Wednesday, 27 February 2013

रेल बजट : कन्फर्म हो गई बंसल की बर्थ ...

 कांग्रेसी रेलमंत्री  पवन बंसल के रेल बजट ने यात्रियों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। उम्मीद थी कि बजट कुछ ऐसा होगा, जिससे रेलवे का भी भला हो और यात्रियों का भी। लेकिन मैं पूरे दावे के साथ कह सकता हूं कि जो बजट रेलमंत्री ने संसद मे पेश किया है इससे ना रेल का भला हो सकता है, ना यात्रियों का और ना ही उनकी पार्टी कांग्रेस का। हां यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी के निर्वाचन क्षेत्र रायबरेली में व्हील फैक्टरी ( पहिया ) का ऐलान कर उन्होंने पार्टी में अपनी सीट जरूर कन्फर्म करा ली है। बंसल के बजट में कुछ भी नया नहीं है, अगर इस बजट को पूर्व रेलमंत्री लालू यादव के बजट की फोटो कापी कहूं तो गलत नहीं होगा। लेकिन बंसल जी को कौन समझाए कि लालू बनना इतना आसान भी नहीं है, उसके लिए पहले तो उन्हें अपने नाम के आगे यादव लिखना होगा फिर दो चार साल बिहार की राजनीति सीखनी होगी, माफ कीजिएगा लेकिन सच बताऊं भैंस का चारा खाना  तो बहुत जरूरी है, तब कहीं जाकर उनकी लालू जैसा बनने की प्रक्रिया शुरू होगी। खैर छोड़िए  बंसल जी ! आप लालू जैसा भले ना बन पाएं, लेकिन रेल अफसर बहुत सयाणे हैं ये आपको चारे का स्वाद तो चखा ही देंगे।

ये रेल बजट इतना बकवास है जिसके लिए ज्यादा समय खराब करने की जरूरत नहीं है, मैं आपको महज एक पैराग्राफ में ही इसकी अच्छी और बुरी बातें दोनों समझा देता हूं। उसके बाद मैं आपको रेलवे की असलियत बताऊंगा। बजट भाषण में छोटी छोटी बातें करके बंसल ने यात्रियों को लुभाने की कोशिश की है। जैसे महत्वपूर्ण ट्रेनों में मुफ्त वाई फाई की सुविधा, आजादी एक्सप्रेस के नाम पर सस्ती शेक्षणिक पर्यटक ट्रेन की सुविधा ट्रेन, ई टिकटिंग को आधुनिक बनाने के साथ 23 घंटे तक इंटरनेट से बुकिंग की सुविधा, अच्छी ट्रेनों में आधुनिक सुविधा वाली अनुभूति कोच की व्यवस्था, सैप्टी की कीमत पर नई ट्रेन नहीं, बड़े स्टेशनों पर बैटरी चालित व्हील चेयर, कुछ नए शहरों में रेलनीर का प्लांट। रेलमंत्री ने यही छोटी मोटी बातें कर अपने पार्टी के सांसदों की ताली बटोरने की कोशिश की। हां एक बात बताऊं, पवन बंसल ने अपने बजट भाषण में कई शेर पढ़ें हैं, एक मैं भी बोल दूं। फिर आगे की बात करते हैं।

छोटी-छोटी बातें करके बड़े कहां हो जाओगे,
सकरी गलियों से निकलो तो खुली सड़क पर आओगे।


चलिए बजट की कुछ बुरी बातें भी कर लेते हैं,  जिससे रेलयात्रियों की जेब काटने की कोशिश की गई है। आपको पता है कि अभी जनवरी महीने में ही रेलमंत्री ने किराया बढाया था और अब सरचार्ज के नाम पर उन्होंने चोर दरवाजे से एक बार फिर यात्रियों की जेब ढीली कर दी है। मसलन उन्होंने आरक्षण शुल्क बढ़ाया, तत्काल शुल्क में बढोत्तरी की और सुपरफास्ट के नाम पर अतिरिक्त सरचार्ज का प्रावधान कर दिया। ये तीनों सरचार्ज यात्रियों को एक साथ देने होंगे। नहीं समझे आप, मै समझाता हूं अगर आप किसी सुपरफास्ट ट्रेन से सफर कर रहे हैं तो उसका चार्ज, तत्काल में टिकट लिया है तो उसका चार्ज लगना ही है और आरक्षण शुल्क बढ ही गया है। यानि रेल बजट से अचानक एक टिकट पर लगभग दो सौ रुपये की बढोत्तरी हो गई। इसके अलावा अगर किसी वजह से आपको यात्रा स्थगित करनी पड़ती है तो टिकट कैंसिलेशन चार्ज भी बढ गया है। सबसे खराब बात तो ये है कि अब रेलमंत्री ने एक प्राधिकरण का गठन करने का ऐलान किया है जो साल में दो बार डीजल के दामों की समीक्षा करेगा और तय करेगा कि रेल किराए में बढोत्तरी की जाए या नहीं। जाहिर है बढोत्तरी हो ही जाएगी। हां मालभाड़े में पांच फीसदी की बढोत्तरी से मंहगाई बढेगी ये अलग बात है।


वैसे आप सब को बजट की मोटी-मोटी बातें अखबार से पता ही चल गई होंगी। लेकिन मैं चाहता हूं कि आप रेलवे को थोड़ा और अच्छी तरह से जानें। आमतौर पर मैने देखा है कि अगर बजट में रेल किराया नहीं बढ़ा तो बजट बहुत अच्छा है और किराया बढ़ गया तो बजट बहुत खराब। रेलवे और रेल बजट से हमारा सरोकार महज किराए तक ही रह गया है। मैं कुछ ऐसी बातें आपको बताना चाहता हूं, जिससे आप खुद समझ जाएं कि आखिर ये रेलवे चल कैसे रही है। आइये सबसे पहले रेलवे के खजाने की बात कर ली जाए। रेलवे को यात्री किराए और मालभाड़े समेत अन्य सभी श्रोतों से सालाना एक लाख करोड़ रुपये की आय होती है। आप को हैरानी होगी पर सच ये है कि इसमें 60 हजार करोड़ रुपये रेलवे अपने अफसरों, कर्मचारियों और पेशनर्स के वेतन पर खर्च कर देती है। महज 40 हजार करोड़ रुपये ट्रेनों के संचालन पर खर्च किया जाता है। आसानी से समझा जा सकता है कि रेल कैसे चल रही है। पता कीजिएगा कि कोई फैक्टरी मालिक अगर 60 फीसदी धनराशि कर्मचारियों के वेतन पर खर्च करता है क्या ?


अच्छा ट्रेन चलाने के लिए इंजन की जरूरत तो होगी ही ना ! सुनिए क्या हाल है हमारे यहां इंजनों की। देश में रोजाना यात्री और मालगाड़ी मिलाकर 19 हजार ट्रेनें चलती हैं। आपको पता है कि भारतीय रेल के पास इंजन कितने हैं ? बिजली से चलने वाले इंजन की संख्या 4300 है और डीजल से चलने वाले इंजनों की संख्या 5200 है यानि 9500 इंजन से 19 हजार ट्रेनें चलाई जा रही हैं। यहीं पर आपको बोगी के बारे मे भी जानकारी दे दूं। इस समय रेलवे के पास 61 हजार 800 बोगी है, इसमें हर साल 26 हजार बोगी स्क्रैप हो जाती है, यानि खराब हो जाने पर उसे पटरी से उतार दिया जाता है। हां 30 हजार बोगी हर साल रेलवे बना लेती है, इस तरह से हम कह सकते हैं कि रेल बेड़े मे चार हजार बोगी हर साल बढ़ रही है। लेकिन एक निश्चित दूर तय करने के बाद इंजन और बोगी दोनों की सर्विसिंग रेलवे की भाषा में कहूं तो प्रीयाडिकल ओवर हालिंग (पीओएच) होनी चाहिए, जो यहां नहीं हो रही है। ये गंभीर मामला है। पिछले दिनों सफर के दौरान मैंने खुद देखा है कि एसी 2 की बोगी में बारिश का पानी लीक होकर अंदर आ रहा था।

अच्छा अब जरा दो बातें माल भाड़े और यात्री किराए पर करूंगा, इसे समझने के लिए आपको गौर करने की जरूरत है। देश में हर साल औसतन 3500 मिलियन टन माल की ढुलाई होती है। आपको पता है कि इसमें रेलवे का हिस्सा कितना है?  महज 900 मिलियन टन। दो मिलियन टन एयर कार्गो के जरिए और बाकी 2598 मिलिटन माल रोड ट्रांसपोर्ट के पास है। अच्छा रेलवे से जो लोग माल की ढुलाई करते हैं वो निजी क्षेत्र की कंपनियां नहीं है, बल्कि सरकारी संस्थाएं हैं। मसलन नेशनल थर्मल पावर, पेट्रोलियम पदार्थ, फर्टिलाइजर कारपोरेशन, फूड कार्पोरेशन, स्टील अथारिटी आफ इंडिया, आयरन यानि कच्चा लोहा। मतलब सरकारी पैसा ही इस विभाग से उस विभाग में ट्रांसफर होता रहता है। रही बात निजी क्षेत्र की... तो उनका रेलवे पर एक पैसे का भरोसा ही नही है। क्योंकि रेलवे से माल भेजने पर चोरी का डर, दुर्घटना हो जाने पर सामान खराब हो जाने का डर और समय से माल पहुंचाने में भी रेलवे असमर्थ है। लिहाजा निजी क्षेत्र की कंपनियां रेलवे से दूरी बनाए रखती हैं। यही वजह है कि रेलवे को माल भाड़ा बढ़ाकर पैसा जुटाने की जरूरत होती है। यहां आपको एक बात और बता दूं कि रोड ट्रांपपोर्ट के मुकाबले रेलवे का खर्च काफी कम है। मसलन अगर एक टन माल 1500 किलो मीटर ले जाने में रेलवे एक हजार लीटर डीजल फूंकती है तो रोड ट्रांसपोर्ट को सात हजार लीटर डीजल फूंकना पड़ता है और हवाई जहाज को 12 हजार। इसके बाद भी रेलवे व्यापारियों में भरोसा कायम नहीं कर पा रहा है। सही मायने में अगर रेलवे को अपनी आय बढ़ानी है तो उसे निजी क्षेत्र का विश्वास जीतना होगा।


