Sunday 28 July 2013

सम्मान : क्या भूलूं क्या याद करुं ?

मित्रों क्या भूलूं और क्या याद करूं, कुछ समझ में नहीं आ रहा है। दरअसल इस पोस्ट को लेकर मैं काफी उलझन में था। मैं समझ ही नहीं पा रहा हूं कि अपनी 200 वीं पोस्ट किस विषय पर लिखूं। वैसे तो आजकल सियासी गतिविधियां काफी तेज हैं, एक बार मन में आया कि क्यों न राजनीति पर ही बात करूं और देश की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी कांग्रेस से पूछूं कि 2014 में आपका प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन है ? फिर मुझे लगा कि इन बेचारों के पास आखिर इसका क्या जवाब होगा ? क्यों मैं इन पर समय बर्बाद करूं। बाद में मेरी नजर तथाकथित तीसरे मोर्चे पर गई, ममता, मायावती, मुलायम और नीतीश कुमार, इनमें से क्या कोई गुल खिला सकता है ? पहले तो लगा कि इस पर लिखा जा सकता है, लेकिन फिर सोचा कि मुलायम पर भला कौन भरोसा कर सकता है ? देखिए ना राष्ट्रपति के चुनाव में ममता को आखिरी समय तक गोली देते रहे, बेचारी कैसे बेआबरू होकर दिल्ली छोड़कर कलकत्ता निकल भागी। ऐसे में थर्ड फ्रंट पर तो किसी तरह की बात करना ही बेमानी है। एक बात और की जा सकती है, आजकल तमाम नेता सस्ते भोजन का ढिंढोरा पीट रहे हैं, कोई 12 रुपये में भोजन करा रहा है, कोई 5 रुपये में, एक नेता तो एक ही रुपये में भरपेट भोजन की बात कर रहे हैं। क्या बताऊं, एक रूपये में तो कुत्ते का बिस्कुट भी नहीं आता। अब नेताओं की तरह मैं तो सस्ते भोजन पर कोई बात नहीं कर सकता।

विषय की तलाश अभी भी खत्म नहीं हुई। मैने सोचा कि देश में एक बड़ा तबका खेल को बहुत पसंद करता है। इसलिए खेल पर ही कुछ बातें करूं। लेकिन आज तो देश में खेल का मतलब सिर्फ क्रिकेट है। बाकी खेल तो हाशिए पर हैं। अब क्रिकेट की आड़ में जो आज जो कुछ भी चल रहा है, ये भी किसी से छिपा नहीं है। मैं तो अभी तक क्रिकेट का मतलब सुनील गावस्कर, कपिल देव, सचिन तेंदुलकर समझता था, लेकिन अब पता  लगा कि मैं गलत हूं। आज क्रिकेट का मतलब है बिंदु दारा सिंह, मयप्पन और राज कुंद्रा। आईपीएल के दौरान टीवी चैनलों पर जितनी चर्चा खेल की नहीं हुई, उससे कहीं ज्यादा चर्चा सट्टेबाजी की हो गई। वैसे बात सिर्फ सट्टेबाजी तक रहती तो हम एक बार मान लेते कि इसमें गलत क्या है, कई देशों में तो सट्टेबाजी को मान्यता है। हमारे देश में भी ऐसा कुछ शुरू हो जाना चाहिए। लेकिन यहां तो क्रिकेट की आड़ में हो रहा ऐसा सच सामने आया कि इस खेल से ही बदबू आने लगी। बताइये खिलाड़ियों को लड़की की सप्लाई की जा रही है, चीयर गर्ल को भाई लोगों ने कालगर्ल बना कर रख दिया। खिलाड़ी मैदान के बदले जेल जा रहे हैं। फिर जिस पर क्रिकेट को बचाए रखने की जिम्मेदारी है, उसी श्रीनिवासन की भूमिका पर उंगली उठ रही है। टीम के कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी की पत्नी स्टेडियम में उस बिंदु दारा सिंह के साथ मौजूद दिखी, जिस पर गंभीर ही नहीं घटिया किस्म के आरोप लग रहे हैं। अब ऐसे क्रिकेट पर लिख कर मैं तो अपना समय नहीं खराब कर सकता। क्रिकेट आप सब को ही मुबारक !

खेल को खारिज करने के बाद मैने सोचा कि चलो मीडिया पर चर्चा कर लेते हैं। आजकल मीडिया बहुत ज्यादा सुर्खियों में है। हर मामले में अपनी राय जाहिर करती है। फिर कुछ दिन पहले बड़ा भव्य आयोजन भी हुआ है, पत्रकारों को उनके अच्छे काम पर रामनाथ गोयनका अवार्ड से नवाजा गया है। इसलिए मीडिया को लेकर कुछ अच्छी-अच्छी बाते कर ली जाएं। सच बताऊं मुझे तो यहां भी बहुत निराशा हुई। इस अवार्ड में भी ईमानदारी का अभाव दिखाई देने लगा है। मेरा व्यक्तिगत मत है कि ये अवार्ड पत्रकारों को सम्मानित नहीं करता है, बल्कि कुछ बड़े नाम को बेवजह इसमें शामिल कर खुद ये अवार्ड ही सम्मानित होता है। अंदर की बात ये है कि जब बड़े नाम शामिल होते हैं, तभी तो ये खबर टीवी चैनलों पर चलती है। मैं इस बिरादरी से जुड़ा हूं इसलिए ज्यादा टीका टिप्पणी नहीं करूंगा, लेकिन मुझे दो बातें जरूर कहनी है। पहला तो मैं ये जानना चाहता हूं कि किस ईमानदार जर्नलिस्ट की पसंद थे सीबीआई डायरेक्टर रंजीत सिन्हा। ये विवादित हैं, इनकी ईमानदारी संदिग्ध है, इनके कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को "तोता" तक कह दिया। रामनाथ गोयनका अवार्ड एक "तोता" बांटेगा और वो "तोता" सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के बराबर खड़ा है। मैने जब इन्हें मंच पर पत्रकारों को पुरस्कार देते हुए देखा तो सच में मन बहुत खिन्न हुआ। एक बात और जो मुझे ठीक नहीं लगी। मैं एनडीटीवी के रवीश कुमार का प्रशंसक हूं, लेकिन मैं प्रशंसक उनकी रिपोर्टिंग के लिए बल्कि उनके प्राइम टाइम एंकरिंग के लिए हूं। दिल्ली की एक बस्ती खोड़ा की दिक्कतों पर स्टोरी करने के लिए उन्हें ये अवार्ड दिया गया। मुझे लगता है कि एनडीटीवी में ही एक कम उम्र का रिपोर्टर है, उसने दिल्ली की तमाम कालोनियों की मुश्किलों को और बेहतर तरीके से जनता तक पहुंचाया है। अब देखिए मैं तो जर्नलिस्ट हूं, जब मुझे ही इस रिपोर्टर का नाम नहीं मालूम है तो भला रामनाथ गोयनका अवार्ड देने वालों को ये नाम कैसे याद हो सकता है। ये हाल देख मैने मीडिया से भी किनारा कर लिया।

अब सोचा कि बात नहीं बन रही है तो चलो सामयिक विषय पर एक चार लाइन की कविता लिखते हैं, वैसे भी 200 वीं पोस्ट को भला कौन गंभीरता से पढ़ता है। सब पहली लाइन पढ़ कर 200 वीं पोस्ट की बधाई देकर निकल जाते हैं। अच्छा है कि चार छह लाइन की अच्छी सी कविता लिख दी जाए। लेकिन जब भी बात कविता की होती है, मेरे रोंगटे खडे हो जाते हैं। आप सोच रहे होंगे कि आखिर ऐसा क्या है कि कविता पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। क्यों ना खड़े हों, अब ब्लाग पर कविता ही ऐसी लिखी जा रही है। आलू, बैगन, टमाटर, गाजर, मूली, खीरा, तरबूज, गर्मी, ठंड, बरसात, लू जब कविता का विषय हो तो आसानी से समझा जा सकता है कि कविता कितने निचले पायदान तक पहुंच गई है। कुछ लोगों ने बहुत कोशिश की तो कविता की आड़ में आत्मकथा परोस दी। ब्लाग पर प्यार पर बहुत सारी कविताएं मिलती हैं, लेकिन ज्यादातर कविताओं में प्यार से जुड़े शब्दों की तो भरमार होती है, लेकिन कविता में वो अहसास नहीं होता, जो जरूरी है।

