कांग्रेसी रेलमंत्री पवन बंसल के रेल बजट ने यात्रियों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। उम्मीद थी कि बजट कुछ ऐसा होगा, जिससे रेलवे का भी भला हो और यात्रियों का भी। लेकिन मैं पूरे दावे के साथ कह सकता हूं कि जो बजट रेलमंत्री ने संसद मे पेश किया है इससे ना रेल का भला हो सकता है, ना यात्रियों का और ना ही उनकी पार्टी कांग्रेस का। हां यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी के निर्वाचन क्षेत्र रायबरेली में व्हील फैक्टरी ( पहिया ) का ऐलान कर उन्होंने पार्टी में अपनी सीट जरूर कन्फर्म करा ली है। बंसल के बजट में कुछ भी नया नहीं है, अगर इस बजट को पूर्व रेलमंत्री लालू यादव के बजट की फोटो कापी कहूं तो गलत नहीं होगा। लेकिन बंसल जी को कौन समझाए कि लालू बनना इतना आसान भी नहीं है, उसके लिए पहले तो उन्हें अपने नाम के आगे यादव लिखना होगा फिर दो चार साल बिहार की राजनीति सीखनी होगी, माफ कीजिएगा लेकिन सच बताऊं भैंस का चारा खाना तो बहुत जरूरी है, तब कहीं जाकर उनकी लालू जैसा बनने की प्रक्रिया शुरू होगी। खैर छोड़िए बंसल जी ! आप लालू जैसा भले ना बन पाएं, लेकिन रेल अफसर बहुत सयाणे हैं ये आपको चारे का स्वाद तो चखा ही देंगे।
ये रेल बजट इतना बकवास है जिसके लिए ज्यादा समय खराब करने की जरूरत नहीं है, मैं आपको महज एक पैराग्राफ में ही इसकी अच्छी और बुरी बातें दोनों समझा देता हूं। उसके बाद मैं आपको रेलवे की असलियत बताऊंगा। बजट भाषण में छोटी छोटी बातें करके बंसल ने यात्रियों को लुभाने की कोशिश की है। जैसे महत्वपूर्ण ट्रेनों में मुफ्त वाई फाई की सुविधा, आजादी एक्सप्रेस के नाम पर सस्ती शेक्षणिक पर्यटक ट्रेन की सुविधा ट्रेन, ई टिकटिंग को आधुनिक बनाने के साथ 23 घंटे तक इंटरनेट से बुकिंग की सुविधा, अच्छी ट्रेनों में आधुनिक सुविधा वाली अनुभूति कोच की व्यवस्था, सैप्टी की कीमत पर नई ट्रेन नहीं, बड़े स्टेशनों पर बैटरी चालित व्हील चेयर, कुछ नए शहरों में रेलनीर का प्लांट। रेलमंत्री ने यही छोटी मोटी बातें कर अपने पार्टी के सांसदों की ताली बटोरने की कोशिश की। हां एक बात बताऊं, पवन बंसल ने अपने बजट भाषण में कई शेर पढ़ें हैं, एक मैं भी बोल दूं। फिर आगे की बात करते हैं।
छोटी-छोटी बातें करके बड़े कहां हो जाओगे,
सकरी गलियों से निकलो तो खुली सड़क पर आओगे।
चलिए बजट की कुछ बुरी बातें भी कर लेते हैं, जिससे रेलयात्रियों की जेब काटने की कोशिश की गई है। आपको पता है कि अभी जनवरी महीने में ही रेलमंत्री ने किराया बढाया था और अब सरचार्ज के नाम पर उन्होंने चोर दरवाजे से एक बार फिर यात्रियों की जेब ढीली कर दी है। मसलन उन्होंने आरक्षण शुल्क बढ़ाया, तत्काल शुल्क में बढोत्तरी की और सुपरफास्ट के नाम पर अतिरिक्त सरचार्ज का प्रावधान कर दिया। ये तीनों सरचार्ज यात्रियों को एक साथ देने होंगे। नहीं समझे आप, मै समझाता हूं अगर आप किसी सुपरफास्ट ट्रेन से सफर कर रहे हैं तो उसका चार्ज, तत्काल में टिकट लिया है तो उसका चार्ज लगना ही है और आरक्षण शुल्क बढ ही गया है। यानि रेल बजट से अचानक एक टिकट पर लगभग दो सौ रुपये की बढोत्तरी हो गई। इसके अलावा अगर किसी वजह से आपको यात्रा स्थगित करनी पड़ती है तो टिकट कैंसिलेशन चार्ज भी बढ गया है। सबसे खराब बात तो ये है कि अब रेलमंत्री ने एक प्राधिकरण का गठन करने का ऐलान किया है जो साल में दो बार डीजल के दामों की समीक्षा करेगा और तय करेगा कि रेल किराए में बढोत्तरी की जाए या नहीं। जाहिर है बढोत्तरी हो ही जाएगी। हां मालभाड़े में पांच फीसदी की बढोत्तरी से मंहगाई बढेगी ये अलग बात है।
वैसे आप सब को बजट की मोटी-मोटी बातें अखबार से पता ही चल गई होंगी। लेकिन मैं चाहता हूं कि आप रेलवे को थोड़ा और अच्छी तरह से जानें। आमतौर पर मैने देखा है कि अगर बजट में रेल किराया नहीं बढ़ा तो बजट बहुत अच्छा है और किराया बढ़ गया तो बजट बहुत खराब। रेलवे और रेल बजट से हमारा सरोकार महज किराए तक ही रह गया है। मैं कुछ ऐसी बातें आपको बताना चाहता हूं, जिससे आप खुद समझ जाएं कि आखिर ये रेलवे चल कैसे रही है। आइये सबसे पहले रेलवे के खजाने की बात कर ली जाए। रेलवे को यात्री किराए और मालभाड़े समेत अन्य सभी श्रोतों से सालाना एक लाख करोड़ रुपये की आय होती है। आप को हैरानी होगी पर सच ये है कि इसमें 60 हजार करोड़ रुपये रेलवे अपने अफसरों, कर्मचारियों और पेशनर्स के वेतन पर खर्च कर देती है। महज 40 हजार करोड़ रुपये ट्रेनों के संचालन पर खर्च किया जाता है। आसानी से समझा जा सकता है कि रेल कैसे चल रही है। पता कीजिएगा कि कोई फैक्टरी मालिक अगर 60 फीसदी धनराशि कर्मचारियों के वेतन पर खर्च करता है क्या ?
