Wednesday 28 November 2012

नरेन्द्र मोदी : सावधानी हटी, दुर्घटना घटी ...


आपसे वादा था कि गुजरात चुनाव के बारे में आप सबको अपडेट दूंगा, तो चलिए आज गुजरात विधानसभा चुनाव की ही कुछ बातें कर ली जाए। दो दिन पहले ही दिल्ली से अहमदाबाद पहुंचा हूं और इस 48 घंटे में बहुत सारे लोगों से मुलाकात हुई, हर मुद्दे पर बहुत ही गहन विचार किया गया है। आप सबका ब्लड प्रेशर ना बढ़े इसलिए एक बात पहले ही स्पष्ट कर दूं कि दिल्ली में था, तो वहां से भी यही लग रहा था कि मोदी तीसरी बार भी सरकार बनाएंगे, गुजरात पहुंचने के बाद भी ऐसा ही लग रहा है की मोदी की सरकार बन ही जाएगी। अब सवाल उठता है कि अगर मोदी की सरकार बन ही रही है तो फिर चुनाव में इतनी मारा मारी क्यों है ? तो आइये अब भूमिका खत्म, सीधे मुद्दे की बात की जाए।

वैसे तो युद्ध और चुनाव के सामान्य नियम हैं, मसलन जो जीता वही सिकंदर। यहां बहुत ज्यादा साइंस नहीं है कि ऐसा होता तो ऐसा होता, वैसा होता तो फिर ये होता। खैर इन सबके बाद भी मैं चाहता हूं कि आपको यहां की कुछ बारीक जानकारी दूं। ये ऐसी जानकारी है जिससे यहां मोदी की हवा होते हुए भी खुद मोदी साहब की हवा निकली हुई है। गुजरात मे विधानसभा की 41 सीटें ऐसी है, जो मोदी का गणित पूरी तरह से बिगाड़ सकती हैं। यहां पिछले चुनाव में बीजेपी की जीत तो हो गई थी, लेकिन मतों का अंतर काफी कम था। इसमें 18 सीटें कच्छ और सौराष्ट्र के हिस्से में आती हैं। इस बार केशुभाई पटेल ने अलग पार्टी बना ली है, लिहाजा कुछ नुकसान तो यहां बीजेपी को उठाना ही होगा। वैसे भी यहां जातिवाद की राजनीति बहुत चरम पर रहा करती है, इसलिए लोग केशुभाई को कम आंकने को तैयार नहीं है, लेकिन व्यक्तिगत रूप से मैने जो समझा है, मुझे नहीं लगता कि केशभाई की गुजरात परिवर्तन पार्टी इस बार कोई बड़ा करिश्मा कर पाएगी।

हां आपको पता ही है कि मोदी ने पिछले यानि 2007 के विधानसभा चुनाव में 182 में से 117 सीटों पर जीत हासिल कर दूसरी बार अपनी सरकार बनाई थी, जो सत्ता के जादुई आंकड़े 92 से सिर्फ 25 सीटें ज्यादा है, लेकिन, 76 सीटें ऐसी रहीं, जिन पर भाजपा-कांग्रेस के बीच कांटे का मुकाबला रहा और अंतिम राउंड में भाजपा इनमें से 41 सीटों को अपनी झोली में करने में कामयाब हो गई। इन 41 सीटों में भी 4 सीटों पर उसके उम्मीदवार बमुश्किल एक हजार वोट के अंतर से जीत पाए। इसी तरह 9 उम्मीदवार तीन हजार वोट, 11 उम्मीदवार पांच हजार वोट और 16 उम्मीदवार सिर्फ दस हजार वोट ज्यादा लेकर ही जीत का सेहरा अपने सिर पर बांध सके।
मोदी को पिछले चुनाव मे सबसे ज्यादा कामयाबी कच्छ – सौराष्ट्र में मिली थी। गुजरात के इस सबसे बड़े हिस्से में बीजेपी के खाते में 58 में से 43 सीटें गईं। लेकिन 18 सीटों पर तो यहां भी बीजेपी उम्मीदवारों को जीत के लिए बहुत पसीना बहाना पड़ा। हालत ये थी कि यहां की खंभलिया सीट भाजपा का उम्मीदवार महज 798 वोट से ही जीत पाया। बात यहां के दूसरे हिस्से की करें तो राजपीपला विधानसभा क्षेत्र में सिर्फ 631, मांडल में सिर्फ 677, खंभलिया में 798 और कांकरेज में जीत-हार का ये अंतर महज 840 वोटों का रहा। मुझे लगता है कि इस नजरिये से अगर पिछले चुनाव को देखा जाए तो मोदी की हालत उतनी अच्छी नहीं रही है, जितनी देश भर में चर्चा है। इसीलिए तो कहता हूं कि सावधानी हटी, दुर्घटना हुई।

हालाकि विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन के बाद शहरी आबादी की सीटें पहले के मुकाबले काफी बढ़ गई हैं। कहा तो ये जा रहा है कि शहरी क्षेत्र में सीटें बढ़ने का फायदा मोदी को होगा, लेकिन इसे दूसरी तरह से भी देखा जा रहा है। मसलन जो लोग मोदी से नाराज हैं, या जो उनकी सरकार के प्रदर्शन से नाखुश हैं, वो कांग्रेस को वोट करते, लेकिन मैदान में केशूभाई पटेल की गुजरात परिवर्तन पार्टी के उतरने से अब विरोधी वोटों का कांग्रेस और गुजरात परिवर्तन पार्टी में बटवारा हो जाएगा, जिसका फायदा सीधे मोदी को हो सकता है। बदले हालात में अपनी संभावना जानने के लिए बीजेपी ने जो सर्वे कराया, उसमें 48 विधान सभा सीटों पर तो उसकी जीत सौ प्रतिशत बताई गई, लेकिन 32 सीटों पर ये संभावना सिर्फ 30 प्रतिशत, 42 सीटों पर 50 प्रतिशत और 60 सीटों पर 60 प्रतिशत आंकी गई है। हालांकि गुजरात की सत्ता में बने रहने के लिए 92 सीटें ही पर्याप्त हैं. यदि सर्वे पर यकीन किया जाये तो हैट्रिक के लिए मोदी को सिर्फ 44 सीटों पर ही कड़ी मेहनत करने की जरूरत होगी।

वैसे यहां चुनाव प्रचार में भी काफी नयापन दिखाई दे रहा है। आजकल बीजेपी का एक विज्ञापन चर्चा में है। इसमें कबड्डी के खेल के लिए दो टीमें तैयार हैं, और मैदान में हैं। रेफरी दोनों टीमों के कप्तान को बुलाता है तो बीजेपी का कप्तान आगे आ जाता है, लेकिन  कांग्रेस का कप्तान नहीं आता है, यहां खिलाड़ी एक दूसरे की ओर देखते हैं। फिर रेफरी कांग्रेस की ओर से उप कप्तान को बुलाया जाता है तो सभी खिलाड़ियों में मारी मारी हो जाती है और सब आगे बढ़ते हैं। इससे बीजेपी ये साबित करना चाहती है कि कांग्रेस एक ऐसी टीम है, जिसका कोई कप्तान ही नहीं है। लेकिन सवाल ये उठता है कि गुजरात में बीजेपी से ही उसका उप कप्तान पूछ लिया जाए तो मुझे लगता है कि बीजेपी के पास भी उप कप्तान के लिए कोई नाम नहीं है। इसी तरह के कई विज्ञापन यहां लोगों के बीच खास चर्चा में हैं।

वैसे यहां कांग्रेसियों को एक साथ दो चुनाव लड़ने पड़ रहे हैं। एक तो वो विधानसभा का चुनाव लड़ ही रहे हैं, दूसरी अपनी पार्टी के भितरघात से भी उन्हें जूझना पड़ रहा है। माना जा रहा था कि कांग्रेस के दिग्गज नेता शंकर सिंह बाघेला को पार्टी पूरी ताकत देगी और उन्हीं की अगुवाई में ये चुनाव लड़ा जाएगा। लेकिन कांग्रेस ने बाघेला को जितना तवज्जो देना चाहिए था, शायद वो नहीं दिया, लिहाजा खुले तौर पर तो नहीं लेकिन बाघेला अपनी अनदेखी से काफी खफा हैं और चुनाव के ऐन वक्त वो हैं कहां ? किसी को नहीं पता। अच्छा फिर कांग्रेस ने कुछ जल्दबाजी भी की, मसलन चुनाव के दो महीने पहले ही तमाम चुनावी घोषणाएं कर डाली, अब चुनाव के वक्त उनके कमान में कोई तीर ही नहीं है। सही तो ये है कि जब दो महीने कांग्रेस ने चुनावी घोषणाएं करनीं शुरू कीं तो इससे मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी भी परेशान हो गए थे। लेकिन आज कांग्रेस का हाथ खाली है।

सच बताऊं तो इस चुनाव में मुद्दा क्या हो ? ये नरेन्द्र मोदी भी नहीं समझ पा रहे हैं। दावा भले किया जा रहा हो कि चुनाव में विकास मुद्दा होगा, लेकिन यहां सड़क, बिजली, पानी जैसी कोई खास दिक्कत नहीं है। हां कुछ इलाकों में पानी की दिक्कत जरूर है, लेकिन वो इतना बड़ा मुद्दा नही हैं जो इस चुनाव को सीधे प्रभावित करे। अंदर की बात तो ये है कि खुद मोदी गुजरात मे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की चुनावी सभाओं का इंतजार कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि अगर सोनिया पिछले चुनाव की तरह इस बार भी उनके खिलाफ कुछ तल्ख टिप्पणी करतीं हैं तो उसी को लेकर मोदी मैदान में कूद जाएगें। आपको याद होगा कि पिछले चुनाव में सोनिया गांधी ने नाम भले ना लिया हो, लेकिन मोदी को मौत का सौदागर  बताया था। सोनिया तो एक बार बोल कर गुजरात से दिल्ली पहुंच गईं, लेकिन मोदी ने मौत के सौदागर को ऐसा भुनाया कि यहां कांग्रेस औंधे मुंह जा गिरी। अब इस बार भी उन्हें भरोसा है कि उनके बारे में कुछ ऐसी टिप्पणी आए, जिसे वो मुद्दा बना लें। सच यही है कि गुजरात में विकास की बातें करना बेमानी सी लगती है।

