैसा नहीं है। जो  भी जांच चल रही है, उसे बाबा और उनके समर्थक राजनीति से प्रेरित बताते हैं। पिछले दिनों कुछ ब्लाग को पढने के दौरान मेरी नजर पड़ी "हमवतन" पर। यहां मुझे इसी विषय पर कई तथ्यपरक जानकारी मिली। लीजिए आप भी देखिए।

ईडी का कसता शिकंजा

प्रवर्तन निदेशालय की एक ताजा गोपनीय रिपोर्ट में रामदेव के विदेशों में किए गए करोड़ों रुपये के संदिग्ध लेन-देन का खुलासा किया गया है। उच्च पदस्थ सूत्रों के मुताबिक जांच के दायरे में 64.49 करोड़ की राशि है। बाबा के लगभग 11,000 करोड़ रुपये के साम्राज्य में पांच ट्रस्ट हैं। इनमें तीन ट्रस्ट भारत में हैं, जबकि एक-एक अमेरिका व ब्रिटेन में हैं। कंपनियों की जांच के दौरान ईडी को इतने सारे संदिग्ध लेन-देन की जानकारी मिली है कि जांच एजेंसी को अपनी जांच का दायरा बढ़ाना पड़ा है। जांच के दायरे में रामदेव के पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड और दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट की अनेक सहायक कंपनियों के जरिए किए गए निर्यात शामिल हैं।  सूत्रों ने बताया कि सहायक कंपनियों का इस्तेमाल भी शक के दायरे में है। इन सहायक कंपनियों में दिव्य फार्मेसी, दिव्य योग साधना और दिव्य प्रकाशन शामिल हैं। ये सभी दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट के तहत काम करती हैं। आरंभिक जांच में यह भी पता चला है कि पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड ने 2009 से 2011 के बीच 20 करोड़ का सामान आयात किया था। जांच के दायरे में दो और लेन-देन हैं। इनमें ओवरसीज डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट के रूप में एक लाख 50,000 अमेरिकी डॉलर (74.98 लाख रु .) और 2 लाख 42,000 ब्रिटिश पाउंड (1.9 करोड़ रु .) रेमिटेंस शामिल है। निदेशालय के नोट में पांच ऐसे संदिग्ध लेन-देन का खुलासा हुआ है। सभी में फेमा के उल्लंघन की जांच की जा रही है।

जांच में यह भी पता चला है कि पतंजलि आयुर्वेद ने भारतीय निवेश परामर्श और पंजीयन शुल्क नाम से अमेरिका में 6 लाख 10,000 डॉलर (3.04 करोड़ रुपये) भेजे थे। यही नहीं, ‘आस्था’ नाम के चैनल का संचालन करने वाली कंपनी वैदिक ब्रॉडकास्टिंग लिमिटेड ने भी करीब 2 लाख 75000 पाउंड (2.15 करोड़) और 3 लाख 79000 डॉलर (1.89 करोड़ रुपये) विदेश भेजे थे। यह सारी राशि पेशेवर तकनीकी शुल्क के नाम से भेजी गई थी। वैदिक ब्रॉडकास्टिंग उन 34 कंपनियों में शामिल है, जिनका संचालन रामदेव के सहयोगी बालकृष्ण करते हैं।

पिछले साल अप्रैल माह में रामदेव ने घोषणा की थी कि पतंजलि एक अमेरिकी फर्म को खरीदने वाली है। इसके बाद रांची के निकट बनने जा रहे झारखंड मेगा फूड पार्क की 107 करोड़ रुपये की लागत   वाली एक परियोजना में पतंजलि ने 25 फीसदी निवेश किया है। बालकृष्ण और बाबा के एक अन्य सहयोगी स्वामी मुक्तानंद को इस पार्क का निदेशक बनाया गया है। प्रवर्तन निदेशालय के नोट में इस बात का भी जिक्र  है कि कंपनी को इक्विटी के रूप में दुबई से भी भारी भरकम निवेश हासिल हुआ था।

