भारतीय जनता पार्टी के काफी बड़े नेता हैं लालकृष्ण आडवाणी और आजकल वो पार्टी को नुकसान भी काफी बड़ा पहुंचा रहे हैं। दिग्गज और कद्दावर नेताओं का काम है कि वो पार्टी को एकजुट, एकस्वर और एकराय रखें, लेकिन समय-समय पर आडवाणी जिस तरह रियेक्ट कर रहे हैं, उससे कार्यकर्ताओं में संदेश यही जा रहा है सारी खुराफात के पीछे आडवाणी की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा है। आपको याद दिला दूं जब देश के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे और पार्टी के अध्यक्ष पद की कमान वैंकेयानायडू के पास थी तो एक मीटिंग में नायडू ने इतना भर कहा कि अटल जी विकास पुरुष हैं और आडवाणी लौहपुरुष हैं। अटल जी इशारा समझ गए कि उनके खिलाफ अंदरखाने क्या कुछ चल रहा है, उन्हें दो मिनट नहीं लगा और वहीं ऐलान कर दिया कि " ना टायर्ड, ना रिटायर्ड, आडवाणी जी के नेतृत्व में विजय पथ पर प्रस्थान "। सच बताऊं उस वक्त तो पार्टी का धुआँ निकल गया था। अटल को महान यूं ही नहीं कहा जाता है, वो आदमी को उसके बोलने से नहीं, उसके बैठने के अंदाज से समझ लिया करते थे कि सामने वाले के मन में क्या चल रहा है। बहरहाल अब वो बात पुरानी हो गई है, लेकिन जो हालात हैं उसे देखते हुए तो मुझे ये कहने में भी गुरेज नहीं है कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ सब कुछ सामान्य रहता तो वो कुछ दिन और राजनीति में सक्रिय भूमिका निभा सकते थे। खैर आज तो बारी आडवाणी की है।
लालकृष्ण आडवाणी के बारे में कुछ लिखने से पहले मैं ये भी साफ करना चाहूंगा कि बीजेपी को सत्ता के शिखर तक पहुंचाने में उनकी भूमिका की अनदेखी कत्तई नहीं की जा सकती। अगर मैं ये कहूं कि केंद्र में बीजेपी की सरकार बनवाने में उनकी भूमिका सबसे ज्यादा और महत्वपूर्ण रही है, तो बिल्कुल गलत नहीं होगा। लेकिन आडवाणी ने अगर पार्टी को ऊंचाई दी तो पार्टी ने भी उन्हें निराश नहीं किया। मेरा मानना है कि अटल जी की सरकार में उप प्रधानमंत्री रहते हुए जो सम्मान आडवाणी का रहा है, वो सम्मान आज तो देश के प्रधानमंत्री का नहीं है। अच्छा फिर ऐसा भी नहीं है कि पार्टी में उन्हें अवसर नहीं मिला, अटल के बाद वही पार्टी के चेहरा बने। उन्हीं की अगुवाई में 2009 का चुनाव लड़ा गया, लेकिन पार्टी का प्रदर्शन कुछ खास नहीं रहा। बाद में वो खुद अपनी वजह से विवादों में आ गए और यहां तक कि उन्हें नेता विपक्ष का पद भी छोड़ना पड़ा। मुझे लगता है कि जब उनकी इच्छा के खिलाफ उन्हें नेता विपक्ष से हटाया गया, उस वक्त वो विरोध में आवाज उठाते तो शायद एक बार उन्हें देश और पार्टी कार्यकर्ताओं का समर्थन मिलता, लेकिन उस वक्त तो वो खामोश रहे। सवाल ये उठता है कि अब विरोध क्यों ?