मेरा वोट मेरी सरकार :  मेरे न्यूज चैनल आईबीएन 7 का ये खास कार्यक्रम है। जिसका रोजाना शाम 7.30 पर गुजरात के विभिन्न शहरों से सीधा प्रसारण किया जाता है। इसमें हम खासतौर पर गुजरात के चुनाव की नब्ज टटोलने और नेताओं से जनता सवाल पूछ कर उनका हिसाब मांगती है, यानि नेताओं को देना होता है अपने काम काज का लेखा जोखा। एक बात मैं खास तौर पर देख रहा हूं कि गुजरात का दंगा यानि गोधरा कहीं अब वैसे तो चर्चा में नहीं है। लेकिन इसे मुद्दा बनाने की साजिश की जा रही है। साजिश कौन कर रहा है, क्यों कर रहा है, ये तो वही जानें, लेकिन एक तपका चाहता है कि हिंदु मुस्लिम की बात हो और इस पर प्रमुखता से चर्चा हो। आप सोचें कि अगर चुनाव में हिंदू मुस्लिम की बात आती है तो फायदा किसे होगा ? चौपाल के दौरान कुछ लोग गोधरा पर सवाल भी पूछते हैं ।

बहरहाल अगर आप गुजरात में हैं तो हमारे चौपाल में शामिल हो सकते हैं। चौपाल की तारीख भी दे देता हूं आपको.... 26 नवंबर, अहमदाबाद, 27 नवंबर अमरेली, 28 नवंबर जूनागढ़, 29 नवंबर पोरबंदर, 30 नवंबर जामनगर, एक दिसंबर रोजकोट, तीन दिसंबर भावनगर, 4 दिसंबर बड़ोदरा, 5 दिसंबर भरुच, 6 दिसंबर वालसाड़, 7 दिसंबर नवसारी, 8 दिसंबर सूरत, 10 दिसंबर गोधरा, 11 दिसंबर आणद, 12 दिसंबर मेहसाणा, 13 दिसंबर वनासकांटा और 14 दिसंबर को आखिरी चौपाल भुज से करके दिल्ली वापसी होगी।









Wednesday 21 November 2012

देश अभी शर्मिंदा है, अफजल गुरु जिंदा है !


आज बात तो करने आया था महाराष्ट्र सरकार के उस शर्मनाक फैसले की, जिससे उसने देश के एक बड़े तपके के घावों पर नमक छिड़कने का काम किया। यानि शिवसेना सुप्रीमों बाल ठाकरे का निधन हो जाने के बाद उनका अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान से किए जाने का ऐलान कर। इस पर विस्तार से बात होगी लेकिन पहले बात करते हैं आतंकी अजमल कसाब की, जिसे फांसी देकर केंद्र सरकार ने दुनिया को दिखाया कि आतंकवाद से लड़ने की मजबूत इच्छाशक्ति सरकार मे हैं। वहीं संसद पर हमले के मास्टर माइंड अफजल गुरु के मामले में आज तक फैसला ना होने से राष्ट्रपति भवन और गृह मंत्रालय को जनता कटघरे में खड़ा कर रही है। तीसरी मौत के बारे मे शायद उत्तर प्रदेश के बाहर रहने वाले ना जाने, लेकिन राजनेताओं को उंगली पर नचाने वाला शराबमाफिया पांटी चढ्ढा को उसके ही भाई ने संपत्ति विवाद में गोली से उड़ा दिया।

चार साल पहले पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान से 10 आतंकी समुद्री मार्ग से मुंबई पहुंचे और उन्होंने खून की होली खेलनी शुरू कर दी। इन आतंकियों ने किस तरह मुंबई को हिलाया ये सब आपने टीवी पर देखा है। आपको  पता है कि नौ आतंकियों को हमारे जवानों मे मार गिराया था, जबकि एक आतंकी अजमल कसाब को जिंदा पकड़ने में हमारी फौज कामयाब रही। कसाब का ट्रायल शुरू हुआ, पूछताछ में उसने स्वीकार किया कि वो पाकिस्तानी है और उसने जो पता बताया वहां भी स्थानीय लोगों ने स्वीकार किया कि कसाब इसी गांव का रहने वाला है। इन सबके बावजूद पाकिस्तान सरकार ने साफ इनकार कर दिया कि कसाब पाकिस्तानी है। बहरहाल पड़ोसी मुल्क का होने के बाद भी कसाब के मामले की अदालत में सुनवाई हुई और जिस तरह एक भारतीय को अपना बचाव करने का हक है, वो सारी सहूलियतें कसाब को दी गई। निचली अदालत, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से फांसी की सजा मिलने के बाद आखिर में राष्ट्रपति के यहां कसाब ने दया याचिका पेश किया। इसी 5 नवंबर को राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने उसकी याचिका खारिज कर दी और आज यानि 21 नवंबर को सुबह 7.36 पर उसे फांसी पर लटका दिया गया।

आतंकवादियों के इस हमले में मुंबई में 166 लोगों ने जान गवांई थी। इस आतंकी घटना के बाद से ही हमले में मारे गए लोगों के परिजन लगातार मांग कर रहे थे कि कसाब को फांसी दी जाए, लेकिन सरकार कोई भी फैसला भावनाओं के आधार पर नहीं करना चाहती थी, उसने न्यायिक प्रक्रिया का पालन करते हुए उसे फांसी पर लटकाया। पहले से तय था कि कसाब को फांसी देने के बाद देश में एक बड़ा सवाल उठेगा कि कसाब तो सिर्फ एक मोहरा था, उसे कब फांसी होगी जो ऐसी घटनाओं का मास्टर माइंड है। इशारा साफ है कि संसद पर हमले के जिम्मेदार अफजल गुरू को फांसी कब होगी ? ये सवाल पहले भी उठता रहा है कि आखिर सुप्रीम कोर्ट से भी अफजल गुरु को फांसी की सजा सुनाई जा चुकी है, फिर अफजल कैसे जिंदा है। आपको पता है कि अफजल की दया याचिका भी राष्ट्रपति के पास लंबित है।

कसाब को फांसी के मामले में केंद्र महाराष्ट्र सरकार ने जिस तरह से तालमेल दिखाया, देश में अपनी तरह की ये पहली ही कार्रवाई है। 19 अक्टूबर को गृहमंत्रालय ने कसाब की फाइल राष्ट्रपति के यहां भेजी, राष्ट्रपति ने महज 15 दिन यानि पांच नवंबर को दया याचिका खारिज करते हुए फाइल गृहमंत्रालय को वापस भेज दी, सात नवंबर को गृहमंत्रालय ने इस पर फांसी की मुहर लगा दी और आठ नवंबर को ये फाइल महाराष्ट्र भेजी गई। इस फाइल में 21 नवंबर को फांसी देने की तारीख तय कर दी गई थी। 19 नवंबर को कसाब को मुंबई से पुणे ले जाया गया और आज यानि 21 को फांसी दे दी गई। इस मामले में पूरी तरह गोपनीयता बरतने के लिए इसे आपरेशन X नाम दिया गया। यहां तक की अफसर कसाब को मेहमान के संबोधन से आपस में बात कर रहे थे, जिससे किसी को कानोंकान खबर ना हो कि किस मामले में बात हो रही है।

राष्ट्रपति भवन पर सवाल ! अफजल गुरु की दया याचिका का निस्तारण ना होने से आम जनता  में तो हैरानी है ही, राजनीतिक दल भी लगातार इस मामले में केंद्र सरकार को कटघरे में खड़ा करते रहे हैं। कुछ समय पहले कहा गया राष्ट्रपति भवन में अफजल गुरु के मामले में फैसला लेने से पहले 17 और दया याचिकाओं का निस्तारण किया जाना है। खुलकर तो ये बात नहीं कही गई थी, लेकिन इशारा यही था कि जब अफजल की बारी आएगी तो उसके मामले में भी फैसला लिया जाएगा। इसके बाद लोग निराश थे, क्योंकि सभी को लग रहा था कि जब अफजल गुरु को कई साल पहले  फांसी की सजा सुनाई जा चुकी है और उसे आज तक फांसी नहीं दी जा सकी है तो भला कसाब को कैसे फांसी दी जा सकती है ? लेकिन कसाब की फांसी पर इतनी जल्दी फैसला लिया गया और बिना देरी उसे फांसी पर लटका भी दिया गया, इससे तो साफ हैं कि अगर सरकार की इच्छाशक्ति मजबूत हो तो, फैसला लेने में कोई मुश्किल नहीं है। यही वजह है कि आज कसाब को फांसी दिए जाने के बाद संसद पर आतंकी हमले के मास्टर माइंड अफजल गुरु को फांसी देने की मांग जोर पकड़ रही है। हालाकि देखा जा रहा है कि गुरु को फांसी देने का मामला आसान नहीं है, वजह साफ है, ये मामला सियासी ज्यादा हो गया है।

 कसाब को फांसी के बाद क्या ? मुझे लगता है कि पाकिस्तान और आतंकवादियों में इसकी प्रतिक्रिया स्वाभविक है। पहला तो जो संदेश आ रहा है, उससे तो लगता है कि पाकिस्तान में भारतीय बंदी सरबजीत की रिहाई कुछ दिन लटक सकती है। अगर वो सरबजीत के साथ कुछ ऐसा वैसा भी करें तो मुझे हैरानी नहीं होगी। इसके अलावा हमें आपको पहले से ज्यादा सावधान रहने की भी जरूरत होगी, क्योंकि आतंकवादी भी प्रतिक्रिया में कुछ बड़ी घटनाओं को अंजाम देने की साजिश कर सकते हैं। इसके अलावा मुझे लगता है कि पाकिस्तान की क्रिकेट टीम का भारत दौरा एक बार फिर लटक सकता है। वैसे भी जब दिल में एक दूसरे मुल्क के प्रति नफरत भरी हो तो क्रिकेट तो होना भी नहीं चाहिए। बहरहाल कसाब को फांसी दिए जाने के बाद अगर पड़ोसी मुल्क ने प्रतिक्रिया के तौर पर कुछ भी किया तो निश्चित ही इसका परिणाम गंभीर होने वाला है।

हां-अब बात बाल ठाकरे की :  मेरा महाराष्ट्र की सरकार से एक सवाल है। शिवसेना सुप्रीमों का कोई एक ऐसा काम बताएं जो उल्लेखनीय हो, राष्ट्रहित में हो। फिर ठाकरे किसी पद पर भी नहीं रहे, ऐसे में उनका अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान से करने का ऐलान क्यों किया गया ? क्या महाराष्ट्र की सरकार को अपनी पुलिस पर भरोसा नहीं था ? क्या सरकार डरी हुई थी कि ठाकरे की मौत के बाद मुंबई के हालात को काबू में करना मुश्किल होगा ? मैं बहुत गंभीरता से कहना चाहता हूं कि जिन शिवसैनिकों ने मुंबई की कानून व्यवस्था को लेकर सरकार की नाक में दम कर दिया हो, उसकी अगुवाई करने वाले को आखिर तिरंगे में कैसे लपेटा जा सकता है ? मुंबई आने वाले उत्तर भारतीयों की जो लोग पिटाई का ऐलान करते हो, जो निर्दोष आटो चालकों पर हमला कर उनके पैसे छीन लेते हों। ऐसे लोगों के साथ सरकार की इतनी सहानिभूति आखिर क्यों ?

मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि मराठी मानुस की बात कर उत्तर भारतीयों को मुंबई छोड़कर जाने को कहने का ऐलान कर हिंसा फैलाने वालों को भला राजकीय सम्मान कैसे दिया जा सकता है ? सच्चाई तो ये है कि ठाकरे ना कभी लोकतंत्र के हिस्सा रहे और ना ही उनका लोकतंत्र में कभी भरोसा रहा है। वे खुद कहते थे कि वो शिवशाही पर विश्‍वास करते हैं, लोकशाही पर नहीं। वो एक ऐसे व्‍यक्ति थे जो ऐक्‍शन की बात करते थे। हम कहते हैं कि हमारा देश लोकतांत्रिक है, लेकिन कोई व्‍यक्ति जिसने कभी लोकतंत्र को माना ही नहीं उसके बारे में आप क्‍या कहेंगे। अब किसी के लाखों अनुयायी होने का मतलब यह नहीं कि व्‍यक्ति के शरीर को हम तिरंगे में लपेट दे। उनकी राजनीति ही देश को तोड़ने वाली रही है। मसलन हमारा संविधान कहता है कि हर व्‍यक्ति को देश के किसी भी स्‍थान पर रहने और काम करने का अधिकार है, जबकि ठाकरे हमेशा संविधान की इस धारा के विरोध में रहे। उन्‍होंने मुंबई में बाहरी लोगों का हमेशा विरोध किया। उनकी राजनीति की शुरुआत कम्‍युनिस्‍टों को मुंबई से खदेड़ने से हुई और फिर उन्‍होंने उत्तर भारतीयों का मुंबई में जीना मुहाल कर दिया।

ठाकरे की मौत के बाद महाराष्ट्र सरकार को घुटनों पर देखकर वहां लोग खुद को असुरक्षित महसूस करने लगे। डर का आलम ये कि लोगों ने अपनी दुकानें तक नहीं खोलीं। अब इस बंद को लेकर सोशल साइट फेसबुक पर एक बेटी ने बंद का औचित्य पूछ लिया तो उसे पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। मुझे जानना है कि महाराष्ट्र में ये कौन सी सरकार काम कर रही है। आतंकी सिर्फ वही नहीं है जो पाकिस्तान से आया हो, आतंकी वो भी है, जिसकी वजह से लोग शांति से रह ना पाएं। शिवसैनिक भी किसी आतंकी से कम नहीं है। वो सभी आतंक के मास्टर माइंड हैं तो इन्हें गुमराह करते हैं।

आखिर मे मैं केंद्र सरकार, महाराष्ट्र सरकार और कांग्रेस से जानना चाहता हूं कि अगर उन्होंने शिवसेना सुप्रीमों बाल ठाकरे को राजकीय सम्मान देकर पुलिस की सलामी दिलाई है तो क्या ये माना जाए कि आप सब उनकी सोच और विचारधारा का भी समर्थन करते हैं। आप सबका भी यही मानना है कि मुंबई से उत्तर भारतीयो को खदेड़ दिया जाना चाहिए । इस मामले में अपनी स्थिति साफ करनी चाहिए।

चलते - चलते
इसी हफ्ते एक और गंभीर घटना हुई। उत्तर प्रदेश के एक बड़े शराब माफिया पांटी चढ्ढा को उसके ही भाई ने संपत्ति के विवाद में गोलियों से छलनी कर दिया, हालाकि पांटी के लोगों ने वहीं उसके भाई की भी  हत्या कर दी। पांटी चढ्ढा का जिक्र इसलिए करना जरूरी था कि ये वो सख्श है कि जिसके इशारे पर सूबे की सरकार नाचती है। सरकार चाहे किसी पार्टी की हो, सब पर पांटी बहुत भारी था। धीरे धीरे इसका प्रभाव उत्तराखंड और पंजाब में भी बढ़ता जा रहा था।





Saturday 17 November 2012

राहुल गांधी बोले तो पोंsपोंs पोंपोंs..पोंsss


राजनीति में पूरी तरह फेल राहुल गांधी का कद जिस तरह कांग्रेस बढ़ा रही है, उससे तो यही लगता है कि कांग्रेस को काम पर नहीं चमत्कार पर यकीन है, उसे लगता है कि चुनाव  में अभी डेढ साल बाकी है, तब तक कहां लोगों को सरकार की चोरी-चकारी याद रहेगी। ये सोचते हैं कि देशवासी राहुल गांधी का चेहरा देखेंगे और कांग्रेस के हक में वोट करेंगे। अगर सरकार को काम पर थोड़ा भी यकीन होता तो पार्टी सबसे पहले केंद्र सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के धब्बे को धोने का प्रयास करती। मुझे ये कहने में कत्तई संकोच नहीं है केंद्र की मौजूदा सरकार आजाद हिंदुस्तान की सबसे भ्रष्ट सरकार है। बात यहीं खत्म नहीं होती, मैं ये भी कह सकता हूं कि अब तक देश के जितने भी प्रधानमंत्री हुए हैं, उनमें मनमोहन सिह सबसे घटिया, घिनौने, असफल और मजबूर प्रधानमंत्री साबित हुए हैं। सच तो ये है कि मनमोहन सिंह आज तक खुद ही स्वीकार ही नहीं कर पाए हैं कि वो देश के प्रधानमंत्री हैं, उन्हें तो लगता है कि सोनियां गांधी ने उनको प्रधानमंत्री का कुछ काम सौंपा है, जिसे वो निभा रहे हैं। यही वजह है कि मनमोहन सिंह देश के प्रति नही 10 जनपथ के प्रति ज्यादा वफादार है। अगर मुझे इस सरकार की समीक्षा करनी हो तो मैं सौ बार एक ही बात दुहराऊंगा कि ये हैं "अलीबाबा 40 चोर" ।

आज कुछ खरी-खरी बात करने का मन है। क्या कांग्रेस के नेता देश को इस बात का जवाब दे सकते हैं कि अगर प्रणव मुखर्जी देश के राष्ट्रपति पद के लिए उपयुक्त उम्मीदवार रहे तो वो  प्रधानमंत्री के लिए सोनिया गांधी की पसंद क्यों नहीं बन पाए ? दरअसल सच्चाई ये है कि पूर्व प्रधानमंत्री स्व. पीवी नरसिंहराव जब देश का नेतृत्व कर रहे थे तो 7 रेसकोर्स यानि प्रधानमंत्री निवास ही कांग्रेस नेताओं का मक्का, मदीना था। स्व राव ने कभी 10 जनपथ को उभरने का मौका ही नहीं दिया। इसकी मुख्य वजह उनमें नेतृत्व की क्षमता थी वो राजनीति के अच्छे खिलाड़ियों में शुमार थे। खुद चुनाव लड़ते थे और उनकी अगुवाई में चुनाव लड़ा जाता  था। वो बखूबी जानते थे कि प्रधानमंत्री आवास की क्या गरिमा है और इस गरिमा को कैसे बरकरार रखा जा सकता है।  स्व. प्रधानमंत्री को पता था कि अगर देश में एक मजबूत सरकार चलानी है तो सत्ता का केंद्र प्रधानमंत्री आवास ही होना चाहिए। अगर देश का प्रधानमंत्री पूरे दिन 10 जनपथ पर ही मत्था टेकता रहा तो सोनिया, राहुल, प्रियंका और राबर्ट ( उनके दोनों बच्चों ) का विश्वास तो जीता जा सकता है, पर देश का विश्वास हासिल करना मुश्किल होगा।

स्व. प्रधानमंत्री राव की सख्त तेवर से 10 जनपथ काफी समय तक एक चाहरदीवारी  मे कैद रहा। लेकिन बाद में बदले सियासी घटनाक्रम की वजह से पार्टी की कमान सोनिया गांधी के हाथ में आई। अब गांधी परिवार सतर्क हो गया। मुझे लगता है कि राव की चाल देखकर ही सोनिया गांधी ने तय कर लिया कि अब आगे से किसी मजबूत नेता को प्रधानमंत्री बनाने की गल्ती नहीं  दुहराई जाएगी। यही वजह है कि पार्टी और सरकार दोनो के संकटमोचक रहे वरिष्ठ नेता प्रणव  मुखर्जी की योग्यता का उपहास उड़ाते हुए उन्हें कभी प्रधानमंत्री बनाने के बारे में नहीं सोचा गया। सोनिया गांधी को पता है कि मनमोहन सिंह कम से कम ऐसे प्रधानमंत्री होंगे जो 7 रेसकोर्स में रहते हुए भी 10 जनपथ के प्रति ज्यादा वफादार होंगे। अगर मनमोहन सिंह को ये लगता है कि वो बहुत ज्यादा पढ़े लिखे हैं, अच्छे नौकरशाह रहे है इसलिए प्रधानमंत्री बने हैं तो ये उनकी गलतफहमी हैं। वैसे भी मेरा तो यही मानना है कि वो प्रधानमंत्री नहीं बल्कि प्रधानमंत्री के केयर टेकर हैं, यानि राहुल गांधी के तैयार होने तक वो ये कामकाज देख रहे हैं। केयर टेकर को कभी ये अधिकार नहीं होता कि वो खुद से कोई निर्णय करे।

बहरहाल मनमोहन सिंह की अगुवाई में भ्रष्ट मंत्रियों की खूब चांदी है। ज्यादातर मंत्रियों ने ठीक ठाक खजाना भर लिया है। कई मंत्रियों के खिलाफ गंभीर आरोप हैं। कांग्रेस के लिए अच्छा होता कि मनमोहन सिंह ने आठ साल खूब मजे कर लिए, अब उन्हीं के हाथ से आरोपी और दागी  मंत्रियों को सरकार से बाहर का रास्ता दिखाती। इससे पार्टी अपनी खोई प्रतिष्ठा कुछ हद तक हासिल करने में कामयाब होती। लेकिन पार्टी ने इस काम को कभी तवज्जो ही नहीं दिया। उसे आज भी चमत्कार पर भरोसा है। पार्टी को लगता है कि राहुल गांधी को आगे  करके चुनाव लड़ा जाएगा तो देश की जनता भ्रष्टाचार को भूल जाएगी। जबकि मेरा मानना  है कि राहुल गांधी बोले तो सिर्फ पोंs पोंs, पोंपोंss पोंssss भर  हैं। इससे ज्यादा उनकी आज कोई राजनीतिक  पहचान नहीं है।