ट्रस्ट द्वारा संचालित 34 कंपनियों में से रामदेव खुद किसी भी कंपनी के बोर्ड में शामिल नहीं हैं। वे सीधे तौर पर लाभान्वितों में भी नहीं हैं। सभी कंपनियों में बालकृष्ण का दखल है। वे या तो उनमें प्रबंध निदेशक हैं या फिर निदेशक की हैसियत से हैं, जबकि मुक्तानंद 11 फर्मों में निदेशक हैं। सूत्र बताते हैं कि योग गुरु  का सारा कारोबार उनके सहयोगी चला रहे हैं, इसलिए निदेशालय ने अब तक एक बार भी रामदेव को पूछताछ के लिए नहीं बुलाया है।

करोड़ों की सेल्स टैक्स चोरी

ताजा मामला गत 27 मार्च का है। राज्य बिक्री कर विभाग ने बाबा रामदेव की लक्जर स्थित पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड से दवाओं से भरे ट्रक पकड़े जिन पर तेरह लाख रुपये मूल्य की दवाएं लदी थीं। बगैर टैक्स चुकाए ये दवाएं ले जाई जा रही थीं। पकड़े जाने पर कंपनी के अधिकारियों ने कहा कि दवाएं गरीबों में बांटने के लिए ले जाई जा रही थीं। इससे पहले भी बाबा रामदेव के कई ट्रस्टों पर सेल्स टैक्स चोरी के आरोप लग चुके हैं। सूत्रों ने बताया कि दिव्य फार्मेसी पर पांच करोड़ रुपये के टैक्स चोरी का आरोप है। जांच के दौरान उत्तराखंड के बिक्री कर विभाग ने बाबा के दिव्य फार्मेसी पर छापा भी मारा था। छापामार टीम का नेतृत्व विभाग के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर जगदीश राणा ने किया था। सूत्र बताते हैं कि छापे के बाद सरकार में हड़कंप मच गया था। उत्तराखंड के तत्कालीन राज्यपाल सुदर्शन अग्रवाल बेहद खफा हो गए थे। उन्होंने इस संबंध में सरकार से पूरी रिपोर्ट तलब की थी। अपनी रिपोर्ट में तत्कालीन प्रिंसिपल सेक्रेटरी इंदु कुमार पांडे ने छापे की कार्रवाई को सही व निष्पक्ष करार दिया था। गौर करने योग्य तथ्य यह भी है कि छापा मारने वाले डिप्टी कमिश्नर जगदीश राणा पर दबाव इस कदर पड़ा कि उन्हें चार साल पहले ही रिटायरमेंट लेना पड़ा था।

बाबा स्वदेशी, मदद विदेशी

रामदेव ने अपनी छवि मल्टीनेशनल कंपनियों के विरोधी, स्वदेशी अभियान के कट्टर समर्थक और विकास के देशी रोडमैप तैयार करने वाले के रूप में बनाई है। वे कहते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के लिए मैं स्वदेशीकरण का हिमायती हूं।  शायद यह काफी कम लोग जानते होंगे कि स्वदेशीकरण के हिमायती बाबा रामदेव ने अपने रेडी-टू-ड्रिंक सॉफ्ट ड्रिंक्स बेचने के लिए अमेरिकी मल्टीनेशनल पैकेजिंग कंपनी टेट्रा से हाथ मिलाया है। आने वाले समय में पतंजलि फलों के करीब 30 नए पेय पदार्थ ऐसी ही पैकिंग में पेश करने की योजना बना रहा है। पहले जूस पूरी तरह कांच व प्लास्टिक की बोतलों में बेचा जाता था। धीरे-धीरे इसकी जगह टेट्रा पैक ले रहा है। इतना ही नहीं बाबा के ट्रस्ट ने अमेरिका में   आयुर्वेदिक उत्पाद बनाने वाली कंपनी हर्बों बेद का अधिग्रहण कर लिया है। कितने में, यह एक रहस्य है। कुछ साल पहले दिव्य फार्मेसी के 113 मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी के लिए आंदोलन छेड़ने पर हमेशा के लिए नौकरी से निकाल दिया गया था। रामदेव के कारोबारी कदम बहुराष्टÑीय कंपनियों के विरोध में उनके बयानों का समर्थन करते प्रतीत नहीं होते हैं।

