Saturday 28 January 2012

नहीं चल रहा युवराज का जादू ...

मैं जानता हूं कि राहुल गांधी को युवराज लिखने पर हमारे मित्रों को आपत्ति हो सकती है, फिर भी मैं लिखूंगा, उसकी एक वजह है। भाई इस लेख को कांग्रेस के लोग भी पढ़ते हैं, वो तो इन्हें इसी नाम से जानते हैं, बहुत रिस्पेक्ट करते हैं, कई बार तो कांग्रेसी  राहुल गांधी का चित्र भर देखकर कुर्सी छोड़ कर खड़े हो जाते हैं। इस युवराज के दरबार में हर कोई मत्था टेकता है, चाहे वो कांग्रेस पार्टी का नेता हो या फिर सरकार का मंत्री। सरकार के सरदार को भी खड़े होकर राहुल की आगवानी करनी पड़ती है।
बहरहाल इस युवराज ने जब यूपी चुनाव में पार्टी की कमान संभाली तो कांग्रेसियों को लगा कि अब तो उनकी सत्ता में वापसी तय है। युवराज ने भी आम आदमी खासतौर पर दलितों के यहां भोजन करके के ये बताने की कोशिश की कि वो भले युवराज हों, लेकिन दलितों के प्रति उनके मन में आदर है और वो उन्हें बराबरी का दर्जा देते हैं। इसलिए वो उनके साथ जमीन पर बैठ कर भोजन करते हैं। मैं कई बार सोचता हूं कि दलितों को ज्यादा खुशी युवराज के साथ दिल्ली में डाईनिगं टेबिल पर बैठ कर खाने से होगी या फिर युवराज को जमीन पर बैठाकर भोजन कराने से। मेरा तो मानना है कि बेचारे दलित तो रोज ही जमीन  पर बैठकर खाना खाते हैं, एक दिन अगर कुर्सी मेज मिल जाए तो क्या कहने। पर ये बात राहुल के समझ में नहीं आएगी, क्योंकि अपने को नीचे झुकाना आसान है, पर सामने वाले  को ऊपर उठाना मुश्किल ही नहीं  राजनीति में तो नामुमकिन है।

खैर छोड़िये बेकार की बातों में भला क्यों उलझा जाए, बात चुनाव की करते हैं और  वो भी बिना लाग लपेट के। यूपी में बाराबंकी से शुरु हुए हमारे चुनावी सफर को आज एक हफ्ता हो गया। इस  दौरान हम बाराबंकी, फैजाबाद, बहराइच, बलरामपुर और कपिलवस्तु यानि सिद्धार्थनगर में चुनावी दंगल का आयोजन कर चुके हैं, और आज पहुंच गए गोरखपुर। सफर के दौरान हमारी बात बहुत सारे नेताओं से तो हो ही रही है, मतदाताओं से भी  हम रुबरू होते हैं। बातचीत में मैं देख रहा हूं कि मतदाता बहुत जागरुक है और बहुत ही सावधानी से सभी बातों का जवाब दे रहा है। अब मतदाताओं को बरगला कर वोट लेना आसान नहीं है। मैं यहां एक ग्राम प्रधान का नाम और गांव नहीं बता सकता, पर उसने बहुत ही सहजता से कहा कि " ये ससुरा नेता लोग चुनाव के बाद गायब हो जाता है, अभी आ रहा है और खूब लालच दे रहा है। का करना है अगर ई सब हमको पइसा दे रहे हैं तो हमको लेने में का हरज है। हमने गांव भर को बता दिया है कि अब तक हमको चार पार्टी के उम्मीदवार माल दे चुके हैं, पूरे गांव से कहा हूं कि आप सब भोट जिसको मन हो उसको दें, चुनाव के बाद हम इस पइसवा से गांव में जोरदार पार्टी करेंगे। "

यानि मतदाता नेता जी का पइसवो सटा दे रहा है और भोटवो देने की बात नहीं कर रहा है। अब युवराज को कौन समझाए कि ये मतदाता जिससे पैसे ले रहे हैं, उसे भी वोट नहीं दे रहे है, सोच समझकर वोट देने की बात कर रहे हैं, तो भला  कांग्रेस को वोट क्यों देंगे। बेचारे दलितों ने युवराज का कुछ खाया नहीं है, उल्टे खिलाया ही है। बेवजह राहुल को गुस्सा आ जाता है, और ये बेचारे राहुल के गुस्से का भी सामना करते हैं। खैर इस पूरे इलाके में पार्टी के तीन बड़े नेता हैं, बेनी प्रसाद वर्मा, जगदंबिका पाल, और पी एल पुनिया हैं। वैसे चुनाव में टिकट के बटवारे में बेनी बाबू ही बाजी मार पाए, उन्होंने अपने बेटे समेत 60 से ज्यादा टिकट अपने चहेतों को दिलवाए, पाल साहब की भी नहीं चली, पर वो अपने बेटे को टिकट दिलवाने में कामयाब हो गए। सबसे बेचारे की हालत रही पूनिया की, उनके किसी भी चहेते को टिकट नहीं मिला। अब हालत ये है कि कांग्रेस उम्मीदवारों को कांग्रेसी ही हराने में लगे हैं। इतना लंबा सफर तय कर चुका हूं, लेकिन सच तो ये है कि मैं दावे के साथ कांग्रेस के किसी एक उम्मीदवार को भी नहीं कह सकता कि वो जीत सकता हैं। यहां तक की बेनी बाबू  और पाल साहब को अपने बेटों को भी चुनाव में जीताने में पसीने बहाने पड़ रहे हैं।
मुझे लगता है कि आज राहुल राजनीति के सलमान खान हैं, जिन्हें लोग देखने आते हैं। वैसे आपको पता होगा कि आज भी पिछड़े गांव में आप कार से चले जाएं तो गांव में भीड़ लग जाती है, कार देखकर बच्चे ताली बजाते हैं, तो महिलाएं दरवाजे के पास खड़ी होकर  देखती हैं कि कार किसके दरवाजे पर रुक रही है और अगर आपने किसी आदमी से रास्ता पूछ लिया तो एक साथ आठ आदमी कार वाले को रास्ता बताते हैं। बच्चे तो कार के आगे आगे दौड़ लगाकर जहां जाना होता है, वहां तक जाते हैं। ऐसे में जब युवराज पैदल चल रहे हों और उनकी एक  नहीं कई गाड़ियां उनके पीछे पीछे चल रही हों तो भला लोग इन्हें नही देखने आएंगे। ऐसी भीड़ में दिल्ली के पत्रकारों को दिखाई देता है कि राहुल क्या से क्या करने जा रहे हैं। सच तो ये है कि जितनी जगह से होकर आया हूं अभी तक कहीं भी कांग्रेस का कोई उम्मीदवार कांटे के संघर्ष में नहीं दिखाई दे रहा है। लेकिन टेलीविजन  में इस चौथे नंबर की पार्टी की चर्चा सबसे पहले होती है और सबसे ज्यादा होती है।

वैसे अभी कुछ कहना जल्दबाजी हो सकती है, लेकिन इस सियासी सफर पर जैसे जैसे हम आगे बढ़ते जा रहे हैं, मैं समाजवादी पार्टी को और पार्टी के मुकाबले बेहतर हालत में पा रहा हूं।  जिस तरह लगातार समाजवादी पार्टी का ग्राफ बढ रहा है, उससे तो लगता है कि पिछले चुनाव में जिस तरह बसपा को अप्रत्याशित समर्थन मिला है, वैसा ही कुछ अगर इस बार समाजवादी पार्टी के साथ हो सकता है। कुछ सीटें अगर कम रह भी गईं तो मुलायम सिंह कांग्रेस और आरएलडी के साथ मिलकर सरकार भी  बनाने  में कामयाब हो सकते हैं। बहरहाल जब तक नौबत यहां तक पहुंचेगी, तबतक को काफी देर हो चुकी होगी। लेकिन एक बात तो है, यूपी कांग्रेस के नेता हैं बहुत चालू, सब राहुल को नेता बता रहे हैं,  ऐसे में अगर पार्टी की हार भी होती है तो सब जिम्मेदारी राहुल पर डालकर किनारे हो जाएंगे।


  

Thursday 26 January 2012

चुनाव में ईमानदारी ... ना बाबा ना

त्तर प्रदेश के चुनावी सफर पर निकला तो कुछ उत्साहित था, मुझे लग रहा था कि ईमानदारी को लेकर अन्ना ने इतनी तो जागरुकता फैला ही दी होगी कि गांव गांव में लोग ईमानदारी की बात करते होंगे और चुनाव में इस बार दागी उम्मीदवारों से दूरी बनाकर ईमानदार और साफ सुथरी छवि वाले उम्मीदवार के साथ खड़े होंगे। सच बताऊं मेरा सोचना गलत था, चुनावों में कुछ भी नहीं बदला है। चोर, उचक्के, बदमाश, भ्रष्टबेईमान सब तो हैं इस चुनावी दंगल में। टीम अन्ना का यूपी  में कितना भी दौरा कर ले, लेकिन मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि यहां वो ईमानदारी को मुद्दा नहीं बना पाएंगे। यहां लोगों की छोटी छोटी जरूरते हैं, उम्मीदवार उनके पास आते हैं तो वो उनसे हैंडपंप और गांव  गली की सड़कों की बात ही कर करते हैं। इसके अलावा  समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव ने  तो वाकई लोगों की नब्ज पकड़ ली है।  हालांकि उन्होंने ये बात कही तो मजाक में ही कि जब शाम की दवा  यानि दारू मंहगी हो जाए तो  समझ लेना चाहिए कि सरकार की उल्टी गिनती शुरू हो गई है। वाकई इस बात का ग्रामीण अंचलों में असर देखा जा रहा है। आप यकीन माने यूपी में चुनाव के दौरान शराब की कीमतों में भारी कटौती की गई है।