थोड़ी सी बात रेल यात्रियों की भी कर ली जाए। आपको बता दूं कि देश में कुल पैसेंजर की संख्या का 10 फीसदी लोग ही रेलवे से सफर करते हैं। बाकी यात्री सड़क और हवाई परिवहन इस्तेमाल करते हैं। मैं सोचता हूं कि इतना बड़ा महकमा मात्र 10 फीसदी लोगों के लिए भी सुरक्षित और सुविधाजनक यात्रा करा पाने में नाकाम है। रेल अफसरों से बात होती है तो उनका अजीबोगरीब तर्क है, कहते है कि सड़क और हवाई यातायात में साल भर में लगभग 40 हजार लोग दुर्घटनाओं में दम तोड़ देते हैं, जबकि रेल दुर्घटना में ये संख्या महज पांच छह सौ तक ही है। खैर यात्री किराए में लगातार होने वाली बढोत्तरी पर एक नजर डालना जरूरी है। देश में ढाई करोड़ लोग रोजाना सफर करते हैं। इसमें 1.40 करोड़ ऐसे यात्री हैं जो छोटी दूरी की यात्रा यानि सौ से डेढ सौ किलोमीटर की करते हैं। ये यात्री मंथली पास (एमएसटी) के जरिए सफर करते हैं। आपको पता है कि तीन महीने तक आने जाने का मंथली पास महज 15 दिन के एक ओर के किराए में बन जाती है। आधे से अधिक लोग इसी पास के जरिए रेल में सफर करते हैं। सिर्फ मुंबई लोकल में ही रोजाना 80 लाख लोग सफर करते हैं। बचे 1.10 करोड़ यात्री इनमें से 40 फीसदी यानि लगभग 41 लाख लोग बिना आरक्षण जनरल बोगी में सफर करते हैं। रेलमंत्री ने जो सरचार्ज लगाया है वो 70 लाख यात्रियों पर है। इन 70 लाख में 10 फीसदी लोग मसलन 7 लाख यात्री ही अपर क्लास (एसी) में यात्रा करते हैं। आमतौर पर रेलवे का फोकस इन्हीं पर रहता है, अब सात लाख लोगों पर किराए का भार डालकर क्या रेलवे की माली हालत सुधारी जा सकती है। जबकि इसमें नि:शुल्क और रियायती दरों पर यात्रा करने वाले भी शामिल हैं। इनमें सांसद, विधायक, पूर्व सांसद, रेल कर्मचारी, फौजी, पत्रकार, गंभीर मरीज, पद्म पुरस्कार विजेता, खेल के क्षेत्र में विजेता, राष्ट्रपति पदक समेत तमाम लोग हैं जिन्हें छूट है। सीनियर सिटीजन को भी आधे किराए पर यात्री की छूट है। मुझे लगता है कि अगर रेलवे की माली हालत इतनी खराब है तो किराया बढ़ाने के बजाए पहले ये छूट बंद होनी चाहिए। पर भइया मामला सियासी है कैसे कर सकते हैं।


अगर आप कहें तो दो एक बातें और बता दूं। एक होती है "रेट आफ रिटर्न" । यानि जो ट्रेन चलाई जा रही हैं वो फायदे में हैं या फिर घाटे में हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि घाटे वाली ट्रेन को जबर्दस्ती दौड़ाया जा रहा है। ये देखकर तो मैं वाकई हैरान रह गया। क्योंकि देश में रोजाना 12 हजार पैसेंजर यानि यात्री ट्रेनें फर्राटा भरती हैं, इसमें चार हजार ट्रेन ऐसी हैं, जिनकी ग्रोथ निगेटिव है। मतलब अभी तो वो घाटे मे हैं ही, इन ट्रेनों को चलाने से घाटा साल दर साल बढ़ता जा रहा है। किसी भी आदमी से पूछ लिया जाए कि अगर मुनाफे का रेल रूट नहीं है तो उस पर ट्रेन क्यों चल रही है, बंद होनी चाहिए। लेकिन ये नहीं हो सकता, क्योंकि ये ट्रेनें विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं की वजह से चल रही हैं यानि राजनीतिक मजबूरी के चलते। तब मैं सवाल उठाता हूं कि आखिर रेल महकमें के कुप्रबंधन का दोष यात्रियों पर क्यों लादा जाना चाहिए। मुझे तो लगता है कि एक स्वतंत्र एजेंसी से हर ट्रेन की समीक्षा कराई जानी चाहिए कि ये ट्रेन जनता के हित मे है या नहीं है, अगर हित में है तो टिकट की बिक्री कितनी हो रही है, अगर बिक्री नहीं हो रही है तो ट्रेन को आगे चलाने के बारे में गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।

हर बजट में बड़ी बड़ी घोषणाएं कर दी जाती हैं, लेकिन उन पर अमल नहीं किया जाता। आपको याद दिला दूं कि रेलवे देश के 900 रेलवे स्टेशनों के आधुनिकीकरण और 130 स्टेशन को वर्ल्ड क्लास बनाने का ऐलान काफी पहले कर चुकी है। बाकी स्टेशनों की बात ही अभी छोड़ दी जाए। देश की राजधानी दिल्ली की बात पहले कर लेते हैं। 1989 में नई दिल्ली को वर्ल्ड क्लास बनाने का ऐलान किया गया था। इसके लिए दो बार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर टेंडर भी निकाला गया, लेकिन देश और दुनिया में भारतीय रेल की छवि इतनी खराब है कि कोई भी ये काम करने को तैयार ही नहीं हुआ। आप आसानी से समझ सकते हैं कि जब दिल्ली की ये हालत है तो दूसरे शहरों का तो भगवान ही मालिक है। रेलवे में एक संस्था है आरडीएसओ, इनका काम है नई तकनीकि का रिसर्च और डिजाइन करें, जिससे रेलवे को इसका फायदा मिले। मैं हैरान रह गया ये जानकर कि आज तक 50 साल पुरानी इस संस्था ने अपना कोई रिसर्च और डिजाइन किया ही नहीं। ये दूसरे देशों की तकनीक का नकल कर यहां क्रियान्वित करते हैं। कोई पूछने वाला ही नहीं है कि आखिर इस संस्था की उपयोगिता क्या है? वैसे भी अब तो कोई भी चीज आपको डिजाइन करानी है तो देश दुनिया भर में कहीं से भी डिजाइन हो जाएगी। इतना बड़ा हाथी पालने की जरूरत क्या है ?

आखिर में एक शर्मनाक बात। रेलमंत्री ने जब रायबरेली में पहिया कारखाने का ऐलान किया तो ऐसा लगा कि चम्चागिरी आज किस हद तक नीचे गिर गई है। ये ठीक बात है कि सोनिया गांधी नहीं चाहेंगी तो पवन बंसल भला कैसे रेलमंत्री रह सकते हैं। मुझे हैरानी हुई कि अभी रायबरेली में कोच फैक्टरी ने पूरी क्षमता से काम भी शुरू नहीं किया फिर एक और फैक्टरी उसी इलाके में कैसे दे दी गई ? अच्छा कौन सी फैक्टरी कहां लगे, ये कैसे तय होना चाहिए। पहिये की फैक्टरी लगनी है, इसमें बहुत ज्यादा लोहा इस्तेमाल होगा। अब रायबरेली या उसके आसपास तो लोहा होता नहीं है। जाहिर ये फैक्टरी बिहार या फिर झारखंड में लगनी चाहिए। जिससे ट्रांसपोर्टेसन चार्ज कम होता, ट्रांसपोर्टेशन चार्ज कम होने से निश्चित ही कन्सट्रक्सन कास्ट भी कम होगा। लेकिन पवन बंसल कोई रेलवे को सुधारने तो आए ही नहीं है, वो इस जरिए सोनिया गांधी को खुश करना चाहते हैं। आप अंदाजा नहीं लगा सकते कि पवन बंसल की इस थोड़ी सी चमचागिरी के चलते रेलवे पर कई सौ करोड़ का अतिरिक्त भार बढ़ेगा।

चलते- चलते

करेला और नीम चढ़ा.. ये कहावत तो सुनी ही होगी आपने। रेलमंत्री फिर भी रेलमंत्री है, रेलवे बोर्ड के अफसरों को क्या कहा जाए। मंत्री खुश हो जाता है अपने और अपनी नेता के इलाके में ट्रेन और कारखाना देकर, लेकिन यहां तो अफसर लूट मचाकर मनमानी करते रहते हैं। रेलवे बोर्ड के अफसर यहां आकर "आफ्टर रिटायरमेंट" की चिंता में डूब जाते हैं। उन्हें लगता है कि वो कैसे किसी कमेटी वगैरह में जगह पा जाएं, जिससे रिटायरमेंट के बाद भी उनकी मनमानी यूं ही चलती रहे। बस इसके लिए वो सरकार और मंत्री का जूता उठाने को तैयार बैठे रहते हैं।