रहस्यमय है पतंजलि योगपीठ

पतंजलि योगपीठ शुरू से ही संदेह व सवालों के घेरे में रही है। खोजबीन बताती है कि वर्ष 2006 में इस योगपीठ की स्थापना रामदेव, शंकरदेव, कमला साध्वी, स्वामी कर्मवीर, भूपेंद्र सिंह ठक्कर, जीव राज पटेल और बालकृष्ण ने मिलकर की थी। सपना था पतंजलि को जन-जन तक पहुंचाना और लक्ष्य था, योग को घर-घर तक पहुंचाना। हरिद्वार के आश्रम की पूरी संपत्ति आचार्य शंकरदेव की थी। वर्षों से यह  आश्रम गरीब-बेसहारा लोगों का सहारा था। रामदेव ने येन-केन-प्रकारेण यह जगह खाली करवाई थी। मामला कोर्ट तक गया था। लेकिन गरीबों की किसी ने नहीं सुनी। पतंजलि ने और भी बहुत सी जमीनें हासिल कीं और साम्राज्य फैल गया। इन्हीं दिनों रामदेव के भाई रामभरत व बहनोई यशदेव शास्त्री जो शंकरदेव के चेले थे, ने भी पतंजलि में घुसपैठ कर ली थी। इस तरह योगपीठ परिवारवाद से अछूता नहीं रह सका। रामदेव इसके मुखिया बन बैठे।

बाबा के कई साथी लापता

मुखिया बनने व नाम फैलने के साथ ही रामदेव बाबा के व्यवहार में भी बदलाव आया। उनके इस बदलते आचरण से ट्रस्ट के सदस्यों में गुटबाजी शुरू हो गई थी और वे अलग-अलग खेमों में बंट गए। रामदेव की कथित दादागीरी से क्षुब्ध होकर उनके परम मित्र पीठ के उपाध्यक्ष आचार्य कर्मवीर ने त्यागपत्र दे दिया था। ट्रस्ट के सबसे पुराने सदस्यों में से एक साध्वी कमला, जिन्हें आश्रम वाले माता कहकर बुलाते थे, को जबरन आश्रम से निकाल दिया गया था। रहस्यमय तरीके से गायब हुए बाबा रामदेव के गुरु शंकरदेव का आज तक पता नहीं चला है। इसी तरह कई पुराने लोगों ने भी बाबा रामदेव व बालकृष्ण जैसे उनके सहयोगियों के व्यवहार से खफा हो आश्रम से अपना नाता तोड़ लिया। भ्रष्टाचार के कई आरोपों से घिरे आजादी बचाओ आंदोलन के पूर्व संचालक राजीव राधेश्याम दीक्षित पर भी बाबा रामदेव की मेहरबानी हुई थी। काफी कम समय में बाबा ने दीक्षित को भारत स्वाभिमान का राष्टÑीय सचिव व ट्रस्टी बना दिया था, जबकि राजीव दीक्षित को कार्यकर्ताओं के विरोधस्वरूप आजादी बचाओ आंदोलन नामक संस्था छोड़नी पड़ी थी। 30 नवंबर 2010 को रहस्यमय परिस्थितियों में भिलाई में राजीव दीक्षित की मौत हो गई थी। उनकी मौत आज भी एक रहस्य है।  क्या देश भर में भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम छेड़ने वाले बाबा रामदेव स्वयं भ्रष्टाचार को बढ़ावा नहीं दे रहे हैं? क्या योग गुरु की तस्वीर कॉरपोरेट बाबा के रूप में तब्दील नहीं हो गई है? यहां सवाल खड़ा होता है कि क्या बाबा रामदेव की मुहिम के बाद स्विस बैंकों में जमा काला धन स्वदेश लौट आया? क्या मल्टीनेशनल कंपनियों पर किसी तरह की कोई लगाम लगाई जा सकी? देश विदेश में लगातार महंगी संपत्तियों की खरीद फरोख्त, आश्रम के पुराने व अनुभवी लोगों के साथ दुर्व्यवहार, बालकृष्ण जैसे विवादास्पद व्यक्ति को अपनी छत्रछाया में पालना, योग शिविरों के महंगे पैकेज, परिजनों को लाभान्वित कर व्यावसायिक साम्राज्य का विस्तार जैसी घटनाएं साफ संकेत कर रही हैं कि बाबा रामदेव भी पूंजीवाद व बाजारवाद की गिरफ्त में आ गए हैं।