सब जानते हैं कि एक समय में खुद आडवाणी ही नरेन्द्र मोदी के सबसे बड़े समर्थक और उनके प्रशंसक रहे हैं। याद कीजिए गुजरात दंगे के बाद जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने गुजरात में कहा कि " मोदी को राजधर्म का पालन करना चाहिए था " तो आडवाणी ही बचाव में आगे आए। कहा तो ये भी गया कि अटल जी चाहते थे कि मोदी से इस्तीफा ले लिया जाए, लेकिन आडवाणी की वजह से उनका इस्तीफा नहीं हुआ। फिर आज ऐसा क्या हो गया कि आडवाणी को मोदी का बढ़ता कद खटक रहा है। सच्चाई ये है कि आज भाजपा में खेमेबंदी मोदी बनाम आडवाणी है। सब जानते हैं कि किसी जमाने में पार्टी के दो शीर्ष नेता आडवाणी और वाजपेयी के दो अलग-अलग खेमें थे। उन दिनों मोदी पार्टी में आडवाणी के प्रमुख सिपहसलार माने जाते थे। आडवाणी की नीतियों को प्रोत्साहित करने में लगे मोदी का आज वही आडवाणी विरोध कर रहे हैं। हालाकि पहले वाजपेयी ने आडवाणी को पत्र लिखकर सूचित किया था कि मोदी जैसे चरित्र का प्रोत्साहन न ही पार्टी हित में है और न ही देशहित में। उस समय आडवाणी ने मोदी का पक्ष लिया था, उनके खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई न हो, इसके लिए वो एक मजबूत दीवार बनकर सामने खड़े हो जाते थे।
सच यही है कि आडवाणी की महत्वाकांक्षा का परिणाम है कि 2005 में उन्होंने पाकिस्तान यात्रा के दौरान जिन्ना को सेकुलर बताकर अपनी छवि सुधारने की कोशिश की। ऐसा करके उन्होंने एनडीए के घटक दलों के नेताओं को भले ही अपने पक्ष में कर लिया हो पर संघ की नाराजगी जगजाहिर हो गयी। वैसे भी संघ परिवार और भाजपा का समीकरण बनता-बिगड़ता रहा है। बहरहाल आज हालात ये है कि मोदी के पीछे पूरा संघ परिवार मजबूती से खड़ा है। पार्टी के नेताओं को भी साफ कर दिया गया कि अगले चुनाव में मोदी ही पार्टी के मुख्य चेहरा रहेंगे। संघ ने यहां तक इशारा कर दिया है कि इसके लिए अगर एनडीए के घटक दल दूर भागते हैं तो उनकी मर्जी, लेकिन पार्टी अब मोदी के नाम पर पीछे नहीं हटेगी। जब बीजेपी और संघ परिवार ने मन बना लिया कि नरेन्द्र मोदी को आगे करके चुनाव लड़ा जाएगा तो आडवाणी खुलकर मैदान में आ गए। उन्होंने पार्टी के तमाम महत्वपूर्ण पदों से इस्तीफे का ऐलान कर दिया। उनके इस्तीफे के बाद थोड़ी हलचल मचनी ही थी, मची भी। लेकिन उनकी कोई बात नहीं मानी गई। मुझे तो लगता है कि आडवाणी के इस कदम से उन्हीं की जगहंसाई हुई। देश को पता चल गया कि अब उनकी पार्टी में उतनी मजबूत हैसियत नहीं रह गई है।
हालांकि राजनीति में अटकले ही लगाई जा सकती हैं, नेताओं की अंदरखाने हुई बातचीत का कोई प्रमाण तो नहीं हो सकता, लेकिन चर्चा यही है कि एनडीए से बाहर जाने की जोखिम उठाने की हैसियत जेडीयू की नहीं थी। लेकिन नीतीश कुमार को लगा कि जब वो बाहर जाने की धमकी देगें तो संघ परिवार घुटने टेक देगा। पर ऐसा नहीं हुआ, बात चूंकि काफी आगे बढ़ चुकी थी, लिहाजा नीतीश कुमार ने अलग रास्ता चुन लिया। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर आडवाणी चाहते तो वो इस मामले में एक बीच का रास्ता निकाल सकते थे, लेकिन सभी लोग ये संदेश देनें में जुट गए कि मोदी के नाम पर बहुत विरोध है। भाजपा के इतने वरिष्ठ नेता और विशेष रूप से पार्टी के संस्थापक सदस्य से ऐसी उम्मीद नहीं थी कि वह अपनी नाराजगी प्रकट करने के लिए इस हद तक चले जाएंगे। यह तो जग जाहिर था कि लालकृष्ण आडवाणी इस बात से नाराज हैं कि उनके न चाहते हुए भी नरेंद्र मोदी को चुनाव प्रचार अभियान समिति का प्रमुख बनाया गया, लेकिन इसकी कल्पना शायद ही किसी को रही हो कि वह इस कदर नाराज हो जाएंगे कि एक तरह से अपने ही द्वारा सींचे गए पौधे को हिलाने का काम कर बैठेंगे।