बाराबंकी के बाद कल फैजाबाद यानि राम लला की नगरी अयोध्या में था। बाराबंकी में तो हमें पता बाद में पता चला जहां हमारा कार्यक्रम तय था, वहां के आसपास  की जमीन पर बीएसपी के उम्मीदवार संग्राम सिंह ने कब्जा कर लिया है। शापिंग काम्पलेक्स के लिए काम भी शुरू हो गया था, लेकिन कुछ लोग हिम्मत करके कोर्ट चले गए और काम रुक गया। यहां अब पुलिस तैनात है। संग्राम सिंह लगातार कहते रहे कि हां मैं जनता की अदालत में शामिल होऊंगा, पर कार्यक्रम वाले दिन उन्होने बताया कि परिवार में किसी ने खुद को गोली मार ली है और वो अब नहीं आ सकते। मुझे लगा कि हो सकता है कोई हादसा हो गया होगा, लेकिन हैरान तब हुआ मैं जब कल फैजाबाद में कार्यक्रम शुरू होने के 10 मिनट पहले बीएसपी के उम्मीदवार वेद प्रकाश गुप्ता ने कहा कि उनके घर मिट्टी हो गई है। मिट्टी हो जाने का मतलब किसी की मौत हो गई है, लिहाजा वो नहीं आ सकते। मुझे हंसी आईऔर एक कहानी याद आ गई।

साहब हुआ ये मेरे एक मित्र के घर अचानक कुछ मेहमान आ गए, ठंड का दिन है लिहाजा किसी को जमीन पर सुलाना ठीक नहीं था। बेचारे मित्र पड़ोसी के यहां चारपाई मांगने चले गए। एक पड़ोसी के यहां जब उन्होंने चारपाई की मांग की तो पड़ोसी ने बडे ही भोलेपन से कहा " भाई क्या बताएं, मेरे यहां तो सिर्फ दो चारपाई है, एक पर मैं और मेरे पिता जी सोते हैं, दूसरी चारपाई पर मेरी मां और मेरी बीबी सो जाती है। इसलिए मैं चारपाई नहीं दे पाऊगा। मित्र बोले कोई बात नहीं, चारपाई आप दें या ना दें, पर आपको मेरी एक सलाह है कि आप लोग सोया तो ठीक से करें। बीएसपी के नेताओं को भी मेरी यही सलाह है कि आप कार्यक्रम में आएं या ना आएं, पर मौत का बहाना  थोडा  ज्यादा हो जाता है। वैसे भी यूपी में जो माहौल है उससे तो पार्टी की नानी तो मरनी ही है, फिर पहले ही क्यों मरने लगे।

अयोध्या पहुंच कर थोड़ा मन दुखी हुआ, हमारे कार्यक्रम का आयोजन स्थल गुफ्तार घाट था। कहते हैं कि भगवान राम ने यहीं पर जल समाधि ले ली थी। यानि यहीं सरयू के तट पर भगवान का शरीर अंतिम बार लोगों ने देखा था। भगवान राम मर्यादा को मानने वाले थे, और कुछ लोगों ने सारी मर्यादाओं को ताख पर रख कर भगवान का मंदिर बनाने की कोशिश कर रहे थे। हालत ये हो गई  जो उनकी ठीक ठाक  छत थी, वो भी नहीं रही। दूर दराज से आने वाले भक्त रामलला से ज्यादा यहां हुई तोड़फोड़ की चर्चा करते हैं। बहरहाल एक अच्छी बात है कि चुनाव में फिलहाल राम मंदिर का मुद्दा गायब है। कई बार यहां से बीजेपी के उम्मीदवार चुनाव जीतते रहे हैं, लेकिन उन्होंने किया क्या है, इसका जवाब उनके पास नहीं है। लिहाजा यहां से ख़डी  एक किन्नर  उम्मीदवार गुलशन बिंदू के पीछे  पूरा शहर पागल हुआ पड़ा है। राजनीतिक  दलों से ज्यादा भरोसा ना जाने क्यों लोगों को इस किन्नर पर है। बिहार की रहने वाली ये किन्नर लोगों को समझाती है कि वो सीता माता जो बिहार में जन्मी थीं, वो उनके यहां  से भगवान राम के पास यानि माता सीता के ससुराल आई है। चुनाव के नतीजे कुछ भी हों, लेकिन किन्नर ने इस कड़ाके की ठंड में राजनीतिक दलों के पसीने तो छुड़ा ही दिए हैं।

दिल्ली मैं बैठकर अखबार और चैनल पूरी तरह राहुल गांधी पर फोकस किए हुए हैं। यहां लोगों से राहुल के बारे में बात करो तो लोग हंसने लगते हैं। कहते हैं कि राहुल फैक्टर की जब कोई बात करता है तो हम समझ जाते  हैं कि  ये लोग यहां के रहने वाले नहीं है, दिल्ली या फिर किसी और प्रदेश से आए हैं। फैजाबाद के सुदूर इलाके में मैं सीधे साधे ग्रामीणों की ये बात सुनकर हैरान रह गया। बहरहाल दोस्तों आज हम पहुंच चुके हैं बहराइच। तैयारियां चल रही हैं रात के चुनावी दंगल की। आप भी जुड़िए हमारे साथ आईबीएन 7 पर रोजाना रात आठ बजे.. हर रोज नए शहर से।

नोट.. मित्रों मैं लगातार सफर  में हूं, हर रात एक नए शहर में बीतती है, फिर वहां शुरू होता है चुनानी दंगल। यही वजह है कि मैं आप सबके ब्लाग पर आ नहीं पा रहा हूं, लेकिन जब ये कारवां गोरखपुर पहुंचेगा तो हमें एक दिन पूरा वहां आराम करना है। कोशिश होगी कि उस दिन हम आप सबके साथ  कुछ देर जरूर रहूं।

Monday 23 January 2012

चलिए ! मिल कर करें नेताओं का हिसाब ...


उत्तर प्रदेश में चल रहे सत्ता के संघर्ष एक छोटी सी भूमिका निभाने के लिए मैने भी अपना रुख कर दिया है यूपी की ओर। महीने भर से ज्यादा समय तक के लिए रविवार को सुबह छह बजे हम सभी ने दिल्ली छोड़ दिया और कल ही शाम को हम पहुंच वहां जहां अपना दबदबा जमाने के लिए सभी राजनीतिक दल एक दूसरे से आगे निकलने की फिराक में जी जान से लगे हैं यानि प्रदेश की राजधानी लखनऊ।

अपने चैनल यानि आईबीएन 7 के जरिए तो हम आपको कल 23 जनवरी से रोजाना रात आठ बजे किसी ना किसी शहर में चल रहे इस घमासान की हकीकत से तो वाकिफ कराएंगे ही, अगर इस भागमभाग में मैं अपने ब्लाग परिवार के लिए समय निकाल पाया तो कोशिश होगी कि इस चुनाव के भीतर चल रही आबोहवा की जानकारी आपको यहां भी दूं।

हमारे सफर की शुरुआत भले ही लखनऊ से हो रही हो, लेकिन हमारी कोशिश है कि हम हर गांव हर कस्बे और हर जिले तक पहुंचे और लोगों से जाने उनकी राय। मसलन जिन्हें आपने चुना था वो आपकी कसौटी पर खरे उतरे या नहीं, जिन्हें चुनने जा रहे हैं, उनमें आप क्या देख रहे हैं। मुझे देखना चाहता हूं कि पांच साल के शासन में मायावती उत्तर प्रदेश को तरक्की की राह पर कितना आगे बढा पाई हैं, मुझे ये भी देखना है कि मुख्य विपक्षी दल होने के नाते समाजवादी पार्टी यानि मुलायम सिंह यादव जनता के हितों को लेकर कितना गंभीर रहे हैं। वैसे तो प्रदेश में अब बीजेपी के लिए बहुत कुछ नहीं बचा है, फिर मैं देखना चाहता हूं कि उनकी फायर ब्रांड नेता उमा भारती क्या मध्यप्रदेश की तर्ज पर उत्तर प्रदेश में भी पार्टी का झंडा बुलंद कर पाती हैं या नहीं। कांग्रेस की राहुल गांधी दलितों के यहां लगातार रोटी तोड़कर उन्हें लुभाने में किस हद तक कामयाब रहे हैं।

मुझे लग रहा है कि मैं आपको अपने चुनावी सफर की जानकारी दे दूं, जिससे कहीं मौका मिला तो हम आप आमने सामने रुबरू भी हो सकेंगे। हम 23 जनवरी को बाराबंकी, 24 को फैजाबाद (अयोध्या), 25 बहराइच, 26 को बलरामपुर, 27 जनवरी कपिलवस्तु (नेपाल बार्डर), 28 जनवरी गोरखपुर, 30, जनवरी आजमगढ, 31 जनवरी बलिया, 1 फरवरी वाराणसी, 2 फरवरी इलाहाबाद, तीन फरवरी अमेठी, 4 फरवरी जौनपुर, 6 फरवरी रायबरेली, 7 फरवरी प्रतापगढ, 8 फरवरी लखनऊ, 9 फरवरी फतेहपुर, 10 को उन्नाव, 11 फरवरी कानपुर में हैं।