कौन हैं बाबा रामदेव ?

बाबा रामदेव का जन्म हरियाणा के महेंद्रगढ़ जिले के गांव नारनौल में हुआ था। बचपन में उनका नाम रामकिशन यादव था। उन्होंने केवल 8वीं कक्षा तक पढ़ाई की और बाद में घर से भाग गए थे। घर से भागने से लेकर ‘बाबा रामदेव’ बनने तक के उनके सफर के बारे में सिवाय उनके और कोई भी यकीन से कुछ नहीं कह सकता। बताया जाता है कि घर से भागने के बाद वे काफी दिनों तक हरिद्वार के आसपास साइकिल में पंक्चर लगाया करते थे। कोेई कहता है कि 1990 के दशक में वे साइकिल पर आंवला, अदरख आदि बेचा करते थे। उसी दौरान उनकी मुलाकात किसी ऐसे व्यक्ति से हुई, जो उन्हें गुरुकुल में ले गया। वहीं उन्होंने योग आदि की शिक्षा ली और एक दिन दुनिया के सामने ‘बाबा रामदेव’ बन कर अवतरित हुए।

जांच के दायरे में संदिग्ध लेन-देन

झारखंड मेगा फूड पार्क में निवेश 26.75 करोड़

विदेशों में प्रत्यक्ष निवेश 2.64 करोड़

2009-11 के बीच सामानों का आयात 20.00 करोड़

अमेरिका की एक कंपनी में निवेश 8.04 करोड़

विदेश से प्राप्त धन 7.06 करोड़

कुल 64.49 करोड़

बाबा पर आरोप

कथित टैक्स चोरी में बाबा रामदेव के कई ट्रस्ट लिप्त।

कई प्रतिबंधित जड़ी-बूटियों का प्रयोग दवा बनाने में।

डोनेशन के तौर पर कालाधन लेना।

सहयोगी बालकृष्ण का पासपोर्ट फर्जी।

बालकृष्ण है नेपाली भगोड़ा।

बालकृष्ण ने किया है अस्त्र-शस्त्र नियमों का उल्लंघन।

फैक्ट्रियों में लेबर लॉ का उल्लंघन।

एड्स व कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी को ठीक करने का झूठा दावा।

कारोबारी साम्राज्य

सालाना अनुमानित टर्नओवर 1,100 करोड़

योग कैंप से सालाना 50 करोड़ से अधिक की आमदनी

दवा बिक्री से सालाना 50 करोड़   की आमदनी

पुस्तक व सीडी बिक्री से 2.3 करोड़ सालाना आय

निवेश व अचल संपत्ति

17 करोड़  : विदेश में आइलैंड की कीमत (गिफ्टेड)

1,115 करोड़  :  हरिद्वार में एक हजार एकड़ जमीन की कीमत

500 करोड़  : फूड पार्क, हरिद्वार में निवेश

44 करोड़  : झारखंड के फूड पार्क में 40 प्रतिशत स्टेक

100 करोड़  : पतंजलि विश्वविद्यालय, हरिद्वार

90 करोड़  :  सोलन, हिमाचल प्रदेश में 38 एकड़ जमीन

(कीमत अनुमानित है,  हमवतन से साभार)



Wednesday 11 July 2012

बदबू आती है ऐसे नेताओं से ...