इन्हीं उलझनों के बीच मेरी निगाह काठमांडू गई। मैंने सोचा चलो 200 वीं पोस्ट अपने ब्लागर मित्रों को समर्पित करते हैं और उन्हें बेवजह ठगे जाने से बचने के लिए पहले ही आगाह कर देते हैं। क्योंकि यहां कुछ लोग एक बार फिर बेचारे सीधे-साधे ब्लागरों को सम्मान देने के नाम पर उनका बाजा बजा रहे हैं। हालाकि जैसे ही मैं इनके चेहरे से नकाब उतारूंगा, ये गाली गलौज पर उतारू हो जाएंगे, ये सब मुझे पता है। लेकिन अगर सच जानने के बाद एक भी ब्लागर ठगे जाने से बचता है तो मैं समझूंगा कि मेरी कोशिश कामयाब रही। आपको पता ही है कि एक गिरोह जो अपने सम्मान का कद बढाने के लिए इस बार उसका आयोजन देश से बाहर कर रहा है। अब क्या कहा जाए! इन्हें लगता है कि सम्मान समारोह देश के बाहर हो तो इसका दर्जा अंतर्राष्ट्रीय हो जाता है। हाहाहाहाहाह....। इस सम्मान की कुछ शर्तें है, सम्मान उन्हें मिलेगा जो वहां जाएंगे, वहां वही लोग जा पाएंगे जो पहले अपना पंजीकरण कराएंगे, पंजीकरण वही करा पायेगा जिसके पास 4100 रुपये होगा। सम्मानित होने वालों को कुछ और जरूरी सूचनाएं पहले ही दे दी गई हैं। जिसमें सबसे महत्वपूर्ण ये कि एक कमरे में तीन लोगों को रहना होगा। इसके अलावा आधा दिन उन्हें नान एसी बस से काठमांडू की सैर कराई जाएगी, लेकिन यहां प्रवेश शुल्क सम्मानित होने वालों को खुद देना होगा।

पता नहीं आप जानते है या नहीं भारत का सौ रुपया नेपाल में लगभग 160 रुपये के बराबर होता है। हो सकता है कि पैसे वाले ब्लागर चाहें कि वो आलीशान होटल में रहें, वो क्यों तीन लोगों के साथ रुम शेयर करेंगे। पैसे से कमजोर ब्लागर किफायती होटल में रहना चाहेगा। मेरा एक सवाल है कि जब लोग अपने मनमाफिक साधन से नेपाल तक का सफर कर सकते हैं, तो उनके रुकने का ठेका आयोजक क्यों ले रहे हैं ? अब देखिए कुछ लोग वहां हवाई जहाज से पहुंच रहे होंगे, कुछ बेचारे ट्रेन से गोरखपुर जाकर वहां से बार्डर क्रास कर सकते हैं, उत्तराखंड वाले बनबसा से बस में सफर कर सकते हैं। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि ये ब्लागर सम्मेलन है या किसी कंपनी के एजेंट का सम्मेलन है ? कोई जरूरी नहीं है कि सभी ब्लागर 4100 रुपये पंजीकरण शुल्क दे सकते हों, ब्लाग लिखने के लिए नौकरी करना जरूरी नहीं है। बहुत सारे स्टूडेंट भी ब्लागर हैं। वो भारी भरकम पंजीकरण शुल्क नहीं दे सकते। फिर आने जाने के अलावा दो तीन हजार रूपये जेब खर्च भी जरूरी है। ऐसे में जिसकी जितनी लंबी चादर है वो उतना ही पैर फैलाएगा ना। ऐसे में भला इसे ब्लागर सम्मान समारोह कैसे कहा जा सकता है ?    

हास्यास्पद तो ये है कि बेचारे सम्मानित होने वालों की सूची एक साथ जारी नहीं कर सकते। वजह जानते हैं, जिनका पंजीकरण शुल्क नहीं आया है, उनके नाम पर विचार कैसे किया जा सकता है? अभी पंजीकरण 13 अगस्त तक खुला हुआ है, मतलब सम्मानित होने वालों के नाम का ऐलान तब तक तो चलता ही रहेगा। मैं देख रहा था कि जो नाम जारी हुए हैं, ये वो नाम हैं जो मई में ही सम्मान समारोह में जाने का कन्फर्म कर शुल्क भी जमा कर चुके थे, इसलिए सम्मान की सूची में उनके नाम आने लगे हैं। वैसे सम्मान की सूची वहां जब जारी होगी तब देखा जाएगा, लेकिन कुछ नाम तो मुझे भी पता है जिनका नाम जल्दी ही जारी होने वाला है। हां अगर आपको भी नाम जानना है तो उस पोस्ट पर चले जाएं, जहां बताया गया था कि इन-इन ब्लागरों ने आना कन्फर्म कर दिया है, जिनके नाम कन्फर्म समझ लो सम्मान तय है। क्योंकि एक्को ठो ऐसा ब्लागर नहीं मिलेगा जिसको सम्मान ना मिल रहा हो, फिर भी ऊ काठमाडू जा रहा हो।

अब देखिए, जो ब्लागर देर से पंजीकरण करा रहे हैं वो बेचारे तो बड़े वाले सम्मान से चूक गए ना, जिसमें कुछ रकम भी मिलनी है। लेकिन है सब घपला। ध्यान देने वाली बात ये है कि सम्मान कार्यक्रम में बाकी सब बता दिया, ये किसी को नहीं मालूम कि निर्णायक मंडल में कौन कौन है ? अच्छा निर्णायक मंडल के पास ब्लाग का नाम भेजा गया है, ब्लागर का नाम भेजा गया है या फिर ब्लागर का लेख, कहानी, कविता क्या भेजी गई है, जिस पर अदृश्य निर्णायक मंडल निर्णय ले रहा है। ये तो आप जानते हैं कि कोई निर्णायक मंडल पूरा ब्लाग तो देखने से रहा। अगर उनके पास रचनाएं भेजी गईं है, तो सवाल उठता है कि ये रचनाएं ब्लागरों से आमंत्रित किए बगैर कैसे भेजी जा सकती है। दरअसल इन सब के खेल को समझ पाना बड़ा मुश्किल है। अच्छा हिंदी वाले तो ज्यादातर लोग समझ गए हैं इनकी चाल को, तो अब इसका दायरा बढ़ाना था। इसलिए कह रहे हैं कि इस बार भोजपुरी, मैथिल और अवधी को भी सम्मान दिया जाएगा। लग रहा है कुछ नए ब्लागर और फस गए हैं। वैसे इनकी नजर में नेपाली भाषा भी क्षेत्रीय भाषा है, इसमें भी सम्मान की संभावना है।

खैर छोड़िए, जिसकी जैसे चले, चलती रहनी चाहिए। इतनी बातें लिखने का मकसद सिर्फ ये है कि आप सब कोई मूर्ख थोड़े हैं, सजग रहिए। आप ब्लागर है, पढे लिखे लोग है। आपको अपनी बौद्धिक हैसियत नहीं पता है ? अब तक सम्मान के लिए कुछ नाम जो सामने आए है, दो एक लोगों को छोड़ दीजिए, बाकी लोग दिल पर हाथ रख कर सोचें कि क्या उनकी लिखावट में इतनी निखार है कि वो सम्मान के हकदार हैं। नेपाल जाना है, बिल्कुल जाइए, लेकिन इस फर्जीवाड़े के लिए नहीं, बच्चों को साथ लेकर बाबा पशुपतिनाथ के दर्शन कीजिए, हो  सकता है कि उनके आशीर्वाद से लेखनी में और निखार आ जाए। हैराऩी इस बात पर भी हो रही है कि कुछ ब्लागर मित्र जो पिछले सम्मान के दौरान मुझे इसकी खामियां गिनाते नहीं थकते थे और आयोजकों को गाली दे रहे थे वो आज उनके सबसे बड़े प्रशंसक हैं। चलिए आज बस इतना ही इस मामले में तो आगे भी आपसे बातें होती रहेंगी।






Tuesday 23 July 2013

BJP के लिए खतरा बन रहे आडवाणी !

