Thursday 29 September 2011

मनमोहन बनाम अफजल गुरु.....

( कौन कहता है कि पीते समय गंभीर बातें नहीं होतीं )

झटका लगा ना आपको, हैरत में पड़ गए होंगे, ये क्या बात है। अरे इन दोनों में भला क्या तुलना हो सकती है। मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री हैं और अफजल गुरु देश की संसद पर हमले का मास्टर माइंड। हालाकि मैं भी जब अपने दिमाग पर बहुत ज्यादा जोर डालता हूं, तो इन दोनों में सिर्फ एक समानता दिखाई देती है, वो ये कि दोनों ही दाढ़ी रखते हैं, लेकिन यहां भी इनमें अंतर है, हमारे प्रधानमंत्री की दाढ़ी़ पूरी तरह सफेद हो चुकी है, लेकिन अफजल गुरु की सफेद होनी शुरू भर हुई है।
दरअसल नवरात्र शुरू होने से पहले कुछ मित्रों ने तय किया कि एक छोटी सी पार्टी कर ली जाए, वरना तो नौ दिन पीना-पिलाना और नानवेज पूरी तरह बंद हो ही जाएगा। हमारे एक साथी ने इस बात को जिस तरह पेश किया उससे एक बार तो ऐसा लगा कि अगर हम सबने नवरात्र के पहले आपस में गिलास नहीं टकराई तो पहाड़ टूट पड़ेगा। फिर क्या था, आफिस से छूटते ही हम सभी की कारें प्रेस क्लब की ओर निकल पडी। क्लब पहुंच कर सभी ने अपनी अपनी पसंद के ड्रिंक्स का आर्डर किया और एक टेबिल पर जम गए।
आधे घंटे बीते होंगे की बात संसद पर हमले के मास्टर माइंड अफजल गुरु पर शुरू हो गई। एक मित्र बहुत गुस्से में आ गए और कहाकि क्या हो गया है देश के नेताओं को। बताइये साहब अफजल गुरु की माफी के लिए कश्मीर विधानसभा में मामला उठाया जा रहा है। इस बीच हम सभी के दो दो पैग हो चुके थे, लिहाजा अफजल गुरु के समर्थन में भी एक मित्र खड़े हो गए। उन्होंने पूरी आधी ग्लास व्हिस्की एक ही घूंट में खत्म करते हुए गिलास मेज पर रखी और सिगरेट सुलगा ली। उसके बाद तो वे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ऐसी तैसी करने में जुट गए।
दोस्त ने कहा कि अफजल गुरु से ज्यादा खतरनाक मनमोहन सिंह हैं। अफजल ने तो संसद पर बाहर से हमला कराया था, प्रधानमंत्री तो संसद के भीतर से संसद पर हमला बोल रहे हैं। अगर अफजल आतंकी हमले का मास्टर माइंड है, तो अपने पीएम को भी हम पाक साफ नहीं मानते, उन्हें देश में हो रहे लूट खसोट का मास्टर माइंड कहना गलत नहीं होगा। माहौल थोड़ा गरमा सा गया, इसी में से किसी की आवाज आई कि भाई आप कुतर्क कर रहे हैं, प्रधानमंत्री पर कोई दाग नहीं है। मित्र ने पलट कर जवाब दिया कि अफजल गुरू को हमले का मास्टर माइंड बताकर ही तो मौत की सजा सुनाई गई  है, उसके पहले वो क्या था आप जानते हैं। सभी खामोश हो गए।
मित्र यहीं पर नहीं रुके, तीसरा पैग बनाते हुए उन्होंने कहा कि अगर समय रहते मनमोहन सिंह से कुर्सी खाली नहीं कराई गई तो देश गर्त में चला जाएगा। भला देश का प्रधानमंत्री ये कैसे कह सकता है कि टू जी स्पेक्ट्रम के आवंटन में धांधली की उसे जानकारी नहीं थी। कामनवेल्थ घोटाला होता रहा और मनमोहन सिंह खामोश रहे। नोट के बदले वोट कांड में भले ही दूसरे लोग जेल में हैं, लेकिन फायदा किसको मिल रहा था, सरकार किसकी बच रही थी। देश की जनता को बेवकूफ समझते हैं।
मित्र चुप होने को तैयार ही नहीं। अपनी बात में वजन डालने के लिए उन्होंने कहा कि आप लोग ये बिल्कुल ना समझें की मैं पीकर बहक रहा हूं, श्रीवास्तव जी जानते हैं, मैं कभी कभार पीने वाला नहीं हूं, रोजाना तीन ड्रिंक्स लेता हूं। उन्होंने फिर हम सबको समझाने की कोशिश की और बोले देखो भाई सुप्रीम कोर्ट में वित्त मंत्रालय से निकले जो अभिलेख दाखिल किए गए हैं, उससे साफ है कि राजा के फैसले की पूरी जानकारी ना सिर्फ पी चिदंबरम को थी बल्कि पीएमओ कार्यालय यानि प्रधानमंत्री तक को थी।
अगर देश पर कोई हमला दुश्मन करता है, तो हमें उतनी तकलीफ नहीं होती, क्योंकि हम जानते हैं कि आतंकवादियों ने ये हमला किया है। लेकिन जब ऐसे ही हमलों में साध्वी प्रज्ञा और असीमानंद जैसे लोगों के नाम सामने आते हैं तो रोना आता है।
मित्र जरा भावुक हो गए, बोले जब दुश्मन संसद पर हमला करने आए तो हमारे बहादुर सैनिकों ने उन्हें मौत की नींद सुला दी, लेकिन भाइयों इन निकम्में नेताओं से हिसाब बराबर कौन करेगा ? संसद पर हमला कर तबाही मचाने का अफजल गुरु का मिशन पूरा नहीं हो पाया, लेकिन उसे फांसी की सजा मुकर्रर कर दी गई, पर देश को लूटने का मिशन पूरा कर चुके इन नेताओं को फांसी कब होगी ?
अरे ये क्या मित्र की आंखों में आंसू आ गए, बोले वैसे तो मैं गांधी जी का समर्थक हूं और फांसी के खिलाफ हूं। अन्ना जी ने जब बेईमान नेताओं को फांसी देने की मांग की तो एक बार मुझे भी लगा कि ये मांग जायज नहीं है, लेकिन जिस तरह से इन नेताओं ने देश को लूटा है, उससे ये फांसी से भी सख्त सजा के हकदार हैं।
माहौल बहुत ही गरम होता जा रहा था, मुझे लगा कि इस बात को खत्म करना चाहिए। वरना तो हालात बिगड भी सकते हैं. वैसे भी आजकल दिल्ली में पीने पिलाने के बाद कार ड्राइव करने पर पुलिस बहुत सख्त हो गई है, सो हमने सभी से एक किस्सा सुनने का आग्रह किया। लोग मेरी तरफ मुखातिब हुए,, मैने कहा देखो भाई गांधी जी अपने आश्रम तीन बंदर रखते थे, इनमें से एक आंखें बंद रखता था, एक मुंह बंद रखता था और तीसरा अपने कान बंद किए रहता था। लेकिन आज गांधी जी होते तो वो तीनों बंदरो को हटाकर मनमोहन सिंह का चित्र रख लेते, क्योंकि ये ना देखते हैं, ना सुनते हैं और ना ही बोलते हैं। सभी ने जोर का ठहाका लगाया और चलने के लिए खडे हो गए। अब मैं ही सबसे ज्यादा दुरुस्त था, मैने तो तीसरा पैग भी अभी तक नहीं बनाया था, लिहाजा इस रात का आठ हजार का बिल मेरे ही जिम्मे आ गया।
कार्ड से बिल चुकता करने के बाद मैं भी अपनी कार में घर लौटने को सवार हो गया। वैसे तो दोस्तों पीने पिलाने के दौरान हुई बात चीत वहीं भूल जानी चाहिए, उसे याद रखने का कोई मतलब नहीं होता। पर एक सवाल मेरे दिमाग में जरूर घूम रहा है कि अफजल गुरू को फांसी की सजा हो गई है, उसे दी ही जानी चाहिए, पर आजाद देश में इतना करप्ट मंत्रिमंडल पहली बार सामने आया है, तो सख्त सजा के हकदार तो ये भी हैं। संसद पर हमले का मिशन अफजल गुरु  का फेल हो गया था, लेकिन देश को लूटने का मिशन तो नेताओं का पूरा हो गया है, इन्हें बचाने की कोशिश आखिर क्यों हो रही है ? आपके पास इसका क्या जवाब है।
 






Tuesday 27 September 2011

नंगे से तो डरना पडे़गा ना...