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बजट के पहले मीडिया खासतौर पर इलेक्ट्रानिक मीडिया का हुडदंग देखने लायक होता है। मैं तो पांच-सात साल से देख रहा हूं कि बजट सत्र के पहले चैनल के बड़े दम खम भरने वाले जर्नलिस्ट ट्रेन पर सवार हो जाते हैं और वो सीधे बाथरूम को कैमरे पर दिखाते हुए साफ सफाई को लेकर रेल मंत्रालय को कोसते हैं, जो ज्यादा उत्साही पत्रकार होता है वो ट्रेन के खाने की बात करते हुए घटिया खाने की शिकायत करता है और उम्मीद करता है शायद इस बजट में रेलमंत्री का ध्यान इस ओर जाएगा। अच्छा आम बजट के पहले भी इसी तरह की एक घिसी पिटी कवायद शुरू होती है, चैनल की अच्छी दिखने वाली लड़की को किसी बडे आदमी के घर के किचन में भेज दिया जाता है। पांच तोले सोने की जेवरों से लदी उस घर की महिला वित्तमंत्री को समझाने की कोशिश करती है कि घर चलाना कितना मुश्किल हो गया है। सच तो ये है कि जिस घर में महिला पत्रकार जाती है, उस महिला को आटे चावल का सही सही दाम तक पता नहीं होता है। अब देर नहीं विस्तार से जानना है तो हमारे दूसरे ब्लाग   " TVस्टेशन " पर जाएं। वहां पहुंचने के लिए नीचे दिए लिंक की मदद ली जा सकती है।  

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Saturday, 23 February 2013

दमन बोले तो गुजरातियों का दारु अड्डा !


दो दिन बाद रेल और आम बजट पर आपसे लंबी बात करनी है, और पहले हम भ्रष्टाचार के साथ ही आतंकियों के मास्टर माइंड अफजल गुरू पर काफी बात कर चुके हैं। मुझे लगा कि आप कहीं मेरे ब्लाग के तेवर से ऊब कर यहां आना ही ना बंद कर दें, इसलिए ब्लाग पर बने रहने के लिए मैं दे रहा हूं आपको एक बढिया टूर पैकेज। मैने सोचा कि आप सबको दिल्ली से कहीं दूर ले चलें। चलिए फिर देर किस बात की, तैयार हो जाइये, हम चलते हैं देश के केंद्र शासित प्रदेश दमन की सैर करने। अच्छा पहले मैं दमन के अपने मित्रों से माफी मांग लेता हूं, क्योंकि उनके साथ मेरा तो प्रवास वहां ठीक ठाक ही रहा, लेकिन सच कहूं मुझे दमन बिल्कुल पसंद नहीं आया और मैं तो किसी को दमन जाने की सलाह भी नहीं देने वाला। अगर कोई मुझसे पूछे कि आपकी नजर में दमन क्या है ? तो मेरा यही जवाब होगा दमन बोले तो गुजरातियों का दारू अड्डा।

मैं जानता हूं कि आपको मेरी बात पर आसानी से भरोसा नहीं होगा। आपको लगेगा कि ये मैं कह क्या रहा हूं। चूंकि आप सबके मन में दमन को लेकर एक शानदार तस्वीर है। आप सोचते होंगे कि समुद्र के किनारे बसा ये शानदार शहर होगा, जहां आकर आप गोवा को भूल जाएंगे, लेकिन माफ कीजिएगा ऐसा कुछ नहीं है। मुझे लग रहा है कि आप आंख मूंद कर मेरी बात पर यकीन करने वाले नहीं है इसलिए आप दमन को जानने के लिए गुगल का सहारा जरूर लेगें, और दमन का इतिहास भूगोल खंगालने में लग जाएंगे। इसीलिए मैं सोच रहा हूं कि जो मैने देखा वो तो आपको दिखाऊंगा ही, थोड़ा दमन के इतिहास भूगोल की चर्चा मैं खुद ही कर दूं, जिससे आपको बेवजह अतिरिक्त मेहनत न करनी पड़े।

दरअसल इसका इतिहास जरूर कुछ रोचक है। केंद्र शासित प्रदेश दमन पहले पुर्तगालियों के कब्‍जे में था, इसीलिए इसकी राजधानी एक समय में गोवा की राजधानी हुआ करती थी। 1961 में गोवा और दमन को पुर्तगालियों से मुक्त कराया गया। पुर्तगालियों ने यहां के हिन्दुओं को इसाई बनाकर भव्य चर्च खड़े किए, जिसमें सबसे प्रसिद्ध चर्च है- कैथेडरल बोल जेसू। मोती दमन में इस तरह के अनेक चर्च है। नानी दमन में संत जेरोम का किला जो 1614 ई. से 1627 ई. के बीच बना था। दरअसल, मुगलों से बचने के लिए इसका निर्माण हुआ था। 1987 में इसे अलग से केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिया गया। वैसे इसमें दीव को भी शामिल किया गया है। इतिहास की बात करें तो दमन दो हजार साले से भी अधिक की समृद्ध ऐतिहासिक विरासत वाला भारतीय सूबा है। हां मौसम तो यहां पूरे वर्ष सुहाना बना रहता है। इसके अलावा सुरक्षित मनोरंजन पार्क अपने संगीतमय फव्‍वारों से जरूर आने वाले पर्यटकों का सप्‍ताहांत सुखद बनाते हैं। बच्‍चों के लिए भी कई तरह की मनोरंजक गतिविधियां हैं। यहां एक विशाल दमनगंगा नदी है, जो दमन को दो भाग में बांटती है। नानी दमन यानि छोटा दमन तथा मोती दमन जिसे बड़ा दमन के नाम से भी जाना जाता है।

इतना ही नहीं दमन की काफी समृद्ध और बहुरंगी सांस्‍कृतिक विरासत है। यहां नृत्‍य और संगीत दमनवासियों के दैनिक जीवन का जरूरी हिस्‍सा है। दमन में संस्‍कृतियों का अद्भुत सम्मिश्रण पाया जाता है। जनजातीय, शहरी, यूरोपीय और भारतीय। यह अनोखा संगम दमन के पारम्‍परिक नृत्‍यों में भी दिखाई देता है। विभिन्‍न पुर्तगाली नृत्‍य यहां अच्छी तरह संरक्षित किए गए हैं और अब भी बड़े पैमाने पर इसका प्रदर्शन भी होता है। सामाजिक टिप्‍पणियों के साथ जनजातीय नृत्‍य भी यहां प्रचलित हैं । दमन में पर्यटकों के रूकने, घुमने और समुद्र में सैर करने की सभी तरह की सुविधाएं और व्यवस्थाएं हैं। यहां पर प्रमुख दो तट है- देविका तट और जैमपोरे तट। देविका तट पर स्‍नान नहीं करना चाहिए क्‍योंकि यहां के पानी के अंदर बड़े और छोटे सभी तरह के पत्‍थर ही पत्थर है। यहां पर दो पुर्तगाली चर्च भी हैं। यह तट दमन से 5 किलोमीटर उत्तर में स्थित है। इसके साथ ही जैमपोरे तट पिकनिक स्‍पॉट के लिए प्रसिद्ध है जो नानी दमन के दक्षिण में स्थित है।

माफ कीजिएगा अब इससे ज्यादा दमन की तारीफ मैं नहीं कर सकता। गुजरात के सूरत शहर से जब मैं दमन के लिए रवाना हुआ तो मैं काफी उत्साहित था, मुझे लगा कि दो तीन दिन थोड़ा अलग ही आनंद में बीतने वाला है। वैसे भी दमन में मेरा प्रवास तीन दिन का था। दमन में प्रवेश करते ही मुझे लगा कि ये क्या है ? मन में सवाल उठा कि हम कहां आ गए। यहां के हर रास्ते पर शराब की दुकानों के अलावा और कुछ भी नहीं। शराब की दुकानों पर लंबी चौड़ी कारें खड़ी हैं, 95 फीसदी कारों पर गुजरात की नंबर प्लेट है। यहां कोई शराब की एक दो बोतल खरीदते दिखाई ही नहीं दे रहा है, जो भी खरीद रहा है वो शराब की सात आठ पेटी खरीदता दिखाई दे रहा है। मन में सवाल उठा आखिर ऐसा क्या है यहां कि इतनी दुकानें है और उससे कहीं ज्यादा खरीददार। सुबह से दुकानों पर भीड़ शुरू हो जाती है और देर तक यूं ही ये बाजार में रौनक रहती है।

जानकारी की तो पता चला कि दमन की आय का एक प्रमुख संसाधन शराब की बिक्री है। कहने को तो गुजरात में शराब बंदी है, लेकिन असल तस्वीर बिल्कुल उलट है। जितनी शराब एक सामान्य प्रदेश यानि जहां शराब की बिक्री होती है, वहां पी जाती है, उससे कम शराब गुजरात में नहीं पी जाती है। वहां भी एक बड़ी आबादी खासतौर पर नौजवान शराब के शौकीन हैं और दमन से तस्करी करके बड़ी मात्रा में शराब गुजरात में लाई जाती है। गुजरात में आप किसी होटल में रुकें, घटिया से लेकर पांच सितारा तक, आपको शराब के लिए कोई मारा-मारी नहीं करनी है, बस होटल के स्टाफ को अपनी जरूरत बता दीजिए, आपकी ब्रांड आपके कमरे में पहुंच जाएगी। हां लेकिन कीमत ज्यादा चुकानी होगी। ओह! ज्यादा नहीं मैं कहूं बहुत ज्यादा तो गलत नहीं होगा। दिल्ली में शराब की जो बोतल आपको पांच सौ रुपये में मिलेगी वो गुजरात में 15 से 18 सौ रुपये में मिलेगी। जिस गुजरात की तरक्की का दावा सीना ठोक कर वहां के मुख्यमंत्री करते हैं, मैं कहता हूं कि वहां का ज्यादातर नौजवान या तो शराब पीता घूम रहा है या फिर शराब की तस्करी कर रहा है। खैर गुजरात की बात फिर कभी...।