भारतीय जनता पार्टी के काफी बड़े नेता हैं लालकृष्ण आडवाणी और आजकल वो पार्टी को नुकसान भी काफी बड़ा पहुंचा रहे हैं। दिग्गज और कद्दावर नेताओं का काम है कि वो पार्टी को एकजुट, एकस्वर और एकराय रखें, लेकिन समय-समय पर आडवाणी जिस तरह रियेक्ट कर रहे हैं, उससे कार्यकर्ताओं में संदेश यही जा रहा है सारी खुराफात के पीछे आडवाणी की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा है। आपको याद दिला दूं जब देश के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे और पार्टी के अध्यक्ष पद की कमान वैंकेयानायडू के पास थी तो एक मीटिंग में नायडू ने इतना भर कहा कि अटल जी विकास पुरुष हैं और आडवाणी लौहपुरुष हैं। अटल जी इशारा समझ गए कि उनके खिलाफ अंदरखाने क्या कुछ चल रहा है, उन्हें दो मिनट नहीं लगा और वहीं ऐलान कर दिया कि  " ना टायर्ड, ना रिटायर्ड, आडवाणी जी के नेतृत्व में विजय पथ पर प्रस्थान "। सच बताऊं उस वक्त तो पार्टी का धुआँ निकल गया था। अटल को महान यूं ही नहीं कहा जाता है, वो आदमी को उसके बोलने से नहीं, उसके बैठने के अंदाज से समझ लिया करते थे कि सामने वाले के मन में क्या चल रहा है। बहरहाल अब वो बात पुरानी हो गई है, लेकिन जो हालात हैं उसे देखते हुए तो मुझे ये कहने में भी गुरेज नहीं है कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ सब कुछ सामान्य रहता तो वो कुछ दिन और राजनीति में सक्रिय भूमिका निभा सकते थे। खैर आज तो बारी आडवाणी की है।

लालकृष्ण आडवाणी के बारे में कुछ लिखने से पहले मैं ये भी साफ करना चाहूंगा कि बीजेपी को सत्ता के शिखर तक पहुंचाने में उनकी भूमिका की अनदेखी कत्तई नहीं की जा सकती। अगर मैं ये कहूं कि केंद्र में बीजेपी की सरकार बनवाने में उनकी भूमिका सबसे ज्यादा और महत्वपूर्ण रही है, तो बिल्कुल गलत नहीं होगा। लेकिन आडवाणी ने अगर पार्टी को ऊंचाई दी तो पार्टी ने भी उन्हें निराश नहीं किया। मेरा मानना है कि अटल जी की सरकार में उप प्रधानमंत्री रहते हुए जो सम्मान आडवाणी का रहा है, वो सम्मान आज तो देश के प्रधानमंत्री का नहीं है। अच्छा फिर ऐसा भी नहीं है कि पार्टी में उन्हें अवसर नहीं मिला, अटल के बाद वही पार्टी के चेहरा बने। उन्हीं की अगुवाई में 2009 का चुनाव लड़ा गया, लेकिन पार्टी का प्रदर्शन कुछ खास नहीं रहा। बाद में वो खुद अपनी वजह से विवादों में आ गए और यहां तक कि उन्हें नेता विपक्ष का पद भी छोड़ना पड़ा। मुझे लगता है कि जब उनकी इच्छा के खिलाफ उन्हें नेता विपक्ष से हटाया गया, उस वक्त वो विरोध में आवाज उठाते तो शायद एक बार उन्हें देश और पार्टी कार्यकर्ताओं का समर्थन मिलता, लेकिन उस वक्त तो वो खामोश रहे। सवाल ये उठता है कि अब विरोध क्यों ?

सब जानते हैं कि एक समय में खुद आडवाणी ही नरेन्द्र मोदी के सबसे बड़े समर्थक और उनके प्रशंसक रहे हैं। याद कीजिए गुजरात दंगे के बाद जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने गुजरात में कहा कि " मोदी को राजधर्म का पालन करना चाहिए था " तो आडवाणी ही बचाव में आगे आए। कहा तो ये भी गया कि अटल जी चाहते थे कि मोदी से इस्तीफा ले लिया जाए, लेकिन आडवाणी की वजह से उनका इस्तीफा नहीं हुआ। फिर आज ऐसा क्या हो गया कि आडवाणी को मोदी का बढ़ता कद खटक रहा है। सच्चाई ये है कि  आज भाजपा में खेमेबंदी मोदी बनाम आडवाणी है। सब जानते हैं कि किसी जमाने में पार्टी के दो शीर्ष नेता आडवाणी और वाजपेयी के दो अलग-अलग खेमें थे। उन दिनों मोदी पार्टी में आडवाणी के प्रमुख सिपहसलार माने जाते थे। आडवाणी की नीतियों को प्रोत्साहित करने में लगे मोदी का आज वही आडवाणी विरोध कर रहे हैं। हालाकि पहले वाजपेयी ने आडवाणी को पत्र लिखकर सूचित किया था कि मोदी जैसे चरित्र का प्रोत्साहन न ही पार्टी हित में है और न ही देशहित में। उस समय आडवाणी ने मोदी का पक्ष लिया था, उनके खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई न हो, इसके लिए वो एक मजबूत दीवार बनकर सामने खड़े हो जाते थे।

सच यही है कि आडवाणी की महत्वाकांक्षा का परिणाम है कि 2005 में उन्होंने पाकिस्तान यात्रा के दौरान जिन्ना को सेकुलर बताकर अपनी छवि सुधारने की कोशिश की। ऐसा करके उन्होंने एनडीए के घटक दलों के नेताओं को भले ही अपने पक्ष में कर लिया हो पर संघ की नाराजगी जगजाहिर हो गयी। वैसे भी संघ परिवार और भाजपा का समीकरण बनता-बिगड़ता रहा है। बहरहाल आज हालात ये है कि मोदी के पीछे पूरा संघ परिवार मजबूती से खड़ा है। पार्टी के नेताओं को भी साफ कर दिया गया कि अगले चुनाव में मोदी ही पार्टी के मुख्य चेहरा रहेंगे। संघ ने यहां तक इशारा कर दिया है कि इसके लिए अगर एनडीए के घटक दल दूर भागते हैं तो उनकी मर्जी, लेकिन पार्टी अब मोदी के नाम पर पीछे नहीं हटेगी। जब बीजेपी और संघ परिवार ने मन बना लिया कि नरेन्द्र मोदी को आगे करके चुनाव लड़ा जाएगा तो आडवाणी खुलकर मैदान में आ गए। उन्होंने पार्टी के तमाम महत्वपूर्ण पदों से इस्तीफे का ऐलान कर दिया। उनके इस्तीफे के बाद थोड़ी हलचल मचनी ही थी, मची भी। लेकिन उनकी कोई बात नहीं मानी गई। मुझे तो लगता है कि आडवाणी के इस कदम से उन्हीं  की जगहंसाई हुई। देश को पता चल गया कि अब उनकी पार्टी में उतनी मजबूत हैसियत नहीं रह गई है।

हालांकि राजनीति में अटकले ही लगाई जा सकती हैं, नेताओं की अंदरखाने हुई बातचीत का कोई प्रमाण तो नहीं हो सकता, लेकिन चर्चा यही है कि एनडीए से बाहर जाने की जोखिम उठाने की हैसियत जेडीयू की नहीं थी। लेकिन नीतीश कुमार को लगा कि जब वो बाहर जाने की धमकी देगें तो संघ परिवार घुटने टेक देगा। पर ऐसा नहीं हुआ, बात चूंकि काफी आगे बढ़ चुकी थी, लिहाजा नीतीश कुमार ने अलग रास्ता चुन लिया। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर आडवाणी चाहते तो वो इस मामले में एक बीच का रास्ता निकाल सकते थे, लेकिन सभी लोग ये संदेश देनें में जुट गए कि मोदी के नाम पर बहुत विरोध है। भाजपा के इतने वरिष्ठ नेता और विशेष रूप से पार्टी के संस्थापक सदस्य से ऐसी उम्मीद नहीं थी कि वह अपनी नाराजगी प्रकट करने के लिए इस हद तक चले जाएंगे। यह तो जग जाहिर था कि लालकृष्ण आडवाणी इस बात से नाराज हैं कि उनके न चाहते हुए भी नरेंद्र मोदी को चुनाव प्रचार अभियान समिति का प्रमुख बनाया गया, लेकिन इसकी कल्पना शायद ही किसी को रही हो कि वह इस कदर नाराज हो जाएंगे कि एक तरह से अपने ही द्वारा सींचे गए पौधे को हिलाने का काम कर बैठेंगे।

नरेन्द्र मोदी को हल्का साबित करने के लिए आडवाणी ने कोई कसर बाकी नहीं रखी। यहां तक की उन्होंने इशारों-इशारों में मोदी के मुकाबले मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान को ज्यादा कारगर मुख्यमंत्री बता दिया और कहाकि गुजरात पहले से विकसित राज्य रहा है, लेकिन बीमारू राज्य को स्वस्थ बनाने का काम शिवराज ने किया है। लेकिन आडवाणी भूल गए कि शिवराज और उनकी पत्नी पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगते रहे हैं। मोदी के खिलाफ कम से कम इस तरह का कोई आरोप तो नहीं है। आडवाणी के समर्थन का ही नतीजा है कि आज चौहान ने मध्यप्रदेश में निकाली अपनी यात्रा में मोदी का चित्र लगाना बेहतर नहीं समझा। सवाल ये है कि पार्टी जिस नेता को लोकसभा चुनाव का मुख्य चेहरा बता रही है। इतना ही नहीं पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अमेरिका में ऐलान किया कि अगर पार्टी को बहुमत मिलता है तो मोदी ही प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे। इन तमाम बातों के बाद भी क्या शिवराज सिंह चौहान की ये हैसियत है कि वो मोदी से किनारा करने की कोशिश करेगे। बिल्कुल नहीं, बस उन्हें दिल्ली में बैठे कुछ कद्दावर नेता गुमराह कर रहे हैं। वरना लोकप्रियता में चौहान के मुकाबले मोदी कई गुना आगे हैं।