ये कारवां यहीं थमने वाला नहीं है। इसके बाद 13 फरवरी को हम आपसे फर्ऱखाबाद में मिलेगे। इसी तरह 13 को इटावा, 14 आगरा, 16 को मथुरा, 17, नोएडा, 18 फरवरी, मेरठ, 20 को मुजफ्फर नगर, ,21 को बिजनौर, 22 को मुरादाबाद, 23 को रामपुर, 24 को बरेली, 25 को पीलीभीत, 26 को सहारनपुर और 28 को लखीमपुर (गोला) मैं हम आप सबके साथ चौपाल लगाएंगे।

और जरूरी बात तो रह गई, रोजाना आठ बजे आप आईबीएन 7 पर हमारा ये विशेष चुनाव बुलेटिन यानि चौपाल लाइव देख सकेगे। हम आपको निराश भी नहीं करेंगे, क्योंकि इस शो को एंकर करेंगे हमारे स्टार एंकर भाई संदीप चौधरी। तो मित्रों मुझे लगता है कि आज से 28 फरवरी तक आप हमारे साथ रोज रात को आठ बजे टेलीविजन पर जरूर हमारे साथ होंगे। यहां मैं आपसे कुछ मदद भी चाहता हूं, अगर आप इन इलाको के निवासी है तो आप हमें स्थानीय मुद्दे, नेताओं से अपेक्षा, उम्मीदवार से आप क्या पूछना चाहते हैं, ये सभी बातें हमें मेल के जरिए बता सकते हैं और हम वादा करते हैं कि आपका सवाल कितना भी तीखा क्यों ना हों, हम उसे रखेंगे जनता की सबसे बड़ी पंचायत में, जहां आप होगे, नेता होंगे और जहां आप दोनों हैं तो भला हम क्यों नहीं होगे ?
Srivastava.mahendra1965@gmail.com

Thursday 19 January 2012

जरूरी है बेवकूफी की सजा ...


चुनाव निशान हाथी को लेकर जिस तरह की बातें हो रही हैं वो मुझे हैरान करती हैं। मुझे लगता है कि वाकई ये देश चल कैसे रहा है। यहां जो लोग बड़ी बड़ी कुर्सियों की जिम्मेदारी संभालते हैं, अगर वो कोई गलत फैसला करते हैं और उससे देश को नुकसान होता है, तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है, जिम्मेदारी अगर तय भी हो जाए तो नुकसान की भरपाई कैसे होगी ? मैं तो इस मत का हूं कि अगर किसी हुक्मरान के किसी गलत फैसले से सरकारी खर्च बढता है तो वो रकम उस हुक्मरान से ही वसूली जानी चाहिए, क्योंकि देश के जो हालात हैं, हम किसी एक व्यक्ति की गलती का खामियाजा देश को भुगतने के लिए नहीं छोड़ सकते।
भला हो पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषन का जिसने अपनी सख्त कार्यप्रणाली से लोगों को बताया कि देश में एक भारत निर्वाचन आयोग जैसी स्वतंत्र और संवैधानिक संस्था भी है, जो निष्पक्ष चुनाव के लिए कड़े से कडे़ फैसले कर सकती है। ये सब करके दिखाया भी टी एन शेषऩ ने। सच कहूं तो आप किसी से भी बात कर लें और पूछें कि शेषन के पहले भारत निर्वाचन आयोग में मुख्य निर्वाचन आयुक्त कौन था, मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि कोई उनका नाम नहीं बता पाएगा, क्योंकि उसके पहले ये आयोग में तैनात होने वाले अफसर किसी तरह समय काटते थे और सेवानिवृत्त होकर घर बैठ जाते थे। खैर शेषन के बाद 10 साल तो ठीक से चला, लेकिन उसके बाद फिर उसी ढर्रे पर आयोग लौट रहा है। अब निष्पक्ष होकर कड़ा फैसला लेने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाते।
ताजा मामला लेते हैं बीएसपी यानि मायावती की पार्टी के चुनाव निशान हाथी का। मायावती ने सरकारी धन का दुरुपयोग कर पूरे प्रदेश में कई पार्क बनवा दिए। पार्क का नाम दलित नेताओं के नाम पर रखा। मुख्यमंत्री मायावती इस कदर बेलगाम हैं कि उन्होंने अपनी पार्टी के संस्थापक कांशीराम और खुद अपनी मूर्तियां तो पार्क में लगवाई हीं, पार्टी के चुनाव निशान हाथी को भी खूब इस्तेमाल किया। पार्क में एक दो जगह पर हाथी की प्रतिमा रख दी जाती, तो किसी को कोई परहेज नहीं था, लेकिन हजारों मूर्तियां रखे जाने से बवाल होना ही था।
बवाल हुआ और ये मामला निर्वाचन आयोग पहुंच गया। लेकिन इस गल्ती के लिए आयोग को सजा सुनाना चाहिए था बीएसपी सुप्रीमों के खिलाफ, लेकिन आयोग ने सजा सुनाया सरकारी खजाने के खिलाफ। आयोग का फैसला तो मायावती के फैसले से भी ज्यादा खराब है। मुख्य चुनाव  आयुक्त ने कहा कि चुनाव तक सभी मूर्तियों को ढक दिया जाए। बताया जा रहा है कि एक अनुमान के मुताबिक केवल लखनऊ और नोएडा में ही मूर्तियों को ढकने में पांच करोड रुपये से ज्यादा खर्च किए गए हैं। अभी इन मूर्तियों को ढकने में खर्च हुआ और चुनाव बाद इसे हटाने में खर्च किया जाएगा। मैं एक सवाल पूछता हूं ये मूर्तियां अगर आज गलत हैं, तो कल भी गलत होंगी। ऐसे में क्या अब हर चुनाव में मूर्तियों को ढकना और उतारऩा होगा। इस पर जो खर्च आएगा, उसके लिए जिम्मेदार कौन होगा, फिर अगर ऐसा है तब तो इसके लिए सरकार को एक स्थाई फंड बनाना होगा। मुझे नहीं लगता कि इसका कोई जवाब निर्वाचन आयोग के पास होगा। जिस देश में जिंदा हाथियों के रखरखाव का मुकम्मल इंतजाम ना हो, उस देश में पत्थर की मूर्तियों को ढकने और उतारने पर करोडों रुपये पानी की तरह बहाने को क्या जायज ठहराया जा सकता है। मेरा मानना है कि कोई भी इसे सही फैसला नहीं मानेगा।

निर्वाचन आयोग के पास किसी भी राजनीतिक दल का चुनाव चिह्न जब्त करने और उसे बदलने का अधिकार है। मैं जानना चाहता हूं कि आखिर आयोग ने अपने इस अधिकार का इस्तेमाल क्यों नहीं किया। हैरानी तो इस बात पर होती है कि बीएसपी सुप्रीमों मायावती इतने पर भी नहीं मानतीं कि उन्होंने कुछ गलत किया है। उनका तर्क है कि उनके चुनाव निशान में जो हाथी है, उसका सूंड नीचे है जबकि पार्कों में लगे हाथियों का सूंड ऊपर है। इसलिए ये कहना कि चुनाव निशान का दुरुपयोग किया गया है, वो गलत है। अब मुझे लगता है कि आयोग को मुझे समझाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए, अगर मायावती मानती हैं कि उनके चुनाव निशान और पार्क के हाथियों में अंतर है, वो एक जैसे नहीं है, तो आयोग को उनकी बात मानते हुए सूबे के निर्दलीय उम्मीदवारों को सूड ऊपर किए हाथी चुनाव निशान आवंटित कर दिया जाना चाहिए, फिर मैं देखता हूं कि मायावती को आपत्ति होती या नहीं। लेकिन आयोग ने जो फैसला सुनाया, उससे तो सरकारी खजाने पर ही बोझ बढ़ा है।
भारत निर्वाचन आयोग के फैसले को मैं तो सही नहीं ठहरा सकता, बल्कि मुझे लगता है कि इस मामले को न्यायालय में चुनौती दी जानी चाहिए कि आयोग का फैसला गलत है, क्योंकि ये सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ाने वाला है। इतना ही नहीं इस गलत फैसले जो नुकसान  हुआ है, उसकी भरपाई भी मुख्य चुनाव आयुक्त से ही की जानी चाहिए। कड़ाके की इस ठंड में इंसान के शरीर पर एक कपडा नहीं है, किसी तरह वो आग के पास बैठ कर रात गुजार रहे हैं और पत्थर की इन मूर्तियों को मंहगे कपडों से ढका गया है। आखिर इस बेवकूफी की सजा तो मिलनी ही चाहिए ना।  



 

Sunday 15 January 2012

रात भर जागता है इंदौर ...