आप सब जानते हैं कि किसी को तरक्की देने का सामान्य नियम है उसका परफारमेंस। लेकिन राहुल गांधी के मामले में इस नियम को नजरअंदाज कर दिया गया। अगर राहुल गांधी की समीक्षा की जाए तो उत्तर प्रदेश, बिहार और तमिलनाडु के चुनाव भी कांग्रेस ने राहुल गांधी को आगे रख कर लड़ा था। लेकिन यहां का परिणाम क्या रहा ? सब जानते हैं। एक के बाद एक चुनाव में फेल हुए राहुल गांधी को अब 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव में उम्मीदवारों के चयन को बनी समिति की अगुवाई सौंपी गई है। अमूल बेबी राहुल गांधी क्या कर पाएंगे, ये तो आगे देखा जाएगा। लेकिन मैं अगर कहूं कि राहुल का ही नहीं बल्कि गांधी परिवार का जादू  खत्म हो चुका है, तो इसमें कुछ भी गलत नहीं होगा। अब देखिए ना यूपी के विधानसभा चुनाव में रायबरेली और अमेठी जहां से सोनिया और राहुल सांसद हैं, वहां भी पार्टी का प्रदर्शन  निराशाजनक रहा है। जो नेता अपने निर्वाचन क्षेत्र की जनता का भरोसा खो चुका हो वो भला  देश की जनता का भरोसा कैसे जीत सकता है।

मुझे हैरानी होती है जब कांग्रेस नेता राहुल गांधी को भविष्य का प्रधानमंत्री बताते हैं। इसकी  ठोस वजह भी है। आपको याद होगा कि सोनिया गांधी अस्वस्थ होने पर इलाज के लिए महीने भर से ज्यादा समय के लिए विदेश गई हुई थीं। उनकी अनुपस्थिति मे एक टीम बनाई गई,  जिसमें राहुल गांधी भी शामिल थे। इस टीम को जिम्मेदारी दी गई थी कि वो  महत्वपूर्ण विषयों पर फैसला लेगी। इसी दौरान अन्ना का आंदोलन चल रहा था और केंद्र सरकार घुटनों पर थी। सरकार के सामने अन्ना के अनशन को समाप्त कराने की गंभीर चुनौती थी। 12 दिन से ज्यादा हो गए थे अन्ना के अनशन को, डाक्टर सलाह दे रहे थे कि अनशन खत्म होना चाहिए, क्योंकि अन्ना कि तवियत बिगड़ रही है। देश की जनता भी गुस्से से उबल रही थी। हम कह सकते हैं कि देश के सामने गंभीर चुनौती थी, लेकिन अमूल बेबी राहुल गांधी पूरे घटनाक्रम से ही गायब रहे।

अक्सर देखा गया है कि राष्ट्रीय मुद्दों पर गांधी परिवार पलायन कर जाता है। कोई भी खुल कर सामने नहीं आता है। हां अच्छा-अच्छा गप और कड़ुवा कड़ुवा थू करने में इस परिवार का कोई जवाब नहीं। बहरहाल मेरा मानना है कि राहुल को देश की जिम्मेदारी देने से पहले उन्हें  एक परिवार  की जिम्मेदारी दी जाए, देखा जाना चाहिए कि वो एक खुशहाल परिवार चला पाते हैं  या नहीं, उसके बाद तो काफी वक्त है, देश की भी जिम्मेदारी संभाल लें। क्योकि देशवासियों का अनुभव बहुत खराब रहा है। टू जी स्पेक्ट्रम, कामनवेल्थ गेम, आदर्श सोसायटी, कोयला ब्लाक आवंटन जैसे तमाम भ्रष्टाचार के आरोपों पर गांधी परिवार की चुप्पी आज तक किसी के भी समझ मे नहीं आई।

राहुल ने विदर्भ की कलावती का मामला उठाकर संसद और देश में खूब वाहवाही लूटी। बेचारी वही कलावती दिल्ली आई और राहुल से मिलना चाही तो उसे मिलने का वक्त नहीं मिला। राहुल ने दलितों के यहां भोजन किया और उनकी टूटी चारपाई पर रात भी गुजार दी। लेकिन कभी  किसी दलित को अपने घर भोजन कराने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। बहरहाल राहुल आपके प्रमोशन पर मैं भी आपको मुबारकबाद देता हूं, इस उम्मीद से कि अब आप दिखावटी और खबर बनने वाले कामों से दूर रह कर कुछ तो ऐसा करेंगे, जिससे देश के लोग राहत महसूस कर सकें। वैसे आपकी परीक्षा तो इसी हफ्ते हो जाएगी, संसद का सत्र शुरू होने वाला है, एफडीआई के मसले पर सरकार और विपक्ष आमने सामने है, अब ये मत कह  दीजिएगा कि ये एफडीआई क्या है ? संसद का पिछला सत्र विपक्ष के हंगामे की वजह से एक दिन भी नहीं चल पाया, देखते हैं आप क्या कुछ हस्तक्षेप करते हैं, जिससे ये सत्र सुचारू रूप से चल सके। अब ऐसा मत  कीजिएगा कि सत्र के दौरान छुट्टी लेकर कहीं घूमने निकल जाएं !

मेरे नए ब्लाग TV स्टेशन पर देखें नया लेख.. टीवी  न्यूज :  निकालते रहो टमाटर से हनुमान !
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Wednesday 14 November 2012

आसान नहीं है "आम आदमी" बनना !


सोच रहा था कि दीपावली का दिन है, किसी का दिल नहीं दुखाऊंगा, लेकिन बात जब देश की हो तो संवेदना पर सच्चाई बहुत भारी पड़ जाती है। हकीकत ये है कि जब कोई खास आदमी आम बनने के लिए मुहिम चलाता है तो उससे साजिश की बू आती ही है। जहां तक मेरी जानकारी है आम आदमी वो है जो सुबह दो रोटी अपने गमछे में बांध कर मजदूरी के लिए घर से निकलता है और अगर उसे दिन भर में कोई काम नहीं मिलता है तो उसके घर शाम का चूल्हा नहीं जलता। लेकिन अरविंद केजरीवाल वो आम आदमी हैं जिन्होंने अच्छी खासी नौकरी छोड़ दी, फिर भी घर में दोनों वक्त की रोटी इत्मीनान से बन रही है। अगर देश का आम आदमी कुछ किए बगैर अरविंद जैसे मौज में रह सकता है , तो हमें किसी खुशहाली की जरूरत नहीं है, बस डेढ़ रुपये की टोपी से काम चल जाएगा। दरअसल केजरीवाल को पता है कि उन्हें कोई आम आदमी तो मानने से रहा, इसीलिए उन्हें आम आदमी लिखी टोपी पहननी पड़ती हैं। सच्चाई ये है कि अरविंद केजरीवाल टोपी पहनते नहीं है बल्कि देश की जनता को पहनाते हैं। आज कल उनके निशाने पर उद्योगपति हैं, हों भी क्यों ना, बिना उद्योगपतियों की मदद के कोई राजनीतिक पार्टी चलती है क्या ? लेकिन इसका जो तरीका केजरीवाल ने अपनाया है, मुझे तो नहीं लगता कि उससे उनका काम बनने वाला है, उल्टे जहां से आर्थिक मदद हो रही है, कहीं वो भी बंद ना हो जाए ? आप सबको पता ही है कि समाज सेवा से हटकर राजनीति करने पर इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति ने केजरीवाल की संस्था पब्लिक कॉज रिसर्च फाऊंडेशन को दी जा रही आर्थिक मदद को तत्काल प्रभाव से रोक दिया है।

केजरीवाल साहब दुनिया भर से जवाब और हिसाब मांगते हैं। वैसे हिसाब तो आज नहीं कल आपको भी देना ही होगा कि आखिर ये पैसे कहां से आ रहे हैं जिससे पूरी टीम हवा में उड़ रही है। लेकिन इसके पहले मैं कुछ सवाल पूछना चाहता हूं। तीन दिन पहले कुछ उद्योगपतियों के विदेशी बैंक खाते को लेकर केजरीवाल ने मुकेश अंबानी, अनिल अंबानी, नरेश गोयल समेत कुछ और लोगों के नाम लिए और कहा कि इनके विदेशी खातों में करोड़ो रुपये जमा हैं। इस बात पर ध्यान देना जरूरी है,  केजरीवाल ने ऐलान किया कि ये सभी जानकारी उन्हें किसी और ने नहीं बल्कि कांग्रेस के ही एक बड़े नेता ने दी है। अब मेरा सवाल है केजरीवाल साहब ऐसा नहीं लग रहा है कि कांग्रेस के किसी नेता ने आपको इस्तेमाल किया है ? आपने ये जानने की कोशिश की कि जो नेता आपको ये जानकारी मुहैया करा रहा है आखिर उसमें उसका क्या स्वार्थ है ? उस नेता से आपने ये जानने की कोशिश की कि उसने इस मामले में कभी पार्टी फोरम पर बात की या नहीं ? अच्छा जो बात ये नेता कह रहा है वो सही ही है इसकी क्या गारंटी है ? दरअसल चाहे कांग्रेस हो या फिर बीजेपी सभी जगह कुछ लोग नाराज होते ही है, क्योंकि सभी की इच्छा पूरी नहीं हो सकती। इसी तरह नौकरशाही में भी तमाम अफसर मलाईदार पोस्टिंग चाहतें हैं, जिनकी ये ख्वाहिश पूरी नहीं हो पाती है वो सरकार के बजाए केजरीवाल को रिपोर्ट करते हैं। खैर मैं ये कहूं कि पार्टी, सरकार से नाराज नेताओं और नौकरशाहों की अगुवाई केजरीवाल कर रहे हैं तो गलत नहीं होगा।