सच्चाई ये है कि मोदी जब दिल्ली आते हैं तो मीडिया को पार्टी के ही कुछ नेता अंदरखाने ब्रीफिंग कर पार्टी के संसदीय बोर्ड में हुई बातचीत का ब्यौरा देते हैं। जिसमें ये बताने की कोशिश की जाती है कि मोदी पर नकेल कस दिया गया है। मोदी जो चाहेंगे वो नहीं कर पाएंगे, बल्कि आडवाणी और उनके करीबी नेता जो चाहेंगे वही अंतिम फैसला होगा।  अब विरोधी दलों के लिए भला इससे बेहतर और क्या हो सकता है कि जब भाजपा को एकजुट होकर आगे बढ़ना चाहिए, तब वह लड़खड़ाती हुई नजर आ रही है। हालत ये हो जाती है कि कई बार पार्टी के भीतर से वो आवाज बाहर आती है जो बात कांग्रेस के नेताओं से उम्मीद की जाती है। मोदी को कमजोर साबित करने के लिए कुछ नेताओं ने हवा उड़ाई की पार्टी के वरिष्ठ नेता मोदी को रिपोर्ट करने को राजी नहीं है। मुझे तो इस बात पर हंसी आती है, क्योंकि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की हैसियत ये है कि उनकी कुर्सी छीन कर जूनियर नेताओं को दे दी जा रही है, तब तो उनकी आवाज निकलती नहीं है, मोदी को रिपोर्ट करने से मना करने की हैसियत मुझे तो नहीं लगता कि किसी में है। बहरहाल मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि अगर समय रहते आडवाणी पर लगाम नहीं लगाया गया तो वो आने वाले समय में पार्टी के लिए एक बड़ी मुसीबत बन सकते हैं।






Tuesday 16 July 2013

मारकंडेय काटजू बोले तो निर्मल बाबा !

मैं आज बात करूंगा भारतीय प्रेस परिषद के चेयरमैन पूर्व जस्टिस मारकंडेय काटजू की। मेरी नजर में मारकंडेय काटजू बोले तो समझिए निर्मल बाबा ! जिस तरह से निर्मल बाबा के पास हर समस्या का समाधान है, कुछ इसी तरह का व्यवहार कर रहे हैं आजकल काटजू साहब। हालाकि उनके पास समस्या का कोई समाधान नहीं है, बस एक उंगली जो हर मसले पर करते रहते हैं। पहली नजर में तो यही लगता है कि दोनों प्रचार के भूखे हैं, दोनों को लगता है कि वो बहुत जानकार हैं, दोनों को लगता है कि उनकी बातों को अगर देशवासी माने तो वो तरक्की कर सकते हैं। आपको बता दूं कि दोनों में अंतर भी बहुत मामूली है। जानते हैं क्या ? एक टीवी पर आने के लिए पैसा देता है, दूसरा अपने विवादित बातों से टीवी पर जगह बनाने में कामयाब हो जाता है। ये तो सही बात है दोनों मीडिया में किसी तरह जगह बनाने में कामयाब हो ही जाते हैं। अब निर्मल बाबा की तो ब्रांडिग हो चुकी है, उनके तो चरणों में कोटि कोटि नमन करने के लिए देश भर से लोग पैसा देकर जुटते हैं, पर अभी काटजू साहब के साथ ऐसा नहीं है। उन्हें अभी भी समाज का एक बड़ा तपका समझ नहीं पा रहा है कि आखिर काटजू साहब चाहते क्या हैं ? वो पूर्व जस्टिस रहे हैं, लेकिन आज जब भी किसी चर्चित मामले में सु्प्रीम कोर्ट किसी कोई सजा सुनाती है, तो ये उसके हमदर्द बन जाते हैं। कोर्ट के हर महत्वपूर्ण फैसले पर उन्हें आपत्ति है। चलिए मैं दूसरो से क्यों पूछूं, सीधे उन्हीं से पूछता हूं, काटजू साहब आप ठीक तो हैं ना ?    

निर्मल बाबा के समागम को देखता हूं, उनके पास ज्यादातर अपर मीडिल क्लास मरीज आते हैं। अपर मीडिल इसलिए कि उनके पास खाने को रोटी है, पहनने को कपड़े हैं और रहने को मकान भी है। इनका तकनीकि ज्ञान भी ठीक ठाक है, क्योंकि वो समागम की आँनलाइन बुकिंग कराकर आते हैं, ये सब मोबाइल इस्तेमाल करने वाले लोग हैं। इन्हें पता है कि बैंक में पैसा कैसे जमा किया जाता है और कैसे निकाला जा सकता है। इन सबके घरों पर टीवी वगैरह भी है, वरना बाबा के बारे में कैसे जानते। चूंकि अपर मीडिल क्लास के लोग हैं, लिहाजा इनकी समस्याएं भी उसी तरह की हैं। ज्यादातर की समस्या इन्वेस्टमेंट की है, वो समझ नहीं पा रहे हैं कि किस क्षेत्र में दांव लगाएं। ये बताते हैं कि उनका कारोबार पटरी से उतर गया है, बाबा उन्हें बताते हैं कि तुम जलेबी खा रहे हो, ये तो ठीक है, लेकिन शाम की बजाए अब सुबह खाओ, कृपा आनी शुरू हो जाएगी। कई लोग अब बाबा से बीजा की भी बात करते हैं। कहते हैं बाबा अमेरिका का बीजा नहीं मिल रहा है, बाबा पूछते हैं कभी मंदिर मे हलुवे का प्रसाद चढ़ाया, मरीज बताते हैं कि हां चढ़ाया था, बाबा का सवाल आता है कि सूजी का चढ़ाया या आंटे का ? भक्त बोला बाबा मैने सूजी का हलुवा चढ़ाया। बाबा ने गलती पकड़ ली और कहा कि जाओ अब आटे का हलुवा चढ़ाना और थोड़ा हलुवा गरीबों में भी बांट देना। कृपा भी आएगी और बीजा भी मिल जाएगा।

समागम सुनता हूं तो मुझे हैरानी इस बात पर होती है कि यहां तमाम लोग ऐसे भी मिल जाते हैं जिन्हें वाकई बाबा के इलाज से फायदा हुआ है। वो टीवी पर बोलते हैं कि बाबा कल तक वो बिल्कुल सड़क पर थे, पर आज आपके हलुवा, चटनी, समोसे की बदौलत करोडों के मालिक हैं।    अब ये अजीबो गरीब समागम भी काफी हाईटैक हो गया है। यहां आप बच्चे का इंजीनियरिंग या मेडिकल कालेज में ही नहीं लोवर केजी या अपर केजी में एडमिशन ना हो रहा हो तो आ सकते हैं, बेटी की शादी नहीं हो रही है तो आ सकते हैं, प्लाट खरीदना है तो भी आइये, बेचना है और बढिया कीमत नहीं मिल रही है तो भी आ सकते हैं, वैष्णो देवी मंदिर जाना है तो ट्रेन का वेटिंग टिकट कन्फर्म कराने के लिए भी आ सकते हैं, आपके पास छोटी गाड़ी है, आप चाहते बड़ी गाड़ी हैं तो इसके लिए भी यहां आ सकते हैं, नौकरी है, लेकिन नौकरी बदलनी है इसका भी इलाज बाबा के पास है। गर्दन, पीठ, कमर, घुटने, एडी इन सबके दर्द का भी इलाज अब यहां होने लगा है। माफ कीजिएगा बाबा के पास अभी सेक्स समस्याओं का इलाज नहीं है, वो इसलिए भी नहीं है कि बाबा के समागम का शो टीवी चैनलों पर दिन में चलता है, इसलिए उसमें इसके इलाज के बारे में बाबा बात नहीं कर सकते।

ओह ! लगता है कि मुझे भी इलाज की जरूरत है। मैं बात करने आया था पूर्व जस्टिस, भारतीय प्रेस परिषद के चेयरमैन मारकंडेय काटजू की और बात करने लगा निर्मल बाबा की। खैर कोई बात नहीं, मुझे पता है कि आप तो मनोरंजन कर रहे हैं, अब मनोरंजन चाहे निर्मल बाबा से हो या काटजू साहब से, बात तो एक ही है। जिस तरह निर्मल बाबा किस समस्या का क्या इलाज बता देगें आप बिल्कुल अनुमान नहीं लगा सकते, उसी तरह काटजू साहब भी गंभीर से गंभीर मसलों पर अपनी क्या राय रख देगें, समझ से परे है। हम सब जानते हैं कि अभिनेता संजय दत्त अपराधी नहीं है, लेकिन खतरनाक प्रतिबंधित शस्त्र उसके पास से बरामद हुआ है। फिर 1993 में मुंबई में हुए सिलसिलेवार बम विस्फोटों के मामले से ये मसला जुड़ा हुआ है। ऐसे में संजय को कैसे बरी किया जा सकता है ? देश में अभी न्याय बचा है ना। संजय दत्त को सजा हुई तो काटजू साहब उसकी पैरवी में आ धमके। राज्यपाल से लेकर राष्ट्रपति तक को चिट्ठी लिख मारी। इतना ही नहीं इसी मामले की एक अन्य दोषी जैबुनिस्सा काजी को माफी देने की वकालत करने से भी पीछे नहीं रहे। खैर संजय दत्त के मामले में बोलकर काटजू साहब दो तीन दिन मीडिया में जगह बनाने में जरूर कामयाब हो गए।