नरेन्द्र मोदी को हल्का साबित करने के लिए आडवाणी ने कोई कसर बाकी नहीं रखी। यहां तक की उन्होंने इशारों-इशारों में मोदी के मुकाबले मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान को ज्यादा कारगर मुख्यमंत्री बता दिया और कहाकि गुजरात पहले से विकसित राज्य रहा है, लेकिन बीमारू राज्य को स्वस्थ बनाने का काम शिवराज ने किया है। लेकिन आडवाणी भूल गए कि शिवराज और उनकी पत्नी पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगते रहे हैं। मोदी के खिलाफ कम से कम इस तरह का कोई आरोप तो नहीं है। आडवाणी के समर्थन का ही नतीजा है कि आज चौहान ने मध्यप्रदेश में निकाली अपनी यात्रा में मोदी का चित्र लगाना बेहतर नहीं समझा। सवाल ये है कि पार्टी जिस नेता को लोकसभा चुनाव का मुख्य चेहरा बता रही है। इतना ही नहीं पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अमेरिका में ऐलान किया कि अगर पार्टी को बहुमत मिलता है तो मोदी ही प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे। इन तमाम बातों के बाद भी क्या शिवराज सिंह चौहान की ये हैसियत है कि वो मोदी से किनारा करने की कोशिश करेगे। बिल्कुल नहीं, बस उन्हें दिल्ली में बैठे कुछ कद्दावर नेता गुमराह कर रहे हैं। वरना लोकप्रियता में चौहान के मुकाबले मोदी कई गुना आगे हैं।
सच्चाई ये है कि मोदी जब दिल्ली आते हैं तो मीडिया को पार्टी के ही कुछ नेता अंदरखाने ब्रीफिंग कर पार्टी के संसदीय बोर्ड में हुई बातचीत का ब्यौरा देते हैं। जिसमें ये बताने की कोशिश की जाती है कि मोदी पर नकेल कस दिया गया है। मोदी जो चाहेंगे वो नहीं कर पाएंगे, बल्कि आडवाणी और उनके करीबी नेता जो चाहेंगे वही अंतिम फैसला होगा। अब विरोधी दलों के लिए भला इससे बेहतर और क्या हो सकता है कि जब भाजपा को एकजुट होकर आगे बढ़ना चाहिए, तब वह लड़खड़ाती हुई नजर आ रही है। हालत ये हो जाती है कि कई बार पार्टी के भीतर से वो आवाज बाहर आती है जो बात कांग्रेस के नेताओं से उम्मीद की जाती है। मोदी को कमजोर साबित करने के लिए कुछ नेताओं ने हवा उड़ाई की पार्टी के वरिष्ठ नेता मोदी को रिपोर्ट करने को राजी नहीं है। मुझे तो इस बात पर हंसी आती है, क्योंकि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की हैसियत ये है कि उनकी कुर्सी छीन कर जूनियर नेताओं को दे दी जा रही है, तब तो उनकी आवाज निकलती नहीं है, मोदी को रिपोर्ट करने से मना करने की हैसियत मुझे तो नहीं लगता कि किसी में है। बहरहाल मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि अगर समय रहते आडवाणी पर लगाम नहीं लगाया गया तो वो आने वाले समय में पार्टी के लिए एक बड़ी मुसीबत बन सकते हैं।
लालकृष्ण आडवाणी के बारे में कुछ लिखने से पहले मैं ये भी साफ करना चाहूंगा कि बीजेपी को सत्ता के शिखर तक पहुंचाने में उनकी भूमिका की अनदेखी कत्तई नहीं की जा सकती। अगर मैं ये कहूं कि केंद्र में बीजेपी की सरकार बनवाने में उनकी भूमिका सबसे ज्यादा और महत्वपूर्ण रही है, तो बिल्कुल गलत नहीं होगा। लेकिन आडवाणी ने अगर पार्टी को ऊंचाई दी तो पार्टी ने भी उन्हें निराश नहीं किया। मेरा मानना है कि अटल जी की सरकार में उप प्रधानमंत्री रहते हुए जो सम्मान आडवाणी का रहा है, वो सम्मान आज तो देश के प्रधानमंत्री का नहीं है। अच्छा फिर ऐसा भी नहीं है कि पार्टी में उन्हें अवसर नहीं मिला, अटल के बाद वही पार्टी के चेहरा बने। उन्हीं की अगुवाई में 2009 का चुनाव लड़ा गया, लेकिन पार्टी का प्रदर्शन कुछ खास नहीं रहा। बाद में वो खुद अपनी वजह से विवादों में आ गए और यहां तक कि उन्हें नेता विपक्ष का पद भी छोड़ना पड़ा। मुझे लगता है कि जब उनकी इच्छा के खिलाफ उन्हें नेता विपक्ष से हटाया गया, उस वक्त वो विरोध में आवाज उठाते तो शायद एक बार उन्हें देश और पार्टी कार्यकर्ताओं का समर्थन मिलता, लेकिन उस वक्त तो वो खामोश रहे। सवाल ये उठता है कि अब विरोध क्यों ?