महत्वपूर्ण सवाल ये है कि केजरीवाल ने ये तो बताया कि अंबानी समेत तमाम लोगों के विदेशों में खाते हैं और उसमें सौ करोड़ या सवा सौ करोड़ जमा है। लेकिन मैं केजरीवाल से जानना चाहता हूं कि इसमें गलत क्या है ? मतलब क्या मुकेश अंबानी ने गलत जानकारी देकर विदेश में खाता खुलवा लिया है ? या उसमें  जो 100 करोड़ रुपये जमा हैं वो गलत है ? केजरीवाल अंबानी से क्या जानना चाहते हैं। ये कि अंबानी के पास सौ करोड़ रुपये कहां से आया ? इसी तरह दूसरे जो भी नाम उन्होंने लिए हैं, ये तो बताया कि उनके विदेशी खाते में करोड़ो रुपये जमा है, लेकिन ये नहीं बता रहे हैं कि इसमें एकाउंट खुलवाना गलत है या फिर जो पैसा उसमें जमा है वो गलत है। आधी अधूरी जानकारी का ही नतीजा है कि मुकेश अंबानी, अनिल अंबानी की कंपनी की ओर से एक बयान जारी कर केजरीवाल के आरोपों को खारिज कर दिया गया और साफ किया गया है कि अंबानी या फिर उनकी केपनी का दुनिया के किसी भी देश में गैरकानूनी बैंक खाता नहीं है। दोनों की ओर से ये भी कहा गया है कि एचएसबीसी बैंक की जनेवा शाखा में तो कोई एकाउंट भी नहीं है। अंबानी बंधुओं की ओर से आरोपों को खारिज कर दिए जाने के बाद केजरीवाल ने चुप्पी साध ली है। केजरीवाल साहब आपको पता है ना कि आप जो बोलते हैं तो मीडिया उसका सीधा प्रसारण करता है, ऐसे ही दो चार बार हल्के बयान और दे दिए तो सभी आपको गंभीरता से लेना ही बंद कर देंगे।

एक मजेदार बात और बताता हूं, केजरीवाल ने सरकार पर आरोप लगाया कि फ्रांस की सरकार ने भारत सरकार को कुल 700 नामों की सूची दी थी, लेकिन भारत सरकार ने महज सौ सवा सौ लोगों के यहां ही छापे मारे। बाकी रसूखदार लोगों को महज नोटिस भेज कर खानापूरी कर दी। केजरीवाल साहब पहले तो मैं आपको एक बात बता दूं कि जिनके भी विदेशों में खाते हैं वो सभी रसूखदार ही हैं, वहां कोई टोपी लगाकर आम आदमी नहीं पहुंच सकता। दूसरी बात ये कि भारत सरकार ने तो फिर भी 700 लोगों में सवा सौ लोगों के यहां छापेमारी की, लेकिन आपने तो सिर्फ आठ दस लोगों के ही नाम लिए। जब कांग्रेसी नेता ने आपको सूची मुहैया करा दी तो आप किस दबाव में हैं कि सारे नामों का खुलासा नहीं कर रहे है। अच्छा अगर आपके पास पूरी सूची नहीं है तो आप किस आधार पर सात सौ लोगों की बातें कर रहे हैं। अच्छा आठ दस नामों का जिक्र करने के बाद आप वित्त मंत्री से सवाल पूछ रहे हैं कि जो नाम आपने लिए हैं, वो फ्रांस की सूची में  हैं या नहीं ? ये बात तो हास्यास्पद है ना कि पहले तो आप किसी का नाम उछाल दो, फिर सरकार से पूछो कि ये नाम उसमें शामिल है या नहीं।

 वैसे मुकेश अंबानी व्यस्त रहते हैं, उनका दुनिया भर में कारोबार फैला है। अगर अंबानी की जगह मैं होता तो आपको इसी बात के लिए कोर्ट में लाता कि मेरे नाम पर सिर्फ सौ करोड़ रुपये की बात कर रहे हैं जबकि हमारी एक कंपनी की डायरेक्टर अनु टंडन के खाते में सवा सौ करोड़ बता रहे हैं। अंबानी के लिए सौ करोड़ रुपये आखिर क्या मायने रखता है। सच कहूं तो मैं इसी बात के लिए मानहानि का मुकदमा दायर करता। केजरीवाल साहब क्या आप बता सकते हैं कि आपने कुछ गिने चुने लोगों का ही नाम क्यों लिया ? आप तो ईमानदारी की बड़ी बड़ी बातें करते हैं, फिर आप या तो सभी का नाम लेते या फिर किसी का ना लेते।  केजरीवाल ने जेट एयरवेज के नरेश गोयल का भी नाम लिया कि उनके खाते में 80 करोड़ रुपये जमा हैं। वहां से सफाई आई है कि स्विस बैंक की किसी भी शाखा में उनका कोई एकाउंट नहीं है, विदेशी बैंक में जो एकाउंट हैं, उनके बारे में आयकर विभाग को जानकारी दी गई है। केजरीवाल जी आप तो आयकर महकमें के अधिकारी रहे हैं, आपको ये बात तो पता ही होगी कि अगर किसी उद्योगपति का देश विदेश में कारोबार फैला है तो वहां भी बैंक में खाते खुलवा सकता है। जब तक ये साबित ना हो कि बैंक खाता गलत जानकारी के आधार पर खुलवाया गया है या इसमें जमा राशि ब्लैक मनी है, तब तक किसी का नाम लेना मेरी समझ से तो पूरी तरह गलत है। अच्छा भाई केजरीवाल को अंबानी परिवार से ऐसी खुंदस कि उन्होंने अंबानी की मां श्रीमती कोकिला धीरूभाई अंबानी का नाम भी लिया, कहा कि उनका भी खाता है, लेकिन इस खाते में कोई रकम नहीं है। अरे भाई वो स्व. धीरूभाई अंबानी की पत्नी है, सबको पता है कि उनका कारोबार दुनिया भर में फैला है, ऐसे में एकाउंट होना कौन सा अपराध है। इसी तरह यशोवर्धन विड़ला के बैंक एकाउंट का जिक्र कर कहा गया है कि उसमें कोई पैसा नहीं है।


इसीलिए मन में सवाल उठता है कि आखिर केजरीवाल साबित क्या करना चाह रहे थे ? जिन लोगों के देश विदेश में कारोबार हैं, उनका दुनिया के किसी भी देश मे एकाउंट होना कैसे गलत हो सकता है ? जब तक ये साबित ना हो कि इन खातों में भारी रकम है और ये रकम आयकर विभाग की जानकारी में नहीं है। जब तक केजरीवाल के पास इस आशय का पुख्ता सबूत ना हो, तब वो भला किसी उद्योगपति का नाम कैसे उछाल सकते हैं ? लेकिन नहीं केजरीवाल पर देश का कोई कानून लागू ही नहीं होता। ये संसद का अपमान कर सकते हैं, ये न्यायालय को धता बता सकते हैं। ये देश के प्रधानमंत्री को प्रधानमंत्री नहीं मानते, ये किसी   पर भी कीचड़ उछाल सकते हैं, लेकिन अपने साथियों की गंदगी इन्हें दिखाई नहीं देती, उन्हें डेढ़ रुपये की टोपी पहना कर ईमानदारी का प्रमाणपत्र दे देते हैं। अब केजरीवाल पर तो ईमानदारी का ठप्पा लगा है,  इसलिए वो कुछ भी कर सकते हैं, उन पर कोई सवाल खड़ा नहीं कर सकता। सोशल साइट पर उनके  पेड कार्यकर्ता मौजूद हैं, जिनका काम है, केजरीवाल के क्रियाकलापों की चर्चा करने वालों को दिग्गी के खानदान का बताकर गंभीर विषय से लोगों का ध्यान हटाना।

वैसे सच्चाई तो कुछ और ही है। दरअसल जब तक अरविंद सामाजिक आंदोलन चला रहे थे, इन्हें तमाम उद्योगपति करोड़ों का चंदा दे रहे थे। लेकिन जब इन्होंने समाज सेवा के बजाए राजनीति करना शुरू कर दिया तो उद्योगपतियों ने चंदा देने से इनकार कर दिया। इस क्रम में इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति ने भी साफ कर दिया कि उन्होंने केजरीवाल को राजनैतिक गतिविधियों के लिए कोई चंदा नहीं दिया। दो महीने पहले अरविंद की ओर से आर्थिक मदद के लिए आवेदन किया गया था, जिसे अस्वीकार कर दिया गया। हम सब  जानते हैं कि राजनीतिक पार्टी चलाना आसान नहीं है। मुझे लगता है कि इसीलिए केजरीवाल एक साजिश के तहत उद्योगपतियों को निशाना बना रहे हैं, जिससे वो उनकी पार्टी को भी मोटा माल दे। अरविंद के एनजीओ को विदेशी मदद मिलती है, लेकिन वो इस पैसे का इस्तेमाल राजनीति में नहीं कर सकते। इसलिए उन्हें देश से बड़ी आर्थिक मदद जरूरी है।

अब देखिए टीम अन्ना की अहम सदस्य किरण बेदी ने साफ कर दिया कि अरविंद केजरीवाल इंडिया अंगेस्ट करप्सन (आईएसी) के नाम का इस्तेमाल नहीं कर सकते। ये संगठन अन्ना के पास है। केजरीवाल कह रहे हैं कि जब उनका राजनीतिक दल अस्तित्व में आ जाएगा, तब इस्तेमाल करना बंद कर देंगे। सबको पता है कि इंडिया अगेंस्ट करप्सन के खाते में मोटा मालहै, जब तक इसका वारा न्यारा ना हो जाए, भला इसे कैसे छोड़ सकते हैं। अन्ना साफ कर चुके हैं कि उनके नाम का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए, लेकिन जनाब केजरीवाल कहते हैं कि अन्ना उनके गुरु हैं, वो उनके दिल में बसते हैं, भला कैसे उन्हें भूल सकते हैं। दरअसल सच्चाई ये है कि केजरीवाल राजनीति में भी अन्ना के नाम का सौदा करना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि अन्ना एक ऐसा चेहरा है, जो देश में ईमानदारी का प्रतीक बन चुका है, ऐसे में इस चेहरे के बिना उनका कोई अस्तित्व ही नहीं है। इसलिए वो अन्ना के लाख मना करने के बाद भी उनके नाम का मोह नहीं त्याग पा  रहे हैं।
बहरहाल अरविंद केजरीवाल दुनिया में अकेले शख्स होगें, जिन्हें ये बताना पड़ता है कि वो आम आदमी हैं। इसके लिए उन्हें अंग्रेजी पैट शर्ट पर गांधी की टोपी लगानी पड़ती है। अब देखिए इसके बाद भी लोग उन्हें आम आदमी नहीं मानते। लिहाजा बेचारे को आम आदमी साबित करने के लिए टोपी पर लिखवाना पड़ गया कि वो आम आदमी है। वैसे केजरीवाल साहब फटी कमीज हवाई चप्पल पहन कर अगर आम आदमी बना जा सकता तो, राहुल गांधी को दलितों के घर का भोजन और उनकी टूटी चारपाई पर रात ना बितानी पड़ती। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि आप देश के प्रधानमंत्री तो बन सकते हैं, पर आम आदमी कभी नहीं बन सकते, इसके लिए आप चाहे कितना ही ड्रामा क्यों ना कर लें।   








Wednesday 7 November 2012

लादेन ने बनाया ओबामा को राष्ट्रपति !