मैं बात कर रहा हूं दमन की और दमन को अगर मैं गुजरातियों का दारु अड्डा कहूं तो गलत नहीं होगा। कहने को दमन समुद्र के किनारे बसा है। खूबसूरत है, लेकिन बीच की जो हालत है, यहां खड़े होना मुश्किल है। पूरा बीच कीचड़ से सना हुआ है, यहां चलना मुश्किल है। कीचड़ में लगभग दो किलोमीटर से ज्यादा चलने के बाद आपको समुद्र का पानी मिलेगा, और समुद्र में बालू नहीं नुकीले और खतरनाक पत्थर मिलेंगे। इसके अंदर घुसना ही काफी मुश्किल है। मैं तो आपको भी सुझाव दूंगा कि अगर कभी वहां जाना हो गया तो भूलकर भी समुद्र के भीतर घुसने की कोशिश मत कीजिएगा। हां एक बात जो मुझे अच्छी लगी, अगर आप सी-फूड के शौकीन हैं तो आपको कुछ फिश की कई अच्छी डिश मिल जाएगी। बहरहाल मैं कुछ तस्वीरों के साथ आपको छोड़ जाता हूं। मेरा सुझाव तो यही होगा कि घूमने के लिए अगर आप दमन जाने की सोच रहे हैं तो रुक जाइये, कहीं और का प्लान बना लीजिए।


  दमन का विहंगम दृश्य














दमन  का चर्च की बाउंड्रीवाल













ऐतिहासिक चर्च











ये तो रहा दमन। वैसे मेरी कोशिश होगी मैं जल्दी ही आपको गुजरात  के कच्छ के मांडवी बीच पर ले चलूं। इस बीच की जितनी भी तारीफ की जाए वो कम है। सच कहूं तो बीच पर धार्मिक माहौल मैने तो पहली ही बार देखा है वो भी गुजरात के मांडवी बीच पर। यहां ना आपको बीच के किनारे कोई शराब  पीता मिलेगा और ना ही कोई खास खान-पान का इंतजाम। ये काफी साफ सुथरा बीच है। यहां पक्षी भी सैलानी से कम नहीं हैं। लेकिन थोड़ा इंतजार कीजिए..।


Tuesday, 19 February 2013

आतंकवादी की पैरोकारी का सच !

संसद हमले के मास्टर माइंड अफजल गुरू को फांसी पर लटकाए जाने के बाद तथाकथित बुद्धिजीवियों का एक तबका रोज नए-नए तर्कों के साथ ये बताने की कोशिश कर रहा है कि उसे फांसी गलत दी गई है। कुछ लोग कह रहे हैं कि ट्रायल सही नहीं हुआ, कुछ कह रहे हैं फांसी के पहले उसके परिवार से मिलने नहीं दिया गया, कुछ कह रहे हैं कि शव तो उसके परिवार को सौंपना ही चाहिए। सबसे बड़ी बात तो ये कि कुछ लोग फांसी की सजा पर ही सवाल खड़े कर रहे हैं, कह रहे हैं कि फांसी की सजा सभ्य समाज के लिए अभिशाप है। अब एक बात मेरी समझ में नहीं आ रही है कि आखिर एक आतंकवादी की इतनी हिमायत के मायने क्या है ? मुझे तो इस मामले में टीवी चैनलों का रवैया भी बचकाना लग रहा है। चलिए पहले मैं अपना नजरिया साफ कर दूं उसके बाद बात को  आगे बढ़ाता हूं। मुझे भी लगता है कि फांसी के मामले में एक बहुत बड़ी गलती सरकार ने की है। इसके लिए सरकार की जितनी भी निंदा की जाए वो कम है। गलती ये कि सुप्रीम कोर्ट से जब 2004 में ही फांसी की सजा सुना दी गई तो अफजल को सूली पर टलकाने में आठ साल क्यों लगे ? क्यों नहीं उसी समय फांसी दी गई ? हम सब जानते हैं कि संसद पर हमले से पूरे देश में गुस्सा था, खुद अफजल ने अपनी भूमिका स्वीकार कर ली थी। उस वक्त फांसी दी जाती तो देश में सकारात्मक संदेश जाता और इस मुद्दे पर सियासत नहीं होती। आज अफजल का मुद्दा सियासी बन गया है, जिसके लिए सरकार का रवैया जिम्मेदार है।

मैं बात राष्ट्रपति के अधिकार यानि दया याचिकाओं के निस्तारण की भी करुंगा, लेकिन पहले छोटी सी बात अफजल गुरु की फांसी और उसके शव को लेकर हो रही सियासत की भी कर ली जाए। आजकल देख रहा हूं कि तमाम न्यूज चैनलों पर रंगीन खादी का कुर्ता, सदरी और टेढ़ी मेढ़ी दाड़ी रखे कुछ मानवाधिकार की बात करने वाले समाजसेवी डेरा जमाए रहते हैं और वो एक अलग ही राग अलापते फिर रहे हैं। खुद को ये साबित करने के लिए कि वो बड़े भारी चिंतक हैं, इसलिए हाथ में पेंसिल भी घुमाते रहते हैं, जबकि उनके सामने कागज या कापी तक नहीं होती है। कहते क्या हैं, जानते हैं ? इन्हें बहुत पीड़ा है कि अफजल को फांसी देने के पहले उसे उसके परिवार से नहीं मिलाया गया। व्यक्तिगत रूप से मेरी राय भी है कि मिला दिया जाता तो अच्छा था, लेकिन नहीं मिलाया तो जितनी हाय तौबा मची हुई है, उसकी जरूरत नहीं है। ये आतंकवादियों का मास्टर माइंड था, जब हम इसका चेहरा देखते हैं तो हमें संसद हमले में शहीद हुए जांबाज सैनिकों और उनके परिवारों की सूरतें भी याद आती हैं। क्या इस आतंकवादियों की मास्टरमाइंड ने पहले सबको बताया था कि आज संसद पर हमला होगा और इतने लोग मारे जाएंगे, सब लोग अपने घर वालों से मिलकर ड्यूटी पर आना। इसलिए मुझे नहीं लगता कि कुछ ऐसा कर दिया गया कि इतना गला फाड़ कर चिल्लाया जाए।

एक बात मैं बहुत जिम्मेदारी के साथ कहना चाहता हूं। आज मांग हो रही है कि अफजल का शव उसके परिवार वालों को सौपा जाए। ये मांग कश्मीर की सरकार से लेकर वहां की ज्यादातर राजनीतिक पार्टियां तक कर रही हैं। अगर किसी वजह से सरकार ने लचीला रुख अपनाया और ऐसा किया तो सरकार  कश्मीर के मामले में अब तक की सबसे बड़ी गलती करेगी। कश्मीर के नेताओं के जिस तरह से बयान आ रहे हैं, उससे तो ऐसा लगता है कि जैसे  अफजल गुरु आतंकवादियों का मास्टर माइंड ना होकर कोई इनका धर्मगुरू था। फिर देश की दो कौडी की राजनीति और राजनेताओं का कोई भरोसा नहीं है, ये कुर्सी के लिए कुछ भी कर सकते हैं। पता चला कि कोई मुख्यमंत्री शपथ लेते ही अफजल गुरू को शहीद का दर्जा दे और उसकी कब्र पर जाकर फूल माला चढ़ाए। अफजल की कब्र पर सियासत शुरू हो सकती है। हमें अमेरिका की कुछ चीजें याद रखनी चाहिए। ओसामा बिन लादेन को मारने के बाद अमेरिका ने उसके शव को समुद्र में दफन कर दिया। उसने ये विवाद ही खड़ा नहीं होने दिया कि शव कौन दफनाएगा ? कहां दफनाया जाएगा? शव उसके परिवार को सौंपा जाएगा या नहीं? शव को समुद्र में दफन कर सभी विषय एक ही रात में खत्म कर दिया। यहां क्या हो रहा है पूरा देश देख रहा है। हमें लगता है कि आतंकवादियों के मामले में अगर कोई भी व्यक्ति, संस्था या समाज उसकी पैरोकारी करे और एक साजिश के तहत विवाद खड़े करे, तो उसके खिलाफ भी सख्त कार्रवाई होनी चाहिए।

मुझे महामहिम लोगों से भी शिकायत है। बहुत बड़ी-बड़ी बहस हुआ करती है कि देश की अदालतों में लाखों मामले लंबित है। मुकदमों की सुनवाई नहीं हो पा रही है। देश के लोगों को कोर्ट कचहरी का कई-कई साल चक्कर लगाने पड़ रहे हैं। लेकिन इस बात पर कभी बहस नहीं होती कि आखिर ट्रायल कोर्ट, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट अपना कीमती वक्त जाया कर मामलों की सुनवाई करता है, और सजा सुनाता है। फिर खुंखार अपराधी एक दया याचिका लगाकर सरकार पर, देश पर और जेल पर बोझ बना रहता है। आखिर महामहिम लोगों के पास ऐसे कौन से काम होते हैं जो दया याचिकाओं का निस्तारण नहीं कर पाते हैं। वैसे भी इस मामले में ज्यादातर तो सरकार के फैसले पर ही राष्ट्रपति को मुहर लगानी होती है, फिर ये बात समझ से परे है कि दया याचिका कई साल तक लंबित रहे। अफजल गुरू का मामला राजनीति में तब्दील हो जाने की एक बड़ी वजह पूर्व महामहिम भी रहे हैं। इस मामले का समय से निस्तारण हो जाता तो बीजेपी इसे मुद्दा ना बना पाती। अब अफजल को फांसी देकर सरकार और कांग्रेस नेता जिस तरह सीना तान रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि उन्होंने आतंकवादियों को संदेश देने की नहीं बल्कि बीजेपी को संदेश देने की कोशिश की है।