रावलपिंडी एक्सप्रेस बोले तो पाकिस्तानी तेज गेंदबाज शुएब अख्तर को हो क्या गया है। मुझे पता है कि अगर आपको अपनी किताब बेचनी है तो उसमें कुछ कंटोवर्सी पैदा करनी ही होगी। यहां कोई धार्मिक ग्रंथ तो  लिखा नहीं जा रहा है कि जो सामने है, वो ही अंतिम सच है। सच्चाई ये है कि जो सामने दिखाई देता है वो सिर्फ आधा सच है। शुएब की किताब है "कांटोवर्सियिली योअर्स" । किताब को भारत में लोकप्रिय बनाना है तो जाहिर है अपने समय के क्रिकेटर पर थोडा हमला बोलना ही होगा। इसलिए शुएब ने लिखा कि सचिन तेंदुलकर उसकी तेज रफ्तार वाली गेंद से डरते थे।
पांच दिन से शुएब दिल्ली में हैं और अपनी इसी विवादित किताब को देश के हर बडे शहर से लांच करना चाहते हैं। उन्हें लग रहा था कि सचिन पर हमला करके वो शोहरत हासिल करेंगे और उनकी किताब को लोग हाथो हाथ लेगें। लेकिन उनका ये दांव उल्टा पड़ गया। मुंबई में जमकर विरोध हुआ और वहां बुक लांच करने का कार्यक्रम रद्द करना पडा़। बंगलौर में भी किताब को लांच नहीं किया जा सका।

अब शोएब बौखलाए हुए हैं। इतना ही नहीं अपना आपा भी खो चुके हैं, या यूं कहें कि पूरी तरह नंगई पर उतारू हैं तो गलत नहीं होगा। आईबीएन 7 चैनल के मैनेजिंग एडीटर आशुतोष के साथ खास बातचीत में उन्होंने जो कुछ कहा वो हैरान करने वाला है। चलिए आप तेज गेंदबाज रहे हैं, आप ये कहते कि सचिन मेरी गेंदबाजी से डरते थे, तो एक बार मान लिया जाता। हालाकि ये कहना कि वो डरते थे, ये गलत है, हम भी सचिन को देख रहे हैं। मैं ये कह सकता हूं कि सचिन शुएब और ब्रैटली की गेंद पर खुद को कुछ असहज महसूस जरूर करते थे। लेकिन अगले सवाल का उन्होंने जो जवाब दिया, उससे लगा कि शुएब की विश्वकप के दौरान जिस तरह से सचिन ने धुनाई की थी, इसलिए अब वो उनके खिलाफ जहर उगल रहे हैं।

शुएब से पूछा गया कि आज दुनिया के पांच बल्लेबाजों में वो सचिन को किस नंबर पर रखते हैं, शुएब का कहना है कि सचिन दुनिया के पांच खिलाडियों में शामिल ही नहीं हैं। तब लगता है कि आप सिर्फ किताब को विवादित नहीं बना रहे हैं, बल्कि व्यक्तिगत खुंदस भी निकाल रहे हैं। मेरा मानना है सचिन तेंदुलकर, रिकी पोटिंग और सनथ जयसूर्या का कोई जवाब नहीं है। सभी अपनी बल्लेबाजी से खेल प्रेमियों को अपना जौहर दिखा चुके हैं।

शुएब यहीं नहीं रुके उन्होंने सचिन के साथ ही राहुल द्रविण को भी निशाने पर लिया और कहा कि ये दोनों बल्लेबाज कभी भारत के लिए मैच जिताऊ नहीं रहे हैं। खैर ये प्रमाण पत्र भारत के खेल प्रेमियों को शुएब से नहीं लेना है। आज देश के लोग सचिन को भगवान कहते हैं, तो इसलिए नहीं कि वो एक अच्छे खिलाड़ी हैं, इसलिए भी कि वो एक अच्छे इंसान भी  हैं। सिर्फ  बेहतर खिलाडी होने से आपको लोग भगवान  का दर्जा नहीं दे सकते, इंसानियत होने पर ही ये दर्जा मिल सकता है, जो सचिन में है। अब शुएब ने पूर्व तेज गेंदबाज कपिल देव को भी निशाने पर लिया और कहा कि वो क्या गेंद फैंकते हैं। बेटा शुएब कपिल वो शख्स हैं जिन्होंने टीम के बल पर नहीं अपने बूते पर भारत के लिए विश्वकप जीता। भारत ने विश्वकप जीता तो एशियाई देशों को लगा कि ये काम हम भी कर सकते हैं। उसके बाद ही पाकिस्तान और श्रीलंका का विश्वकप जीतने का ख्वाब पूरा हो सका।
खैर शुएब तुम भारतीय खिला़डियों को क्या सम्मान दोगे, जब अपने ही देश के महान कोच इंतखाब आलम को बुरा भला कह रहे हो, तो तुम्हारी सभी बातों का जवाब देने का कोई मतलब नहीं है। शुएब का कहना है कि इंतखाब आलम तब से कोच हैं जब वो पढ रहे थे और जब खेलने को मैदान पर उतरे तो भी वही कोच हैं। भाई अगर ऐसा है तो इसमें बुराई क्या है, ये तो उनकी काबिलियत है। शुएब का कहना है कि सचिन के लिए जो कुछ उन्होंने कहा है, उस पर वो कायम हैं और किसी से माफी मांगने का सवाल ही नहीं पैदा होता। तब हम कहते हैं कि सचिन या द्रविण तुम्हारी गेंदबाजी से भले ना डरते हों, पर तुम्हारी नंगई से जरूर डरते हैं। दोस्त नंगई से ये दोनों खिलाडी ही क्या दुनिया डरती है।

बहरहाल एक बात जरूर कहना चाहता हूं कि अगर तुम किसी की तारीफ नहीं कर सकते, तो एक बार अपने को देखो, जरूर तुम्हारे भीतर कुछ खामियां होगी। तुम्हारा व्यक्तिगत जीवन कैसा रहा है, सिर्फ वही दुरुस्त कर लो तो भारत के किसी भी खिलाडी के आंख में आंख डालकर बात करने के काबिल हो सकते हो।

Saturday 24 September 2011

तिहाड़ में शुरु हो गई तैयारी !