आप सबको याद होगा काटजू साहब देश के निर्वाचन प्रणाली से खासे नाराज दिखाई देते हैं। एक  बार तो उन्होंने तो देश की जनता की तुलना भेड़ बकरी से की और कहाकि यहां की जनता भेड़ और बकरी की तरह वोट करती है। काटजू ने कहा, नब्बे प्रतिशत भारतीय भेड़-बकरियों की तरह मतदान करते हैं। लोग जानवरों के झुंड की तरह बिना सोचे-समझे जाति और धर्म के आधार पर मतदान करते हैं। ऐसे ही भारतीय मतदाताओं के समर्थन के कारण ही कई अपराधी संसद में हैं। काटजू साहब यहीं नहीं रुके, उन्होंने यहां तक कहा कि वह मतदान नहीं करेंगे क्योंकि देश को कुछ ऐसे नेता चला रहे हैं जो अपनी जाति के कारण चुने जाते हैं। यह लोकतंत्र का असली रूप नहीं है। उन्होंने कहा, मैं मतदान नहीं करता क्योंकि मेरा मत निरर्थक है। मतदान जाट, मुस्लिम, यादव या अनुसूचित जाति के नाम पर होता है। काटजू साहब की बातों से कुछ हद तक मैं सहमत भी हूं। उनकी ये चिंता जायज है कि आज संसद और विधानसभा में तमाम आपराधिक छवि के लोग चुनाव जीत कर पहुंच रहे हैं। देश के लिए ये वाकई चिंता का विषय है।

लेकिन जब इस मामले में कहीं से कोई कार्रवाई नहीं होती दिखाई दी तो सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया और कहाकि जेल ही नहीं, पुलिस हिरासत में आने वाला व्यक्ति भी लोकसभा और विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ पाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि जो व्यक्ति मतदान करने के लिए अयोग्य है, वह चुनाव लड़ने के योग्य कैसे हो सकता है ? न्यायमूर्ति एके पटनायक और सुधांशु ज्योति मुखोपाध्याय की पीठ ने पटना हाई कोर्ट के फैसले पर मुहर लगाते हुए यह व्यवस्था दी है। पीठ ने मुख्य चुनाव आयुक्त व अन्य की याचिकाएं खारिज करते हुए कहा कि उन्हें पटना हाईकोर्ट के फैसले में कोई खामी नजर नहीं आती। आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि पटना हाई कोर्ट ने 30 अप्रैल 2004 को दिए फैसले में कहा था, 'मत देने का अधिकार "कानूनी अधिकार" है। कानून व्यक्ति को यह अधिकार देता है और कानून इसे ले भी सकता है। अदालत से किसी अपराध में दोषी ठहराया गया व्यक्ति लोकसभा, राज्य विधानसभाओं व अन्य सभी चुनाव से बाहर हो जाता है। जो व्यक्ति पुलिस की कानूनी हिरासत में होगा, वह मतदाता नहीं होगा। कानून अस्थायी रूप से उस व्यक्ति के कहीं भी जाने का अधिकार छीन लेता है। हाईकोर्ट ने आगे कहा, 'उस व्यक्ति का नाम मतदाता सूची से न हटा हो, फिर भी पुलिस की हिरासत में होने के दौरान उसकी मतदान की योग्यता और मत देने का विशेषाधिकार चला जाता है।' सुप्रीमकोर्ट ने हाई कोर्ट की इस व्यवस्था पर अपनी मुहर लगाते हुए कहा कि जिस व्यक्ति को जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 62(5) में मत देने का अधिकार नहीं है और जो मतदाता नहीं हो सकता वह लोकसभा व विधानसभा का चुनाव लड़ने की भी योग्यता नहीं रखता।

मैं व्यक्तिगत  रूप से इस फैसले से पूरी तरह सहमत हूं। मुझे लगता है कि राजनीति में सुचिता के लिए कुछ कड़े और ऐतिहासिक फैसले लेने ही होगें। मेरा ये भी मानना है कि हाईकोर्ट सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला सुनाया है, वो कानून के दायरे में ही रहकर सुनाया है। इसमें कहीं से भी ऐसा नहीं लगता कि कोर्ट ने लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन किया है। पर पूर्व जस्टिस मारकंडेय काटजू भला इस फैसले का स्वागत कैसे कर सकते हैं ? उन्हें लगता है कि उनके अलावा कोई दूसरा जज ऐतिहासिक फैसले करने का अधिकार ही नहीं रखता। अब इस फैसले में उन्हें लग रहा है कि कोर्ट ने लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन किया है। इन्होंने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर सवाल उठाया और कहाकि कोर्ट को किसी कानून में संशोधन का अधिकार नहीं है, ये काम विधायिका का है। काटजू साहब को संसद में बैठे अपराधियों से भी नाराजगी है और उन्हें रोकने के उपायों पर भी ऐतराज है। ये दोनों बातें एक साथ काटजू साहब ही कह सकते हैं।

मैं देखता हूं जो मुद्दा राष्ट्रीय स्तर पर मजबूती से खड़ा होता है और काटजू साहब को लगता है कि इस पर बोलने से वो मीडिया की सुर्खियों में आ सकते हैं तो वे मौका नहीं छोड़ते। अब देखिए उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना और केजरीवाल की लड़ाई को निरर्थक बता दिया। काटजू ने कहा, यह आंदोलन किसी मूर्ख आदमी द्वारा कही गई कहानी की तरह है, जिसका कोई मतलब नहीं निकलता। देश में कोई नैतिक संहिता नहीं है, इसलिए भ्रष्टाचार को पूरी तरह मिटाया ही नहीं जा सकता। वो यहीं नहीं रुके, आगे कहाकि जनलोकपाल हो या लोकपाल विधेयक, यह किसी भी हाल में जनहित में नहीं है। यह महज ब्लैकमेलर बनकर ही रह जायेगा। आंदोलन को लेकर उनकी राय है कि आप 'भारत माता की जय' और 'इंकलाब जिंदाबाद' चिल्लाकर भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष नहीं कर सकते। चिल्लाने से क्या होगा। लोग यहां 10-15 दिनों तक चिल्लाते रहे और फिर अपने घर चले गए। सवाल उठा रहे हैं कि आखिर इससे क्या हुआ ?  अब काटजू साहब को कैसे बताया जाए कि कुछ भी हो आज भ्रष्टाचार के खिलाफ देश में जागरूकता आई है। इस विषय पर कम से कम बहस तो शुरू हो गई है। खैर काटजू साहब को कोई नहीं समझा सकता।

अच्छा जब काटजू साहब सुप्रीम कोर्ट के जज थे, तब उन्हें इस बात की जानकारी नहीं हुई कि भारत की जेलों में तमाम ऐसे कैदी है, जिनके खिलाफ पुलिस ने गलत साक्ष्य दिए हैं। ऐसे ही बड़ी संख्या में लोग कई साल से जेलों में कैद हैं। उस समय काटजू साहब ने इस पर काम क्यों नहीं किया ? वो चाहते तो जज रहने के दौरान कुछ कड़े फैसले ले सकते थे। हो सकता है कि कुछ एनजीओ ठीक ठाक काम कर रहे हों, पर मैं तो इसे एक "धंधा" ही समझता हूं। अब काटजू साहब भी ऐसे ही लोगों को न्याय दिलाने के नाम पर एक एनजीओ " द कोर्ट आँफ लास्ट रिसोर्ट " बनाने की तैयारी कर रहे हैं। कीजिए काम और उद्देश्य तो वाकई बढिया है, लेकिन आपका टेंपरामेंट जो है, उससे ये संगठन कहां तक जाएगा, कहना मुश्किल है। वैसे भी आप जिस लाइन पर चल रहे हैं, उसे देखते हुए तो मैं कह सकता हूं कि एनजीओ के बजाए आप एक राजनीतिक दल बना लीजिए, कामयाब रहेंगे। या फिर थोड़ा इंतजार कीजिए, जिस रास्ते पर आप चल रहे हैं मुझे भरोसा है कि कांग्रेस आपको राज्यसभा आफर कर सकती है।






Sunday 7 July 2013

झारखंड : समझौते की आड़ में नंगा नाच !