च कहूं तो ऐसे नेताओं से बदबू आती है जो जनता की भावनाओं को समझने के बजाए उनकी खिल्ली उड़ाते हैं। पहले हम गृहमंत्री पी चिदंबरम को गंभीर नेता मानते थे, लेकिन कल जिस तरह उन्होंने मंहगाई के मुद्दे पर गैर जिम्मेदाराना बयान दिया, उससे तो चिदंबरम सिर्फ मेरे ही नहीं देश भर के लोगों की नजरों से गिर गए. और मेरा विश्वास है आदमी पहाड़ से गिरने के बाद एक बार उठ सकता है, लेकिन समाज की नजरों से गिरने के बाद उठना मुश्किल है।
जानते हैं चिदंबरम ने क्या कहा। उनसे बात मंहगाई की हो रही थी, चिदंबरम में कहा कि खामखाह देश में मंहगाई को तूल दिया जा रहा है। ये हमारी सोच का फर्क है, आदमी को 15 रुपये की आइसक्रीम खरीदने में जरा भी तकलीफ नहीं होती, जबकि गेहूं की कीमत एक रुपये बढ़ जाती है तो लोग शोर शराबा करते हैं। ये लोगों की गलत सोच भर है, कोई मंहगाई नहीं है। इस बयान से आसानी से समझा जा सकता है कि ये आदमी सत्ता के नशे में कितना मदहोश है, इसे जब शहर के ही 90 फीसदी लोगों की असलियत का अंदाजा नहीं है, तो ये गांव गिरांव के बारे में भला क्या जानता होगा।
मैं दावे के साथ कह सकता हू कि शहर की 10 से 15 फीसदी आबादी ही आइसक्रीम का खर्च उठा पाती है, 90 फीसदी आबादी के लिए आज भी आइसक्रीम बहुत दूर की बात है। गांवों में तो अभी भी 25-50 पैसे वाली आइसक्रीम बेचने वाले आते हैं, जो इन गरीब बच्चों को गर्मी में ठंड का अहसास कराते हैं। ऐसे में मंहगाई का इस तरह बचाव करना ना सिर्फ शर्मनाक है, बल्कि अमानवीय भी लगता है। ऐसे चिदंबरम से अगर लोगों को बदबू आती है तो मैं कहता हूं ये कत्तई गलत नहीं है। नैतिकता तो रही नहीं के ये इस्तीफा देगें, पर अगले चुनाव में जनता इन्हें जरूर इस मंहगाई का अहसास कराएगी।

नहीं मानता प्रधानमंत्री को ईमानदार ... 
मैं पूरी जिम्मेदारी के साथ कह सकता हूं कि देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ईमानदार नहीं हैं,
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की जब भी बात होती है तो उनके लिए सिर्फ एक ही बात कही जाती है कि हमारे प्रधानमंत्री ईमानदार हैं। चलिए मनमोहन सिंह ईमानदार हैं, मेरा एक सवाल है कि कांग्रेस नेता अब खुद ही बताएं कि उनका कौन सा प्रधानमंत्री बेईमान था। कांग्रेसी उनकी ईमानदारी की कसमें खाते फिर रहे हैं, पर उनकी ईमानदारी को जनता ओढे या बिछाए। टू जी घोटाला हो गया, कामनवेल्थ घोटाला, कोयला ब्लाक आवंटन में घोटाला, लोग केंद्र की सरकार को घोटाले की सरकार बता रहे हैं। कांग्रेसी प्रधानमंत्री को ईमानदार कह कर पल्ला झाड़ रहे हैं।
वैसे मेरा मानना है कि अब प्रधानमंत्री पूरी तरह फेल हो गए हैं। ना उनका सरकार पर नियंत्रण है, न ही व्यवस्था पर, ऐसे में प्रधानमंत्री को खुद को आज की राजनीति के अयोग्य घोषित कर पद छोड़ देना चाहिए। लेकिन प्रधानमंत्री कोई भगवान तो हैं नहीं, वो भी इंशान हैं, और उनमें भी वही लालच है जो आम लोगों में होती है, लिहाजा वो अपने से कुर्सी छोड़ने वाले नहीं है। अमेरिका की चमचागिरी करते करते बेचारे प्रधानमंत्री जी थक गए, पर वहां की मैग्जीन टाइम ने भी मनमोहन को असफल पीएम बताया है। अब तो प्रधानमंत्री को एक सलाह है, कोई चुनाव जरूर लड़ लें, जिससे उन्हें पता लग जाए कि जनता उनके बारे में क्या सोचती है।