रविवार छुट्टी का दिन है, आप सभी को जरूरी काम निपटाने हैं। इसलिए मैने तय किया है कि आज मैं आप सब को कुछ गंभीर विषय पर चर्चा कर ज्यादा बोझिल नहीं करुंगा। हां दिल्ली के तिहाड़ जेल की एक छोटी सी बात जरूर आप सभी के साथ शेयर करना चाहता हूं।
मुझे लगता है कि आप सब को ये बात पता होगी कि नेताओं और मंत्रियों को लगभग सभी जगह प्राथमिकता मिलती है। दिल्ली के सरकारी अस्पताल एम्स में प्रधानमंत्री के लिए हमेशा एक ब्लाक रिजर्व रहता है, जिससे उन्हें आपात स्थिति में कभी भी आना पडे़ तो दिक्कत ना हो। इसी तरह केंद्रीय मंत्री या फिर कोई भी सांसद हो उसे भी यहां प्राथमिकता दी जाती है। इन लोगों को आम आदमी की तरह अपनी बारी का इंतजार नहीं करना होता है।
ट्रेन में सफर के दौरान भी इन्हें प्राथमिकता दी जाती है। ये किसी भी ट्रेन से कभी भी सफर कर सकते हैं। इनका कोटा तय है। नेताओं, मंत्रियों को इस बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं होती है कि उनकी बर्थ कन्फर्म होगी या नहीं। वो कन्फर्म होनी ही है। इसी तरह हवाई जहाज में भी इनकी सीट सुरक्षित है।
आजकल तिहाड जेल प्रशासन मुश्किल में है। यहां जिस तरह वीआईपी का आना लगातार बना हुआ है, उससे जेल अधिकारियों की परेशानी स्वाभाविक है। लिखा पढी में भले ही ये कहा जाए कि टू जी स्पेक्ट्रम  घोटाले के आरोपी ए राजा और डीएमके प्रमुख करुणानिधि के बेटी कनिमोझी सामान्य कैदी की तरह यहां हैं। लेकिन जेल के भीतर कौन देख रहा है। इनकी पार्टी के समर्थन से केंद्र की सरकार चल रही है, उसके नेता को आप आम कैदी की तरह थोडे रख सकते हैं। कामनवेल्थ घोटाले के आरोपी सुरेश कलमाडी तो जेलर के साथ उन्हीं के आफिस में चाय पीते पकडे जा चुके हैं। ऐसे में उन्हें भी वीआईपी व्यवस्था मिली ही होगी। इसके अलावा भी बाहुबलि और दबंग किस्म के कई लोग यहां बंद हैं। टूजी स्पेक्ट्रम मामले में कई नामी गिरामी कंपनियों के सीईओ भी इसी तिहाड जेल में बंद हैं।
पिछले दिनों जब नोट फार वोट कांड में राज्यसभा सदस्य अमर सिंह जेल गए तो उन्होंने सबसे पहले जेल में अलग से बाथरूम की मांग की। उनका कहना था कि वो अस्वस्थ हैं और किसी दूसरे के साथ बाथरूम शेयर नहीं कर सकते। बडी मुश्किल से उनकी मांग को पूरा करते हुए उन्हें वीआईपी व्यवस्था उपलब्ध कराई जा सकी।
अब टू जी की आंच ना सिर्फ पी चिदंबरम तक पहुंच रही है, बल्कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी इसके घेरे में आ चुके हैं। सुब्रह्मयम स्वामी ने जो दो तीन पत्र सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किए हैं, उससे साफ है कि इस गोरखधंधे में चिदंबरम और मनमोहन सिंह भी बेदाग नहीं हैं। हां इन पर ये आरोप भले साबित ना हो सके कि उन्होंने फायदा उठाया है, पर इतना साफ है कि जो कुछ भी ए राजा ने किया, अगर प्रधानमंत्री और उस समय वित्त मंत्री रहे चिदंबरम चाहते तो इसे रोका जा सकता था। खैर ताजा हालात ये हैं कि विपक्ष चिदंबरम को जेल भेजने की मांग कर रहा है। जैसे हालात बन रहे हैं और कोर्ट जितना सख्त नजर आ रहा है, उससे हो सकता है कि चिदंबरम को भी तिहाड का रुख करना पडे।
जेल प्रशासन की मुश्किल ये है कि वो इतने ढेर सारे लोगों को एक साथ वीआईपी सुविधा नहीं दे सकता। चूंकि सरकार के सब मंत्री हैं और जेल आने से पहले भले ही इन्हें इस्तीफा देना पडा हो, पर बाहर जाकर ये फिर मंत्री नहीं बनेगें, इस बात की क्या गारंटी है। ऐसे में जेल के अधिकारियों को मरना थोडे ही है, जो इनसे पंगा लेगें।
जानकार बता रहे हैं कि तिहाड जेल के भीतर तैयारी शुरू हो गई है। कुछ कमरों की साफ सफाई की जा रही है। हालाकि कोई इसे कन्फर्म नहीं कर रहा है, लेकिन अफसर इस बात पर भी सोच रहे हैं कि इतने ब़डे बडे लोग आएंगे, सभी अटैच बाथरूम की मांग करेंगे। ऐसे में क्यों ना पहले ही कुछ कमरों में अटैच बाथरूम की व्यवस्था कर ली जाए।
वैसे मेरा भी तिहाड जेल प्रशासन को सुझाव है कि जेल मे जो भी कमियां है, सब को दुरुस्त करने के लिए फाइल सरकार के पास भेज दें। पहले भले ही उन्हें ये काम कराने के लिए दिल्ली सरकार या केंद्र सरकार पैसा देने में आना कानी कर रही हो, लेकिन अब वो सभी  सुविधाओं को यहां पूरा कराने में बिल्कुल देर नहीं करेंगे। वजह भी साफ है, क्योंकि कौन सा मंत्री कब जेल जाए, कह नहीं सकते। बहरहाल सरकार भले ही मंत्रियों को पाक साफ बताने की कोशिश कर रही हो, लेकिन जेल प्रशासन रिस्क लेने को तैयार नहीं है, उसने तैयारी शुरू कर दी है।




Thursday 22 September 2011

बहन में भी होता है मां का दर्द....


ज मन में कुछ अजीब सा चल रहा है, बुरी तरह से उलझा हुआ हूं। सच कहूं तो मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि ये बनावटी बातें हैं, या फिर वाकई हकीकत है। मुझे तो अपने सुने पर ही भरोसा ही नहीं हो रहा है। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के बारे में मेरी राय बिल्कुल उनके खिलाफ है। राजनीतिक भ्रष्टाचार की बात हो और मायावती का जिक्र ना हो ऐसा हो ही नहीं सकता। निकम्मे मंत्रिमंडल की बात हो तो मायावती की अगुवाई वाले यूपी सरकार के मंत्रिमंडल को नंबर एक पर रखना होगा। सूबे में आराजकता का जिक्र होने पर भी हमारी नजर यूपी पर ही जा टिकती है। लोकतंत्र को कमजोर करने के मामले में भी मायावती का कोई मुकाबला नहीं हैं। नौकरशाही में भेदभाव, ट्रांसफर पोस्टिंग में वसूली, बाहुबलियों को संरक्षण, जबरन चंदा वसूली, अपनी मूर्तिंयों पर अनाप शनाप खर्च.. कहने का मतलब साफ है कि जितना मैं अभी तक मायावती को जानता था, उनमें कुछ भी ऐसा नहीं है, जिससे मैं उनका समर्थन करुं।
महिलाओं के प्रति भी मायावती में कोई खास हमदर्दी नहीं है। अगर हम गंभीरता से विचार करें तो मुझे लगता है कि मायावती की बहुजन समाज पार्टी ही एक मात्र ऐसी राजनीतिक पार्टी होगी, जिन्होंने महिला प्रकोष्ठ तक नहीं बनाया है। महिला होते हुए भी महिलाओं को लोकसभा और विधानसभा के टिकट कम ही दिए जाते हैं। राज्यसभा में तो आज तक उन्होंने किसी को भेजा ही नहीं होगा। मेरी व्यक्तिगत नफरत इस पार्टी और इनकी कार्यप्रणाली से इस कदर है कि मैं किसी भी मां-बाप को ये सलाह नहीं दे सकता कि वो अपनी बेटी का नाम मायावती रखें।
इन तमाम खामियों के बाद भी आज मैं दिल से मायावती को सलाम करता हूं। मेरे मन में उनके प्रति आज एक सम्मान है। उनके प्रति श्रद्धा की और कोई वजह नहीं है, सिर्फ ये कि वो साहित्य की प्रेमी हैं और पूरे दिन जोड तोड की सियासत करने के बाद कम से काम रात में वो एक सामान्य महिला की तरह आम लोगों जैसा सोचती हैं। उनके भीतर भी मां, बहन जैसे रिश्तों  की टीस बरकरार है। चलिए अब मैं पूरा वाक्या आपको बताता हूं।
बात बीते रविवार की है, एक टीवी चैनल के दस साल पूरे होने पर जयपुर में भारी भरकम मुशायरे का आयोजन किया गया था, जिसे उस टीवी पर लाइव सुना और देखा जा सकता था। रात के करीब एक बजे बारी आई, जाने माने शायर मुनव्वर राना की। मुनव्वर भाई ने एक से बढकर एक शेर और गजल पढकर हमारी नींद उडा दी थी। एक शेर आप भी सुनिये।