अच्छा ट्रेन चलाने के लिए इंजन की जरूरत तो होगी ही ना ! सुनिए क्या हाल है हमारे यहां इंजनों की। देश में रोजाना यात्री और मालगाड़ी मिलाकर 19 हजार ट्रेनें चलती हैं। आपको पता है कि भारतीय रेल के पास इंजन कितने हैं ? बिजली से चलने वाले इंजन की संख्या 4300 है और डीजल से चलने वाले इंजनों की संख्या 5200 है यानि 9500 इंजन से 19 हजार ट्रेनें चलाई जा रही हैं। यहीं पर आपको बोगी के बारे मे भी जानकारी दे दूं। इस समय रेलवे के पास 61 हजार 800 बोगी है, इसमें हर साल 26 हजार बोगी स्क्रैप हो जाती है, यानि खराब हो जाने पर उसे पटरी से उतार दिया जाता है। हां 30 हजार बोगी हर साल रेलवे बना लेती है, इस तरह से हम कह सकते हैं कि रेल बेड़े मे चार हजार बोगी हर साल बढ़ रही है। लेकिन एक निश्चित दूर तय करने के बाद इंजन और बोगी दोनों की सर्विसिंग रेलवे की भाषा में कहूं तो प्रीयाडिकल ओवर हालिंग (पीओएच) होनी चाहिए, जो यहां नहीं हो रही है। ये गंभीर मामला है। पिछले दिनों सफर के दौरान मैंने खुद देखा है कि एसी 2 की बोगी में बारिश का पानी लीक होकर अंदर आ रहा था।
अच्छा अब जरा दो बातें माल भाड़े और यात्री किराए पर करूंगा, इसे समझने के लिए आपको गौर करने की जरूरत है। देश में हर साल औसतन 3500 मिलियन टन माल की ढुलाई होती है। आपको पता है कि इसमें रेलवे का हिस्सा कितना है? महज 900 मिलियन टन। दो मिलियन टन एयर कार्गो के जरिए और बाकी 2598 मिलिटन माल रोड ट्रांसपोर्ट के पास है। अच्छा रेलवे से जो लोग माल की ढुलाई करते हैं वो निजी क्षेत्र की कंपनियां नहीं है, बल्कि सरकारी संस्थाएं हैं। मसलन नेशनल थर्मल पावर, पेट्रोलियम पदार्थ, फर्टिलाइजर कारपोरेशन, फूड कार्पोरेशन, स्टील अथारिटी आफ इंडिया, आयरन यानि कच्चा लोहा। मतलब सरकारी पैसा ही इस विभाग से उस विभाग में ट्रांसफर होता रहता है। रही बात निजी क्षेत्र की... तो उनका रेलवे पर एक पैसे का भरोसा ही नही है। क्योंकि रेलवे से माल भेजने पर चोरी का डर, दुर्घटना हो जाने पर सामान खराब हो जाने का डर और समय से माल पहुंचाने में भी रेलवे असमर्थ है। लिहाजा निजी क्षेत्र की कंपनियां रेलवे से दूरी बनाए रखती हैं। यही वजह है कि रेलवे को माल भाड़ा बढ़ाकर पैसा जुटाने की जरूरत होती है। यहां आपको एक बात और बता दूं कि रोड ट्रांपपोर्ट के मुकाबले रेलवे का खर्च काफी कम है। मसलन अगर एक टन माल 1500 किलो मीटर ले जाने में रेलवे एक हजार लीटर डीजल फूंकती है तो रोड ट्रांसपोर्ट को सात हजार लीटर डीजल फूंकना पड़ता है और हवाई जहाज को 12 हजार। इसके बाद भी रेलवे व्यापारियों में भरोसा कायम नहीं कर पा रहा है। सही मायने में अगर रेलवे को अपनी आय बढ़ानी है तो उसे निजी क्षेत्र का विश्वास जीतना होगा।