प सोच रहे होंगे अरे भाई रात भर जागने का क्या मतलब है, क्या लोग इतना काम करते हैं कि रतजगा करना पड़ता है, तो मैं आपको बता दूं ये काम के चलते नहीं जागते। इंदौरी सच में बहुत चटोरे यानि खाने पीने के शौकीन हैं। यहां लोग डिनर के बाद जितना कुछ मीठा और चटपटा खाते हैं, हम पूरे दिन उतना नहीं खा सकते। मैं बात कर रहा हूं इंदौर के सर्राफा बाजार की, जहां शाम होते ही सोने चांदी की दुकानें बंद हो जाती हैं और ये पूरा बाजार सज जाता है खाने पीने के व्यंजनों से। खैर कुछ चीजें शहर के मिजाज पर भी निर्भर होती हैं। यात्रा के इसी क्रम में मेरा एक प्रवास इंदौर में भी रहा है। पिछले हफ्ते की ही बात है मुझे उज्जैन जाकर बाबा महाकालेश्वर का दर्शन करना था। इसके लिए मैं इंदौर पहुंचा अपने इंजीनियर मित्र श्री एस एस वर्मा जी के घर। उनकी पत्नी कविता वर्मा जी वैसे तो मैथ की टीचर हैं, पर उनकी ब्लाग लिखने में बहुत ज्यादा रुचि है। काफी समय से वो इस ब्लाग परिवार से जुडी हुई हैं।

वर्मा जी के यहां मैं दोपहर में पहुंचा और घंटे भर बाद ही हम बाबा के दर्शन को उज्जैन के लिए रवाना हो गए। डेढ घंटे के सफर के बाद हम बाबा के मंदिर में थे और खूब अच्छी तरह से दर्शन के बाद हम वापस इंदौर आ गए। एक छोटे से वाकये का अगर यहां जिक्र ना करुं तो ऐसा लगेगा कि बात अधूरी रह गई। बिल्कुल शहर में आकर हम घर का रास्ता भूल गए। लोगों से पूछते पाछते आगे बढ रहे थे। काफी पूछताछ कर चुके लेकिन घर तक पहुंच नहीं पा रहे थे, हमने सोचा रास्ता आटो वाले से पूछते हैं, वो ठीक से बता देगा। बस फिर क्या एक आटो वाले से रास्ता पूछ लिया, बेचारा बहुत ही आत्मीयता से आटो से उतर कर हमारी गाडी के पास आया और रास्ता समझाने लगा। लेकिन जब तक वो दूर था तो रास्ता बता रहा था, पास आकर जब उसने मुझे देखा तो एक आफर दिया, बोला आप 50 रुपये दो हम आटो से आगे आगे चलते हैं आप मेरे पीछे आ जाओ। मेरी बोलती बंद हो गई। खैर मैने तुरंत अपनी शकल शीशे में देखी, क्या सच में मैं देखने में बेवकूफ लगता हूं ? इस आटो वाले ने आखिर ऐसा क्यों कहा। बहरहाल हम उसके बताए रास्ते पर कुछ ही दूर आगे बढे कि एक ऊंची बिल्डिंग से हमें रास्ते की पहचान हो गई। लेकिम मैं आज भी उस आटो वाले को भुला नहीं पाया हूं।

 वैसे तो मैं अपने परिवार से 700 सौ किलोमीटर से ज्यादा दूर था, लेकिन यहां सब लोगों के साथ वाकई नहीं लगा कि मैं अपने घर में नहीं हूं। दरअसल वर्मा जी के परिवार और हमारे परिवार में एक बडी समानता है। वर्मा जी की दो बेटियां हैं और मेरी भी। अंतर महज इतना है कि मेरी बडी बेटी की 11 वीं की स्टूडैंट है और वर्मा जी की छोटी बेटी इसी क्लास में पढ रही है। हां और एक दोनों में अंतर भी है। मैं नानवेज का शौकीन लेकिन पूरा वर्मा परिवार संत है, हालाकि हमारे यहां मैडम भी शाकाहारी ही हैं। बात खाने की शुरू ही हो गई है तो इंदौर के सर्राफा बाजार का एक चक्कर लगा ही आते हैं। सच कहूं तो इंदौर की कोई शाम सर्राफा बाजार के बगैर पूरी हो ही नहीं सकती। शाम सात बजे से इस बाजार में रौनक शुरू होती है और देर रात दो बजे कई बार तो तड़के तीन बजे तक यहां ऐसी चहल पहल रहती है, जैसे शाम के छह बज रहे हों। दरअसल इंदौर में मुझे एक रात ही रुकना था और हम इस दिन को पूरी तरह यादगार बना देना चाहते थे। उज्जैन से वापस लौटने के बाद थोड़ी थकान थी, क्योंकि पूरी रात ट्रेन का सफर करके यहां पहुंचे थे और उसके तुरंत बाद उज्जैन से आए थे। लिहाजा हम सब डिनर के लिए चले गए इंदौर के नामचीन क्लब साया जी। अच्छा क्लब है, शाम को एक हजार के करीब लोग यहां मौजूद रहते हैं। ट्रिपल डी यानि ड्रिंक्स, डिनर डांस सबकुछ यहां सलीके से चलता रहता है। साया जी में डिनर करते हुए ही 11 बज चुके थे, इस समय आमतौर पर लोग सोने की तैयारी या यूं कहे कि सो चुके होते हैं। पर इंदौर का क्या कहना। यहां से हमारी सवारी निकल पड़ी मशहूर सर्ऱाफा बाजार के लिए।

इतनी रात में सर्राफा बाजार की चकाचौंध वाकई मेरे लिए चौकाने वाली थी। लग ही नहीं रहा था कि इस वक्त रात के एक बजने वाले हैं। पकवानों के नाम गिना दूं तो आपके मुंह में भी पानी आ जाएगा। रबडी, गुलाब जामुन, मालपुआ, कलाकंद, गाजर का हलवा, श्रीखंड,कुल्फी, पानी पूरी, पाव भाजी, चाट, चाईनीज, साबूदाने की खिचड़ी, आलू टिक्की, मसाला डोसा, पिज्जा, खमड, मूंगदाल, बर्फ का गोला, सैंडविच, फाफडा, गराडू ये सब तो उन चीजों के नाम मैने गिनाएं जिन्हें मैं जानता था। सैकडों ऐसे पकवान जो मेरे लिए नए थे। वर्मा जी और कविता मैडम का लगातार आग्रह कि मैं यहां भी कुछ व्यंजनों का स्वाद लूं, पर सच बताऊं पेट ने बिल्कुल हाथ खड़े कर दिए। हालाकि ये बात तो मैने पहले ही बता दिया था कि अब मेरे लिए तो कुछ भी खाना संभव नहीं है, लेकिन कविता जी को लग रहा था कि शायद बाजार घूमें तो खाने का लालच आ जाए, और मैं कुछ चीजें खाने को तैयार हो जाऊं, पर सच में मुश्किल था अब मेरे लिए।

ओह.. एक बडी गल्ती हो गई हम सीधे डिनर पर आ गए, लंच की बात ही छोड़ दी मैने। लंच के दौरान इंदौरी सेव की सब्जी की बात ना हो तो खाने की बात पूरी हो ही नहीं सकती। मैं दो साल पहले रतलाम से एक शूट पूरा करने के बाद दिल्ली वापस आ रहा था तो मुझे इंदौर से फ्लाइट लेनी थी। उस समय इंदौर पहुंचने पर हमने किसी होटल में लंच किया तो वहां हमने पहली  बार  सेव की सब्जी खाई। मुझे ही नहीं पूरी मेरी टीम को ये सब्जी बहुत अच्छी लगी। ये स्वाद मुंह में लगा हुआ था, इसलिए मैने इंदौर में कविता जी से इस सब्जी के बारे में बात की। उन्होंने मुझे बताया नहीं कि मैं लंच में ये सब्जी भी बना रही हूं, पर खाने की टेबिल पर इस सब्जी की वजह से मेरा भोजन ज्यादा हो गया। इतना ही नहीं आप हैरान होंगे कि मैं 12 घंटे से ज्यादा का सफर करके अगले दिन जब दिल्ली वापस आया तो हमने अपने घर भी सेव की सब्जी खुद ही बनाई और सबने इसका स्वाद लिया।

बात खाने पीने की चल रही है तो ये बात पूरी ही कर ली जाए। बीजेपी नेता सुमित्रा महाजन दिल्ली में हर साल पत्रकारों को लंच पर बुलाती हैं और यहां लंच में दाल बाफले होता है, जिसे बनाने के लिए खासतौर पर इंदौर से कारीगर आते हैं। मैने दाल बाफले का नाम भी पहली दफा यहीं सुना। इंदौर पहुंचा तो मुझे दाल बाफले की बात याद आ गई। मैने बातचीत के दौरान इसकी चर्चा कविता जी से कर दी। मेरा चर्चा करना की अगली सुबह दाल बाफले की पार्टी हो गई। भाई क्या कहूं दाल बाफले के बारे में..। मैनें तो सच में बहुत स्वाद लेकर खाया। आज हफ्ते भर बाद जब इसकी बात कर रहा हूं तो लग रहा है कि दाल बाफले की प्लेट सजी है और मैं बेटी क्रुति और कविता जी के साथ भोजन कर रहा हूं। हालाकि मुझे जो लोग थोडा़ भी जानते हैं तो उन्हें पता है कि मैं नानवेज का बहुत ज्यादा शौकीन हूं, कहीं भी रहूं रात में नानवेज खाना ही है. इसे आप मेरी कमजोरी या फिर बीमारी कहें तो भी मुझे ऐतराज नहीं है। लेकिन दो दिन मैने नानवेज बिल्कुल नहीं छूआ, और सच कहूं मुझे नानवेज की याद भी नहीं आई। अगर नानवेज की कमी खली होती तो मैं इंदौर से दिल्ली आने पर पहले नानवेज बनाता इंदौरी सेव की सब्जी थोड़े बनाता।