मौला ये तमन्ना है कि जब जान से जाऊं,
जिस शान से आया हूं, उसी शान से जाऊं।


इस शेर के साथ उन्होंने श्रोताओं से बिदा ले लिया और दूसरे शायर अपने अपने कलाम पढने लगे। आधे घंटे बाद यानि रात के डेढ बजे मुशायरे का संचालन कर रहे अनवर भाई खड़े़ हो गए और मंच से उन्होंने जो कुछ कहा, उससे मैं हक्का बक्का रह गया। उन्होंने श्रोताओं को जानकारी दी, उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती जयपुर में हो रहे इस मुशायरे को लखनऊ में अपने निवास पर सुन रही हैं और उन्होंने फोन के जरिए मुनव्वर राना से अपील की है कि वो " मां "  पर लिखी रचना सुना दें तो मेहरबानी होगी। श्रोताओं ने भी इसका समर्थन किया, लेकिन ना जाने क्यों मेरी आंखें छलक गईं। मैने भी कई बार मुनव्वर राना की " मां " पर लिखी रचना को सुना है, उसमें दर्द है, भावनाओं का एहसास है। मुझे उम्मीद भी थी कि राना भाई ये रचना खुद ही सुनाएंगे, पर उन्होंने नहीं सुनाया। वहां बैठे लोगों ने भी उनसे ये अपील नहीं की, लेकिन मायावती जी ने फोन पर फरमाइश की तो मुझे वाकई अच्छा लगा। सच कहूं तो आज मायावती की मेरी नजर बहुत ऊंची जगह बन गई  है। इसलिए मैं कहता हूं कि बहन में भी होता है मां दर्द। यहां भाई राना की दो लाइन का जिक्र ना करुं तो नाइंसाफी होगी।

ऐ अंधेरे देख ले, मुंह तेरा काला हो गया,
मां ने आंखे खोल दीं, घर में उजाला हो गया।

मां मेरे गुनाहों को कुछ इस तरह  धो देती है,
जब वो बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है।

मैं सलाम करता हूं भाई मुनव्वर राना को भी, जिन्होंने मायावती की फरमाइश को सम्मान देते हुए अपनी ये रचना सुनाई। लेकिन इस पूरे वाकये का जब जाने माने शायर भाई राहत इंदौरी ने मजाक बनाया तो थोडा अच्छा नहीं लगा।




Saturday 17 September 2011

बहाना है उपवास, मंजिल पीएम निवास


सोचा तो था कि कुछ दिन राजनीति से दूर रह कर बाकी बातें करुंगा। वैसे भी मेरा मानना है कि आज देश में राजनीति जिस स्तर पर पहुंच गई है, उसकी चर्चा सिर्फ पैसेंजर ट्रेन की थर्ड क्लास बोगी में मूंगफली खाते हुए टाइम पास करने भर के लिए ही की जानी चाहिए। इसके लिए किसी को भी अपना कीमती वक्त जाया करने की बिल्कुल जरूरत नही है। लेकिन आज जरूरी हो गया है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के तीन दिन के उपवास पर दो चार बातें कर ली जाएं। 
मोदी के उपवास पर आज सियासी गलियारे में तरह तरह की चर्चा हो रही है। आमतौर पर मोदी जब भी मुंह खोलते हैं तो आग उगलते हैं, पर आज उपवास मंच से मोदी बहुत संयम में दिखे। जबकि वो चाहते तो केंद्र सरकार को फिर कटघरे में खड़ा कर सकते थे, क्योंकि बिना उनकी सलाह के गुजरात में लोकायुक्त की तैनाती का मुद्दा आज भी उन्हें कचोट रहा है। अपने व्यक्तित्व से बिल्कुल अलग मोदी ने पूरे भाषण के दौरान सिर्फ विकास की बात की। पहली दफा उनके मुंह से ये भी सुना गया कि जब तक गुजरात में समाज के हर तबके का विकास नहीं होगा, तब तक विकास की बात करना बेमानी है।
मतलब साफ है, मोदी अपने ऊपर लगे उस दाग को धोना चाहते हैं कि मुख्यमंत्री रहने के दौरान गुजरात में अल्पसंख्यकों को कत्लेआम किया गया। बडा सवाल ये है कि आखिर कौन सी मजबूरी है, जिससे मोदी को ये दाग धोने की जरूरत पड़ रही है। इस दाग की वजह से ही तो वो गुजरात में राज कर रहे हैं। सच ये है कि मोदी अब गुजरात के बजाए देश की बागडोर संभालने की तैयारी कर रहे हैं। वो जानते हैं कि अगर उन्हें पीएम की कुर्सी तक पहुंचना है तो अपने ऊपर लगे इस दाग को धोना ही पडेगा। आपको याद होगा कि बिहार के चुनाव के दौरान वहां के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने बीजेपी आलाकमान को साफ कर दिया था कि नरेन्द्र मोदी को प्रचार के लिए बिहार ना आने दें। चलिए नीतिश की पार्टी अलग है, उनका नजरिया अलग हो सकता है, लेकिन मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को साफ कर दिया कि वो विकास के नाम पर चुनाव लडेगें और अगर यहां मोदी को प्रचार के लिए भेजा गया तो इसका जनता में गलत संदेश जाएगा और पार्टी को नुकसान होगा। देश के बाकी हिस्सों से अलग थलग पड़ रहे मोदी के लिए जरूरी हो गया है कि वो इस दाग को साफ करें और इसके लिए उन्हें खुद ही पहल करनी पडेगी। 
मेरा मानना है कि मोदी के लिए एक अच्छा मौका था कि वो उपवास के मंच से अल्पसंख्यक समुदाय से माफी मांग लेते और उस घटना की जिम्मेदारी लेते। शायद इससे उनका पाप कुछ जरूर कम हो जाता। लेकिन उन्होंने इस दंगे की तुलना गुजरात में आए भूकंप से करके गमगीन अल्पसंख्यक परिवारों के घाव को फिर हरा कर दिया। ये सच है कि अभी तक इस दंगे में सीधे सीधे कहीं मोदी का नाम सामने नहीं आया है, लेकिन उतना ही सच ये भी है कि कहीं ना कहीं इस दंगे में मोदी सरकार की भूमिका रही है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उसी समय मोदी को राजधर्म का पालन करने की नसीहत दी थी।  