मुझे तो याद है, पता नहीं आपको याद है या नहीं। महीने भर पहले छत्तीसगढ़ में कांग्रेस परिवर्तन यात्रा निकाल रही थी, इस यात्रा पर नक्सलियों ने हमला कर दिया, जिसमें कुछ सुरक्षा जवानों के साथ कुल 28 लोगों की मौत हो गई। इस हमले में कांग्रेस के कई नेता भी मारे गए। बीजेपी की सरकार वाले राज्य में नक्सली हमले में कांग्रेसियों की मौत से पार्टी आलाकमान में हड़कंप मच गया। पार्टी में इतनी बैचेनी कि राहुल बाबा बेचारे रात में ही वहां पहुंच गए, जबकि अगले दिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी भी रायपुर जाकर घड़ियाली आंसू बहा आए। लेकिन इन नेताओं का असली चेहरा तब सामने आया, जब हफ्ते भर पहले झारखंड में नक्सली हमले में वहां के एसपी समेत कई और पुलिसकर्मी मारे गए। यहां आठ लोगों को जंगल में घेर कर नक्सलियों ने मार गिराया, लेकिन इस बार किसी भी कांग्रेसी के मुंह से संवेदना के दो शब्द नहीं निकले। बेशर्मी की हद तो ये हैं कि जिस वक्त  पुलिस महकमा नक्सलिओं को मुंहतोड़ जवाब देने की रणनीति बना रहा था, उस दौरान कांग्रेसी झारखंड मुक्ति मोर्चा के दागी नेताओं के साथ मिलकर चोर दरवाजे से समझौते की आड़ में सौदेबाजी कर सरकार बनाने गुत्थी सुलझा रहे थे। मैं जानना चाहता हूं कि क्या आज नेताओं में दो एक पैसे की भी शर्म नहीं बची है ?

ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के इस शर्मनाक खेल को आम जनता नहीं समझती है। उन्हें जान लेना चाहिए कि ये पब्लिक है, सब जानती है। वैसे मैं बहुत कोशिश करता हूं, पर इस बात का जवाब मुझे नहीं मिल पार रहा है। सवाल ये कि क्या वाकई सोनिया गांधी में राजनीतिक विवेक शून्यता है ? या वो जानबूझ कर ऐसी मूर्खता करती हैं। आप सब देख रहे हैं कि झारखंड में एक ओर नक्सलियों के खिलाफ सख्त पुलिस कार्रवाई चल रही है, बड़ी संख्या में पुलिसकर्मियों ने जंगल में नक्सलियों की घेराबंदी कर ली है। नक्सलियों को जिस रास्ते से खाद्य सामग्री पहुंचती है, उन रास्तों पर पुलिस का सख्त पहरा है। वहां राज्यपाल और उनके सलाहकार इस मिशन को अंजाम देने में लगे हुए हैं। लेकिन इन सबसे बेखबर सोनिया गांधी अपने मूर्ख सलाहकारों के साथ मिलकर झारखंड के विवादित और दागी नेताओं के साथ कुर्सी की गंदी राजनीति में फंसी रहीं। अब जाहिर है जब झारखंड में सरकार की बहाली को लेकर दिल्ली में सौदेबाजी चल रही हो, तो चाहे राज्यपाल हों या फिर उनके सलाहकार कोई भी उतनी शिद्दत से तो आपरेशन को अंजाम नहीं दे सकता।

आप सब जानते हैं कि दूध का जला छाछ भी फूंक फूंक कर पीता है। वैसे तो सच यही है कि झारखंड मुक्ति मोर्चा के अगुवा शिबु सोरेन कोई साफ सुथरे नेता तो नहीं है, फिर भी कांग्रेस ने दिल्ली में उनकी जो दुर्गति की वो भी किसी से छिपी नहीं है। बेचारे बड़े बेआबरू होकर दिल्ली से झारखंड वापस गए हैं, यही वजह है कि अब दोबारा कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार गठन के मामले में खुद बातचीत बिल्कुल नहीं कर रहे हैं। रही बात उनके बेटे हेमंत सोरेन की तो वो पूरी तरह दिमाग से पैदल ही है। वरना जितना गिर कर उसने कांग्रेस के साथ समझौता किया है, कोई भी मान सम्मान वाला राजनीतिक व्यक्ति ऐसा समझौता नहीं कर सकता। हफ्ते भर तक जिस तरह हेमंत दिल्ली में कांग्रेस नेताओं के दरवाजे पर मत्था टेकता रहा, उसे देखकर एक बार भी नहीं लगा कि वो एक राज्य के मुख्यमंत्री बनने की बातचीत कर रहा है, बल्कि ऐसा लगा कि वो झारखंड के किसी पंचायत में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी की नौकरी मांग रहा है। कांग्रेस ने भी जिस तरह हेमंत का गला मरोड़ कर समझौता किया, उसके दर्द का अहसास तो हेमंत को है, लेकिन मुख्यमंत्री बनने की चाहत ने इस दर्द और बेइज्जत के अहसास को कम कर दिया है।

राजनीति में समझौते होते रहते हैं, लेकिन मेरी आपत्ति समझौते की आड़ में हो रही सौदेबाजी और उसके समय को लेकर है। कांग्रेस ये सौदेबाजी उस वक्त कर रही थी जब झारखंड में राज्य पुलिस के एक एसएसपी समेत आठ लोगों की नक्सलियों ने हत्या कर दी थी। समूजा राज्य इस शोक में डूबा था, उस वक्त राज्य और वहां की पुलिस को जरूरत थी सहानिभूति की, लेकिन कांग्रेस सहानिभूति के बजाए सौदेबाजी की मेज पर अपने पासे पलटनें में मशगूल रही। बेशर्म कांग्रेसियों ने अपने आलाकमान को भी पुलिसकर्मियों की हत्या के असर से बेखबर रखा। अच्छा एक बार मैं मान लेता हूं कि कांग्रेस नेताओं में संवेदनशीलता की कमी हैं, लेकिन झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता हेमंत सोरेन को क्या कहें ? उनके दिमाग में ये बात क्यों नहीं आई कि सरकार बनाने के लिए सौदेबाजी का ये मौका सही नहीं है। अब क्या कहूं, कहते हैं कि कुर्सी आदमी को अंधा बना देती है। अगर मैं ये कहूं कि कुर्सी के लिए हेमत भी अंधा हो गया था तो बिल्कुल गलत नहीं होगा। वजह जानना चाहेंगे, चलिए बताता हूं। जिस तरह का समझौता हुआ है उससे तो हेमंत बस मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा रहेगा, उसे कोई फैसला करने का अधिकार नहीं होगा। इसके लिए एक समन्वय समिति बनेगी और जो गुणदोष के आधार पर फैसला करेगी। इतना ही नहीं कांग्रेस कुछ वरिष्ठ नेताओं की एक कमेंटी बनाने वाली है जो सरकार के कामकाज पर निगरानी भी रखेगी। मसलन सोरेन को लूट खसोट की छूट नहीं होगी।

और हां संभावित सरकार में हेमंत मुख्यमंत्री तो होंगे, लेकिन महत्वपूर्ण विभाग कांग्रेस खेमे के मंत्रियों के पास होगा। इतना ही नहीं विधानसभा का अध्यक्ष भी कांग्रेस का ही कोई नेता होगा, मतलब ये कि कांग्रेस ने हेमंत का हाथ पैर बांधकर उसे कुर्सी पर बैठाने का फैसला लिया है, वो कुर्सी पर बैठकर अपनी मर्जी से हिल डुल भी नहीं सकेगा। इसके लिए भी उसे कांग्रेस की मदद की जरूरत होगी। कांग्रेस जानती है कि झारखंड में कुछेक नेताओं को छोड़ दें तो ज्यादातर नेताओं का चरित्र मधुकोड़ा से प्रभावित है। मतलब सियासी जमीन भले ही मजबूत ना हो लेकिन जमीर बेचने में वक्त नहीं लगता। यही वजह है कि इस राज्य के गठन को महज 13 साल हुए हैं, लेकिन जोड़तोड़ ऐसा कि अब तक यहां 8 मुख्यमंत्री बदल चुके हैं और इस राज्य को तीन पर राष्ट्रपति शासन का मुंह देखना पड़ा है। चूंकि अगले साल लोकसभा के चुनाव प्रस्तावित हैं, ऐसे में कांग्रेस कोई जोखिम नहीं लेना चाहती। यही वजह है कि हेमंत सोरेन की मुख्यमंत्री की महत्वाकांक्षा देख कांग्रेस ने उसे लोहे की जंजीर में ना सिर्फ जकड़ दिया है, बल्कि ये कहूं कि हेमंत देश के पहले बंधक मुख्यमंत्री रहेंगे तो गलत नहीं होगा।