हां दो लाइन मे अपनी बात भी कर लूं, आमतौर पर मीडिया को लेकर लोगों में तरह तरह की चर्चा होती है, मुझे लगता है कि नकारात्मक बातें ज्यादा ही होती है। लेकिन जर्नलिस्ट किस तरह अपनी जान को जोखिम में डालकर किसी मामले की रिपोर्ट करते हैं, ये सिर्फ कविता जी के लिए नहीं बल्कि बच्चों के लिए भी नई जानकारी थी। मैंने 1989-90 का वो वाकया उनके साथ शेयर किया, जब मैं एक  अखबार में काम करने के दौरान बोड़ो आंदोलन के मुखिया उपेन ब्रह्मा से बात चीत करने कोकराझाड़ के जंगलो में तीन दिन रहा। अरुणांचल के पूर्व मुख्यमंत्री दोरांजी खांडू तवांग से वापस लौटते हुए जिस हेलीकाप्टर दुर्घटना में मारे गए, मैं भी उसी हेलीकाप्टर में एक केंद्रीय मंत्री के साथ गुवाहाटी से तवांग जाते समय तूफान में फंस गया था। मौत के मुंह में 18 सदस्यीय टीम को जाते देख रहा था, उस वक्त मैने खुद महसूस किया कि हम सब अपनी जान से कितना प्यार करते हैं। कोई ऐसा नहीं था जो हंसी खुशी मरने के लिए तैयार हो। खैर एक प्रशंगवश मैंने इस बात का जिक्र कर दिया।
  
एक बात का जिक्र मैं करना चाहता हूं, हालाकि मुझे पता है कि कविता जी को मेरी ये बात ठीक नहीं लगेगी। हो सकता है कि इसके बाद वो दो चार दिन मुझसे नाराज भी रहें, लेकिन जिक्र करना जरूरी है। कविता जी को कार ड्राइव करने का बहुत शौक है, मुझे भी उनके साथ कार में सवारी करने का मौका मिला, बहरहाल हुआ तो कुछ नहीं, लेकिन जब तक कविता जी कार चला रहीं थी, मैं तो शर्ट की जेव में रखे साईंबाबा की तस्वीर को ही याद करता रहा। रेड सिंगनल क्रास करना, वनवे को नजर अंदाज करना, कार को दूसरे गियर से उठाना तो कविता जी के लिए सामान्य बात है। हां भगवान की ही कृपा थी कि कार एक ठेला गाडी में ठुकते ठुकते बच गई। बहरहाल उनके साथ कार का सफर सच में यादगार है, जो आसानी से नहीं भूलाया जा सकता। मजेदार बात तो तब हुई जब हम सब डिनर पर साया जी क्लब ले गए। यहां भी बात शुरू हो गई कार ड्राईविंग की। कविता जी ने पहले बच्चों से फिर वर्मा जी से ये कहलवा लिया कि हां वो बहुत बढिया ड्राइव करती हैं। मुझसे पूछा गया कि मेरी राय क्या है। मैने कहा कि हां ड्राइव कर लेती हैं, पर बढिया करती हैं, मैं इससे इत्तेफाक नहीं रखता हूं। मैने देखा कि कविता जी को मेरी बात अच्छी नहीं लगी, सोचा डिनर का स्वाद फीका हो जाएगा, इसलिए मैने भी हा में हां मिलाया और कहा कि नहीं नहीं आप बहुत अच्छा ड्राइव करती हैं, मैं तो मजाक कर रहा था। 

खैर खाने पीने की बात तो अलग है, लेकिन मैं बार बार एक बात दुहराना चाहता हूं कि इस ब्लाग परिवार को हम ब्लाग परिवार कह कर इसको कम करके आंकते हैं। यहां सच में सभी लोग बहुत व्यस्त हैं। यहां मकान दूसरी और तीसरी  मंजिल को बनाने का काम भी चल रहा है। इसके चलते लगातार मार्केट आना जाना भी लगा रहता है। पर सच कहूं दो दिन कैसे सबके साथ बीत गया, बिल्कुल पता नहीं चला। यहां अपनापन, स्नेह, प्यार, सम्मान सब कुछ तो है। ये सम्मान ही मुझे  प्रेरित करता है कि जहां कहीं भी जाऊं, ब्लागर साथियों से जरूर मुलाकात करूं। 23 जनवरी 29 फरवरी तक उत्तर प्रदेश के 50 से ज्यादा जिलों में चुनाव परिचर्चा करना है। देखिए लौट कर बताऊंगा कि कितने लोगों का साथ मिला।  

अब देखिए कुछ तस्वीरें....




 मालपूआ

















पाव भाजी















स्वादिष्ट मिठाइयां


















आलू की टिक्की














      गराडू














छेने का रसगुल्ला और रस मलाई














        गरम गरम समोसे















इंदौरी पोहा













 वाह- गरम गरम जलेबी













दही बडे का मसाला










वैसे जी तस्वीरें तो मैं एक से बढ़कर एक दिखाता रहूंगा, इससे  तो बस आपकी और हमारी लालच ही बढेगी। मैं एक बार इंदौर का दौरा सिर्फ इसलिए करना चाहता हूं कि सर्ऱाफा बाजार का खूब आनंद ले सकूं। फिर मिलते हैं किसी नए सफर पर....

Thursday 12 January 2012

बात खत्म नहीं हुई, फ्लाइट का समय हो गया ...

जी हां, यही सच है कि मेरी बातें खत्म नहीं हुई और फ्लाइट का समय हो गया। मुझे बेमन से अपनी बातचीत को बीच में रोक कर रश्मि प्रभा जी से बिदाई लेनी पड़ी। हां चलते चलते उन्होंने मेरे इस आग्रह को जरूर स्वीकार किया कि फरवरी में दिल्ली में होने वाले बुक फेयर में हिस्सा लेने आने पर वो घर जरूर आएंगी। दरअसल दो दिन पहले मुझे कुछ जरूरी काम से पुणे जाना पड़ा। मैने पहले ही तय कर लिया था कि पुणे जाऊंगा तो इस बार रश्मि जी से जरूर मुलाकात करुंगा। मैने दिल्ली से ही उन्हें बता दिया था कि मैं दो दिन के लिए पुणे आ रहा हूं, पहले दिन तो मैं थोड़ा व्यस्त हूं, लेकिन दूसरे दिन मेरे पास इतना वक्त जरूर होगा कि मैं आपसे मिल सकूं।
पुणे पहुंच कर पहले दिन मैने अपना काम निपटाया, जो कुछ बाकी रह गया, उसे अगले दिन पूरा करने के बाद मैं आ गया रश्मि जी के घर पुणे के विमान नगर। रश्मि जी के घर आने का जो समय मैने बताया था, मैं उससे दो घंटे पहले ही पहुंच गया। बताऊं यहां मुझे एक मिनट भी ऐसा नहीं लगा जैसे मैं इस घर में पहली बार आया हूं और नए लोगों के बीच में हूं। बाकी बातें तो मैं करुंगा लेकिन एक बात मैं आप सबसे बहुत ही ईमानदारी से कहना चाहता हूं कि इस ब्लाग परिवार में बहुत ही अपनापन, स्नेह और एक दूसरे के प्रति आदर है। आपको मालूम है कि पिछले दिनों मेरी मुलाकात बहुत ही पुराने ब्लागर आद.डा.रूपचंद्र शास्त्री जी से हुई थी। दरअसल ब्लाग परिवार में शामिल होने के बाद शास्त्री जी ही वो पहले शख्स थे, जिनसे मेरी आमने सामने मुलाकात हुई। उनसे मिलने के बाद मैने तय कर लिया कि मैं जहां कहीं भी जाऊंगा, अगर वहां कोई ब्लागर होगा तो मैं निश्चित ही उनसे मिलूंगा। अभी हफ्ते भर पहले की बात है, मैं इंदौर में था, वहां मेरी मुलाकात हुई ब्लागर श्रीमति कविता वर्मा जी से। मैं बहुत दिनों से उज्जैन में महाकालेश्वर मंदिर में मत्था टेकना चाहता था, मेरी ये इच्छा भी कविता जी ने पूरी करा दी। सच कहूं तो हम इस परिवार को "ब्लाग परिवार" कह कर इसकी गरिमा को कम करते हैं, इस परिवार के लिए कोई और उपयुक्त शब्द की हम सब को तलाश करनी होगी।
रश्मि जी के घर मैंने लगभग पांच घंटे बिताए। घर परिवार के हालचाल से शुरू हुआ बातों का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा था। मैने अभी तक रश्मि जी की रचनाओं को पढा था, आज वो खुद सामने थीं, उन्हें पढ़ रहा था। मैं पूरे भरोसे के साथ कह सकता हूं कि उनकी रचनाओं में जितनी संवेदनशीलता दिखाई देती है, वो यूं ही नहीं झलकती है। इसकी वजह है, और वो ये कि खुद रश्मि कहीं ज्यादा संवेदनशील हैं। उनकी रचनाएं दिमाग से नहीं दिल से लिखी होती हैं। और जब कोई दिल से लिखता है तो जाहिर है कि वो रचनाकार अपनी रचनाओं के जरिए लोगों के दिलों में जगह बना लेता है, फिर लोगों के दिलों पर राज करता है। रश्मि जी ऐसी ही शख्सियत हैं। वो लेखकों में बडे छोटे का भेद नहीं करती हैं, दूसरे ब्लागरों की चर्चा करते हुए भी उनके प्रति पूरे सम्मान से बातें करती है। हां हो सकता है कि आपको उनकी ये बात अच्छी ना लगे, लेकिन सच यही है कि वो झूठी प्रशंसा नहीं कर पाती हैं। हालांकि उन्हें इस बात की तकलीफ भी है, बताती हैं कि कई बार मैं जब लोगों के ब्लाग पढती हूं तो सोचती हूं कि कमेंट कर दूं, लेकिन यहां दिल पर दिमाग भारी पड़ जाता है और कहता है कि ये ठीक नहीं है।
बातचीत में उन्होंने कई ब्लागर के नाम गिनाएं जिन्हें वो बहुत पसंद करती हैं। जिनकी रचनाएं उन्हें पसंद है, वो उनकी तारीफ करने में बिल्कुल कंजूसी नहीं करती हैं। देखिए मैं भी इसी समाज से जुडा आदमी हूं। दूसरों की तारीफ सुन सुन कर मैं थक गया, इतनी देर से रश्मि जी मेरी किसी रचना की तारीफ ही नहीं कर रहीं थीं। अरे भाई दूसरों की तारीफ के बीच मेरी भी होती तो चल जाता। मेरी तारीफ कैसे हो, मैं सोचने लगा। खैर ये सही बात है कि मैं दिल्ली का रहने वाला नहीं हूं, पर काफी समय से यहां रह रहूं तो थोडा असर तो है ना दिल्ली का। मतलब "देखो मौका लगाओ चौका"। चाय आ चुकी थी, इसकी चुस्कियों के बीच मैने कहा दीदी आपने मेरी कविताएं लगता है नहीं पढीं। बस इस सवाल का जवाब वो नहीं में दे गईं। हाहाहाहा फिर क्या था उनकी इतनी सी गल्ती काफी थी कि मैं अपनी दो एक रचनाएं उन्हें फटाफट सुना दूं, मैने ये इंतजार किए बिना की वो कुछ सुनना चाहती हैं या नहीं, तड़ से दो कविताएं उगल दी। अब उस समय तो उन्होंने "बहुत सुंदर" ही कहा था, सच में अच्छी लगी या नहीं उसको मापने का मेरे पास कोई पैमाना नहीं था, तो हमने भी मान लिया है कि उन्हें अच्छी लगी।
कुछ ब्लाग पर "बीररस"  के स्वभाव वाले लेख होते हैं। भाषा की मर्यादा को ध्यान में रखकर जब कोई बात की जाती है वो रचनाएं और लेख उन्हें पसंद हैं, पर तीखी भाषा और व्यक्ति को लक्ष्य कर लिखी गई बातें उन्हें बिल्कुल नागवार लगती है। ऐसे ब्लाग से भले दूरी बना लें, पर उनके मन में ब्लागर के प्रति कोई दुराव नहीं आता है, उनको लगता है कि कभी ना कभी तो ब्लागर सही रास्ते पर आ ही जाएगा। हां जी एक बात तो मैं भूलता ही जा रहा था कि ब्लागरों में खेमेंबंदी और कटुता के माहौल से वो मन ही मन बहुत दुखी हैं। कई बार जब किसी बात पर ब्लागर आमने सामने हो जाते हैं और ब्लाग पर ही वाद विवाद शुरू हो जाता है तो ये बात भी उनके लिए पीडा देने वाली होती है।
और हां अगर मैं लंच का जिक्र ना करुं तो बात पूरी ही नहीं हो पाएगी। मैं नानवेज का बहुत शौकीन हूं। मेरा देश में आना जाना लगा रहता है और बहुत सारी जगहों पर नानवेज का स्वाद ले चुका हूं, लेकिन रश्मि जी की रेशेपी लाजवाब थी। चिकेन का जो स्वाद मैने यहां लिया, उसकी तारीफ के लिए मेरे पास शब्दों का अभाव है। मैं तो रश्मि जी से ही आग्रह करुंगा कि वो अपने चिकेन की इस रेशेपी को खाने के किसी ब्लाग के साथ जरूर शेयर करें। खैर बातचीत का सिलसिला चल ही रहा था कि अचानक मेरे मोबाइल पर मैसेज आया। मैने देखा ये मैसेज घर से मैडम का था, जो जानना चाह रहीं थी कि एयरपोर्ट पहुंच गए या नहीं। घड़ी देखा तो शाम के पांच बज चुके थे और 6.40 पर मेरी फ्लाइट थी। बस इसी एसएमएस के साथ बात चीत को विराम देना पडा़, वो भी इस वायदे के साथ दिल्ली बुक फेयर में आने के दौरान घर जरूर आएंगी। पांच घंटे से ज्यादा समय तक मैं यहां रहा, पर सही बताऊं बातें खत्म नहीं हुई, खैर ठीक भी है, ऐसे में अगली मुलाकात का इंतजार भी तो रहेगा ना।