चलिए हम मानते हैं कि सुबह का भूला शाम को घर आ जाए तो हम उसे भूला नहीं कहते। अगर मोदी अपना दाग धोने और आगे से सबको साथ लेकर चलने की बात कर रहे हैं तो उन्हें मौका देने में कोई हर्ज नहीं है। लेकिन कांग्रेस को क्या हो गया है। इतनी तीखी प्रतिक्रिया क्यों आ रही है। गुजरात के एक कांग्रेसी नेता ने कहा कि अगर तीन दिन उपवास करने से मोदी का दाग धुल सकता है तो फिर मुंबई हमले के आरोपी अजमल कसाब भी तीन दिन उपवास करके अपना दाग साफ कर सकता है। कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता ने कहा कि उपवास करके गोडसे कभी गांधी नहीं बन सकता, जबकि कांग्रेस के मित्रों आप को खुश होने की जरूरत नहीं है, सच ये है कि पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जिस तरह कांग्रेस नेताओं की अगुवाई में देश भर में खुलेआम सिखों का कत्लेआम किया गया, ये दाग उतना गहरा है कि कभी साफ नहीं हो सकता।
एक ओर देश में सिखों का कत्लेआम हो रहा था, उसी दौरान पूर्व प्रधानमंत्री स्व.राजीव गांधी का बेतुका बयान आया कि जब बरगद का पेड़ गिरता है तो छोटे छोटे पौधे नीचे दब ही जाते हैं। जो नेता सड़कों पर निकल कर लोगों की हत्या करा रहे थे, उन्हें कांग्रेस ने काफी समय तक मंत्री बनाए रखा। जनता का दबाव ना होता तो कांग्रेस ने तो पिछले चुनाव में भी  हत्याकांड के आरोपियों को उम्मीदवार बनाने के लिए टिकट दे दिया था, जिसे बाद में वापस लेना पडा। पार्टी का जनाधार खिसकता देख 23 साल बाद पार्टी ने सिखों से सार्वजनिक रुप से माफी मांगी, लेकिन गांधी परिवार ने आज तक माफी नहीं मांगी।

इस पूरे घटनाक्रम में अगर मीडिया की चर्चा ना की जाए तो बेमानी होगी। दिल्ली से पत्रकारों का पूरा हुजूम इस समय अहमदाबाद में जमा है। हालांकि लोगों को बहुत मुश्किल हो रही है। उसकी वजह गुजरात का ड्राई स्टेट होना है, वहां शाम को पीने पिलाने का इंतजाम हो तो जाता है, पर जरा मुश्किल होती है। देख रहा हूं कि आज भी सभी लोग वही गुलबर्ग सोसाइटी, उसी पुराने दंगे का अनुभव सुना रहे हैं। एक छोटी सी बात सुनाता हूं, इंदिरा जी की हत्या के बाद बिग बी अमिताभ बच्चन इलाहाबाद से लोकसभा का चुनाव दिग्गज नेता स्व. हेमवती नंदन बहुगुणा के खिलाफ लड़ रहे थे। अमिताभ अपनी हर सभा में एक ही बात दुहराते थे कि 31 अक्टूबर मुझे नहीं भूलता, उस दिन मैने मां इंदिरा की हत्या देखी और सिर में कफन बांध कर राजनीति में कूद पडा। बहुगुणा जी अपनी सभा में इसका जवाब कुछ इस अंदाज में देते थे, वो कभी अमिताभ का नाम नहीं लेते थे।  कहते थे, कोई लड़का मुंबई से यहां आया है, उसने एक हत्या देख ली है, और राजनीति में कूद पडा़, भाई समझाओ उसे, एक हत्या देखकर राजनीति में कूद पडा, कहीं सौ पचास हत्या देख कर कुंए में ना कूद जाए। कुछ ऐसा ही माहौल दो दिन से गुजरात का है, वहां ज्यादातर मीडियाकर्मियों ने गुजरात का दंगा देख लिया है और वो उससे बाहर निकलने को तैयार ही नहीं हैं। सच ये है कि जिस गुजरात की तस्वीर पेश की जा रही है, वह असली तस्वीर नहीं है, ये वो तस्वीर है जो समय समय पर सियासियों द्वारा क्रिएट की जाती है। 

हां चलते चलते एक लाइन शंकर सिंह बाधेला के लिए भी जरूर कहना चाहूंगा। सब जानते हैं कि बाधेला जी मुख्यमंत्री मोदी के राजनीतिक गुरु हैं। मैं तो जानता था कि जब कोई शिष्य आगे बढता है तो गुरु का मान बढता है। कलयुग में ही ऐसे गुरु हो सकते हैं कि अगर कोई आत्मशुद्दि के लिए उपवास करे, तो उसके खिलाफ उपवास करने गुरु खुद सडक पर बैठ जाए।  

Thursday 15 September 2011

टैक्स चोरी का फार्मूला नंबर वन...



आज बात करेंगे देश को शर्मशार करने वाले एक स्पोर्टस इवेंट की। ये है फार्मूला वन इंडियन ग्रां प्री प्रतियोगिता। इसका आयोजन अगले महीने यानि अक्टूबर में दिल्ली के पास ही ग्रेटर नोएडा में होना है। आपको ये जानना जरूरी है कि इस रेस को सिर्फ अपने देश में ही नहीं दुनिया के दूसरे देशों में भी अभी तक "खेल" का दर्जा हासिल नहीं है, ये एक "मनोरंजक आयोजन" भर है। इस रेस का आयोजन पहली बार देश में हो रहा है। इसका आयोजन कराने वाली कंपनी के हाथ बहुत लंबे हैं और सत्ता के गलियारे में इसकी धमक है। यूपी की सरकार तो इसके ऊंगलियों के इशारे पर नाचती ही है, अब तो लगता है कि केंद्र सरकार भी दूध की धुली नहीं है।
चलिए आपको पूरा मामला समझाते हैं। इस रेस के लिए बहुत ज्यादा सामान विदेशो से यहां लाया जाना है। यहां तक की जिस ट्रैक पर ये रेस होनी है, वो ट्रैक भी विदेशों से यहां लाई जानी है। इसके अलावा कई तरह के उपकरण भी लाए जाने है। इस पर कस्टम अधिकारियों ने आयोजकों को बता दिया कि उन्हें लगभग 150 करोड रुपये कस्टम ड्यूटी का भुगतान करना होगा। वैसे तो ये भुगतान आयोजकों को और जो प्रतियोगी आ रहे हैं, उन्हें अपनी कार और अन्य सामान का कस्टम ड्यूटी देना है, लेकिन भारी भरकम ड्यूटी से प्रतियोगियों ने आयोजकों से कहा है कि अगर ड्यूटी माफ नहीं होती है तो उनका इस प्रतियोगिता में भाग लेना मुश्किल हो सकता है। चूंकि आयोजकों ने भारी भरकम कीमत में इसकी टिकटें बेच दी हैं, इसलिए वो नहीं चाहते कि किसी तरह ये आयोजन खटाई में पडे।
बस फिर क्या था, आयोजकों ने केंद्र सरकार के मंत्रियों पर डोरे डालने शुरू कर दिए। खेल मंत्रालय का ये मामला नहीं है, क्योंकि फार्मूला वन प्रतियोगिता को देश में खेल का दर्जा हासिल ही नहीं है। फिर भी मंत्रालय ने एक एनओसी जारी कर दी। इसके आधार पर कस्टम विभाग ने लगभग 150 करोड की ड्यूटी माफ कर दी है।
आइये इसका नियम भी बता दूं। नियम के मुताबिक राष्ट्रीय महत्व वाले खेल आयोजनों के लिए खेल मंत्रालय एक प्रमाण पत्र जारी करता है, इसके आधार कस्टम विभाग सीमाशुल्क में छूट देता है। राष्ट्रमंडल खेलों और क्रिकेट विश्वकप के दौरान ये प्रमाण पत्र जारी किए गए थे, इसके आधार पर कुछ छूट दी गई थी। अब बडा़ सवाल ये है कि जब फार्मूला वन प्रतियोगिता को देश में खेल का दर्जा हासिल ही नहीं है, तो खेल मंत्रालय ने ये प्रमाण पत्र कैसे जारी कर दिया। इतना ही नहीं देश में  फार्मूला वन  रेस का राज्य या फिर राष्ट्रीय स्तर पर कोई आयोजन भी नहीं होता है। फिर इस रेस को किस आधार पर राष्ट्रहित में माना जा रहा है।
इस मामले में खेल मंत्रालय और सीमा शुल्क विभाग पर उंगली उठने लगी तो बचाव में उतरे अधिकारियों का कहना है कि इसमें ज्यादातर सामान जो यहां लाया जाएगा, वो प्रतियोगिता खत्म होने के बाद वापस भेज दिया जाएगा। कुछ ऐसे सामान हैं जो यहां इस्तेमाल हो जाएंगे, उन पर लगभग आठ करोड़ रुपये सीमाशुल्क लगना है, वो आयोजकों से वसूला जाएगा। चलिए मैं कस्टम विभाग की इस दलील को स्वीकार कर लेता हूं, लेकिन इन्हीं अफसरों से मेरा एक सवाल है। क्रिकेट विश्वकप के दौरान दुबई से यहां लाए गए "वर्ल्ड कप" को इन्हीं निकम्में अफसरों ने मुंबई एयरपोर्ट पर रोक लिया था और 20 लाख रुपये सीमा शुल्क की मांग की। आयोजकों ने उस समय भी बताया था कि ये "वर्ल्ड कप"  विजेता टीम को दी जाती है, उसके बाद इसे भी यहीं से आईसीसी के दुबई मुख्यालय वापस भेज दिया जाएगा। लेकिन तब इन्होंने बिना शुल्क के कप को एयरपोर्ट से बाहर नहीं जाने दिया और भारत को "नकली वर्ल्ड कप" कप दिया गया। यहां इस बात का जिक्र करना जरूरी है कि क्रिकेट को देश में खेल का दर्जा भी हासिल है।
150 करोड  रुपये माफ करने के पीछे मुझे तो दाल में कुछ काला नजर आ रहा है। अभी मैं ये नहीं कह सकता कि इसमें खेल मंत्रालय के साथ किन किन मंत्रियों और अफसरों का हाथ है, लेकिन पक्का भरोसा है कि इस गोरखधंधे में केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों के मंत्री और अफसर शामिल हैं।