अच्छा सरकार में महत्वपूर्ण विभाग तो कांग्रेस के पास रहेगा ही, अगले साल होने वाले चुनाव के लिए भी कांग्रेस ने झारखंड मुक्ति मोर्चा की पूरी तरह से घेराबंदी कर दी है। राज्य के 14 लोकसभा सीटों में 10 पर कांग्रेस चुनाव लडेगी और मोर्चा सिर्फ चार सीटों पर चुनाव लडेगा। इस सौदेबाजी से कांग्रेस ने एक संदेश आरजेडी प्रमुख लालू को भी दे दिया है। झारखंड में उनके लिए कोई सीट नहीं छोड़ी गई है, मसलन लालू को यहां अकेले चुनाव लड़ना होगा। हां अगर झारखंड मुक्ति मोर्चा चाहे तो अपनी चार सीटों में दो लालू को दे सकती है। बहरहाल हेमंत को मुख्यमंत्री बनाने की जो कीमत कांग्रेस ने वसूल की है, सच कहूं तो वो राजनीतिक मर्यादाओं के भी खिलाफ है। वैसे घुटनों पर आ गई झारखंड मुक्ति मोर्चा के लिए अभी भी सरकार बनाने का रास्ता इतना आसान नहीं है। मौजूदा 81 सदस्यीय झारखंड विधानसभा में भाजपा के 18, झाविमो के 11, ऑजसू के 06, जदयू के 02 और वाम दल के 02 विधायक है। जबकि झामुमो के 18, कांग्रेस के 13, राजद के 05  विधायक हैं। जबकि दो निर्दलीय विधायक चमरा लिंडा और बंधु तिर्की का झुकाव भी झामुमो और कांग्रेस गठबंधन की ओर है। लेकिन कांग्रेस ने हेमंत को ये भी साफ कर दिया है कि किसी भी निर्दलीय को मंत्री ना बनाया जाए, अब बिना मंत्री बने तो मुझे नहीं लगता है कि निर्दलीय सरकार का समर्थन करेंगे।

खैर सोमवार से सरकार गठन की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। हो सकता है कि कल यानि सोमवार को हेमंत की राज्यपाल से मुलाकात हो, जिसमें वो उनसे सरकार बनाने का प्रस्ताव कर सकते हैं। वैसे देखने में तो ऐसा ही लग रहा है कि अब सरकार बनने में कोई अड़चन नहीं है, लेकिन झारखंड मुक्ति मोर्चा के सामने इस बार बीजेपी नहीं कांग्रेस है। यहां तो बड़े नेताओं से मुलाकात करने भर में ही पसीने छूट जाते हैं। कांग्रेस और मोर्चा की अभी जितनी भी बातें हुई हैं वो सब मौखिक हैं। अभी कांग्रेस विधायकों की बैठक होनी है, जिसमें पार्टी के विधायक फैसला करेंगे कि हेमंत को समर्थन देना है। समर्थन का पत्र मिलने के बाद  ही सोरेन राज्यपाल से मुलाकात करेंगे। बहरहाल राजनीतिक अस्थिरता को लेकर ये राज्य पहले भी सुर्खियों में रहा है, इस बार तो बहुत ही कमजोर सरकार है, इसका फायदा कांग्रेस जरूर उठाएगी। समझौते की आड़ में जिस तरह राजनीति का नंगा नाच हुआ वो एक बार भी गठबंधन के तौर तरीकों पर सवाल खड़े करने वाला है।  बहरहाल सोदेबाजी की सरकार के कामकाज के तौर तरीके जल्दी ही हम सबके सामने होंगे।





Monday 1 July 2013

अब कश्मीर को स्वर्ग कहना बेमानी !

ज ही या यूं कहिए कुछ देर पहले ही कश्मीर से वापस लौटा हूं। मन हुआ आप सबसे बातें करने का तो सबसे पहले ब्लाग ही लिखने बैठ गया। चलिए पहले आपको ईमानदारी से एक बात बता दूं। आप कभी कश्मीर जाना तो दूर वहां जाने की सोचना भी मत ! कश्मीर अब धरती का स्वर्ग बिल्कुल नहीं नहीं रह गया है, ये पूरी तरह नरक बन चुका है, और हां इसे नरक किसी और ने नहीं बल्कि खुद कश्मीरियों ने बनाया है। यहां की खूबसूरती में चार चाँद लगाने वाली डल झील का एक बड़ा हिस्सा गंदा नाला भर रह गया है, पार्कों की खूबसूरती लगभग खत्म हो चुकी है, बिना बर्फ के सोनमर्ग और गुलमर्ग भी बुंदेलखंड के पहाड़ से ज्यादा मायने नहीं रखते, भारी प्रदूषण ने पहलगाम से उसकी प्राकृतिक सुंदरता छीन ली है। रही बात मौसम की तो इन दिनों श्रीनगर में भी चेहरा झुलसा देने वाली धूप और गरमी ने टूरिस्ट का जीना मुहाल कर रखा है। साँरी मैने खुद को टूरिस्ट कह दिया, क्योंकि कश्मीरी हमें टूरिस्ट नहीं बस एक बेवकूफ " कस्टमर " समझते हैं। होटल, रेस्टोरेंट, टैक्सी, घोड़े वाले हमारे ऊपर गिद्ध नजर रख कर बस मौके की तलाश में रहते हैं। बेशर्मी की हद तो ये है कि टाँयलेट के लिए ये 10 रुपये वसूल करते हैं। चलिए हर बात की चर्चा करता हूं, लेकिन एक सप्ताह में मेरा अनुभव रहा है कि कश्मीरी सिर्फ हमें ही नहीं केंद्र की सरकार को भी लूट रहे हैं और कमजोर सरकार ने यहां सेना को होमगार्ड बनाकर रख दिया है।

आइये सबसे पहले आपको डल झील लिए चलते हैं। वैसे तो मैं ही क्या आप में से भी तमाम लोगों ने पहले भी डल झील को ना सिर्फ देखा होगा, बल्कि इसमें शिकारे की सवारी का भी जरूर आनंद लिया होगा। लेकिन पुरानी यादों के साथ अगर आप अब इस झील में जाएंगे तो आपको बहुत निराशा होगी। वजह झील का एक बड़ा हिस्सा नाले की शक्ल ले चुका है। झील में हाउस वोट के भीतर भले ही रोशनी की चकाचौंध आपको शुकून दे, लेकिन जब आप बाहर निकलेंगे तो आपको बहुत तकलीफ होगी, क्योंकि आप देखेंगे कि आपका हाउस वोट झील में नहीं बल्कि गंदे पानी के नाले पर खड़ा है, जिस जगह आपने पूरी रात बिताई है। मैं जब हाउस वोट पर पहुंचा तो अंधेरा होने को था, इसलिए कुछ देख नहीं पाया, लेकिन सुबह बाहर आया तो इतना मन खिन्न हुआ कि उसके बाद मैने इस हाउस वोट पर ब्रेकफास्ट करना भी मुनासिब नहीं समझा। बच्चों की इच्छा पूरी करने के लिए शिकारे पर सवार हुआ और डल झील में कुछ दूर ही गया कि झील के भीतर गंदी घास देखकर निराशा हुई। सोचने लगा कि जिस झील की सुंदरता के चलते ना सिर्फ देश से बल्कि विदेशों से भी बडी संख्या में लोग यहां आते हैं, उसका ये हाल बना दिया गया है। बात यहीं खत्म नहीं हो जाती है, ये शिकारे वाले तो सैलानियों से मनमानी वसूली करते ही है, ये झील में मौजूद दुकानों पर आपकी मर्जी ना होने के बाद भी ले जाते हैं और दुकानदारों से कश्मीरी भाषा में बात कर हमारी जेब काटने का इंतजाम करते हैं। इतना ही नहीं झील में घूमने के दौरान ये अपने मोबाइल से लगातार ऐसे दुकानदारों को अपने पास बुला लेते हैं, जो आपके शिकारे के साथ अपने शिकारे को लगाकर कुछ खरीदने की जिद्द करते रहते हैं। बताते हैं कि हमें आपको पता भी नहीं चलता है और ये शिकारे वाले हमारी सौदेबाजी कर लेते हैं।