चलते-चलते
जी आखिर में ये बताना भी जरूरी है कि मैं उत्तर प्रदेश के चुनाव में 20 जनवरी से 29 फरवरी तक लगभग 40 जिलों में सफर कर रहा हूं। मेरी यात्रा की शुरुआत तो उत्तराखंड में देहरादून से होगी, पर 23 जनवरी से यूपी में हूं। मित्रों मैं कोशिश करुंगा कि जहां कहीं भी मेरे ब्लागर मित्र हों उनके साथ एक चाय जरूर हो जाए। इसमें आपका भी सहयोग होना चाहिए।  



Friday 6 January 2012

स्वाभिमान से समझौता नहीं करना जनरल ....


प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सरकार के मुंह पर इतनी कालिख पोत कर जाएंगे कि आने वाले दो तीन प्रधानमंत्रियों को कुछ नया करने के बजाए मनमोहन सिह की कारनामों को दुरुस्त करने में ज्यादा समय देना होगा। मंत्रिमंडल में भरे चोरों की जमात से तो सरकार मुश्किल में थी ही अब रक्षा मंत्रालय अपनी ही सेना से दो दो हाथ करने में लगा है। ऐसे हालत आमतौर पर कमजोर नेतृत्व के कारण पैदा होते हैं। अब देखिए काफी दिनों से देख रहा हूं कि देश में कुछ ऐसे मुद्दों पर बहस छिड़ी हुई है, जिससे अहम मुद्दे से लोगों का ध्यान हटाया जा सके। इस समय देश भर में बात चल रही है भ्रष्टाचार की, लोग देखना चाहते हैं कि इससे लडने की सरकार की मंशा साफ है, या नहीं।  लेकिन सरकार एक साजिश के तहत सेनाध्यक्ष के जन्मतिथि विवाद को तूल देकर लोगों का ध्यान बांटने की कोशिश कर रही है। मुझे सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह के बारे में जितनी जानकारी है, उससे मैं ये बाद दावे के साथ कह सकता हूं कि वो एक ईमानदार और सख्त छवि वाले अफसर हैं, जिन्हें हथियारों की खरीददारी में दलाली करने वाले और कुछ सेना के ही अधिकारी बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं और चाहते हैं कि जनरल  को कितनी जल्दी सेवानिवृत्ति कर दिया जाए।

आप समझ सकते हैं पड़ोसी देशों से हमारे रिश्ते लगातार खराब हो रहे हैं, इसमें सेना की भूमिका को कोई नजरअंदाज नहीं कर सकता। हमारी सेना की ताकत पाकिस्तान के मुकाबले कई गुनी ज्यादा है, ये जानते हुए भी पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है। इससे सीमा पर तनाव बना ही रहता है। साल दो साल से चीन की नजर भी टेढी है। हालत ये है कि चीनी सीमा से लगे भारतीय इलाकों में हम विकास का काम भी नहीं कर पा रहे हैं, चाहे अरुणाचल, उत्तराखंड से लगी सीमा हो या फिर गंगटोक से। चीनी सेना हमें सड़क और पुल बनाने से भी रोक देती है। नत्थी बीजा का मामला अभी तक नहीं सुलटा है। ये बातें मैं महज आपको इसलिए बता रहा हूं कि आज देश की सीमाएं भले ही सुरक्षित हों, पर यहां तनाव तो बना ही हुआ है। ऐसे में सेना से जुडे़ अहम मसलों पर जिस तरह संजीदा होकर फैसले लेने चाहिए, वो नहीं लिए जा रहे हैं।

बताइये सेना प्रमुख जनरल वी के सिंह की जन्मतिथि को लेकर विवाद खडा किया जा रहा है। हालाकि ये ऐसा मसला नहीं है जिस पर सभी लोगों को राय रखना जरूरी हो। लेकिन चाहता हूं कि देश की जनता को भी सच्चाई की जानकारी हो। मित्रों दरअसल सेना का मसला ऐसा गुप्त रखा जाता है कि आसानी से यहां चल रहे गोरखधंधे को जनता के सामने लाना आसान नहीं होता है। मैं एक बात दावे के साथ कह सकता हूं कि जितना भ्रष्टाचार सेना में है, शायद और कहीं नहीं होगा। दूसरे मंत्रालय साल भर में जितना घोटाला करते होंगे, सेना के एक सौदे में उससे बड़ी रकम की हेराफेरी हो जाती है। बहरहाल इन खराब हालातों के बावजूद जनरल वी के सिंह की छवि एक सख्त और ईमानदार जनरल की है। सेना प्रमुख होने की पहली शर्त ही ये है कि आपकी पहले की सेवा पूरी तरह बेदाग होनी चाहिए। इस पर खरा उतरने के बाद ही जनरल को सेनाप्रमुख बनाया जाता है।
अब आप देखें कि सेना में आखिर हो क्या रहा है। ईमानदार जनरल के चलते आर्म्स लाबी ( हथियारों के सौदागर) नाराज हैं। वो चाहते हैं कि सेना के लिए हथियारों की खरीददारी पहले की तरह होती रहे। यानि सेना के अफसरों, नेताओं, कांट्रेक्टर्स सबकी चांदी कटती रहे। लेकिन जनरल बीके सिंह के सेना प्रमुख रहते ये सब संभव नहीं है। इसलिए एक साजिश के तहत सभी रक्षा सौदों में जानबूझ कर देरी की जा रही है। इतना ही नहीं ये लांबी इतनी ताकतवर है कि इसने अब सेना प्रमुख को रास्ते से हटाने का रास्ता साफ कर दिया। जनरल के जन्मतिथि विवाद को लेकर उन्हें अब साल भर पहले ही रिटायर करने की तैयारी हो गई है और सरकार ने भी इस पर अपनी मुहर लगा दी। ऐसे में अहम सवाल ये क्या इस गोरखधंधे में सरकार के भी कुछ नुमाइंदे शामिल हैं। ये सब मैं आप पर छोड़ता हूं, लेकिन पूरी तस्वीर आपके सामने मैं हुबहू रखने की कोशिश करता हूं।