आपको यह भी बता दूं कि कस्टम विभाग और भी तमाम सहूलियत इन आयोजकों को दे रहा है। मसलन एयर कार्गो से जो भी सामान आएगा, उसे एयरपोर्ट पर खोल ये अफसर चेक नहीं करेंगे। बल्कि कुछ अफसरों की तैनाती ग्रेटर नोएडा के स्पोर्टस सिटी में की गई है, वहां कार्गो को खोले जाने के दौरान चेक किया जाएगा। भाई ऐसा भेदभाव क्यों किया जा रहा है।
अगर हम ये कहें कि फार्मूला वन रेस को देश में बढावा देने के लिए ऐसा किया जा रहा है तो आपको हैरानी होगी इसके टिकट के दाम सुनकर। इसमें 35 हजार का टिकट है, ये टिकट लेने पर आप को वीआईपी सुविधा होगी। यहां पर आपके लिए लंच और दारू का इंतजाम भी होगा, जो आप अतिरिक्त पैसे देकर ले सकते हैं। हां अगर आप तीन टिकट लेते हैं तो एक कार पार्किंग भी मिलेगी और दो टिकट लेने पर एक बाइक की पार्किंग आपको मिलेगी। इसके बाद जनरल टिकट हैं, जिसकी कीमत 12,500 से लेकर 2500 तक है। यहां आपको किसी तरह की खास सुविधा नहीं होगी। आप आसानी से समझ सकते हैं कि इस कीमत पर टिकट से क्या आम आदमी की पहुंच यहां हो सकती है। प्रधानमंत्री जी मुझे तो दाल में काला नजर आ रहा है।
मित्रों इस पूरे आयोजन में बडे़ बडे़ उद्योगपति, केंद्र और राज्य सरकार के मंत्री और अफसरों की सांठ-गांठ है। इस पर मैं आगे भी आपको खास जानकारी देता रहूंगा। मैं चाहता हूं कि इस विषय पर आप सभी ब्लागर साथी भी, नई जानकारी के साथ ब्लाग पर जरूर उपस्थिति दर्ज कराएं।

Tuesday 13 September 2011

मोटापे के दुश्मन, मेरे दुश्मन...




( चेतावनी.. अगर आप कमजोर दिल के हैं और किसी तरह की बीमारी से पीड़ित हैं तो प्लीज इस लेख से दूर रहें। अगर आप मोटे हैं और इस मोटापे को बरकरार रखना चाहते हैं तो यह लेख आपके लिए फायदेमंद हो सकता है। हां एक बात और अगर आपको ईश्वर में आस्था नहीं है तो इस लेख को पढने का कोई फायदा नहीं होगा। यह लेख सच्ची घटनाओं पर आधारित है, हां लेकिन इसके पात्र जरूर काल्पनिक हैं। )

सच सुनना है, तो सुनिये, मैं अपने मोटापे के दुश्मनों को अपना दुश्मन मानता हूं। पता नहीं क्या बात है, मेरे मोटापे से मुझसे ज्यादा परेशानी मेरे दोस्त को ही रही है। उनकी बात की शुरुआत भी मोटापे से होती है और खत्म भी इसी विषय से। यानि मिलते ही पहला सवाल आज सुबह मार्निंग वाक पर गए थे, जबाब, नहीं जा पाया। आलसी हैं आप, आपको खराब नहीं लग रहा है, पेट का क्षेत्रफल लगातार बढ रहा है। जी नहीं, मुझे तो इससे बिल्कुल परेशानी नहीं है। दोस्त के बातचीत का अंदाज बदल जाता है, आपको क्यों होगी। अस्पताल जाएंगे, तो वापस नहीं आ पाएंगे। खैर जितनी लापरवाही हो चुकी है, ठीक है, अब रास्ते पर आ जाइये और कल से मार्निंग वाक नियमित होना चाहिए। इस सलाह से बात खत्म होती है।

अब देखिए, मेरा एक और दोस्त है, बेचारे का पहने हुए सभी कपडों के साथ कुल वजन 42 किलो है। दुबला पतला होने पर भी लोग उसे जीने नहीं दे रहे। मैं देखता हूं कि अक्सर इस मित्र को लोग  सलाह देते हैं कि भाई अगर ट्रेन से सफर करो, तो तुम यात्री टिकट ना लिया करो, पार्सल की तरह बुक होकर जाया करो, आधे किराए में पहुंच जाओगे। कई बार तो ऐसा भी हुआ है कि हम दोनों अगर एक साथ किसी पार्टी में चले गए तो दोनों से एक ही सवाल होता है, अरे ये क्या हाल बना रखा है, कुछ लेते क्यों नहीं ? मुझे लगता है कि जो मै कहना चाहता हूं, आप थोडा बहुत तो समझ गए होंगे।