मैं अमेरिका की नीतियों से इत्तेफाक नहीं रखता हूं, खासतौर पर उसकी विदेश और आर्थिक नीतियों का तो मैं सख्त विरोधी हूं। इसके बाद भी मैं अमेरिकियों की देश के प्रति समर्पण और उनकी राष्ट्रभावना का कायल हूं। भारत में मतों की गणना होती है तो राजनीतिक दलों के कुछ चंपू ही मतगणना के स्थान पर मौजूद होते हैं, ऐसा लगता है कि यहां आम आदमी को पूरी चुनावी प्रक्रिया से कोई लेना देना नहीं है। भारत में पूर्वाह्नन 11.30 के करीब जब टीवी पर खबर आई की ओबामा ने जीत के लिए जरूरी इलेक्टोरल वोट 270 का आंकड़ा प्राप्त कर लिया है, उसी समय हम सब ने देखा कि अमेरिका के किसी एक शहर में नहीं बल्कि पूरा अमेरिका सड़कों पर आ गया। आपको पता होना चाहिए कि जब यहां दिन के 12 बज रहे थे तो वहां रात का लगभग 2 बजा था। ये जानकार तो और भी हैरानी होगी कि शिकागो में इतनी ज्यादा ठंड है कि वहां तापमान माइनस में चल रहा है। इसके बाद भी अमेरिकियों के उत्साह में कोई कमी नहीं थी।

मेरे कुछ मित्र अमेरिका में हैं, उनसे चुनाव को लेकर कुछ बातें हो रही थी। मैने जानना चाहा कि आखिर ऐसा क्या रहा बराक ओबामा में कि उन्हें दोबारा जीत मिली। जीत भी ऐसी जिसकी उम्मीद बहुत कम बताई जा रही थी। मैने इस बात का खासतौर पर जिक्र किया कि पिछले दो तीन सालों में मंदी की वजह से अमेरिका में नौकरी कम हुई है। ओबामा प्रशासन के प्रति वहां युवाओं में गुस्सा भी है। इन सबके बाद भी जीत और वो भी ऐतिहासिक जीत मिली। मित्र ने कहा कि भारत और अमेरिका में यही बुनियादी अंतर है। यहां लोगों के लिए देश पहले है वो खुद बाद में हैं। बराक ओबामा की सबसे बड़ी कामयाबी यही रही है कि उन्होंने पाकिस्तान में छिपे आतंकवादी सरगना ओसामा बिन लादेन को उसी के ठिकाने पर जाकर मार गिराया। ओसामा को मार गिराने के बाद अमेरिका में ओबामा का कद और उनकी उपलब्धियों का ग्राफ बिल्कुल ऊपर पहुंच गया। जिस दिन ओसामा को अमेरिकी फौज ने मारा, उस दिन सिर्फ अमेरिकी प्रशासन ने नहीं बल्कि पूरा देश जश्न में डूबा था। सच तो ये है ओबामा की दूसरी जीत पर उसी दिन अमेरिकियों ने मुहर लगा दी।

मित्र की बात सुनकर मैं कुछ देऱ खामोश रह गया। अमेरिका और अपने नेताओं को एक तराजू पर तौलने लगा। सच बताऊं शर्म आने लगी अपने नेताओं का चरित्र देख कर। बताइये अमेरिका ने देश पर हमला करने वाले ओसामा बिन लादेन को दूसरे देश में जाकर मार गिराया और हम... । संसद पर हमले के मास्टर मांइंड अफजल गुरू को फांसी की सजा सुना दिए जाने के भी कई साल बीत जाने के बाद उसे सूली पर नहीं लटका पाए। वजह कुछ और नहीं, बस एक तपके का वोट हासिल करने के लिए। क्या हमारे नेता देश की सत्ता को देश से बड़ा मानते है ? अब इन्हें कौन समझाए कि सत्ता तभी आपके हाथ में होगी जब देश होगा, जब देश ही टूट जाएगा तो सत्ता कहां रहेगी। मित्र ने बताया ओसामा को मारने के लिए कई सौ करोड़ रुपये अमेरिका ने खर्च किए। मैं देख रहा हूं कि मुंबई पर हमले के आरोपी अजमल कसाब की सुरक्षा पर केंद्र और महाराष्ट्र सरकार कई करोड़ रुपये अब तक खर्च कर चुकी है।

देश के नेताओं के इसी घिनौने चरित्र की वजह से उनमें देश की जनता से डर बना रहता है। आप कल्पना कीजिए अमेरिका में कई लाख लोगों के बीच नव निर्वाचित राष्ट्रपति बराक ओबामा बिना किसी सुरक्षा के तड़के 3.30 बजे उनके बीच में आ गए। वो भी पूरे परिवार के साथ। यहां तो दिन में राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री इस तरह सार्वजनिक सभा को संबोधित नहीं कर सकते। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ऐसा कौन सा बड़ा काम कर दिया है, जिससे कहा जाए कि देश की जनता उनसे नाराज होगी, जो उन पर हमला कर सकती है। ओबामा को तो फिर भी सतर्क रहने की जरूरत है, क्योंकि उन्होंने खुंखार आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को मिरा गिराया है। ऐसे में तमाम आतंकी संगठन ओबामा से नाराज हो सकते है। फिर भी ओबामा पूरे कान्फीडेंस के साथ जनता के बीच रात के अंधेरे में मौजूद रहे। खैर अपने तो प्रधानमंत्री को लालकिले से भी भाषण देना होता है तो वो बुलेट प्रूफ केबिन में खड़े होते हैं और आम जनता तो उनसे कोसों दूर बैठती है। बेचारे प्रधानमंत्री बुलेट प्रूफ कार, बुलेट प्रूफ जैकेट और बुलेट प्रूफ केबिन इसी में कैद रह जाते हैं।

अमेरिका और हमारे बीच कामकाज के तरीकों को लेकर भी अंतर है। आतंकवाद का शिकार अमेरिका हुआ तो उसने ये देखना शुरू किया कि इसकी जड़ कहा हैं। जड़ को खत्म करना है, बिना जड़ को खत्म किए आतंकवाद को खत्म नहीं किया जा सकता। उसने देखा कि आतंक की जड़ पाकिस्तान में है, तो उसने वहां चढ़कर ओसामा बिन लादेन का खात्मा किया। हम क्या करते हैं ? जड़ में तो पानी डालते हैं, और अपनों को खुद सुरक्षित रहने की सलाह देते हैं। अगर हम भी अफजल गुरु और कसाब को सार्वजनिक रूप से फांसी पर लटका देते तो दुनिया भर के आतंकियों में संदेश जाता कि भारत जाओगे तो मारे भी जा सकते हो। पता नहीं, पर हो सकता है कि किसी मंत्री के परिवार का कोई आतंकी संगठन अपहरण कर लें और उसके  एवज में कसाब को चार्टर प्लेन से पाकिस्तान छोड़ने को देश मजबूर हो जाए। आने वाले समय में ऐसा कुछ हो तो कम से कम मुझे तो कोई हैरानी नहीं होगी।

अच्छा अमेरिका में सरकार और विपक्ष हमारे जैसा नहीं है। बराक ओबामा ने जीत के बाद सबसे पहले अपने प्रतिद्वंद्धी मिंट रोमनी को फोन किया और उनसे देश के विकास में सहयोग देने की अपील की। हमारे यहां नेता सरकार में आते ही सबसे पहले विपक्षी नेताओं के फोन टेप कराने के आदेश देते हैं। उन्हें लगता है कि देश के लिए सबसे बड़ा खतरा विपक्ष ही है। पूरे कार्यकाल इसी में बीत जाता है कि वो विपक्ष से किसी मोर्चे पर हारे तो नहीं। संसद जहां देश के लिए कल्याणकारी योजनाएं बनानी चाहिए, वो शक्ति प्रदर्शन का केंद्र बन जाता है। सरकार कोशिश करती है कि संसद चले, विपक्ष संसद ठप करने में लगा रहता है। संसद पूरे सत्र ठप रहती है, सरकार में होते हुए भी एक दिन संसद न चल पाने पर सरकार शर्मिंदा नहीं होती, वो  इसके लिए विपक्ष को जिम्मेदार बताकर सब कुछ भूल जाती  है।

बहरहाल बराक ओबामा दूसरी बार राष्ट्रपति जरूर बन गए हैं, लेकिन सब कुछ तो उनके लिए भी अच्छा नहीं है। क्योंकि जहां तक वोट पर्सेंटेज का सवाल है तो दोनों उम्मीदवारों को बरारबर 49 फीसदी के करीब वोट मिले हैं। यानी मिट रोमनी ज्यादा पीछे नहीं हैं, बल्कि ओबामा को पिछली बार के मुकाबले करीब चार फीसदी वोट का नुकसान हुआ है। पिछले बार उन्हें 52.9 फीसदी वोट मिले थे। लेकिन मिट रोमनी ने हार स्वीकार कर ली है, उन्होंने बराक ओबामा को बधाई दी और कहा, 'अमेरिका ने किसी और को अपना नेता चुना है। मैं राष्ट्रपति और अमेरिका के लिए प्रार्थना करूंगा। मै जितनी प्रशंसा ओबामा की कर रहा हूं, उससे कहीं ज्यादा रोमानी की भी करता हूं कि उन्होने भी देश की तरक्की की कामना की।

प्रधानमंत्री जी मैं आपसे एक आग्रह कर रहा हूं। रहने दीजिए आप, देश के लिए कुछ मत कीजिए। आपका जितना समय बचा है, उसमें सिर्फ इतना काम कर लीजिए, जिससे देश की जनता के बीच आप अकेले बिना डर भय के आ जा सकें। आप कहीं भी बिना सुरक्षा के सार्वजनिक सभा कर सकें। इसके लिए कुछ ज्यादा करने की जरूरत नहीं है, देशवासियों का दिल जीतने की बात है। समस्याएं तो अमेरिका में भी हैं, आतंकी हमला तो अमेरिका पर भी हुआ, लेकिन दोबारा नहीं हुआ। वहां लोगों को अपनी सरकार पर भरोसा है, ये भरोसा आप भी दे सकते हैं क्या ? मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि आप ये भरोसा देश को नहीं दे सकते, जब आप लाल किले से इतनी सुरक्षा में देश को संबोधित करते हैं, उस समय भी आपको बुलेट प्रूफ केबिन की जरूरत पड़ती है। इससे तो अच्छा है कि आप घर मे बैठ कर टीवी पर राष्ट्र के नाम संदेश दे दें। कम से कम सुरक्षाकर्मियों को शर्मिंदा तो नहीं होना पडेगा।