मित्रों सेना प्रमुख के हाईस्कूल के प्रमाण पत्र में उनकी जन्मतिथि 10 मई 1951 दर्ज है। इस हिसाब से उन्हें जून 2013 में रिटायर होना चाहिए, लेकिन यूपीएसई में कमीशन के दौरान सेना मुख्यालय में जो रिकार्ड है, उसमें उनकी जन्मतिथि 10 मई 1950 लिखी है। इस हिसाब से उन्हें इसी साल जून में रिटायर होना होगा। देश में यही परंपरा रही है कि अगर कोई अभ्यर्थी हाईस्कूल पास है तो उस सर्टिफिकेट में जो जन्मतिथि दर्ज है, वही मान्य होगी। अगर कोई हाईस्कूल नहीं है तो जन्म के दौरान नगर पालिका के स्वास्थ्य विभाग या फिर ग्राम पंचायत में दर्ज जन्म की तारीख को मान्यता दी जाएगी। लेकिन सेनाप्रमुख के मामले में ऐसा नहीं किया गया, उनके हाईस्कूल के सर्टिफिकेट में दर्ज जन्मतिथि को खारिज करते हुए सेना के रिकार्ड में दर्ज जन्मतिथि को स्वीकार कर लिया गया। हालांकि जनरल वी के सिंह अगर इस मामले में कोर्ट का सहारा लें तो उन्हें निश्चित रूप से राहत मिल जाएगी, लेकिन वो सेना प्रमुख जैसे पद को विवाद में लाने के खिलाफ हैं।

लेकिन दिल्ली में एक लाबी सक्रिय है, जिसे हथियारों के दलालों का समर्थन है। इनकी रक्षा मंत्रालय में भी अच्छी पैठ है। देश मे बहुत सारे रक्षा सौदे पाइप लाइन में हैं। कहा जा रहा है कि हथियारों के दलालों को डर है कि अगर जनवर को जल्दी विदा नहीं किया गया तो उन्हें बहुत मुश्किल होगी। क्योंकि इन सौदों को धीरे धीरे दो ढाई साल से टाला जा रहा है, लेकिन इसे अब और ज्यादा टाला नहीं जा सकता। ऐसे में सेना के कुछ अधिकारी और और मंत्रालय के कुछ अफसर आपस मे साठ गाठ कर जनरल की विदाई का रास्ता तैयार करने की साजिश में लगे हैं। हालाकि मुझे पक्का भरोसा है कि सेना में ऐसा नहीं होता होगा, लेकिन खबरें तो यहां तक आती रहती हैं कि सेना में " पंजाबी वर्सेज अदर्स " के बीच छत्तीस का आंकडा है और जो जहां भारी पड़ता है वो एक दूसरे पटखनी देने से नहीं चूकता। साल भर पहले जनरल वी के सिंह ने सियाचिन, लेह और लद्दाख का दौरा करने के दौरान पाया कि यहां सीमा पर तैनात जवानों को घटिया किस्म का खाना दिया जा रहा है। इस पर उन्होंने सख्त एतराज भी जताया था। सीमा पर तैनात जवाबों के लिए रोजाना चंडीगढ से सब्जी और मांस की खरीददारी की जाती है। बताते हैं कि इसमें भी काफी घपलेबाजी की जा रही थी, जो सड़ी गली सब्जी आढ़त पर बची रह जाती थी, जिसका कोई खरीददार नहीं होता था, वही घटिया सब्जी सेना के जवानों के लिए भेज दी जाती थी। इसके अलावा घटिया किस्म के अंडे की भी सप्लाई होती थी। मांस निर्धारित मात्रा से कम दिया जाता था। वी के सिंह को ये सब नागवार लगा और उन्होंने मांस की मात्रा भी बढवा दी और ये भी सुनिश्चित किया कि ताजी सब्जियां ही खरीदी जाएं। इन सब में काफी धांधली हुआ करती थी, इन सबको एक एक कर सेना प्रमुख ने चेक कर लिया।

हैरत की बात तो ये सेना के जवान जिस ठंड में 24 घंटे तैनात रहते हैं, उन्हें जूते भी घटिया किस्म के दिए जाते थे। इससे उनके पैरों की उंगलियां सड़ने लगी थीं। इस मामले को भी जनरल ने बडे ही गंभीरता से लिया था। इसे लेकर भी कुछ बडे अधिकारी जनरल से नाराज चल रहे थे। खैर सैन्य अफसर एक दूसरे से नाराज हों और खुश हों, ज्यादा फर्क नहीं पड़ता, लेकिन जब सियासी लोग भी इसमें पार्टी बन जाते हैं तो कहीं ना कहीं दाल में कुछ काला जरूर नजर आता है।
बहरहाल सेनाप्रमुख के जन्मतिथि विवाद को रक्षामंत्री एके अंटोनी बहुत ही हल्के ढंग से ले रहे हैं। जिस मामले को गंभीरता से लेते हुए उन्हें प्राथमिकता के आधार पर निपटाना चाहिए, उस मामले को टालने की कोशिश हो रही है। हालाकि जनरल वीके सिह बार बार कह रहे हैं कि वो इस मामले को न्यायालय में नहीं ले जाना चाहते, लेकिन उनके चाहने से भला क्या होगा। आजकल लोग पीआईएल के जरिए तमाम मामलों को न्यायालय में ले जा रहे हैं, कल को ये मसला भी पहुंचा तो सरकार की किरकिरी होनी तय है। हालाकि प्रधानमंत्री अब इस मामले में दखल दे रहे हैं, लेकिन उनकी जिस तरह की छवि है, लगता नहीं कि वो कोई सख्त फैसला कर सकते हैं। मुझे लगता है कि छोटे से छोटे विवाद को निपटाने में फेल रही सरकार इस मामले में भी सही फैसला नहीं  कर पाएगी और आखिर में जब उसे कोर्ट से लताड़ लगाई जाएगी तब वो मजबूर हो कर सही फैसला करेंगे।  मुझे लगता है कि जनरल वीके सिंह के लिए ये लडाई उनके स्वाभिमान से जुडी है और जो आदमी अपने स्वाभिमान की रक्षा नहीं कर सकता वो देश के स्वाभिमान की रक्षा कभी नहीं कर सकता।


Tuesday 3 January 2012

मीडिया ने रोका शतकों का शतक !

मुंबई से दिल्ली की उड़ान में क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर से मुलाकात हो गई। संयोगवश मेरी बगल वाली सीट सचिन की थी, वो आए और बगल में ही  बैठ गए। सचिन को लग रहा था कि अगर लोग उन्हें पहचान लेगें तो सब आटोग्राफ लेने के लिए उन्हें घेर लेगें, लिहाजा वो फ्लाइट के अंदर आने के बाद भी ठंड की वजह से मंकीकैप पहने रहे। लेकिन कुछ देर बाद उन्हें गर्मी लगी तो उन्हें कैप उतारनी पड़ गई। सचिन को लगा कि अब उन्हें हवाई जहाज में बैठे प्रशंसकों को तो आटोग्राफ देना ही पडेगा, लिहाजा वो कोट की जेव से पेन निकाल कर आटोग्राफ देने को तैयार हो गए। पर ये क्या सचिन को देखने के बाद भी जहाज में कोई सुगबुगाहट नहीं, सभी लोग अपनी जगह पर ही बैठे रहे। हवाई जहाज में ऐसा कोई प्रशंसक ही नही था, जो उनसे आटोग्राफ लेता। इस बीच एक आठ साल का बच्चा कापी लेकर सचिन की ओर आता दिखाई दिया तो सचिन का चेहरा खिल गया। सचिन को लगा चलो एक बच्चा तो आटोग्राफ लेने आ रहा है, पर वो बच्चा सचिन के पास आकर बोला, अंकल आप कुछ काम नहीं कर रहे हैं तो थोडी देर के लिए पेन मुझे दे दीजिए, मैं तब तक मैथ के कुछ सवाल कर लेता हूं। बेचारे सचिन की क्या करते, उन्होंने बच्चे को पेन थमाया और आंख बंद कर नींद का दिखावा करने लगे।