अच्छा ये एक संवेदनशील मामला था, इस पर फूंक फूंक कर कदम रखने की जरूरत थी और है। लेकिन इन खबरिया चैनलों का क्या किया जाए ? यहां कुछ भी अलंतराणी चलती रहती है। टीवी चैनलों पर जिस तरह हर मुद्दे पर बहस हो रही है, उससे लगता है कि चैनलों में " महाज्ञानी " बैठे हैं, जिन्हें सब कुछ पता है। अच्छा चैनलों की भीड़ की वजह से अब पढ़े लिखे और समझदार नेताओं ने टीवी से किनारा कर लिया है, घिसे पिटे नेता, सामाजिक कार्यकर्ता और रिटायर पत्रकार चैनल के माध्यम से एक विचार थोपने की कोशिश करते हैं। मेरा मानना है कि अधकचरे विचार आतंववाद और आतंकवादियों से कहीं ज्यादा खतरनाक हैं। अब आज कल देश में बुद्धिजीवियों की बुद्धि मापने का कोई निर्धारित पैमाना तो है नहीं। तमाम सामाजिक संस्थाओं की कमान चोट्टों के हाथ में है। लेकिन हमारी आपकी मजबूरी है कि उनके नाम सामाजिक संस्था का पंजीकरण है, तो उन्हें सामाजिक कार्यकर्ता तो कहना ही पड़ेगा। बहरहाल बिना मांगी राय का कोई मतलब नहीं है, लेकिन मैं न्यूज चैनल के रहनुमाओं से कहना चाहता हूं कि " वो टाक शो " तत्काल प्रभाव से बंद कर दें। इसका कोई सकारात्मक प्रभाव ना चैनल पर पडता है और न ही समाज पर कोई असर होता है। फुंके हुए कारतूस दोबारा नहीं चलाए जा सकते, इन पर दांव लगाना बेमानी है और जनता के साथ धोखा भी। न्यूजरूम को नेता और सामाजिक कार्यकर्ता बनाने का काम छोड़ना होगा।     


चलते - चलते :
बहुत बात हो रही है कि अफजल और कसाब को फांसी हो गई, लेकिन अब क्या होगा ?  मित्रों माफ कीजिएगा प्रसंगवश मुझे ये बात कहना पड़ रहा है कि दो मुसलमानों को फांसी देने के बाद अब सरकार की औकात नहीं है कि तीसरी फांसी भी किसी मुसलमान को दी जाए। अब कुछ हिंदुओं को फांसी पर लटकाया जाएगा और वो भी जल्दी। इंतजार कीजिए, जल्दी मिलेगी खबर।


Friday, 15 February 2013

बदबू आ रही है मनमोहन सरकार से ...


बात शुरू कहां से करूं ये ही समझ नहीं पा रहा हूं। जब बात होती है प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की और लोग उन्हें ईमानदार बताते हैं तो सच कहूं, मुझे तो गुस्सा आता है। सरकार कैसी है ये चर्चा तो बाद में करुंगा पर ये बात मेरी समझ में नहीं आ रही कि आखिर मनमोहन सिंह देश के बारे में कब सोचेंगे ? कब तक कुर्सी से चिपके रह कर देश को गर्त में जाते अंधों की तरह देखते रहेंगे। अब देश ने देख लिया कि वो बीमार ही नहीं अपंग प्रधानमंत्री साबित हो रहे हैं। उनकी कोई सुनता नहीं, उन्हें ही सबकी सुनना उनकी मजबूरी है। मेरा मानना है कि कम से कम वो सोनिया और राहुल से तो ज्यादा दिमाग रखते ही हैं, लेकिन बेचारे करें क्या ! 10 जनपथ के रहमोंकरम पर कब तक 10 जनपथ की रखवाली करते रहेंगे? ये बात मैं पहले भी कई बार कह चुका हूं आज भी कहूंगा कि आज जो हालात हैं, उससे तो यही लगता है कि केंद्र सरकार चोरों की जमात है और प्रधानमंत्री चोरों की जमात के सरदार हैं। प्रधानमंत्री जी कभी सोने के पहले एक बार सोचिएगा जरूर कि देश आपकी अगुवाई में किस हद तक गर्त में जा चुका है, फिर अगर दो पैसे का ईमान बचा हो तो देश से माफी मांगिए और प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़कर घर जाइए।

मनमोहन सिंह की जो तस्वीर सामने आ रही है, उससे ये भी साफ हो जाता है कि वो नौकरशाह कैसे रहे होंगे ? वैसे तो उनके बारे में कई बातें आम जनता के बीच में है कि वो अच्छी पोस्टिंग के लिए कैसे नेताओं के पैरों में गिरे रहते थे। तमाम ऊंचे पदों पर पहुंचने के लिए उन्होंने बहुत दरबार बाजी की है, चाहे वो समय स्व. प्रधानमंत्री चंद्रशेखर जी का रहा हो या फिर प्रणव मुखर्जी के वित्तमंत्री रहने के दौरान ऊंची कुर्सी के लिए मनमोहन सिंह की बेचैनी रही हो। नौकरशाह रहे मनमोहन सिंह को हमेशा अच्छी कुर्सी का लालच बना रहा है, कुर्सी उनकी एक ऐसी कमजोरी है जिसके लिए वो देश की मान मर्यादा को भी ताख पर रख सकते हैं। मैं आज तक नहीं समझ पाया कि आखिर अब मनमोहन सिंह का मकसद क्या है ? सरकार चला नहीं पा रहे हैं, उनकी अगुवाई में देश कमजोर हो रहा है, आधे से अधिक मंत्री भ्रष्ट साबित हो चुके हैं, प्रधानमंत्री होते हुए आपकी पार्टी में भी दो पैसे की पूछ नहीं है। नौ साल से प्रधानमंत्री हैं, फिर भी ऐसा कुछ नहीं कर पाए जिससे देश के किसी भी हिस्से से चुनाव जीत सकें। आप ही नहीं पूरा देश जानता है कि आप अपनी काबिलियत पर प्रधानमंत्री बिल्कुल नहीं है, आप प्रधानमंत्री है सोनिया गांधी के रहमोकरम पर, राहुल के कृपा पर और सीबीआई की वजह से। वरना आप एक दिन प्रधानमंत्री नहीं रह सकते।

वैसे कांग्रेसी आपको ईमानदार बताते हैं, निकम्मे हैं जो ऐसा कहते हैं। कोल ब्लाक आवंटन में प्रधानमंत्री कार्यालय की भूमिका पर उंगली उठी। गलत ढंग से कोल ब्लाक का आवंटन हुआ और देश को हजारों करोड का नुकसान हुआ। टूजी के मामले में भले ए राजा ने जेल काटा हो, लेकिन मेरा मानना है कि अगर ए राजा को साल भर जेल में रहना पड़ा है तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को दो साल के लिए जेल भेजा जाना चाहिए। प्रधानमंत्री से एक सवाल है, क्या ये सही नहीं है कि यूपीए दो में आप ए राजा और टीआर बालू को मंत्री नहीं बनाना चाहते थे। लेकिन बालू को मंत्रिमंडल में ना लेने के लिए करुणानिधि राजी हो गए, पर राजा के मामले में आप की एक नहीं चली और आपने ये जानते हुए कि राजा बेईमान है,  इसके बाद भी उसे मंत्री बनाया और लूटने के लिए टेलीकम्यूनिकेशन विभाग का मंत्रालय भी आपको मजबूरी में देना पड़ा। मतलब साफ है कि आपने देश का सौदा किया। मनमोहन जी कभी आपको लगता है कि ऐसे ही आप चोरों के सरदार कब तक बने रहेंगे?

वैसे सब भूल गए होंगे, इसलिए एक बार याद दिलाना जरूरी है। आपके राज में सीमा पर मारे गए लोगों के परिवार के लिए प्रस्तावित आदर्श सोसायटी में कैसे बंदरबाट हुई। कामनवेल्थ गेम में तो आपकी सरकार, दिल्ली की सरकार और कांग्रेसी नेता सुरेश कलमाणी सबका असली चेहरा सामने आ गया। प्रधानमंत्री जी थोरियम घोटाला तो अभी जनता की नजर में ठीक से आया ही नहीं है, वरना पता चल जाए कि आपकी सरकार पर कितनी और कैसी पकड़ है। मन में एक सवाल है वो आपसे पूछना चाहता हूं। मैं देखता हूं कि कई बार अगर मेरी वजह से आफिस का कोई काम लेट हा जाए या फिर उसमें कोई गडबड़ी हो जाए तो सच कहूं खाना पीना कुछ भी अच्छा नहीं लगता, कई दिन तक नींद उड़ी रहती है। आपको कभी ऐसा लगा कि आपकी अगुवाई में देश की जितनी दुर्दशा हो रही है,  दुनिया भर में देश की साख को बट्टा लग रहा है, कभी लगा कि अब बहुत हो गया, मुझसे देश नहीं संभल रहा है, चमचागिरी करके किसी सरकारी विभाग में एक कुर्सी का काम निपटाया जा सकता है, पर देश की जिम्मेदारी नहीं निभाई जा सकती। अंदर का इंशान कभी आपसे सवाल नहीं करता है प्रधानमंत्री जी ?