थोड़ी सी बात रेल यात्रियों की भी कर ली जाए। आपको बता दूं कि देश में कुल पैसेंजर की संख्या का 10 फीसदी लोग ही रेलवे से सफर करते हैं। बाकी यात्री सड़क और हवाई परिवहन इस्तेमाल करते हैं। मैं सोचता हूं कि इतना बड़ा महकमा मात्र 10 फीसदी लोगों के लिए भी सुरक्षित और सुविधाजनक यात्रा करा पाने में नाकाम है। रेल अफसरों से बात होती है तो उनका अजीबोगरीब तर्क है, कहते है कि सड़क और हवाई यातायात में साल भर में लगभग 40 हजार लोग दुर्घटनाओं में दम तोड़ देते हैं, जबकि रेल दुर्घटना में ये संख्या महज पांच छह सौ तक ही है। खैर यात्री किराए में लगातार होने वाली बढोत्तरी पर एक नजर डालना जरूरी है। देश में ढाई करोड़ लोग रोजाना सफर करते हैं। इसमें 1.40 करोड़ ऐसे यात्री हैं जो छोटी दूरी की यात्रा यानि सौ से डेढ सौ किलोमीटर की करते हैं। ये यात्री मंथली पास (एमएसटी) के जरिए सफर करते हैं। आपको पता है कि तीन महीने तक आने जाने का मंथली पास महज 15 दिन के एक ओर के किराए में बन जाती है। आधे से अधिक लोग इसी पास के जरिए रेल में सफर करते हैं। सिर्फ मुंबई लोकल में ही रोजाना 80 लाख लोग सफर करते हैं। बचे 1.10 करोड़ यात्री इनमें से 40 फीसदी यानि लगभग 41 लाख लोग बिना आरक्षण जनरल बोगी में सफर करते हैं। रेलमंत्री ने जो सरचार्ज लगाया है वो 70 लाख यात्रियों पर है। इन 70 लाख में 10 फीसदी लोग मसलन 7 लाख यात्री ही अपर क्लास (एसी) में यात्रा करते हैं। आमतौर पर रेलवे का फोकस इन्हीं पर रहता है, अब सात लाख लोगों पर किराए का भार डालकर क्या रेलवे की माली हालत सुधारी जा सकती है। जबकि इसमें नि:शुल्क और रियायती दरों पर यात्रा करने वाले भी शामिल हैं। इनमें सांसद, विधायक, पूर्व सांसद, रेल कर्मचारी, फौजी, पत्रकार, गंभीर मरीज, पद्म पुरस्कार विजेता, खेल के क्षेत्र में विजेता, राष्ट्रपति पदक समेत तमाम लोग हैं जिन्हें छूट है। सीनियर सिटीजन को भी आधे किराए पर यात्री की छूट है। मुझे लगता है कि अगर रेलवे की माली हालत इतनी खराब है तो किराया बढ़ाने के बजाए पहले ये छूट बंद होनी चाहिए। पर भइया मामला सियासी है कैसे कर सकते हैं।
अगर आप कहें तो दो एक बातें और बता दूं। एक होती है "रेट आफ रिटर्न" । यानि जो ट्रेन चलाई जा रही हैं वो फायदे में हैं या फिर घाटे में हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि घाटे वाली ट्रेन को जबर्दस्ती दौड़ाया जा रहा है। ये देखकर तो मैं वाकई हैरान रह गया। क्योंकि देश में रोजाना 12 हजार पैसेंजर यानि यात्री ट्रेनें फर्राटा भरती हैं, इसमें चार हजार ट्रेन ऐसी हैं, जिनकी ग्रोथ निगेटिव है। मतलब अभी तो वो घाटे मे हैं ही, इन ट्रेनों को चलाने से घाटा साल दर साल बढ़ता जा रहा है। किसी भी आदमी से पूछ लिया जाए कि अगर मुनाफे का रेल रूट नहीं है तो उस पर ट्रेन क्यों चल रही है, बंद होनी चाहिए। लेकिन ये नहीं हो सकता, क्योंकि ये ट्रेनें विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं की वजह से चल रही हैं यानि राजनीतिक मजबूरी के चलते। तब मैं सवाल उठाता हूं कि आखिर रेल महकमें के कुप्रबंधन का दोष यात्रियों पर क्यों लादा जाना चाहिए। मुझे तो लगता है कि एक स्वतंत्र एजेंसी से हर ट्रेन की समीक्षा कराई जानी चाहिए कि ये ट्रेन जनता के हित मे है या नहीं है, अगर हित में है तो टिकट की बिक्री कितनी हो रही है, अगर बिक्री नहीं हो रही है तो ट्रेन को आगे चलाने के बारे में गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।