 

Tuesday 6 November 2012

संघ का हीरो बोले तो दाउद के गड़करी

लेख पढ़ने से पहले आइये थोड़ा हंस लेते हैं। पहले हंस लेना इसलिए जरूरी है कि बाद में चाल चरित्र और चेहरे का दावा  करने वाली पार्टी की करतूतें आपको रुलाएंगी। गंभीर आरोप लगने के बाद बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गड़करी के पक्ष में देश के जाने माने सीए, वित्तीय सलाहकार एस एन गुरुमूर्ति ने बीजेपी नेताओं के सामने एक प्रजेंटेशन दिया, जिसमें कहा गया है कि उन्होंने सारे कागजात देख लिए हैं और गड़करी बिल्कुल निर्दोष हैं। गुरुमूर्ति की क्लीन चिट् के बाद पार्टी नेताओं ने गड़करी को बेदाग घोषित कर उनके पीछे कदमताल करने का निर्णय ले लिया। ऐसा करें भी क्यों ना क्योंकि हरियाणा सरकार ने भी तो राबर्ट वाड्रा को क्लीन चिट दे दिया है। आप जानते ही है इंडिया अगेंस्ट करप्सन ने भी अपने दो सदस्यों प्रशांत भूषण और अंजलि के खिलाफ लगे आरोपों की जांच अपने लोकपाल को सौंप दिया है। वाह भाई वाह ! ये बढिया है, अपना अभियुक्त, अपने जांच अधिकारी,  अपनी रिपोर्ट, अपना जज। फिर क्या बाकी है, अब अपनी पुलिस और जेल भी बना लीजिए। हाहाहाहहाहा 


कांग्रेस को पानी पी-पी कर कोसने वाली बीजेपी को अब अपना घर बचाने के लिए भारी मशक्कत करनी पड़ रही है, क्योंकि इस बार आरोप किसी और पर नहीं बल्कि पार्टी अध्यक्ष नितिन गड़करी पर लगा है। भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों में फंसे गड़करी की सफाई से पहले ही कोई संतुष्ट नहीं था, अब गड़करी नए विवादों में घिर गए हैं। उनका मानना है कि स्वामी विवेकानंद और माफिया डान दाउद इब्राहिम में ज्यादा फर्क नहीं है, क्योंकि दोनों का आईक्यू (बौद्धिक स्तर) समान है। बस फर्क ये है कि स्वामी ने अपने आईक्यू का इस्तेमाल सकारात्मक कार्यों में किया, जबकि दाऊद ने अपराध की दुनिया में दिमाग लगाया। बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गड़करी की इस बात से देश भर में गुस्सा है। वैसे ऐसा नहीं है कि बदजुबान गड़करी पहली बार अपनी बातों से फंसे है, बल्कि वो अकसर सार्वजनिक मंच से हल्की और निम्नस्तरीय बात करके पार्टी की किरकिरी कराते रहे हैं। बहरहाल मुश्किल में फंसे गड़करी कुर्सी बचाने के लिए पार्टी नेताओं के यहां चक्कर काट रहे हैं, लेकिन सच ये है कि उन्हें कहीं से भी सकारात्मक जवाब नहीं मिल रहा। वैसे तो संघ ये दिखाने की कोशिश कर रहा है कि इस मसले से उसका कोई सरोकार नहीं है, लेकिन संघ को लग रहा है कि अगर नितिन हटाया गया तो निश्चित ही संघ की भी किरकिरी होगी।

मेरा पहले दिन से ही ये मानना रहा है कि नितिन गड़करी का आईक्यू (बौद्धिक स्तर) अभी राष्ट्रीय स्तर की राजनीति के काबिल नही हैं। अगर मुझे तय करना हो तो मैं उन्हें जितना सुन और समझ पाया हूं, उसके आधार पर तो मै गडकरी को किसी सूबे का भी अध्यक्ष ना बनने दूं। बहरहाल संघ से करीबी संबंधों के कारण उन्हें पद मिल गया, लेकिन नितिन इस पद के काबिल अपना कद नहीं बढ़ा पाए। सार्वजनिक मंचों से शुरू से ही ऐसी बातें करते रहे जो राष्ट्रीय स्तर की पार्टी के अध्यक्ष के गरिमा के अनुरूप नहीं था। पिछले दिनों कांग्रेस के एक महासचिव को उन्होंने "चिल्लर नेता" कहा। इसे लेकर भी नितिन गड़करी की काफी छिछालेदर हुई थी। गडकरी कभी अपने वक्तव्य और व्यवहार से ये साबित ही नहीं कर पाए उनमें राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने की काबिलयत है। कोई भी अध्यक्ष हो, उसे इस बात का तो ज्ञान होना ही चाहिए कि संघ एक बार उन्हें जोर लगाकर अध्यक्ष बना तो सकता है, पर अध्यक्ष का काम तो उसे ही करना होगा। नितिन गड़करी अपने पहले कार्यकाल में ऐसा कुछ भी नहीं कर पाए, जिससे लगे कि संघ ने उन्हें अध्यक्ष बनाकर कुछ भी गलत नहीं किया। हां नितिन ने एक काम जरूर बखूबी किया है, वो ये कि कुछ भी परफार्म किए बगैर अध्यक्ष पद का दूसरा कार्यकाल अपने नाम करने का रास्ता साफ कर लिया। बहरहाल अब तो हालत ये है कि वो अपना पहला कार्यकाल ही पूरा कर पाएं यही बहुत है, दूसरा कार्यकाल मिलना तो मुश्किल ही है।

वैसे भ्रष्टाचार का आरोप लगने के बाद गडकरी भले कहें कि वो किसी भी जांच का सामना करने को तैयार हैं, लेकिन मेरा तो यही मानना है कि नैतिकता की दुहाई देने वाले गडकरी को अब पार्टी का अध्यक्ष पद तुरंत छोड़ देना चाहिए। वैसे भी अब पार्टी के भीतर भी उनके इस्तीफे की मांग जोर पकड़ने लगी है। अगर बीजेपी को 2014 में कांग्रेस के भ्रष्टाचार को चुनावी मुद्दा बनाना है तो उसे गड़करी को ना सिर्फ अध्यक्ष पद बल्कि जांच होने तक पार्टी से भी बाहर का रास्ता दिखाना ही होगा। अध्यक्ष पद जाता देख गड़करी काफी परेशान दिखाई दे रहे हैं। मंगलवार को पूरे दिन वो नेताओं के घर चक्कर काटते दिखाई दिए। राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष होने के बाद भी बेचारे अपने पक्ष मे समर्थन जुटाते फिर रहे हैं। उन्होंने लोकसभा में नेता विपक्ष सुषमा स्वराज और राज्यसभा में नेता विपक्ष अरुण जेटली से उनके घर जाकर मुलाकात की। अंदरखाने क्या बात हुई ये तो पार्टी के नेता जाने, लेकिन मुंह लटकाए जिस तरह गडकरी नेताओं के घर जाते हैं और वैसे ही वापस लौटते हैं, इससे तो लगता है कि सबकुछ सामान्य नहीं है। इस बीच सियासी गलियारे में खबर उड़ी कि बीजेपी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी हिमांचल के वरिष्ठ बीजेपी नेता शांता कुमार का नाम अध्यक्ष पद के लिए आगे बढ़ाना चाहते हैं। बीजेपी खेमें में पूरे दिन जिस तरह का घटनाक्रम दिखाई दे रहा था, उससे तो लगा कि अब किसी भी वक्त गड़करी अध्यक्ष की कुर्सी छोड़ सकते हैं। लेकिन दोपहर तीन बजे के बाद उनके लिए कुछ राहत भरी खबर आई। चर्चा तो ये है कि संघ ने पार्टी के तमाम वरिष्ठ नेताओं से बात कर हालात को सुलझाने में अहम भूमिका निभाई। इसी दौरान पार्टी नेता सुषमा स्वराज ने ट्विट किया कि वो गड़करी के साथ हैं।   

दरअसल ये मुश्किल गड़करी ने खुद खड़ी की है। सब को पता है कि गड़करी किसानों की जमीन हथियाने के आरोपों से पहले ही घिरे थे, इसी बीच एक और विवाद उनके नाम जुड़ गया। ये आरोप भी हल्का फुल्का नहीं है। अंग्रेजी अखबार ने खुलासा किया कि उनकी कंपनी को घाटे से उबारने के लिए आईआरबी कंपनी ने 164 करोड़ रुपये का लोन दिया। आपको हैरानी होगी कि ये वही कंपनी है जिसे महाराष्ट्र में तमाम कार्यों का ठेका दिया गया, और ये ठेके उस समय दिए गए, जब गडकरी वहां के लोकनिर्माण मंत्री थे। आरोप तो ये भी है कि लोन में दिए गए पैसे का स्रोत भी साफ नहीं है। इस खुलासे के बाद बीजेपी नेताओं की बोलती बंद है। आरोप है कि 16 अन्य कंपनियों के एक समूह का गडकरी की कंपनी में शेयर हैं। लेकिन इन 16 कंपनियों के जो डायरेक्टर हैं, उनके नाम का खुलासा होने से गड़करी का असली चेहरा जनता के सामने आ गया है। आपको हैरानी होगी कि उनका ड्राइवर जिसका नाम मनोहर पानसे, गडकरी का एकाउंटेंट पांडुरंग झेडे, उनके बेटे का दोस्त श्रीपाद कोतवाली वाले और निशांत विजय अग्निहोत्री ये सभी इन विवादित कंपनियों के डायरेक्टर हैं। ताजा जानकारी के अनुसार गड़करी के नियंत्रण वाली पूर्ति पावर एंड शुगर लिमिटेड 64 करोड़ रुपये के घाटे में चल रही थी । 30 मार्च 2010 को आइडियल रोड बिल्डर्स यानी आईआरबी ग्रुप की फर्म ग्लोबल सेफ्टी विजन ने उसे 164 करोड़ रुपये लोन दिया। आईआरबी ग्रुप को 1995 से 1999 के बीच महाराष्ट्र में तमाम सरकारी ठेके दिए गए। उस दौरान गडकरी ही लोक निर्माण मंत्री थे। आईआरबी ने पूर्ति पावर एंड शुगर लिमिटेड के तमाम शेयर भी खरीदे। मसला वही सत्ता से पैसा और पैसे से सत्ता का लगता है।