अब नया घोटाला ! देश की मीडिया और विपक्ष साल भर से चीख रहा है कि हेलीकाप्टर की खरीद में बड़ा घोटाला हुआ है। बीजेपी नेता ने तो इस घोटाले को संसद मे भी उठाया। सरकार की ओर से जवाब आया सब ठीक है। अब इटली की जिस कंपनी ने हेलीकाप्टर की सप्लाई की उसी का सीईओ जेल भेज दिया गया। उस पर आरोप ये है कि इस सौदे के लिए उसने भारत के अधिकारियों को घूस दिया। अब ये हमारे ही देश में हो सकता है कि जिसने घूस दिया वो बेचारा तो जेल पहुंच गया, लेकिन भारत में जिसने घूस लिया उसके बारे में अभी कोई अता पता ही नहीं है। शिकायतें हुई, आरोप लगे, अखबारों में खबरें छपीं, संसद में सवाल पूछा गया पर अपने मनमोहन सिंह मौन रहे। मुझे लगता है कि मनमोहन सिंह जांच करा लेते, लेकिन इसमे इटली का नाम देखकर उनके पसीने छूट गए। इसलिए खामोश रहे, अब क्या करें, अब तो बोलने लायक ही नहीं रहे।

थोड़ा इस मामले को समझ भी लीजिए । अगस्टा वेस्टलैंड कम्पनी से भारत सरकार ने 12 वीआईपी हेलीकाप्टर खरीदने की डील पर हस्ताक्षर किये थे। मामले की शुरुवात 2000 से हुई थी। कहा तो ये जा रहा है कि हेलीकाप्टर की कीमत इतनी अधिक थी कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने इसे खरीदने से इनकार कर दिया। लेकिन भारत भला कैसे पीछे रहता। सच कहूं तो शक भी तभी हुआ कि जो हेलीकाप्टर मंहगे होने की वजह से अमेरिका खरीदने से इनकार कर सकता है, भला भारत उसे खरीदने की हिम्मत कैसे जुटा सकता है? एक बार तो ऐसा भी लगा कि निर्माता कंपनी इटली की है, इटली का नाम आते ही हमारे कांग्रेसी नेताओं के पसीने छूट जाते हैं, कहीं इसी वजह से तो आर्डर नहीं दिए गए ? लेकिन बाद मे पता चला कि ये सौदा तो एनडीए की सरकार में हुआ था, बस इस सरकार में तो दलाली ली गई है।

खैर बड़ी बड़ी बातें छोडिए। प्रधानमंत्री जी मैं एक काम के लिए तो आपका शुक्रिया जरूर अदा करना चाहूंगा कि आपने कम से कम गांधी परिवार से बदला तो ले लिया। उन्होंने अगर आपका शोषण किया तो आपने भी देश को ऐसी जगह पहुंचा दिया जहां से ना देश अपने पैर पर आसानी से खड़ा हो सकता है और ना ही कांग्रेस अपने पैरों पर खड़ी हो सकती है। आपने देश और कांग्रेस दोनों को लंगड़ा यानि अपाहिज बना दिया। आपको गांधी परिवार ने अगर अपनी उंगली पर नचाया तो आपने भी ऐसा कर दिखाया कि अब कांग्रेस का सपना कभी पूरा नहीं हो सकता, मसलन कांग्रेस की अब वो स्थिति नहीं रहेगी कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बन सकें। चलिए कोई बात नहीं, कुछ तो देशहित में आपने काम किया ही है।

Tuesday, 12 February 2013

बड़ा सवाल : क्या मूर्ख हैं रेलमंत्री ?


सका जवाब सिर्फ यही है हां हमारे रेलमंत्री मूर्ख हैं, मैं कहूं कि बिल्कुल 24 कैरेट के मूर्ख हैं तो इसमें कुछ भी गलत नहीं होगा। महाकुंभ में मौनी अमवस्या के दिन इलाहाबाद रेलवे प्लेटफार्म पर मची भगदड़ और उसमें मारे गए लोगों के बारे में चर्चा करूंगा पहले मैं आपको ये बता दूं कि जब से पवन कुमार बंसल रेलमंत्री बने हैं, वो कर क्या रहे हैं। सच बताऊं वो कुछ नहीं कर रहे हैं , रेल अफसरों के साथ बैठकर रेल को समझने की कोशिश भर कर रहे हैं। जिस तरह से रेलवे के मामले में उनके बयान आ रहे हैं, उससे तो ऐसा लगता है कि रेलवे के बारे में उनकी जानकारी एक थर्ड क्लास यात्री से ज्यादा नहीं है। यही वजह है कि वो अफसरों के हाथ की कठपुतली बने हुए हैं। उन्होंने आंखो पर काली पट्टी बांध रखी है और रेल अफसर महाभारत के संजय की तरह उन्हें जो समझाते हैं, उन्हें उतना ही समझ में आता है। रेलमंत्री बनने के बाद सिर्फ एक ही रोना रोए जा रहे हैं, रेलवे की माली हालत खराब है, इसलिए किराया बढ़ाना पड़ेगा।

किराया बढ़ाइये, मगर देश की जनता को गुमराह मत कीजिए। बार-बार कह रहे हैं कि रेलवे में 12 साल से किराया नहीं बढ़ा। अगर कोई रेलमंत्री ऐसी बात कहता है तो समझ लेना चाहिए कि वो रेलवे की एबीसीडी नहीं जानता। मैं आपको बता दूं कि चोर दरवाजे से रेलवे का किराया बढ़ाकर इन 12 सालों में किराया दोगुना से भी ज्यादा हो गया है। सच ये है कि रेलवे का किराया तर्कसंगत नहीं है। यानि आप स्लीपर क्लास में दिल्ली से इलाहाबाद का सफर करें तो किराया है 300 रुपये, वहीं एसी थ्री में चले जाएं तो किराया 810 रुपये हो जाता है, एसी सेकेंड में ये किराया 1155 रुपये हो जाता है। देश में मात्र 20 फीसदी लोग ही एसी कोच में सफर करते हैं, जिन पर हर साल किराए का बोझ बढ़ा दिया जा रहा है, इससे शोरगुल भी हो जाता है कि किराया बढा और रेलवे को अपेक्षित आय भी नहीं होती है। ऐसे में 80 फीसदी यात्री जिस क्लास में चलते हैं, वहां किराए को तर्कसंगत बनाने की जरूरत है। खैर.. मैं देख रहा हूं कि बंसल जी जब मुंह खोलते है कि रेलवे का किराया बढ़ाने के अलावा कोई बात ही नहीं करते। बसंल जी थोड़ा रेलवे को और समझिए फिर मुंह खोलिए, कभी भी चुनाव हो सकते हैं, किराया-किराया ज्यादा शोर मत मचाइये। रेलवे के खजाने को दुरुस्त करने के तमाम और भी उपाय हैं, उन पर भी गौर कीजिए। पिछले दिनों जिस तरह से आपने किराया बढ़ाया है, ऐसे तो आज  तक किराया नहीं बढ़ा। इससे तो अच्छा है कि आप रेलवे में जेबकतरों की भर्ती कर लें, जो सफर के दौरान यात्रियों की जेब भी काटे। दो दिन से शोर मचा रहे हैं कि डीजल के दाम बढ़ गए,  अब किराया बढ़ाना जरूरी हो गया है। ये भी कहिए ना कि इलाहाबाद भगदड़ में कई लोगों के मारे जाने पर उन्हें मुआवजा देने से रेलवे पर अतिरिक्त बोझ बढ़ा है, इसलिए किराये में और बढ़ोत्तरी और भी जरूरी हो गई है। इस बात को यहीं खत्म करते हैं, लेकिन किराए के मामले में थोड़ा पढ़े लिखों की तरह व्यवहार कीजिए।

चलिए इलाहाबाद की घटना का जिक्र कर लें। आपके रेलमंत्री रहते इलाहाबाद का ये महाकुंभ आपके लिए पहली चुनौती थी, जिसमें आप फेल हो गये। सच कहूं तो रेलमंत्री फेल नहीं हुए हैं, बल्कि अपनी गैरजिम्मेदार और गैरजरूरी बातों से ये भी साबित कर दिया कि वो कम से कम रेलमंत्री बनने के काबिल बिल्कुल नहीं हैं। जब से उन्होंने रेलमंत्री  के तौर पर मुंह खोलना शुरू किया है एक बार भी ऐसा नहीं लगा कि कोई जनप्रतिनिधि बोल रहा है। हमेशा यही लगा कि कोई घुटा हुआ रेल का अफसर अपनी काली जुबान खोल रहा है। रेलवे का बचाव करना भी इन्हें नहीं आता। कह रहे हैं कि महाकुंभ में चार करोड़ लोग आए थे, और इतने लोगों की सुरक्षा करने में रेल महकमा सक्षम नहीं है। मुझे लगता है कि रेलमंत्री का गणित बहुत कमजोर है, चलिए कुछ दिन बाद ही सही जरा बता दीजिएगा कि रेलवे ने कितने लोगों को गन्तव्य तक पहुंचाया ? रेलमंत्री को कौन समझाए, कह रहे हैं कि इलाहाबाद में इतने ज्यादा लोग थे कि संभाल नहीं पाए, मैं पूछता हूं कि 2010 में छठ पूजा के दौरान दिल्ली रेलवे स्टेशन पर भगदड़ मच गई थी, यहां भी कई लोगों की मौत हो गई थी, मंत्री जी यहां तो संख्या हजारों में भी नहीं थी। दरअसल मानना चाहिए की रेलवे में आज भी "प्रोफेशनल एटीट्यूड" की कमी है। इस पर ध्यान देने के बजाए झगड़ा ये हो रहा है कि इसमें गलती केंद्र सरकार की है या राज्य सरकार की।