हर बजट में बड़ी बड़ी घोषणाएं कर दी जाती हैं, लेकिन उन पर अमल नहीं किया जाता। आपको याद दिला दूं कि रेलवे देश के 900 रेलवे स्टेशनों के आधुनिकीकरण और 130 स्टेशन को वर्ल्ड क्लास बनाने का ऐलान काफी पहले कर चुकी है। बाकी स्टेशनों की बात ही अभी छोड़ दी जाए। देश की राजधानी दिल्ली की बात पहले कर लेते हैं। 1989 में नई दिल्ली को वर्ल्ड क्लास बनाने का ऐलान किया गया था। इसके लिए दो बार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर टेंडर भी निकाला गया, लेकिन देश और दुनिया में भारतीय रेल की छवि इतनी खराब है कि कोई भी ये काम करने को तैयार ही नहीं हुआ। आप आसानी से समझ सकते हैं कि जब दिल्ली की ये हालत है तो दूसरे शहरों का तो भगवान ही मालिक है। रेलवे में एक संस्था है आरडीएसओ, इनका काम है नई तकनीकि का रिसर्च और डिजाइन करें, जिससे रेलवे को इसका फायदा मिले। मैं हैरान रह गया ये जानकर कि आज तक 50 साल पुरानी इस संस्था ने अपना कोई रिसर्च और डिजाइन किया ही नहीं। ये दूसरे देशों की तकनीक का नकल कर यहां क्रियान्वित करते हैं। कोई पूछने वाला ही नहीं है कि आखिर इस संस्था की उपयोगिता क्या है? वैसे भी अब तो कोई भी चीज आपको डिजाइन करानी है तो देश दुनिया भर में कहीं से भी डिजाइन हो जाएगी। इतना बड़ा हाथी पालने की जरूरत क्या है ?
आखिर में एक शर्मनाक बात। रेलमंत्री ने जब रायबरेली में पहिया कारखाने का ऐलान किया तो ऐसा लगा कि चम्चागिरी आज किस हद तक नीचे गिर गई है। ये ठीक बात है कि सोनिया गांधी नहीं चाहेंगी तो पवन बंसल भला कैसे रेलमंत्री रह सकते हैं। मुझे हैरानी हुई कि अभी रायबरेली में कोच फैक्टरी ने पूरी क्षमता से काम भी शुरू नहीं किया फिर एक और फैक्टरी उसी इलाके में कैसे दे दी गई ? अच्छा कौन सी फैक्टरी कहां लगे, ये कैसे तय होना चाहिए। पहिये की फैक्टरी लगनी है, इसमें बहुत ज्यादा लोहा इस्तेमाल होगा। अब रायबरेली या उसके आसपास तो लोहा होता नहीं है। जाहिर ये फैक्टरी बिहार या फिर झारखंड में लगनी चाहिए। जिससे ट्रांसपोर्टेसन चार्ज कम होता, ट्रांसपोर्टेशन चार्ज कम होने से निश्चित ही कन्सट्रक्सन कास्ट भी कम होगा। लेकिन पवन बंसल कोई रेलवे को सुधारने तो आए ही नहीं है, वो इस जरिए सोनिया गांधी को खुश करना चाहते हैं। आप अंदाजा नहीं लगा सकते कि पवन बंसल की इस थोड़ी सी चमचागिरी के चलते रेलवे पर कई सौ करोड़ का अतिरिक्त भार बढ़ेगा।
चलते- चलते
करेला और नीम चढ़ा.. ये कहावत तो सुनी ही होगी आपने। रेलमंत्री फिर भी रेलमंत्री है, रेलवे बोर्ड के अफसरों को क्या कहा जाए। मंत्री खुश हो जाता है अपने और अपनी नेता के इलाके में ट्रेन और कारखाना देकर, लेकिन यहां तो अफसर लूट मचाकर मनमानी करते रहते हैं। रेलवे बोर्ड के अफसर यहां आकर "आफ्टर रिटायरमेंट" की चिंता में डूब जाते हैं। उन्हें लगता है कि वो कैसे किसी कमेटी वगैरह में जगह पा जाएं, जिससे रिटायरमेंट के बाद भी उनकी मनमानी यूं ही चलती रहे। बस इसके लिए वो सरकार और मंत्री का जूता उठाने को तैयार बैठे रहते हैं।
इसे भी देखें...