गड़करी पर भ्रष्टाचार का ये गंभीर मामला है। इस मामले में अभी तक कोई संतोषजनक जवाब वो नहीं दे सके हैं। इस बीच उन्होंने भ्रष्टाचार के आरोपों से देश का ध्यान भटकाने के लिए स्वामी विवेकानंद की तुलना माफिया डान दाउद इब्राहिम से की तो पूरे देश में उनके खिलाफ और माहौल बन गया। पार्टी के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य महेश जेठमलानी ने तो उनके इस्तीफे की मांग को लेकर कार्यकारिणी से त्यागपत्र दे दिया। पार्टी के वरिष्ठ नेता रामकृष्ण जेठमलानी खुल कर विरोध करते हुए सामने आए, उन्होंने भी गड़करी का इस्तीफा मांगा। इसी बीच पार्टी नेता जसवंत सिंह और यशवंत सिन्हा की मुलाकात को लेकर सियासी गलियारे में चर्चा होने लगी कि पार्टी में गड़करी का विरोध बढ़ता जा रहा है। ऐसे में गड़करी का जाना तय है। इस बीच पत्रकारों को मैसेज मिला कि शाम 7 बजे पार्टी की कोरग्रुप की बैठक होगी। इस बैठक में गडकरी के मामले में चर्चा की जाएगी। बहरहाल कोर ग्रुप तो महज दिखावा है, अंदर की बात ये है कि संघ ने पार्टी नेताओं पर अपना डंडा घुमा दिया है और साफ कर दिया है कि मीडिया में बेवजह की बयानबाजी बंद हो। पार्टी नेता एक साथ मीडिया के सामने आएं और गड़करी के समर्थन का ऐलान करें। बहरहाल संघ के दबाव में गडकरी की कुर्सी भले बच जाए, लेकिन अब बीजेपी कम से कम सिर उठाकर अपने चाल चरित्र और चेहरे की दुहाई तो नहीं ही दे पाएगी। मैं तो यही कहूंगा चोर चोर मौसेरे भाई।

Saturday 3 November 2012

हिमांचल प्रदेश : बंदर हैं धूमल के दुश्मन नंबर 1


हिमांचल प्रदेश में मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल की कुर्सी बंदरों की वजह से जा सकती है। सप्ताह भर हिमांचल प्रदेश के कई शहरों की खाक छानने के बाद मुझे लगता है कि इस बार यहां हो रहे विधान सभा चुनाव में बीजेपी की सरकार को सबसे बड़ी चुनौती लगभग पांच लाख बंदरों से मिल रही है। आप सोच रहे होंगे कि आखिर ये बंदर किसी चुनाव को कैसे प्रभावित कर सकते हैं ? चलिए मैं बताता हूं कि इन बंदरों से हिमांचल प्रदेश को कितना नुकसान हो रहा है। बताया गया कि राज्य में हर साल बंदर खेती और बागवानी को पांच सौ करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान पहुंचा रहे हैं। लेकिन इस गंभीर समस्या का कोई हल धूमल  सरकार नहीं कर पाई। बंदरों के निर्यात पर केंद्र सरकार ने 1978 में प्रतिबंध लगा दिया था, इससे हिमाचल प्रदेश में बंदरों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।

मैंने अपने भ्रमण के दौरान देखा कि आज पहाड़ अपनी पहचान खोते जा रहे हैं। हरे भरे पहाड़ों पर सीमेंट कंक्रीट का जाल बिछता जा रहा है। हालत ये है कि पहाड़ों पर फलदार पौधे न के बराबर रह गए हैं और जंगल का दायरा भी सिमटता जा रहा है। यही वजह है कि बंदरों के साथ-साथ फसल उजाड़ने वाले अन्य जानवर अब आबादी वाले इलाकों की तरफ घुसपैठ कर रहे हैं। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि हिमांचल में कुल 3,243 पंचायतों में से 2,301 पंचायतों के किसान बंदरों की गंभीर समस्या से जूझ रहे हैं। प्रदेश में खेती बचाओ संघर्ष समिति ने जब सभी पंचायतों से आंकड़ा जुटाया तो पता चला कि बंदर और जंगली जानवर हर साल फसलों व बागों में फलों को बर्बाद कर किसानों को पांच सौ करोड़ रुपये का नुकसान पहुंचा रहे हैं।

हिमांचल में बंदरों की संख्या में भी तेजी से बढोत्तरी हो रही है। बताते हैं कि 2004 में बंदरों की संख्या लगभग साढ़े तीन लाख थी, जो अब पांच लाख से ऊपर हो गई है। बंदरों को जंगल में रोकने के लिए जरूरी है कि पहाड़ों पर अच्छी मात्रा में फलदार पेड़ लगाए जाएं, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। अब पहाड़ों पर चीड़ के पेड़ ही ज्यादा दिखाई देते हैं। इससे बंदर फसलों को नुकसान पहुंचा रहे हैं। देश के कई राज्यों में किसान भूमि अधिग्रहण की समस्या से परेशान हैं तो कहीं बाढ़-सूखे के कारण नष्ट हो रही खेती से। कई जगह तो किसान कर्ज के कारण आत्महत्या तक कर रहे हैं, तो कुछ उपज का वाजिब दाम न मिलने से दुखी हैं। लेकिन हिमांचल में किसानों के लिए बंदर गंभीर संकट बन गए हैं। शिमला, सिरमौर और सोलन जिले के कई गांवों में किसान खेती छोड़ शहर जाकर मजदूरी करने को मजबूर हैं। बंदरों की वजह से कई ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं, जिसमें कुछ लोगों की मौत भी हो चुकी है।

अच्छा ये समस्या इतनी गंभीर हो गई है कि पंचायत चुनावों में बंदर और जंगली जानवरों का आतंक भी चुनावी मुद्दा बना हुआ था। पिछले विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान किसानों ने भाजपा और कांग्रेस से इस मसले का समाधान निकालने का आश्वासन मांगा। इस पर दोनों दलों ने इस समस्या को अपने घोषणा पत्र में शामिल किया। वैसे मुख्यमंत्री धूमल ने तो बंदरों को सीमित संख्या में मारने की इजाजत भी दी, लेकिन पशु प्रेमी संगठनों के विरोध के बाद अब मामला न्यायालय में लंबित है। फिलहाल बंदरों व जंगली जानवरों को जान से मारने पर रोक लगी हुई है। आइये एक आंकड़े पर नजर डालते हैं। यहां बताया गया कि बंदरों से पांच सौ करोड़ रुपये का नुकसान तो केवल फसलों का ही है। अगर इनसे होने वाले सभी तरह के नुकसान जोड़े जाएं तो यह आंकड़ा दो हजार करोड़ रुपये तक जा पहुंच जाता है। पांच लाख प्रभावित किसान परिवार यदि साल में दो सौ दिन अन्य कार्य छोड़कर केवल फसलों की ही रखवाली में जुटे रहते हैं, तो मनरेगा की एक दिन की दिहाड़ी 130 रुपये के हिसाब से यह आंकड़ा 1300 करोड़ रुपये के करीब होता है।

आप सब जानते हैं कि हिमांचल में विधानसभा चुनावों के मतदान के लिए उल्टी गिनती शुरू हो गई है। आज चुनाव प्रचार भी खत्म हो गया। दिल्ली में बैठकर नेता मंहगाई, भ्रष्टाचार की चर्चा कर रहे हैं। सच बताऊं तो हिमांचल के चुनाव में ये मुद्दे बेमानी हैं। अगर आपको याद हो तो एक बार दिल्ली में विधान सभा चुनाव में दिल्लीवासियों ने महज प्याज के मंहगा होने से सरकार पलट दी थी। कुछ इसी तरह की समस्या हिमांचल में धूमल सरकार के लिए बंदर बन गए हैं। यही वजह है कि अब राजनीतिक दलों की जुबान से केंद्रीय मुद्दे हटने लगे हैं, चुनाव प्रचार के अंतिम चरण में एक बार फिर बंदरों का मुद्दा गरमा गया है। बीजेपी के सांसद अनुराग ठाकुर तो धर्मशाला और आसपास खुलेआम कांग्रेस के दिग्गज नेता वीरभद्र सिंह पर आरोप लगाते हैं कि उन्होंने शिमला से बंदरों को लाकर धर्मशाला और आसपास के इलाके में छोड़ दिया। वैसे धूमल सरकार ने सत्ता में आने के बाद बंदरों की आबादी को बढने से रोकने के लिए बड़ी संख्या में बदरों की नसबंदी कराई। दरअसल बंदरों के मामले में सख्त कार्रवाई करने से सरकार भी पीछे हट जाती है, क्योंकि ये मामला न्यायालय में लंबित है।

सच बताऊं तो जब मैं पिछले हफ्ते हिमांचल के लिए  निकल रहा था तो मुझे लगा था कि हिमांचल में कांग्रेस वापसी नहीं कर पाएगी। वजह उसके तमाम केंद्रीय मंत्री भ्रष्टाचार में शामिल पाए गए हैं। मंहगाई बेलगाम हो चुकी है। गैस सिलेंडर भी चुनावी मुद्दा बनेगा। इतना ही नहीं हिमांचल में कांग्रेस की चुनावी बागडोर थामे वरिष्ठ नेता वीरभद्र सिंह पर भी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे हैं। ऐसे में कांग्रेस तो मुकाबले से बाहर ही होगी। लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है। कांग्रेस यहां बीजेपी को ना सिर्फ कड़ी टक्कर दे रही है, बल्कि ये कहूं कि धूमल को कुर्सी छोड़नी पड़ सकती है तो गलत नहीं होगा। आपको बता दूं हिमांचल में ना कोई सलमान खुर्शीद की चर्चा कर रहा है, ना राबर्ड वाड्रा की और ना ही नितिन गड़करी की। यहां चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा बंदर है और यहां के लोगों का मानना है कि बंदरों को काबू करने में धूमल सरकार फेल रही है। ऐसे में अगर 20 दिसंबर को हिमांचल में कांग्रेस दीपावली मनाती नजर आए तो कम से कम मुझे तो हैरानी नहीं होगी। 

मित्रों, हिमांचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के सिलसिले में पूरे सप्ताह भर वहां था। चुनावी  भागदौड़ की वजह से मैं आप सबके ब्लाग पर भी नहीं आ सका। आज ही वापस आया तो सबसे पहले मैने आपको वहां के चुनावी माहौल पर कुछ जानकारी देने की कोशिश की। इस दौरान हिमांचल के धर्मशाला शहर में ब्लागर भाई केवल राम जी से छोटी पर सुखद मुलाकात हुई। खैर अब कोशिश होगी कि गुजरात रवाना होने से पहले आप सबके ब्लाग पर जरूर पहुंच सकूं।




दोस्तों, 
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