मेरी बडी बहन हैं, रोजाना सुबह सुबह बाबा रामदेव की सीडी लगाकर योग करती हैं। ना जाने कौन कौन सी सब्जियों के जूस पी जाती है उनके यहां। एक बहन ने योग शुरू कर परिवार में ऐसा माहौल बना दिया कि  ज्यादातर महिला सदस्य योग करने लगीं। हालांकि सच्चाई ये है उनका बजन 78 किलो से एक किलो भी कम नहीं हुआ, लेकिन हां आत्मसंतोष बहुत ज्यादा है। मैने एक दिन पूछा, तुम ये सब क्यों करती हो। "आराम" से तुम्हारी कोई दुश्मनी है। क्यों छुट्टी वाले दिन भी सुबह सुबह उठकर उछल कूद करती हो। बस बिगड गईं, आपे से बाहर, तुम्हें अभी कोई बात समझ में नहीं आएगी, जब डाक्टर के चक्कर में पडोगे तब समझ में आएगा।

मित्रों मैं ईश्वरवादी हूं, मुझे ईश्वर पर पूरा भरोसा है। विद्वानों का कहना है कि भगवान ने पैदा होने के साथ ही हर आदमी की सांसे तय कर दी हैं। जितनी सांसे तय हैं, आप उससे ज्यादा नहीं ले सकते और ना ही उससे कम। अब महत्वपूर्ण सवाल ये है कि अगर आप जल्दी-जल्दी सांस लेगें तो जल्दी-जल्दी सांस छोडेंगे भी। जाहिर है आप कम समय में ही अपनी पूरी सांसे ले लेगें। अगर आप आराम-आराम से सांस लेगें, तो आराम-आराम से छोडेंगे। जाहिर है लंबे समय तक आपकी सांस चलती रहेगी। फिर क्यों बेवजह की जल्दबाजी कर रहे हैं। पर मेरी बात किसी को समझ में आती ही नहीं। अब देखिए ना घोडा कितना मेहनत करता है, लेकिन सिर्फ 20-22 साल ही जिंदा रहता है, अजगर पडा रहता है और सौ साल जिंदा रहता है। अब लोगों को तय करना है कि उन्हें लंबा जीवन जीना है या फिर छोटा। भाई लंबा जीना है तो आपको आराम-आराम से ही सांस लेना चाहिए।

Friday 9 September 2011

पुलिस वाले की इतनी हिम्मत....


रा इस सिपाही की हिम्मत तो देखिए, दिल्ली हाईकोर्ट बम विस्फोट में घायल महिला को खुद ही उठाकर एंबूलेंस तक ले जा रहा है, इसे कानून का जरा भी डर नहीं है और ये भी कि वो कैमरे में कैद हो रहा है। कुछ देर में टीवी और अखबार में उसकी तस्वीर आ जाएगी। इसे हो क्या गया है महिला सिपाही का इंततार भी नहीं कर रहा। भाई तुम्हारे अंदर का इंसान भले तुम्हें इस महिला की मदद करने की इजाजत दे रहा हो, पर दोस्त जो वर्दी तुमने पहन रखी है ना, ये इजाजत नहीं देता कि तुम महिला को गोद में उठाने की हिमाकत करो। बहरहाल तुमने अपने मन की सुनी और महिला की मदद की, मैं तुम्हें सलाम करता हूं।
मित्रों, ब्लास्ट के अगले दिन जब मैने अखबारों में ये तस्वीर देखी तो अपनी सोच पर बहुत शर्मिंदा हुआ और आपको भी होना चाहिए, सबसे ज्यादा शर्मिंदा तो बाबा रामदेव को होना चाहिए। वैसे मुझे भरोसा तो नहीं है कि राहुल गांधी शर्मिंदा होने को तैयार होगें, लेकिन मौका है कि इस तस्वीर को देखकर वो भी शर्मिंदा हो जाएं तो शायद उनका पाप भी कुछ कम हो जाए।
सुरक्षा जांच में लगे पुलिसकर्मी ने अगर किसी महिला के पर्स को चेक भर कर लिया तो देश में तथाकथित सामाजिक संगठन हाय तौबा करने लगते हैं। अरे ये क्या बात हुई, महिला को कैसे कोई पुरुष सिपाही छू सकता है। रामलीला मैदान में अनशनकारियों को हटाने गए पुलिसकर्मियों पर बाबा रामदेव खूब बरसे। उन्होंने सबसे पहले यही आरोप लगाया कि मैदान में महिलाएं भी मौजूद थीं, बिना महिला सिपाही के दिल्ली पुलिस यहां आ धमकी और महिलाओं के साथ बुरा सलूक किया। राहुल गांधी भी नोएडा के पास भट्टा पारसौल गांव में जमीन अधिग्रहण के विवाद को नया रंग देने लगे। उन्होंने आरोप लगाया कि गांव में छापेमारी के दौरान पुलिस वालों ने महिलाओं के साथ बलात्कार किया। पुलिस वालों पर ये आरोप हमेशा लगते रहे हैं। यहां सिर्फ एक बात बताना जरूरी समझता हूं कि बाबा रामदेव ने जब कहा कि पुलिस ने महिलाओं के साथ दुर्व्यहार किया और उन्होंने किसी एक का नाम तो बताया नहीं। ऐसे में रामलीला मैदान पहुंचे सभी पुलिसकर्मी अपने परिवार की नजर में बहुत छोटे हो जाते हैं। राहुल ने गांव में महिलाओं के साथ बलात्कार का आरोप लगाया तो यहां गए सिपाही अपने बीबी बच्चों की नजरों का सामना कैसे करते हैं, ये वही बता सकते हैं। हालाकि मैं ये दावा बिल्कुल नहीं कर रहा कि पुलिस वाले बहुत साफ सुथरे हैं, उन पर गलत आरोप लगाए जाते हैं। लेकिन पुलिस का जितना खराब चेहरा हम लोगों के दिमाग में है, मुझे लगता है कि अभी ये पुलिसकर्मी उतने खराब नहीं हैं। इसीलिए जब कभी ये अच्छा काम करें तो उसकी सराहना भी होनी चाहिए।
माल में घूमने आई महिलाओं को पुलिसकर्मी से सुरक्षा जांच कराने में आपत्ति है, एयरपोर्ट पर सुरक्षा जांच में भी आपत्ति है, मैं तो कहता हूं कि किसी भी जगह महिलाओं को पुरुष सिपाहियों से सुरक्षा जांच में कराने में बहुत दिक्कत होती है, लेकिन बहुमंजिला इमारतों में आग लगने पर जब फायरकर्मी आठवीं और दसवीं मंजिल पर पहुंचता है तो उसकी पीठ पर सवार होकर जान बचाने में किसी महिला को आपत्ति नहीं है।
इस तस्वीर के जरिए मैं आमंत्रित करता हूं तथाकथित महिला संगठनों को कि आएं और विरोध दर्ज कराएं कि ये सिपाही किसी महिला को गोद में लेकर कैसे एंबूलेंस तक जा सकता है। क्या इस सिपाही ने घायल महिला को मदद देने से पहले उसकी इजाजत ली है, उसके परिवार वालों से पूछा है। अगर नहीं तो ऐसा करने के लिए क्यों ना इसके खिलाफ कार्रवाई की जाए। महिला संगठन क्यों नहीं दिल्ली पुलिस कमिश्नर का घेराव करतीं। मित्रों पुलिस की जो तस्वीर हम पेश कर रहे हैं, इससे उनके परिवार पर क्या गुजरती है, शायद आप सब इससे वाकिफ नहीं है। खैर मैं किसी की भावनाओं को आहत नहीं करना चाहता, मैं इस सिपाही को सलाम जरूर करना चाहता हूं और ये भी चाहता हूं कि इसे आप भी सलाम करें।

Tuesday 6 September 2011

तुम मुझे पंत कहो, मैं तुम्हें निराला.....