बजट के पहले मीडिया खासतौर पर इलेक्ट्रानिक मीडिया का हुडदंग देखने लायक होता है। मैं तो पांच-सात साल से देख रहा हूं कि बजट सत्र के पहले चैनल के बड़े दम खम भरने वाले जर्नलिस्ट ट्रेन पर सवार हो जाते हैं और वो सीधे बाथरूम को कैमरे पर दिखाते हुए साफ सफाई को लेकर रेल मंत्रालय को कोसते हैं, जो ज्यादा उत्साही पत्रकार होता है वो ट्रेन के खाने की बात करते हुए घटिया खाने की शिकायत करता है और उम्मीद करता है शायद इस बजट में रेलमंत्री का ध्यान इस ओर जाएगा। अच्छा आम बजट के पहले भी इसी तरह की एक घिसी पिटी कवायद शुरू होती है, चैनल की अच्छी दिखने वाली लड़की को किसी बडे आदमी के घर के किचन में भेज दिया जाता है। पांच तोले सोने की जेवरों से लदी उस घर की महिला वित्तमंत्री को समझाने की कोशिश करती है कि घर चलाना कितना मुश्किल हो गया है। सच तो ये है कि जिस घर में महिला पत्रकार जाती है, उस महिला को आटे चावल का सही सही दाम तक पता नहीं होता है। अब देर नहीं विस्तार से जानना है तो हमारे दूसरे ब्लाग " TVस्टेशन " पर जाएं। वहां पहुंचने के लिए नीचे दिए लिंक की मदद ली जा सकती है।
ये रेल बजट इतना बकवास है जिसके लिए ज्यादा समय खराब करने की जरूरत नहीं है, मैं आपको महज एक पैराग्राफ में ही इसकी अच्छी और बुरी बातें दोनों समझा देता हूं। उसके बाद मैं आपको रेलवे की असलियत बताऊंगा। बजट भाषण में छोटी छोटी बातें करके बंसल ने यात्रियों को लुभाने की कोशिश की है। जैसे महत्वपूर्ण ट्रेनों में मुफ्त वाई फाई की सुविधा, आजादी एक्सप्रेस के नाम पर सस्ती शेक्षणिक पर्यटक ट्रेन की सुविधा ट्रेन, ई टिकटिंग को आधुनिक बनाने के साथ 23 घंटे तक इंटरनेट से बुकिंग की सुविधा, अच्छी ट्रेनों में आधुनिक सुविधा वाली अनुभूति कोच की व्यवस्था, सैप्टी की कीमत पर नई ट्रेन नहीं, बड़े स्टेशनों पर बैटरी चालित व्हील चेयर, कुछ नए शहरों में रेलनीर का प्लांट। रेलमंत्री ने यही छोटी मोटी बातें कर अपने पार्टी के सांसदों की ताली बटोरने की कोशिश की। हां एक बात बताऊं, पवन बंसल ने अपने बजट भाषण में कई शेर पढ़ें हैं, एक मैं भी बोल दूं। फिर आगे की बात करते हैं।
छोटी-छोटी बातें करके बड़े कहां हो जाओगे,
सकरी गलियों से निकलो तो खुली सड़क पर आओगे।
चलिए बजट की कुछ बुरी बातें भी कर लेते हैं, जिससे रेलयात्रियों की जेब काटने की कोशिश की गई है। आपको पता है कि अभी जनवरी महीने में ही रेलमंत्री ने किराया बढाया था और अब सरचार्ज के नाम पर उन्होंने चोर दरवाजे से एक बार फिर यात्रियों की जेब ढीली कर दी है। मसलन उन्होंने आरक्षण शुल्क बढ़ाया, तत्काल शुल्क में बढोत्तरी की और सुपरफास्ट के नाम पर अतिरिक्त सरचार्ज का प्रावधान कर दिया। ये तीनों सरचार्ज यात्रियों को एक साथ देने होंगे। नहीं समझे आप, मै समझाता हूं अगर आप किसी सुपरफास्ट ट्रेन से सफर कर रहे हैं तो उसका चार्ज, तत्काल में टिकट लिया है तो उसका चार्ज लगना ही है और आरक्षण शुल्क बढ ही गया है। यानि रेल बजट से अचानक एक टिकट पर लगभग दो सौ रुपये की बढोत्तरी हो गई। इसके अलावा अगर किसी वजह से आपको यात्रा स्थगित करनी पड़ती है तो टिकट कैंसिलेशन चार्ज भी बढ गया है। सबसे खराब बात तो ये है कि अब रेलमंत्री ने एक प्राधिकरण का गठन करने का ऐलान किया है जो साल में दो बार डीजल के दामों की समीक्षा करेगा और तय करेगा कि रेल किराए में बढोत्तरी की जाए या नहीं। जाहिर है बढोत्तरी हो ही जाएगी। हां मालभाड़े में पांच फीसदी की बढोत्तरी से मंहगाई बढेगी ये अलग बात है।
वैसे आप सब को बजट की मोटी-मोटी बातें अखबार से पता ही चल गई होंगी। लेकिन मैं चाहता हूं कि आप रेलवे को थोड़ा और अच्छी तरह से जानें। आमतौर पर मैने देखा है कि अगर बजट में रेल किराया नहीं बढ़ा तो बजट बहुत अच्छा है और किराया बढ़ गया तो बजट बहुत खराब। रेलवे और रेल बजट से हमारा सरोकार महज किराए तक ही रह गया है। मैं कुछ ऐसी बातें आपको बताना चाहता हूं, जिससे आप खुद समझ जाएं कि आखिर ये रेलवे चल कैसे रही है। आइये सबसे पहले रेलवे के खजाने की बात कर ली जाए। रेलवे को यात्री किराए और मालभाड़े समेत अन्य सभी श्रोतों से सालाना एक लाख करोड़ रुपये की आय होती है। आप को हैरानी होगी पर सच ये है कि इसमें 60 हजार करोड़ रुपये रेलवे अपने अफसरों, कर्मचारियों और पेशनर्स के वेतन पर खर्च कर देती है। महज 40 हजार करोड़ रुपये ट्रेनों के संचालन पर खर्च किया जाता है। आसानी से समझा जा सकता है कि रेल कैसे चल रही है। पता कीजिएगा कि कोई फैक्टरी मालिक अगर 60 फीसदी धनराशि कर्मचारियों के वेतन पर खर्च करता है क्या ?