 खत्म हो गया राहुल बाबा का जादू ....
हालांकि सलमान खुर्शीद ऐसे नेता नहीं है जिन्हें जनता का समर्थन हासिल हो, लेकिन इस बात के लिए मैं उनकी तारीफ करुंगा कि उन्होंने कम से कम अपने गिरेबान में झांकने की कोशिश की है। कांग्रेस में आज किसी नेता की औकात नहीं है कि राहुल गांधी के बारे में इतना कडुवा सच सार्वजनिक तौर पर कह सके। पर सलमान ने कम से कम सच कबूल किया है। अब राहुल को तय करना है कि वो अपने में कैसे सुधार करते हैं। शुरु में कांग्रेस नेताओं और मीडिया ने कुछ ज्यादा ही राहुल की तारीफों के पुल बांध दिए। कहा गया कि यूपी में चमत्कार होने वाला है, क्योंकि टिकट बंटवारे में राहुल गांधी की महत्पूर्ण भूमिका रही है और वो एक एक उम्मीदवार से इंटरव्यू करके टिकट दे रहे हैं।
चुनाव में राहुल गांधी ने पूरी ताकत झोंक दी। नतीजा राहुल गांधी फिर भी फेल हो गए। हां अब मुझे लगता है कि अगर कांग्रेस को अपनी खोई प्रतिष्ठा को वापस लाना है तो उसके पास ज्याद विकल्प नहीं हैं। हां हो सकता है कि प्रियंका गांधी चुनावों में एक बार जरूर तुरुप का इक्का साबित हो,  लेकिन यूपी विधानसभा चुनाव में मम्मी और भइया के निर्वाचन क्षेत्र में पूरी ताकत झोंकने के बाद भी प्रियंका को मायूस होना पड़ा। वैसे प्रियंका राहुल से ज्यादा समझदार है, यही वजह है कि उन्होंने पहले ही ऐलान कर दिया था कि वो बस राहुल की मदद कर रही हैं, मतलब साफ है कि हार होती है तो ये उनकी नहीं राहुल की ही होगी।

 सोनिया को गुमराह करते हैं उनके सलाहकार ...
हर मौके पर देखा जा रहा है कि सोनिया गांधी के सलाहकार उन्हें गलत राय देते हैं। जिससे पार्टी से कहीं ज्यादा सोनिया की छीछालेदर हो रही है। राष्ट्रपति के चुनाव में अगर कांग्रेस के रणनीतिकारों से सोनिया गांधी को सही सलाह दी होती तो आज प्रणव मुखर्जी निर्विरोध चुनाव जीत कर रायसीना हिल पहुंच चुके होते। आपको याद होगा कि लोकसभा और राज्यसभा दोनों सदनों में बीजेपी के नेताओं ने प्रणव दा की खुलकर तारीफ की थी। अगर उम्मीदवार घोषित करने के पहले सोनिया ने बीजेपी से एक छोटी सी मीटिंग कर ली होती तो इतनी छीछालेदर ना होती।
सिर्फ राष्ट्रपति के चुनाव में ही नहीं, राज्यों के मामले में भी सोनिया को कभी सही सलाह नहीं दी गई, बल्कि पार्टी को विवाद में खड़ा किया गया। उत्तराखंड के मामले में ही ले लीजिए। हरीश रावत ने पूरे चुनाव में मेहनत की, उनकी वजह से पार्टी इस मुकाम पर पहुची, बात आई मुख्यमंत्री बनाने की तो विजय बहुगुणा को बना दिया। जिनकी उत्तराखंड में दो पैसे की पूछ नहीं है। आंध्र प्रदेश में पार्टी की थू थी हो रही है। बहरहाल ऐसे तमाम उदाहरण हैं जहां सोनिया के सलाहकारों ने ही उन्हें मुश्किल में डाला है।