राज्य सरकार की भी बात करुंगा, पहले जरा रेलवे के इंतजामों की बात कर लें। मैं जानना चाहता हूं कि दर्शनार्थियों की भीड़ एक ही जगह ना जमा हो जाए, इसके लिए क्या रेलवे ने कोई इंतजाम किया था। मसलन क्या ऐसा नहीं हो सकता था कि बिहार की तरफ जाने वाली स्पेशल ट्रेनों को नैनी और करछना से संचालित किया जाता, जौनपुर, लखनऊ, फैजाबाद, गोंडा सुल्तानपुर की ओर जाने वाले यात्रियों को प्रयाग और फाफामऊ से ट्रेन की सुविधा दी जाती। इसले अलावा फतेहपुर, कानपुर दिल्ली की ओर जाने वाले यात्रियों को भरवारी या दूसरे किसी हाल्ट से ट्रेन मुहैया कराई जाती। छोटी लाइन की ट्रेन रामबाग से चलती ही है। इससे कम से कम इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर उतनी भीड़ नहीं होती, जितनी वहां हो गई थी। इलाहाबाद से लंबी दूरी के यात्रियों को ट्रेन दी जाती। मैं कहता हूं कि इसी तरह का कुछ और भी किया जा सकता था, जिससे कम से कम एक ही स्टेशन पर भीड़ का दवाब ना होता। आप सबको पता है कि खास मौकों पर स्नान के लिए यहां कई दिन पहले से लोग जमा होते हैं, लेकिन जाते एक ही दिन हैं। ऐसे में क्या ऐसा कुछ नहीं किया जा सकता कि स्टेशन से काफी पहले टिकट खिड़की की सुविधा होती और ट्रेनों की क्षमता के अनुसार ही यहां टिकट देने के बाद खिड़कियां बंद कर दी जातीं और स्टेशन की ओर उन्हें ही आने की इजाजत होती, जिनके पास टिकट है।

मुझे याद है कि लखनऊ में मायावती की रैली में लगभग तीन लाख लोग यूपी से शामिल हुए और भीड़ का ठीक से प्रबंधन न कर पाने की वजह से यहां भगदड़ मची, जिसमें कई लोगों की मौत हो गई थी। जब रेल महकमा लाख दो लाख लोगों का प्रबंध सही तरह से नहीं कर सकता है तो इतने बड़े मेले का प्रबंध भला वो क्या करेगा, फिर जब लल्लू टाइप रेलमंत्री हों तब तो बिल्कुल नहीं। इस हादसे की अभी जांच होनी है, जिससे तय होगा कि आखिर  चूक कहां हुई ? अभी ये पता किया जाना है कि आखिरी समय में ट्रेन का प्लेटफार्म क्यों और किसके आदेश पर बदला गया ? इसके पहले ही रेलमंत्री अपने महकमें को क्लीन चिट दे रहे हैं। कह रहे हैं कि रेलवे की ओर से सबकुछ ठीक था। सच बताऊं गाली देने का मन हो रहा है ऐसे मंत्री को, लेकिन क्या करें थोड़ी देर और मर्यादा में रह ही लेते हैं। पवन कुमार बंसल को ये नहीं दिखाई दिया कि हादसे के बाद घायलों को चादर और कंबल में उठाकर एंबूलेंस तक ले जाया जा रहा था, प्लेटफार्म पर स्ट्रेचर तक की व्यवस्था नहीं थी। हादसे के ढाई घंटे के बाद पहली एंबूलेंस लोगों को दिखाई दी, घटना स्थल पर तीन घंटे तक कोई डाक्टर नहीं आया। हादसे में मारे गए लोगों के शव चार घंटे तक प्लेटफार्म पर यूं ही पड़े रहे। इन सबके  बाद भी रेलमंत्री कहते हैं कि सबकुछ ठीक ठाक था।

आखिर में एक बात और रेलमंत्री ने साफ साफ कह दिया कि इतनी बड़ी भीड़ को संभालने में रेल महकमा असमर्थ है। बंसल जी अगर ऐसा है तो आपको एक मिनट भी रेलमंत्री रहने का हक नहीं है। सच तो ये है कि इस हादसे के पहले और बाद जो तस्वीर रेल महकमें के सामने आई है, कहीं से ऐसा नहीं लगा कि रेलवे ने भी कोई तैयारी की है। अब तैयारी भी भला क्या करते ? रेलमंत्री को सिर्फ किराया बढ़ाने से मतलब है, इसके अलावा वो कोई और बात करते ही नहीं है। खैर बंसल साहब जो हालात दिखाई दे रहे हैं उससे साफ है कि आप तो डूबेंगे ही रेलवे को भी डुबा देगें। फिलहाल सिर्फ एक बात आपको बता रहा हूं इसे ही गांठ बांध लीजिए, रेल के अफसरों पर भरोसा कम कीजिए, ये आपको कहीं का नहीं छोड़ेंगे। सारी गलत बातें मीडिया के सामने आपसे कहलाएंगे और खुद पाक साफ बने रहेंगे। समझ गए ना।

अब छोटी सी बात यूपी सरकार की। मैं राहुल गांधी के मुकाबले अखिलेश यादव को समझदार मानता था। मुझे लगता था कि इन्हें पता है कि मूली और आलू जमीन के अंदर लगते हैं और जबकि भिंडी और तरोई ऊपर लगता है। मतलब ये कि शासन- प्रशासन का बेसिक तो कम से कम यादव जी जानते ही होगे। मुख्यमंत्री जी राजकीय रेलवे पुलिस यानि जीआरपी रेलवे स्टेशन पर तैनात होती है। ये पुलिस राज्य सरकार के अधीन काम करती है। इनके ट्रांसफर, पोस्टिंग, दंड सबकुछ तो राज्य सरकार के हाथ में होता है। फिर आपात स्थिति में स्थानीय प्रशासन को असीमित अधिकार प्राप्त हैं। ये आपको पता है ना। अगर आपके प्रशासन को लगता है कि रेलवे की लापरवाही से कानून व्यवस्था बिगड़ सकती है तो आपका प्रशासन कोई भी कड़ा फैसला कर सकता है। खैर आप तो शादी में व्यस्त थे, इसलिए आपको पूरी बात पता ही नहीं चली होगी,  अभी मेला महीने भर है और कई स्नान भी हैं, रेलवे के साथ तालमेल करके ऐसा प्रबंध करें कि अब आगे कुछ ना हो। भूल से भी ये मत कहिएगा कि राज्य सरकार का इससे कोई लेना देना नहीं है, वरना लोग हंसेगे।


Sunday, 3 February 2013

बीजेपी : डूबते को तिनके का सहारा !


देश की राजनीति और उसका चरित्र काफी कुछ बदल गया है। अब किसे नहीं पता है कि कांग्रेस की सरकार बनी तो उनका प्रधानमंत्री कौन होगा ? ये फैसला 10 जनपथ ही करेगा, और अगर किसी तरह एनडीए के पक्ष में बहुमत हुआ तो प्रधानमंत्री का फैसला नागपुर यानि आरएसएस मुख्यालय ही तो करेगा। मुझे तो नहीं लगता कि इस बात में किसी को किसी तरह का कोई कन्फ्यूजन होना चाहिए। लेकिन देश में एक राजनीतिक मर्यादा बनी हुई थी, पहले चुनाव होता है, फिर नवनिर्वाचित सांसदों की बैठक में संसदीय दल का नेता चुना जाता है, जो राष्ट्रपति के यहां जाकर बताता है कि सांसदों ने उसे नेता चुनाव है, अब उसे सरकार बनाने का मौका दिया जाए। लेकिन अब तो चुने जाने वाले सांसदों का नेता चुनने का अधिकार पहले ही छीन लेने की साजिश चल रही है। मसलन अगर प्रधानमंत्री  कौन होगा, ये पहले ही तय हो जाए तो चुने हुए सांसदों से क्या मशविरा लिया जाएगा। खैर ये बड़ी बात नहीं है, ये तो राजनीतिक चरित्र में गिरावट का एक नमूना भर है।

आज देश की निगाह सबसे बड़े विपक्षी दल यानि बीजेपी पर लगी हुई है। ये वो पार्टी है जिसे अपने चाल चरित्र और चेहरे पर गुमान था। लेकिन ये चेहरा भी अब दागदार है। कुछ साल पहले बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष बंगारु लक्ष्मण कैमरे पर पैसे लेते हुए पकड़े गए, उन्हें अध्यक्ष का पद गवांना पड़ा। अब कुछ ऐसा ही भ्रष्ट आचरण दिखा बीजेपी के दूसरे पूर्व अध्यक्ष नीतिन गड़करी का। हालांकि नागपुर तो उन्हें दोबारा अध्यक्ष बनाने को लेकर उतावला था, लेकिन पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी के अड़ जाने से गड़करी को ये पद छोड़ना पड़ा। इन दो अध्यक्षों ने पार्टी को काफी नुकसान पहुंचाया है। वैसे भी ईमानदारी से अगर बात की जाए तो गड़करी अध्यक्ष तो थे नहीं, वो एक पुतला भर थे, जिन्हें कुर्सी पर बैठाकर उनमें अध्यक्ष पद की प्राण प्रतिष्ठा कर दी गई थी। उनका काम नागपुर के आदेश को महज पार्टी के लोगों तक पहुंचाना भर था। ठीक उसी तरह जैसे बिग बास के शो में बिग बास एक लिखित आदेश दिया करते थे और वो पत्र घर का कोई एक सदस्य सबको सुना देता था। चलिए इस पर ज्यादा बात नहीं करते हैं, ये कह कर बात को खत्म करते हैं कि अब बीजेपी को चाल, चरित्र और चेहरे का दावा करना छोड़ देना चाहिए, क्योंकि असलियत सामने आ चुकी है।