अच्छा ट्रेन चलाने के लिए इंजन की जरूरत तो होगी ही ना ! सुनिए क्या हाल है हमारे यहां इंजनों की। देश में रोजाना यात्री और मालगाड़ी मिलाकर 19 हजार ट्रेनें चलती हैं। आपको पता है कि भारतीय रेल के पास इंजन कितने हैं ? बिजली से चलने वाले इंजन की संख्या 4300 है और डीजल से चलने वाले इंजनों की संख्या 5200 है यानि 9500 इंजन से 19 हजार ट्रेनें चलाई जा रही हैं। यहीं पर आपको बोगी के बारे मे भी जानकारी दे दूं। इस समय रेलवे के पास 61 हजार 800 बोगी है, इसमें हर साल 26 हजार बोगी स्क्रैप हो जाती है, यानि खराब हो जाने पर उसे पटरी से उतार दिया जाता है। हां 30 हजार बोगी हर साल रेलवे बना लेती है, इस तरह से हम कह सकते हैं कि रेल बेड़े मे चार हजार बोगी हर साल बढ़ रही है। लेकिन एक निश्चित दूर तय करने के बाद इंजन और बोगी दोनों की सर्विसिंग रेलवे की भाषा में कहूं तो प्रीयाडिकल ओवर हालिंग (पीओएच) होनी चाहिए, जो यहां नहीं हो रही है। ये गंभीर मामला है। पिछले दिनों सफर के दौरान मैंने खुद देखा है कि एसी 2 की बोगी में बारिश का पानी लीक होकर अंदर आ रहा था।
अच्छा अब जरा दो बातें माल भाड़े और यात्री किराए पर करूंगा, इसे समझने के लिए आपको गौर करने की जरूरत है। देश में हर साल औसतन 3500 मिलियन टन माल की ढुलाई होती है। आपको पता है कि इसमें रेलवे का हिस्सा कितना है? महज 900 मिलियन टन। दो मिलियन टन एयर कार्गो के जरिए और बाकी 2598 मिलिटन माल रोड ट्रांसपोर्ट के पास है। अच्छा रेलवे से जो लोग माल की ढुलाई करते हैं वो निजी क्षेत्र की कंपनियां नहीं है, बल्कि सरकारी संस्थाएं हैं। मसलन नेशनल थर्मल पावर, पेट्रोलियम पदार्थ, फर्टिलाइजर कारपोरेशन, फूड कार्पोरेशन, स्टील अथारिटी आफ इंडिया, आयरन यानि कच्चा लोहा। मतलब सरकारी पैसा ही इस विभाग से उस विभाग में ट्रांसफर होता रहता है। रही बात निजी क्षेत्र की... तो उनका रेलवे पर एक पैसे का भरोसा ही नही है। क्योंकि रेलवे से माल भेजने पर चोरी का डर, दुर्घटना हो जाने पर सामान खराब हो जाने का डर और समय से माल पहुंचाने में भी रेलवे असमर्थ है। लिहाजा निजी क्षेत्र की कंपनियां रेलवे से दूरी बनाए रखती हैं। यही वजह है कि रेलवे को माल भाड़ा बढ़ाकर पैसा जुटाने की जरूरत होती है। यहां आपको एक बात और बता दूं कि रोड ट्रांपपोर्ट के मुकाबले रेलवे का खर्च काफी कम है। मसलन अगर एक टन माल 1500 किलो मीटर ले जाने में रेलवे एक हजार लीटर डीजल फूंकती है तो रोड ट्रांसपोर्ट को सात हजार लीटर डीजल फूंकना पड़ता है और हवाई जहाज को 12 हजार। इसके बाद भी रेलवे व्यापारियों में भरोसा कायम नहीं कर पा रहा है। सही मायने में अगर रेलवे को अपनी आय बढ़ानी है तो उसे निजी क्षेत्र का विश्वास जीतना होगा।
थोड़ी सी बात रेल यात्रियों की भी कर ली जाए। आपको बता दूं कि देश में कुल पैसेंजर की संख्या का 10 फीसदी लोग ही रेलवे से सफर करते हैं। बाकी यात्री सड़क और हवाई परिवहन इस्तेमाल करते हैं। मैं सोचता हूं कि इतना बड़ा महकमा मात्र 10 फीसदी लोगों के लिए भी सुरक्षित और सुविधाजनक यात्रा करा पाने में नाकाम है। रेल अफसरों से बात होती है तो उनका अजीबोगरीब तर्क है, कहते है कि सड़क और हवाई यातायात में साल भर में लगभग 40 हजार लोग दुर्घटनाओं में दम तोड़ देते हैं, जबकि रेल दुर्घटना में ये संख्या महज पांच छह सौ तक ही है। खैर यात्री किराए में लगातार होने वाली बढोत्तरी पर एक नजर डालना जरूरी है। देश में ढाई करोड़ लोग रोजाना सफर करते हैं। इसमें 1.40 करोड़ ऐसे यात्री हैं जो छोटी दूरी की यात्रा यानि सौ से डेढ सौ किलोमीटर की करते हैं। ये यात्री मंथली पास (एमएसटी) के जरिए सफर करते हैं। आपको पता है कि तीन महीने तक आने जाने का मंथली पास महज 15 दिन के एक ओर के किराए में बन जाती है। आधे से अधिक