 चलते- चलते
स्वामी अग्निवेश को वाकई इलाज की जरूरत है। इनका कहना है कि पश्चिम बंगाल में हास्टल की वार्डेन ने बिस्तर पर पेशाब करने वाली छात्रा को उसका पेशाब पिलाकर ठीक किया है, ये एक चिकित्सा पद्धति है, यानि अपना पेशाब पीने से बच्चे बिस्तर पर पेशान करना बंद कर देते हैं। स्वामी कहते हैं कि उन्हें खुद बिस्तर पर पेशाब करने की बीमारी थी, और उन्होंने पेशाब पीकर इसे ठीक किया। स्वामी जी अच्छा है आपको बिस्तर पर लैट्रिन करने की बीमारी नहीं थी। 
दरअसल ये देखा जा रहा है कि स्वामी हर मामले में राय जरूर देते हैं, चाहे उनकी राय कोई मायने रखे या ना रखे, जबकि फोन पर जिस तरह से उन्होंने अन्ना के आंदोलन के दौरान कपिल सिब्बल से बात की और इस आंदोलन को कुचलने की साजिश की इससे अब उन्होने देश में अपना भरोसा खो दिया है। लिहाजा पहले उन्हें जनता में वो विश्वास कायम करना होगा, फिर किसी मामले में सलाह दें तो बेहतर है। 

Friday 6 July 2012

मायावती को "सुप्रीम" राहत ...


सपा सुप्रीमों मायावती के मामले में आज अदालत का फैसला हैरान करने वाला है। हांलाकि कोर्ट ने सभी तथ्यों को ध्यान में रखकर फैसला दिया होगा, लेकिन देश की आम जनता के गले ये फैसला नहीं उतर रहा है। देश में इस फैसले को राष्ट्रपति के चुनाव से जोड़ कर देखा जा रहा है। सब जानते हैं कि मायावती का कोई भरोसा नहीं है कि वो आखिरी समय में क्या फैसला लें। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहने के दौरान संसद के भीतर अचानक जिस तरह मायावती ने पलटी मारी और वाजपेयी की सरकार 13 दिन में गिर गई। उस समय मायावती ने ताल ठोंक कर कहा था हमने यूपी का बदला ले लिया। मायावती के राजनीतिक चरित्र को जानते हुए कांग्रेस किसी तरह के धोखे में नहीं रहना चाहती। सियासी गलियारे में चर्चा है कि राष्ट्रपति के चुनाव में अगर मायावती ऐन वक्त पर पलटती तो सरकार की बहुत किरकिरी होती, लिहाजा मायावती को कैसे मनाया जाए, ये सबसे अहम सवाल था।

कांग्रेस सीबीआई को राजनीतिक दलों के खिलाफ तोप की तरह इस्तेमाल करती रही है। मुलायम और माया दोनों की सीबीआई के सामने घिग्घी बंधी रहती है। एक समाजवादी नेता कैसे सरकार के आगे घुटने टेकता है, ये देखने को मिला था न्यूक्लीयर डील के दौरान। वामपंथियों ने सरकार से समर्थन वापस लिया तो बेचारे मुलायम सिंह यादव 10 जनपथ पहुंच गए। हालांकि समर्थन लेने के बाद भी कांग्रेस ने मुलायम पर से शिकंजा ढीला नहीं होने दिया। कांग्रेस को लगता है कि यही एक ऐसा फंदा है जिससे कभी भी मुलायम को कसा जा सकता है। यही फंदा कांग्रेस ने मायावती के लिए भी तैयार किया था। सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को ताज कारीडोर मामले की जांच करने के आदेश दिए थे। सीबीआई ने एक मामला आय से अधिक संपत्ति का भी दर्ज कर लिया।