यहीं छोटी सी बात नए अध्यक्ष राजनाथ सिंह की कर ली जाए उसके बाद प्रधानमंत्री पद को लेकर छिड़ी बहस को आगे बढ़ाते हैं। राजनाथ सिंह सुलझे हुए नेता है, इसमें कोई दो राय नहीं, लेकिन किसी भी बड़े मुद्दे को सुलझाने की क्षमता उनमें नहीं है। राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया ने पिछली बार उनकी बहुत छीछालेदर की। वो जो भी कहते वसुंधरा मानने से ही इनकार कर देतीं। बहरहाल वरिष्ठ नेताओं के सहयोग से किसी तरह बीच बचाव हो पाया था। इस बार अध्यक्ष बनते ही श्री सिंह ने वसुंधरा को उनकी मर्जी के मुताबिक पद देकर खुश कर दिया, जिससे बेवजह की मुश्किल से बचा जा सके। वैसे उन्हें देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में पार्टी का अध्यक्ष और मुख्यमंत्री दोनों बनने का मौका मिला, यहां तक कि वो पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रह चुके हैं। लेकिन वो कभी भी यूपी में विधानसभा और लोकसभा चुनाव में पार्टी को जीत नहीं दिला सके। इसलिए वो किसी नेता को बहुत अधिकार के साथ आदेश नहीं दे सकते, क्योंकि आज तक राजनाथ अपनी सियासी जमीन को बहुत मजबूत नहीं बना पाए हैं।

वैसे सच यही है कि बीजेपी एक डूबते हुए जहाज से ज्यादा कुछ नहीं थी, लेकिन केंद्र में आजादी के बाद अब तक की सबसे भ्रष्ट और कमजोर सरकार की वजह से लोग एक बार फिर बीजेपी की ओर उम्मीद से देख रहे हैं। सब जानते हैं कि यूपीए (एक) में ही प्रधानमंत्री मनमोहन बुरी तरह फेल हो चुके थे, उनके कमजोर नेतृत्व की वजह से देश की अर्थव्यवस्था तो पटरी से उतरी ही, मंत्रिमंडल भी चोरों की जमात साबित हुई। जिसे देखो वही भ्रष्ट निकला। ऐसे में कांग्रेस को चाहिए था कि यूपीए (दो) में मनमोहन सिंह को सम्मानजनक तरीके से बाहर का रास्ता दिखा दे, लेकिन 10 जनपथ को मजबूत प्रधानमंत्री के बजाए कठपुतली प्रधानमंत्री ही शूट कर रहा था, इसलिए जनाब मनमोहन सिह की दोबारा लाटरी निकल गई। अगर सोनिया गांधी ने दूसरी बार मनमोहन के बजाए प्रणव मुखर्जी को प्रधानमंत्री बनाया होता तो आज तस्वीर बिल्कुल अलग होती। बहरहाल सरकार की भ्रष्ट करतूतों की वजह से ही देश में बदलाव का एक संदेश है। लोगों को लग रहा है चूंकि विपक्ष में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी है, इसलिए प्रधानमंत्री तो बीजेपी का ही बनेगा।

नीतीश जी इस तस्वीर में आप ही हैं ना  ?
कहावत सुना ही है आप सबने कि डूबते को तिनके का सहारा। ऐसा ही कुछ बीजेपी में नरेन्द्र मोदी के साथ है। गुजरात में नरेन्द्र मोदी की वापसी हो गई है, लेकिन कितनी मुश्किल थी ये वापसी, ये बात खुद नरेन्द्र मोदी जानते हैं। चूंकि इस चुनाव में मोदी का पूरा राजनैतिक कैरियर दांव पर लगा था, लिहाजा उन्होंने ये नहीं देखा कि उनका कौन सा उम्मीदवार भ्रष्ट है, किसकी छवि खराब है, किसके ऊपर गंभीर आपराधिक मामले हैं। मोदी ने सिर्फ ये देखा कि कौन आदमी चुनाव जीत सकता है। खैर नतीजा आ चुका है और हम कह सकते हैं कि जो जीता वही सिकंदर । इसलिए अब मोदी की, उनके भ्रष्ट मंत्रियों की, उनके दागी विधायकों की या फिर गुजरात में अधूरे विकास कार्यों की चर्चा करना बेमानी है। बीजेपी को लगता है  कि नरेन्द्र मोदी के सहारे वो दिल्ली में सरकार बना सकती है। पार्टी के दो चार बड़े नेता भले अपने बंगले के भीतर चुपचाप बैठे हों, पर पार्टी के 90 फीसदी नेताओं ने मोदी की चरणवंदना शुरू कर दी है, सभी जोर लगा रहे हैं कि पार्टी उन्हें तत्काल प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर दे।

पार्टी के नए अध्यक्ष राजनाथ सिंह को भी लग रहा है कि प्रधानमंत्री पद को लेकर ही विवाद बना रहे थे तो ज्यादा बेहतर है, वरना सामान्य हालात होते तो उन्हें जिस तरह आनन- फानन में अध्यक्ष बनाया गया है, पार्टी में इसे लेकर भी बहस शुरू हो जाती, क्योंकि राजनाथ भी पार्टी में अविवादित नहीं हैं। बीजेपी में जिस तरह से राजनीतिक घटनाक्रम चल रहा है उससे साफ है कि जल्दी ही मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया जाएगा। इसके पहले उन अड़चनों को समाप्त कर रास्ता बनाने की कोशिश हो रही है। इसके लिए बीजेपी की संसदीय बोर्ड में नरेन्द्र मोदी को शामिल करने की कोशिश शुरू हो गई है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि पार्टी के दूसरे मुख्यमंत्री इसका विरोध ना करें, इसलिए मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह को भी बोर्ड में शामिल किया जा सकता है। मोदी की हिंदुत्व की छवि को भुनाने के लिए ही पार्टी चाहती है मोदी के नाम का ऐलान इलाहाबाद कुंभ मेले में साधु संतो से कराया जाए। खैर पार्टी ने तय कर लिया है कि मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे, अब इसके ऐलान का तरीका क्या हो, इस पर ही चर्चा हो रही है।

इस फैसले में एक बड़ा मुद्दा बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं। ध्यान रखिएगा मुद्दा जेडीयू का नहीं है सिर्फ नीतीश कुमार का है। नीतिश को लगता है कि बिहार में मुस्लिम वोटों को अपने साथ बनाए रखने के लिए जरूरी है कि मोदी से दूरी बनाए रखें। चलिए नीतीश से सवाल करता हूं, क्योंकि वो मोदी को गुजरात दंगों के लिए दोषी मानते हैं। नीतीश जी ट्रेन की बोगी में आग लगाकर तमाम लोगों को आग के हवाले कर दिया गया था और उसके बाद पूरे गुजरात में दंगा भी भड़का। आप उस वक्त रेलमंत्री थे, अगर मोदी को जिम्मेदार मान रहे थे तो उसी समय आपने ऐसा दबाव क्यों नहीं बनाया कि मोदी से इस्तीफा लिया जाए ? और अगर बीजेपी इस्तीफा नहीं ले रही थी तो आप सरकार से क्यों नहीं अलग हो गए ? कहावत है गुड़ खाए गुलगुला से परहेज ! आज भी उसी बीजेपी की मदद से सरकार चला रहे हैं, अगर आपको लगता है कि मोदी से दूरी रहनी चाहिए तो आपको खुद गठबंधन तुरंत तोड़ देना चाहिए। नीतीश जी ये आप ही कर सकते हैं कि बाप से दोस्ती और बेटे से नाराजगी। हाहाहाहाहा।

मेरा मानना है कि नीतीश कुमार जितना विरोध कर रहे हैं उसकी वजह बिहार के उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी हैं। उप मुख्यमंत्री होते हुए सुशील ने कभी पार्टी के पक्ष को या फिर नरेन्द्र मोदी के मामले में जिम्मेदारी के साथ बिहार में अपना पक्ष नहीं रखा। आज अगर वहां सुशील मोदी के बजाए किसी दूसरे नेता को उपमुख्यमंत्री बना दिया जाए तो नीतीश कुमार की भी बोलती बंद हो जाएगी। सच तो ये है कि सुशील मोदी ने बिहार बीजेपी को नीतीश कुमार के यहां गिरवी रख दिया है। बीजेपी के समर्थन से सरकार चला रहे हैं फिर भी कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा साधु संत या नागा से क्यों करेंगे ? लेकिन  बीजेपी ने भी जेडीयू को खरा खरा जवाब  दे दिया है कि साधु संत नहीं करेंगे तो क्या आतंकवादी हाफिज सईद करेगा। दोनों के बीच जिस तरह से बात चीत चल रही है उससे तो लगता है कि गठबंधन ज्यादा दिन नहीं चलने वाला, लेकिन ये राजनीति है कहीं ये दोनो मिल कर खेल ना खेल रहे हों, कुछ नहीं कह सकते।

वैसे ये तो सही बात है कि अगर बीजेपी ने मोदी को आगे किया तो दूसरे दलों के लिए मुश्किल तो बढेगी। खासतौर पर बेचारे राहुल गांधी के जरूर पसीने छूट जाएंगे। मोदी जितने आक्रामक तरीके से अपनी बात रखते हैं राहुल इतनी जल्दी जल्दी लिखा हुआ पर्चा पढ भी नहीं पाते हैं। वैसे कांग्रेसी मेरी सलाह नहीं मानेंगे, लेकिन मुझे लगता है कि अब सोनिया गांधी को अपने राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल के बजाए शंकर सिंह बाघेला को बना लेना चाहिए। सभी  को पता है बाघेला ही मोदी के गुरु रहे हैं, ऐसे में मोदी की काट तो बाधेला के पास ही होगा।

चलते - चलते  

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