 मैं जानता हूं कि ये लेख मेरे लिए आत्महत्या करने से कम नहीं है, क्योंकि इससे लोग नाराज हो सकते हैं, उन्हें लग सकता है कि ये लेख उनकी आलोचना करने के लिए लिखा गया है। लेकिन सच बताऊं इसमें किसी की आलोचना नहीं है। पांच छह महीनों में व्लाग पर जो कुछ देख रहा हूं, उसके बारे में ये मेरी व्यक्तिगत राय है। मिंत्रों मैं जो सोचता हूं, उसे अंजाम तक पहुंचाए बगैर चैन की नींद सो ही नहीं पाता हूं। इसलिए आज बात करुंगा ब्लागर्स की, जिसे मैं एक परिवार मानता हूं, इसलिए आप कह सकते हैं बात होगी पूरे ब्लाग परिवार की। "ब्लाग परिवार" के नाम से एक ब्लाग भी है, वो सभी लोग माफ करेंगे, क्योंकि हम जो बात कह रहे हैं वो किसी भी खास व्यक्ति, व्लाग या समूह के लिए नहीं है, बल्कि सभी के लिए है।
मैं बिना किसी भूमिका के इस बात की शुरुआत कर रहा हूं। वैसे तो शीर्षक से ही साफ है कि मैं क्या कहना चाहता हूं। जी हां ज्यादातर ब्लागर्स के लिए मेरी अब तक यही राय है कि तुम मुझे पंत कहो तो मैं तुम्हें निराला कहूंगा। भाई "गिव एंड टेक" कहीं से गलत नहीं है। लेकिन कई बार किसी भी लेख या रचना पर टिप्पणी देखता हूं तो हैरान हो जाता हूं। उसमें लेख के बारे में तो दो शब्द और लेखक की प्रशंसा कई पंक्तियों में। पहली नजर में तो ये अटपटा लगा, फिर मैने देखा कि जिस ब्लागर भाई ने लेखक की इतनी तारीफ की है, इसकी वजह क्या है। जब मैं उसके ब्लाग पर गया तो देखा कि उन्होंने तो सिर्फ कर्ज अदा किया है, क्योंकि ये टिप्पणी और भावनाओं का आदान प्रदान है।
कुछेक मंचों की चर्चा करना भी जरूरी है। जहां लोगों के ब्लाग के लिंक शामिल कर दिए जाते हैं और दूसरे ब्लागर्स को आमंत्रित किया जाता है कि आप इन्हें भी पढें। मेरा अपना मानना है कि ये बहुत अच्छा प्रयास है, कुछ लोग बिना किसी व्यक्तिगत स्वार्थ के नए लेखकों को मंच दे रहे हैं, यहां से उनके ब्लाग के लिंक्स बहुत सारे लोगों के बीच पहुंच जाती है। पर बहुत दुख के साथ कहना पड़ रहा है इसमें ईमानदारी नहीं बरती जाती।
चर्चाकार पहले तो अपनी चर्चा करते हैं, इसमें कोई बुराई नहीं है। फिर साथी चर्चाकारों पर उनकी नजर जाती है, मुझे लगता है कि उसमें भी कोई बुराई नहीं है। फिर अपने शहर और प्रदेश को निपटाते निपटाते वो बुरी तरह थक चुके होते हैं, तब दूसरे लोगों की बारी आती है। ऐसे में शुरू में जिनकी बारी आ गई, उनकी तो बल्ले बल्ले हैं। बाद वालों का भगवान ही मालिक है। हां एक बात और किस ब्लागर की तस्वीर लगेगी, किसकी नहीं। इसका भी को निर्धारित मानदंड नहीं है। ये निजी और व्यक्तिगत संबंधों पर निर्भर है।
अब तो दुनिया बहुत आगे हो गई, वरना कुछ साल पहले आप किसी भी शहर में निकलें तो सिनेमा के पोस्टर दीवारों पर देखे जाते थे। लेकिन मित्रों पोस्टर में भले ही अमिताभ बच्चन क्यों ना हों इन्हें जगह कूडा करकट के आसपास की ही दीवारों पर मिलती थी। कुछ ऐसा ही ब्लागों में मैं दिखाई दे रहा है। किसकी कहां तस्वीर मिल जाएगी, कोई भरोसा नहीं। मित्रों माफ कीजिएगा एक मसाले का विज्ञापन याद आ रहा है, उसके मालिक अपने विज्ञापन में किसी माडल को तरजीह नहीं देते हैं। वो बुजुर्गवार खुद ही तरह तरह की मुद्रा में छाए रहते हैं। ऐसे ही कई लोगों को अक्सर ब्लागों पर भी देखता हूं।

मित्रों ब्लागों की चर्चा अच्छी बात हैं, हम जैसे नए लोगों को काफी प्रोत्साहन मिलता है। लेकिन चर्चा को चमचागिरी से आगे लाने की जरूरत है। चर्चाकार सिर्फ लिंक्स लगाने का काम ना करें, जिस लिंक्स को वो शामिल कर रहे हैं, उसके बारे में अपनी राय भी लिखें, ये रचना क्यों उन्हें पसंद आई। बेहतर तो ये होगा कि जिस तरह से टीवी और समाचार पत्रों में फिल्मों की समीक्षा के साथ उन्हें ग्रेड दिया जाता है, उसी तरह का कुछ ग्रेड ब्लाग पर भी हो तो बेहतर है। लेकिन इससे चर्चा इतनी आसान नहीं रह जाएगी, चर्चाकारों को सभी लेख, कहानी, कविता को पढना होगा, क्योंकि ग्रेड भी देना होगा। इसके फायदे भी होंगे कि लोग कम से कम उन ब्लागों पर तो चले ही जाएंगे, जिन्हें अच्छे ग्रेड मिले होंगे।
अभी तो हालत ये है कि जिनके लिंक्स चर्चा में शामिल होते हैं, वो आकर अपना फर्ज अदा कर देते हैं। सुंदर लिंक्स, और मुझे भी शामिल करने के लिए शुक्रिया। शामिल करने के लिए शुक्रिया की बात तो समझ में आती है, लेकिन इतनी जल्दी सुंदर लिंक्स कैसे वो समझ जाते हैं, ये कम से कम मेरी समझ से परे है। मित्रों एक दिन एक चर्चा में 12 लोगों ने लिखा था कि बेहतर लिंक्स, सुंदर लिंक्स, बहुत अच्छे लिंक्स। बाद में मैने उस दिन की चर्चा में शामिल सभी लेखों, कविताओं और कहानियों को देखा तो चर्चा पर कमेंट करने वाले सभी 12 ब्लागर साथी कहीं नहीं दिखे। कुछ हमारे साथी "कट पेस्ट" के भी एक्सपर्ट हैं। कई बार होता है लेख और उसपर कमेंट देखता हूं, बहुत सुंदर कविता।
खैर, मुझे लगता है कि जो बात मैं कहना चाहता हूं, वो बात सभी तक पहुंच गई होगी। बडे और बुजुर्ग में इसमें अहम भूमिका निभा सकते हैं, लेकिन उन्हें भी पोस्टर मोह त्यागना होगा। वैसे मुझे उम्मीद कम है। वो इसलिए भी कम है कि समीक्षा करने वाले जो ब्लागर पहले अपनी छोटी तस्वीर लगाया करते थे, अब अपनी पूरी तस्वीर लगाने लगे हैं। मैं बडे ही विनम्रता से एक और बात कहना चाहता हूं कि एकाध जगह मुझे जाति विरादरी की भी बू आती है।
और हां यहां भी मैने तमाम बुजुर्गों को अन्ना के साथ खडे़ देखा है। ब्लाग पर भी खूब नारे लगे हैं, मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना, अब तो सारा देश है अन्ना। अन्ना को समर्थन देंने से बेहतर है कि लोग ईमानदारी का शपथ लें। चलिए मित्रों बंद करता हूं हम सभी घर बनाने की कोशिश करेंगे गिरोह नहीं।