आय से अधिक संपत्ति के मामले में आयकर विभाग ने भी छानबीन की थी। सीबीआई ने पुख्ता सुबूतों के आधार पर मायावती के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति का मामला भी दर्ज कर लिया और इस मामले को सीबीआई की विशेष अदालत के साथ ही सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होती रही। लगभग नौ साल से ये मामला विभिन्न अदालतों मे चलता रहा है और अब जबकि नए राष्ट्रपति का चुनाव होना है, उसके ठीक पहले इसका फैसला आया है। कोर्ट ने सीबीआई की ऐसी तैसी करते हुए कहा कि 1995 से 2003 के बीच मायावती के खिलाफ आय से कथित रूप से अधिक संपत्ति की जांच का कोई निर्देश नहीं दिया था, सीबीआई ने हमारे आदेश को सही ढंग से समझे बिना मायावती के खिलाफ कार्यवाही की। कोर्ट ने सीबीआई में दर्ज एफआईआर को ही निरस्त कर दिया।

कांग्रेस लोकतंत्र और देश की संवैधानिक संस्थाओं को खत्म करने पर आमादा है। एक ओर बड़े जोर शोर से बात की जाती है कि संवैधानिक संस्थाओं की निष्पक्षता और स्वतंत्रता को हर कीमत पर बरकरार रखा जाएगा। पर देश की सर्वोच्च अदालत के फैसले से सरकार की किरकिरी हुई है। अदालत का फैसला ठीक उसी तरह है जैसे पुलिस को चोरी की जांच के आदेश दिए जाएं और मौके पर उसे पता चले कि यहां तो हत्या भी हुई है, तो उसे उसकी जांच करने का हक नहीं है। वो सिर्फ चोरी की चांज तक ही खुद को सीमित रखे। हाहाहहाहा
वैसे मायावती के खिलाफ ताज कारीडोर का मामला चलता रहेगा। जाहिर है कि ताज कारीडोर में मुख्यमंत्री तो बाद में आएंगी, उसके पहले तो तमाम अफसरों की भूमिका जांच होगी, ऐसे में इसका फैसला आसान नहीं है। ये मामला लंबे समय तक चलता ही रहेगा।

सच ये है कि अगर मायावती सबसे ज्यादा किसी मामले में परेशान थीं तो वो है आय से अधिक संपत्ति का मामला है। इसका उनके पास महज एक ही जवाब है कि ये पैसा उन्हें पार्टी के कार्यकर्ताओं ने चंदे के रुप में दिया है। मायावती के पास 2003 में एक करोड़ था, 2007 में 50 करोड़ हो गया और अब तो वो सवा सौ करोड रुपये से ज्यादा की मालकिन हैं। मायावती मुख्यमंत्री भले रही हों, पर उनकी आम सोहरत एक बेईमान सियासी की रही है। सरकार से बिदाई के बाद उनके एक के बाद एक मामले खुलते जा रहे हैं। इसमें ना सिर्फ मायावती बल्कि उनके परिवार के अन्य सदस्यों की भूमिका पर भी उंगली उठ रही है।

ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लोग राष्ट्रपति के चुनाव से जोड़ कर देख रहे हैं, तो कोई गलत नहीं कर रहे हैं। लोगों को लग रहा है कि सरकार की एक अहम सहयोगी ममता बनर्जी का रुख पहले से ही साफ नहीं है, आंध्रप्रदेश में सरकार भले कांग्रेस की हो, पर वहां जगन मोहन की ताकत लगातार बढती जा रही है। ऐसे में अगर कांग्रेस प्रणव मुखर्जी को राष्ट्रपति भवन भेजना चाहती है तो उसे मायावती और मुलायम की हर कीमत पर जरूरत होगी। खैर मायावती को तो मिठाई खाने और बांटने का मौका मिल गया, पर ममता अभी भी नाखुश है। जानकार तो यहां तक कह रहे हैं कि सरकार की मुलायम सिंह यादव से भी "महाडील" हो गई है, लेकिन इस डील का खुलासा अभी नहीं बल्कि चुनाव के बाद होगा। वैसे फैसला तो सुप्रीम कोर्ट ने दिया है, पर ना जाने क्यों थू थू कांग्रेस की हो रही है। क्या सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले को भी प्रभावित कर लेती है? इसका जवाब तो शायद किसी के पास नहीं होगा।