  हालांकि नींद तो मुझे भी आ रही थी, लेकिन मुझसे सचिन की ये हालत देखी नहीं जा रही थी। बताइये कोई सेलेबिटी पेन लेकर बैठा इंतजार कर रहा हो कि कोई आए और आटोग्राफ ले, लेकिन कोई आटोग्राफ लेने ही ना आए। इस बीच मैने देखा कि सचिन ने अपने बैग से एक किताब निकाली और उसे पढने लगे। किताब का नाम था " धन कमाने के तीन सौ तरीके ''। ये किताब देखकर मैं हैरान रह गया, मैं खुद सोच में पड़ गया कि क्या ये सच में सचिन ही है या फिर और कोई। मैने एक बार फिर उसे ऊपर से नीचे तक देखा, तय हो गया कि ये तो सचिन ही है। मैं सोचता रहा कि आखिर सचिन के सामने ऐसी क्या मुसीबत है कि ये धन कमाने के तरीके तलाश रहा है। मुझसे रहा नहीं गया मैने पूछ ही लिया, सचिन सब ठीक है ना। मैं पहला आदमी था, जिसने कम से कम सचिन से बात करने की कोशिश की। सचिन ने  मायूस होकर कहाकि नहीं अभी तो जरूरत नहीं है, लेकिन क्या भरोसा आगे जरूरत पड़ जाए। मैने कहा ऐसा क्यों कह रहे हो, तुम्हें तो देश क्रिकेट का भगवान कहता है, और भगवान को किस बात की कमी हो सकती है। ईश्वर की कृपा से आपका बेटा अभी से अच्छा कर रहा है। सचिन ने कहा हां ये तो ठीक है, लेकिन अभी हमारे अंदर भी बहुत क्रिकेट बाकी है।
ये बात सुनकर मुझे थोडा़ गुस्सा आ गया। मैने कहा काहे का क्रिकेट बाकी है। डेढ साल से ज्यादा समय हो गया, आज तक एक शतक ठोक कर शतकों का शतक लगा नहीं पा रहे और बोल रहे हो अभी तुम्हारे भीतर क्रिकेट बाकी है। मैने सचिन को समझाने की कोशिश की और कहा देखो भगवान का दिया सब कुछ तुम्हारे पास है, रिटायर हो जाओ, देश के कुछ और बच्चों को भारतीय टीम में खेलने का मौका मिल जाए और तुम्हारे अंदर जो क्रिकेट बाकी है वो बेटे को दे दो। मैने देखा कि सचिन को मेरी बात अच्छी नहीं लगी। इतनी खरी खोटी आज तक किसी ने सचिन को नहीं सुनाई थी, सचिन हक्का बक्का थे। उसने कहा लगता है कि आप क्रिकेट के बहुत दिवाने है, मैने कहा काहे का दीवाना। न्यूज चैनल में हूं, थक गया लिखते लिखते कि कि ''आज खत्म होगा महाशतक का इंतजार'' । सचिन ने जैसे ही सुना कि मैं जर्नलिस्ट हूं वो एक दम से ढीला हो गया, कहने लगा कि अब आप भी ऐसे बोलेगे तो फिर कैसे काम चलेगा। हमने कहा मतलब हम क्यों नहीं कह सकते। बेचारा सचिन बहुत सीधा और शरीफ है, उसने कहा कि हमें तो शतक बनाने से मीडिया ने ही रोका है।

मैं हैरान रह गया कि अरे हमारी मीडिया को क्या हो गया है। सचिन को शतक बनाने से क्यों रोका। मैने सचिन से कहा आप बिल्कुल मत डरो, सारी बातें साफ साफ बताओ। सचिन ने कहा कि मैं तो कब का शतक ठोक कर आगे निकल गया होता। लेकिन क्रिकेट के जर्नलिस्ट ऐसा करने से रोक रहे हैं, वो कहते हैं कि उन्हें एक स्टोरी में बिल्कुल मेहनत नहीं करनी पड़ती, सब लिखते हैं "खत्म होगा महाशतक का इंतजार"। सचिन ने कहा कि स्टोरी लिखते हैं कि इंतजार खत्म होगा और हमसे फोन पर कहते हैं कि इस बार नहीं। उन्होंने मुझे कहा है कि जब तक आप शतक नहीं बनाओगे तब तक हम हर मैच के पहले "न्यूज की हेडलाइन " में भी मुझे स्थान देगें। सचिन ने कुछ अखबार निकाले और कहा कि देख लीजिए मेरे शतक ना बनाने के बावजूद आज तक किसी ने मेरे खिलाफ एक बात नहीं लिखी है। मैच शुरु होने के पहले दिन मेरी फुल साइज तस्वीर भी छपती है। अब कई खेल पत्रकारों ने मेरे बेटे को भी लांच करना शुरू कर दिया है। मैं तो मीडिया की वजह से शतक नहीं बना रहा हूं और आप मीडिया में होने के बाद भी मेरी खिंचाई कर रहे हैं।
मैं हैरान रह गया कि आखिर ये सब हो क्या रहा है। मैं कुछ सोच रहा था कि सचिन ने मुझसे कहा आपको पता है मीडिया ने ये ही मुझे भरोसा दिलाया है कि मेरी ओर से वो ही मुझे "भारत रत्न " दिलाने की लड़ाई लडेगें। अब देखिए आधा काम तो उन्होंने कर भी दिया। पहले खेल में आप कितना अच्छा काम कर लें, लेकिन किसी को भारत रत्न नहीं दिया जाता था। स्व. ध्यानचंद्र का नाम तो सुना होगा, उन्होंने देश का नाम रोशन किया, पर आज तक उनके लिए किसी ने भारत रत्न की मांग नहीं की। पर मीडिया ने मेरे लिए भारत रत्न के नियम में बदलाव करा दिया, अब किसी भी क्षेत्र में अच्छा काम करने पर भारत रत्न मिलेगा। चूकि मीडिया के लोग मेरा काम कर रहे हैं, लिहाजा मुझे भी उनका कुछ कहना मानना होता है। सचिन की बात से लग रहा था कि वो मीडिया से बहुत प्रभावित और खुश भी हैं। अब हों भी क्यों ना, वो देश के सबसे बडे़ सम्मान भारत रत्न से सिर्फ उतना ही दूर हैं जितना अपने शतकों के शतक से। उन्हें कभी भी भारत रत्न मिल सकता है और वो कभी भी शतकों का शतक बना सकते हैं।

  वैसे सचिन की एक बात के लिए तारीफ मैं भी करुंगा कि वो सच बात को स्वीकार कर लेते हैं। मैने सचिन से कहा कि अब आप ही बताइये कि अगर हमें अगले वर्ल्ड कप की तैयारी करनी है तो भविष्य की टीम बनानी होगी ना और क्या उस टीम में आपकी जगह बनती है ? सचिन ने कहा ये बात तो आपकी बिल्कुल सही है, लेकिन उन्होंने इसके लिए बीसीसीआई को जिम्मेदार ठहराया। उनका कहना था कि हम कभी भी भविष्य की योजना बनाकर चलते ही नहीं, उस समय जो बेहतर फार्म में होता है, उसे शामिल कर लेते हैं। बहरहाल मैने सचिन को समझाया कि देखिए आप महान खिलाड़ी हैं और बीसीसीआई ने साफ कर दिया है अपने रिटायरमेंट का फैसला सचिन खुद लेगें, तो देश में ऐसा संदेश नहीं जाना चाहिए कि आप खुद को देश से बडा़ समझते हैं। अब देखिए पूर्व कप्तान सुनील गावास्कर का भी मानना है कि आपको ऐसे समय में संन्यास ले लेना चाहिए, जब लोग आप से पूछें कि अरे ये क्या..आपने सन्यास क्यों ले लिया? ऐसा मौका नहीं देना चाहिए कि लोग खिलाड़ी से सवाल पूछने लगें कि भइया संन्यास कब ले रहे हो। पाकिस्तान के पूर्व कप्तान इमरान खान ने 1992 में वर्ल्ड कप शुरू होने के पहले कह दिया कि ये मेरा आखिरी वर्ल्डकप है। उन्हें उस समय पता भी नहीं था कि पाकिस्तान की टीम फाइनल में पहुंचेगी, जब पाकिस्तान फाइनल में पहुंचा तो एक दिन पहले इमरान ने ऐलान किया कि ये उनका आखिरी वनडे है।

बहरहाल सचिन से बात करके मुझे ये तो लगा कि सचिन हर बात को गंभीरता से लेते और समझते हैं, और वो अपने बारे में कभी फैसला कर सकते हैं। हमारा सफर समाप्त हो चुका था। हवाई जहाज से उतरने के दौरान सचिन ने हाथ मिलाया और कहाकि आपके साथ अच्छा सफर कट गया, वो बार-बार इधर उधर देख रहे थे, शायद उन्हें इंतजार था कि जो बच्चा उनका पेन ले गया था वो वापस करने आएगा, पर भइया दिल्ली वाले जो चीज एक बार ले लेगें भला वो वापस कैसे कर सकते हैं। अब हम एयरपोर्ट से बाहर आ चुके थे, आफिस की गाडी़ मुझे लेने आई हुई थी, सचिन यहां किसी कार्यक्रम में हिस्सा लेने आए थे,  वो इधर उधर देख रहे थे कि उन्हें कोई लेने आया है या नहीं, बहरहाल यहीं से हम अलग हो गए। हम सचिन से अलग तो हो गए पर मै ये जानकार बहुत हैरान था कि सचिन मीडिया के प्रभाव में हैं और इसीलिए शतक नहीं बना रहे हैं। चूंकि ये बात मुझसे किसी और ने नहीं खुद सचिन कहा तो मैने तय कर लिया कि इस बात की जानकारी अपने संपादक को जरूर दूंगा, क्योंकि हमारे संपादक खेल के बहुत अच्छे जानकार ही नहीं बल्कि खिलाड़ी भी रहे हैं। एयरपोर्ट से मुझे आफिस आना था, मेरी कार जैसे ही आफिस के गेट पर आई, संयोगवश संपादक जी सामने खड़े थे, उन्हें देखते ही मेरी नींद खुल गई। सामने घडी़ पर नजर गई तो देखा सुबह के आठ बज गए थे, फिर क्या सोचना, आफिस की तैयारी में लग गए और सचिन से मिलने और बतियाने की सारी खुमारी भी देखते देखते उतर गई।