आठ दिन के कश्मीर ट्रिप में मुझे सबसे ज्यादा खराब अनुभव गुलमर्ग में हुआ। अगर आपको पहाड़ों पर बर्फ देखनी है तो लोग गुलमर्ग से गंडोला जाते हैं। गंडोला जाने के लिए अगर आपने पहले से आँन लाइन टिकट बुक कराया है तो ये बिल्कुल ना समझें की आपका गंडोला भ्रमण आसान हो गया है, बल्कि समझ लीजिए कि आपने एक बड़ी मुश्किल को दावत दे दिया है। दरअसल गुलमर्ग से गंडोला जाने के लिए "रोपवे" का इस्तेमाल करना होता है। रोपवे तक जाने के लिए लगभग एक किलोमीटर पैदल चलना होता है। श्रीनगर से जिस टैक्सी से आप गुलमर्ग जाएंगे, वही टैक्सी वाला गुलमर्ग पहुंच कर आपका दुश्मन हो जाता है। वो आपको ये भी नहीं बताएगा कि एक किलोमीटर पैदल किस ओर जाना है। वजह ये कि यहां गाइड वालों और घोड़े वालों से उसका कमीशन तय होता है। अच्छा टैक्सी ड्राईवर आपको ये भी डराता रहता है कि ऊपर हो सकता है कि काफी ठंड हो तो वो लांग बूट और ओवर कोट किराए पर लेने की आप को सलाह भी देता रहता है। सच्चाई ये है कि इस समय वहां एक स्वेटर की भी जरूरत नहीं है, ओवर कोट तो दूर की बात है। अब आप रोपवे का किराया सुनेंगे तो हैरत में पड़ जाएंगे। एक व्यक्ति का किराया 1150 रुपये। अच्छा आँनलाइन टिकट के बाद वहां पहुंच कर आपको बोर्डिंग टिकट लेने में पसीने छूट जाएंगे। काफी लंबी लाइन लगी होगी और बोर्डिंग बनाने में वो आना-कानी करते रहेंगे। यहां होने वाली लूट की जानकारी सब को है, लेकिन सभी खामोश है। मतलब साफ है कि पर्यटकों को लूटने में स्थानीय प्रशासन और सूबे की सरकार दोनों शामिल हैं।

अब इस चित्र को आप ध्यान से देखिए। ये गंडोला में बने एक टाँयलेट का चित्र है। वैसे तो पहाड़ी इलाका है, कई किलोमीटर में फैला है। लोग जहां तहां टाँयलेट के लिए खड़े हो जाते हैं, कोई रोक टोक नहीं है। लेकिन आप में अगर सिविक सेंस है और आप चाहते हैं कि टाँयलेट का इस्तेमाल करना चाहिए तो आपको पता है यहां कितने पैसे चुकाने होंगे। पूरे दस रुपये। कश्मीरियों की इससे ज्यादा बेशर्मी भला क्या हो सकती है ? खाने पीने की तमाम चीजों की मनमानी वसूली तो ये करते ही हैं, जब पूछिए कि कीमत कुछ ज्यादा नहीं है ? एक जवाब कि साहब सब कुछ नीचे से लाना होता है। मैं पूछता हूं कि टाँयलेट के लिए तो मैं ही ऊपर आया हूं, इसके लिए इतने पैसे भला क्यों ? कश्मीर में कोई भी सामान खरींदे तो उस पर लिखी कीमत यानि एमआरपी देखने का कोई मतलब नहीं है। दुकानदार ने जो कह दिया वही सामान की असली कीमत है। इस मामले में ज्यादा बहस की जरूरत नहीं है।

आपको पता ही है कि कश्मीर में दर्जनों पार्क हैं, हालांकि ये पार्क अब अपनी पुरानी पहचान खो चुके हैं। सभी पार्क एक तरह से व्यावसायिक हो गए हैं। अब ना यहां साफ सफाई है और ना ही कोई खास देखरेख का इंतजाम है। हां अब हर पार्क में प्रवेश शुल्क जरूर तय कर दिया गया है। एक नई बात और बताता चलूं। पहलगाम के एक पार्क में हम लोग अंदर घुसे और एक पेड के नीचे बैठ गए। यहां बैठे हुए पांच मिनट भी नहीं बीते कि करीब पांच छह लोग आ गए और कश्मीरी शाल और सलवार शूट वगैरह देखने को कहने लगे। मैने कहाकि इस समय तो हम घूमने आए हैं, अभी मेरी खरीददारी करने में कोई रूचि नहीं है। इसके बाद उसने जो बताया वो सुनकर मैं हैरान रह गया। बोला साहब जब पर्यटक पार्क के अंदर घुसते हैं, उसी वक्त नंबर लग जाता है कि इनके पास कौन जाएगा। सुबह से अब मेरा नंबर आया है, इसलिए कुछ तो आप ले ही लीजिए। उसकी बात सुनकर मुझे हैरानी भी थी और गुस्सा भी। लेकिन मेरे लिए ये नया अनुभव था कि आपको पता भी नहीं और आपकी बिक्री हो रही है। मैं तो चुपचाप उसकी  सुनता रहा, इस माहौल में कुछ खरीदने का तो सवाल ही नहीं।

मुझे कश्मीरी युवक किसी दूसरे राज्यों से कहीं ज्यादा लफंगे दिखे। पहलगाम में लिद्दर नदी पर एक अरु प्वाइंट हैं। यहां रोजाना बड़ी संख्या में पर्यटक जमा होते हैं। लेकिन देखा जाता है कि तमाम कश्मीरी युवक यहां सुबह से ही इकट्ठे हो जाते हैं और एक दूसरे पर पानी फैंकते है, इसके अलावा वो एक दूसरे को इस झरने में डुबोने के लिए हुडदंग करते रहते हैं। ऐसे में यहां बाहर से आए पर्यटकों को काफी मुश्किल होती है। कई बार तो इनकी शैतानी इतनी ज्यादा होती है कि इस अरु प्वाइंट पर दो चार मिनट खड़े होना भी मुश्किल हो जाता है। अच्छा इनसे कुछ कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इन्हें रोकने टोकने वाला कोई है ही नहीं। रही बात कश्मीरी पुलिस की, तो उसका यहां रहना ना रहना कोई मायने नहीं रखता। कानून के राज की बहुत बड़ी-बड़ी बातें वहां के मुख्यमंत्री करते हैं। कश्मीरियों की गुंडागिरी का आलम ये है कि एक ही राज्य होने के बाद भी जम्मू की टैक्सी पहलगाम या श्रीनगर में नहीं चल सकती। मैं जम्मू से ही पूरे टूर के लिए टैक्सी करना चाहता था, लेकिन टैक्सी वालों ने बताया कि वहां के युवक हमें वहां टैक्सी नहीं चलाने देते हैं। अच्छा ये कोई कानून नहीं है, बस स्थानीय युवकों की गुंडागिरी है। पुलिस खामोश है।

कश्मीर के विभिन्न इलाकों में जगह-जगह सेना दिखाई देती है। कहने को तो उसके पास सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (एएफएसपीए) कानून है। पर हकीकत ये है कि सेना को सरकार ने होमगार्ड बना दिया है। खुलेआम वहां लोग भारत विरोधी बातें करते हैं, हर आदमी अपनी सुविधा को कानून मानता है और उसे वैसा करने से कोई रोक नहीं सकता। सेना की मौजूदगी इन कश्मीरियों को बहुत खटकती है, वजह ये कि कुछ हद तक इनकी मनमानी पर तो रोक लगी ही है। हर मौसम में यहां बड़ी संख्या में पर्यटक मौजूद होते हैं, लेकिन अलगाववादी ताकतों का यहां इतना भय है कि अगर उन्होंने बंद यानि हड़ताल का ऐलान कर दिया तो फिर किसी की हिम्मत नहीं है कि वो अपनी दुकान खोल ले। हां हड़ताल के बाद चोर दरवाजे से जरूरी सामान आपको मिल तो जाएंगे, लेकिन फिर इसकी कीमत कई गुना ज्यादा हो जाती है। फिर यहां बात बात हड़ताल तो आम बात है।

कश्मीर के विभिन्न इलाकों में आठ दिन बिताने के बाद मैं तो इसी नतीजे पर पहुंचा हूं कि यहां से धारा 370 को तत्काल हटा लिया जाना चाहिए। इससे अलगाववादी ताकतों का एकाधिकार खत्म होगा, हर तपके की वहां पहुंच होगी। इलाके का विकास भी होगा। आपको सुनकर हैरानी होगी कि श्रीनगर जैसे शहर में एक भी माँल नहीं है, कोई अच्छा सिनेमाघर नहीं है। वहां हमेशा सिनेमा की शूटिंग तो होती रहती है, पर वहां के लोग ये पिक्चर देख नहीं पाते। धारा 370 के समाप्त हो जाने से हर क्षेत्र में एक स्वस्थ प्रतियोगिता शुरू होगी, रोजगार के अवसर उपलब्ध होगे, जिससे इलाके का विकास भी होगा। यहां के नौजवानों को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ा भी जा सकेगा। लेकिन मुझे लगता नहीं कि ऐसा फैसला कोई कमजोर सरकार ले सकती है। वैसे तो इस मामले में सभी  राजनीतिक दलों को एक साथ बैठकर देशहित में कठोर फैसला करना ही होगा, वरना ये कश्मीर की समस्या और बड़ी हो सकती है। वैसे भी कश्मीर में राज्य सरकार की बात करना बेमानी है, जब उसकी कुछ भी चलती ही नहीं, तो उसके होने ना होने का कोई मतलब नहीं है। वहां हर फैसला केंद्र की अनुमति के बैगर लागू नहीं हो सकता। बहरहाल ये राजनीतिक बाते होंगी,  लेकिन अगर पर्यटन के हिसाब से बात की जाए तो कश्मीर किसी लिहाज से अब इस काबिल नहीं रह गया है।




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