लोग इसी पास के जरिए रेल में सफर करते हैं। सिर्फ मुंबई लोकल में ही रोजाना 80 लाख लोग सफर करते हैं। बचे 1.10 करोड़ यात्री इनमें से 40 फीसदी यानि लगभग 41 लाख लोग बिना आरक्षण जनरल बोगी में सफर करते हैं। रेलमंत्री ने जो सरचार्ज लगाया है वो 70 लाख यात्रियों पर है। इन 70 लाख में 10 फीसदी लोग मसलन 7 लाख यात्री ही अपर क्लास (एसी) में यात्रा करते हैं। आमतौर पर रेलवे का फोकस इन्हीं पर रहता है, अब सात लाख लोगों पर किराए का भार डालकर क्या रेलवे की माली हालत सुधारी जा सकती है। जबकि इसमें नि:शुल्क और रियायती दरों पर यात्रा करने वाले भी शामिल हैं। इनमें सांसद, विधायक, पूर्व सांसद, रेल कर्मचारी, फौजी, पत्रकार, गंभीर मरीज, पद्म पुरस्कार विजेता, खेल के क्षेत्र में विजेता, राष्ट्रपति पदक समेत तमाम लोग हैं जिन्हें छूट है। सीनियर सिटीजन को भी आधे किराए पर यात्री की छूट है। मुझे लगता है कि अगर रेलवे की माली हालत इतनी खराब है तो किराया बढ़ाने के बजाए पहले ये छूट बंद होनी चाहिए। पर भइया मामला सियासी है कैसे कर सकते हैं।
अगर आप कहें तो दो एक बातें और बता दूं। एक होती है "रेट आफ रिटर्न" । यानि जो ट्रेन चलाई जा रही हैं वो फायदे में हैं या फिर घाटे में हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि घाटे वाली ट्रेन को जबर्दस्ती दौड़ाया जा रहा है। ये देखकर तो मैं वाकई हैरान रह गया। क्योंकि देश में रोजाना 12 हजार पैसेंजर यानि यात्री ट्रेनें फर्राटा भरती हैं, इसमें चार हजार ट्रेन ऐसी हैं, जिनकी ग्रोथ निगेटिव है। मतलब अभी तो वो घाटे मे हैं ही, इन ट्रेनों को चलाने से घाटा साल दर साल बढ़ता जा रहा है। किसी भी आदमी से पूछ लिया जाए कि अगर मुनाफे का रेल रूट नहीं है तो उस पर ट्रेन क्यों चल रही है, बंद होनी चाहिए। लेकिन ये नहीं हो सकता, क्योंकि ये ट्रेनें विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं की वजह से चल रही हैं यानि राजनीतिक मजबूरी के चलते। तब मैं सवाल उठाता हूं कि आखिर रेल महकमें के कुप्रबंधन का दोष यात्रियों पर क्यों लादा जाना चाहिए। मुझे तो लगता है कि एक स्वतंत्र एजेंसी से हर ट्रेन की समीक्षा कराई जानी चाहिए कि ये ट्रेन जनता के हित मे है या नहीं है, अगर हित में है तो टिकट की बिक्री कितनी हो रही है, अगर बिक्री नहीं हो रही है तो ट्रेन को आगे चलाने के बारे में गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।
हर बजट में बड़ी बड़ी घोषणाएं कर दी जाती हैं, लेकिन उन पर अमल नहीं किया जाता। आपको याद दिला दूं कि रेलवे देश के 900 रेलवे स्टेशनों के आधुनिकीकरण और 130 स्टेशन को वर्ल्ड क्लास बनाने का ऐलान काफी पहले कर चुकी है। बाकी स्टेशनों की बात ही अभी छोड़ दी जाए। देश की राजधानी दिल्ली की बात पहले कर लेते हैं। 1989 में नई दिल्ली को वर्ल्ड क्लास बनाने का ऐलान किया गया था। इसके लिए दो बार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर टेंडर भी निकाला गया, लेकिन देश और दुनिया में भारतीय रेल की छवि इतनी खराब है कि कोई भी ये काम करने को तैयार ही नहीं हुआ। आप आसानी से समझ सकते हैं कि जब दिल्ली की ये हालत है तो दूसरे शहरों का तो भगवान ही मालिक है। रेलवे में एक संस्था है आरडीएसओ, इनका काम है नई तकनीकि का रिसर्च और डिजाइन करें, जिससे रेलवे को इसका फायदा मिले। मैं हैरान रह गया ये जानकर कि आज तक 50 साल पुरानी इस संस्था ने अपना कोई रिसर्च और डिजाइन किया ही नहीं। ये दूसरे देशों की तकनीक का नकल कर यहां क्रियान्वित करते हैं। कोई पूछने वाला ही नहीं है कि आखिर इस संस्था की उपयोगिता क्या है? वैसे भी अब तो कोई भी चीज आपको डिजाइन करानी है तो देश दुनिया भर में कहीं से भी डिजाइन हो जाएगी। इतना बड़ा हाथी पालने की जरूरत क्या है ?
आखिर में एक शर्मनाक बात। रेलमंत्री ने जब रायबरेली में पहिया कारखाने का ऐलान किया तो ऐसा लगा कि चम्चागिरी आज किस हद तक नीचे गिर गई है। ये ठीक बात है कि सोनिया गांधी नहीं चाहेंगी तो पवन बंसल भला कैसे रेलमंत्री रह सकते हैं। मुझे हैरानी हुई कि अभी रायबरेली में कोच फैक्टरी ने पूरी क्षमता से काम भी शुरू नहीं किया फिर एक और फैक्टरी उसी इलाके में कैसे दे दी गई ? अच्छा कौन सी फैक्टरी कहां लगे, ये कैसे तय होना चाहिए। पहिये की फैक्टरी लगनी है, इसमें बहुत ज्यादा लोहा इस्तेमाल होगा। अब रायबरेली या उसके आसपास तो लोहा होता नहीं है। जाहिर ये फैक्टरी बिहार या फिर झारखंड में लगनी चाहिए। जिससे ट्रांसपोर्टेसन चार्ज कम होता, ट्रांसपोर्टेशन चार्ज कम होने से निश्चित ही कन्सट्रक्सन कास्ट भी कम होगा। लेकिन पवन बंसल कोई रेलवे को सुधारने तो आए ही नहीं है, वो इस जरिए सोनिया गांधी को खुश करना चाहते हैं। आप अंदाजा नहीं लगा सकते कि पवन बंसल की इस थोड़ी सी चमचागिरी के चलते रेलवे पर कई सौ करोड़ का अतिरिक्त भार बढ़ेगा।
चलते- चलते
करेला और नीम चढ़ा.. ये कहावत तो सुनी ही होगी आपने। रेलमंत्री फिर भी रेलमंत्री है, रेलवे बोर्ड के अफसरों को क्या कहा जाए। मंत्री खुश हो जाता है अपने और अपनी नेता के इलाके में ट्रेन और कारखाना देकर, लेकिन यहां तो अफसर लूट मचाकर मनमानी करते रहते हैं। रेलवे बोर्ड के अफसर यहां आकर "आफ्टर रिटायरमेंट" की चिंता में डूब जाते हैं। उन्हें लगता है कि वो कैसे किसी कमेटी वगैरह में जगह पा जाएं, जिससे रिटायरमेंट के बाद भी उनकी मनमानी यूं ही चलती रहे। बस इसके लिए वो सरकार और मंत्री का जूता उठाने को तैयार बैठे रहते हैं।
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बजट के पहले मीडिया खासतौर पर इलेक्ट्रानिक मीडिया का हुडदंग देखने लायक होता है। मैं तो पांच-सात साल से देख रहा हूं कि बजट सत्र के पहले चैनल के बड़े दम खम भरने वाले जर्नलिस्ट ट्रेन पर सवार हो जाते हैं और वो सीधे बाथरूम को कैमरे पर दिखाते हुए साफ सफाई को लेकर रेल मंत्रालय को कोसते हैं, जो ज्यादा उत्साही पत्रकार होता है वो ट्रेन के खाने की बात करते हुए घटिया खाने की शिकायत करता है और उम्मीद करता है शायद इस बजट में रेलमंत्री का ध्यान इस ओर जाएगा। अच्छा आम बजट के पहले भी इसी तरह की एक घिसी पिटी कवायद शुरू होती है, चैनल की अच्छी दिखने वाली लड़की को किसी बडे आदमी के घर के किचन में भेज दिया जाता है। पांच तोले सोने की जेवरों से लदी उस घर की महिला वित्तमंत्री को समझाने की कोशिश करती है कि घर चलाना कितना मुश्किल हो गया है। सच तो ये है कि जिस घर में महिला पत्रकार जाती है, उस महिला को आटे चावल का सही सही दाम तक पता नहीं होता है। अब देर नहीं विस्तार से जानना है तो हमारे दूसरे ब्लाग " TVस्टेशन " पर जाएं। वहां पहुंचने के लिए नीचे दिए लिंक की मदद ली जा सकती है।
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