सब जानते हैं कि एक समय में खुद आडवाणी ही नरेन्द्र मोदी के सबसे बड़े समर्थक और उनके प्रशंसक रहे हैं। याद कीजिए गुजरात दंगे के बाद जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने गुजरात में कहा कि " मोदी को राजधर्म का पालन करना चाहिए था " तो आडवाणी ही बचाव में आगे आए। कहा तो ये भी गया कि अटल जी चाहते थे कि मोदी से इस्तीफा ले लिया जाए, लेकिन आडवाणी की वजह से उनका इस्तीफा नहीं हुआ। फिर आज ऐसा क्या हो गया कि आडवाणी को मोदी का बढ़ता कद खटक रहा है। सच्चाई ये है कि आज भाजपा में खेमेबंदी मोदी बनाम आडवाणी है। सब जानते हैं कि किसी जमाने में पार्टी के दो शीर्ष नेता आडवाणी और वाजपेयी के दो अलग-अलग खेमें थे। उन दिनों मोदी पार्टी में आडवाणी के प्रमुख सिपहसलार माने जाते थे। आडवाणी की नीतियों को प्रोत्साहित करने में लगे मोदी का आज वही आडवाणी विरोध कर रहे हैं। हालाकि पहले वाजपेयी ने आडवाणी को पत्र लिखकर सूचित किया था कि मोदी जैसे चरित्र का प्रोत्साहन न ही पार्टी हित में है और न ही देशहित में। उस समय आडवाणी ने मोदी का पक्ष लिया था, उनके खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई न हो, इसके लिए वो एक मजबूत दीवार बनकर सामने खड़े हो जाते थे।
सच यही है कि आडवाणी की महत्वाकांक्षा का परिणाम है कि 2005 में उन्होंने पाकिस्तान यात्रा के दौरान जिन्ना को सेकुलर बताकर अपनी छवि सुधारने की कोशिश की। ऐसा करके उन्होंने एनडीए के घटक दलों के नेताओं को भले ही अपने पक्ष में कर लिया हो पर संघ की नाराजगी जगजाहिर हो गयी। वैसे भी संघ परिवार और भाजपा का समीकरण बनता-बिगड़ता रहा है। बहरहाल आज हालात ये है कि मोदी के पीछे पूरा संघ परिवार मजबूती से खड़ा है। पार्टी के नेताओं को भी साफ कर दिया गया कि अगले चुनाव में मोदी ही पार्टी के मुख्य चेहरा रहेंगे। संघ ने यहां तक इशारा कर दिया है कि इसके लिए अगर एनडीए के घटक दल दूर भागते हैं तो उनकी मर्जी, लेकिन पार्टी अब मोदी के नाम पर पीछे नहीं हटेगी। जब बीजेपी और संघ परिवार ने मन बना लिया कि नरेन्द्र मोदी को आगे करके चुनाव लड़ा जाएगा तो आडवाणी खुलकर मैदान में आ गए। उन्होंने पार्टी के तमाम महत्वपूर्ण पदों से इस्तीफे का ऐलान कर दिया। उनके इस्तीफे के बाद थोड़ी हलचल मचनी ही थी, मची भी। लेकिन उनकी कोई बात नहीं मानी गई। मुझे तो लगता है कि आडवाणी के इस कदम से उन्हीं की जगहंसाई हुई। देश को पता चल गया कि अब उनकी पार्टी में उतनी मजबूत हैसियत नहीं रह गई है।
हालांकि राजनीति में अटकले ही लगाई जा सकती हैं, नेताओं की अंदरखाने हुई बातचीत का कोई प्रमाण तो नहीं हो सकता, लेकिन चर्चा यही है कि एनडीए से बाहर जाने की जोखिम उठाने की हैसियत जेडीयू की नहीं थी। लेकिन नीतीश कुमार को लगा कि जब वो बाहर जाने की धमकी देगें तो संघ परिवार घुटने टेक देगा। पर ऐसा नहीं हुआ, बात चूंकि काफी आगे बढ़ चुकी थी, लिहाजा नीतीश कुमार ने अलग रास्ता चुन लिया। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर आडवाणी चाहते तो वो इस मामले में एक बीच का रास्ता निकाल सकते थे, लेकिन सभी लोग ये संदेश देनें में जुट गए कि मोदी के नाम पर बहुत विरोध है। भाजपा के इतने वरिष्ठ नेता और विशेष रूप से पार्टी के संस्थापक सदस्य से ऐसी उम्मीद नहीं थी कि वह अपनी नाराजगी प्रकट करने के लिए इस हद तक चले जाएंगे। यह तो जग जाहिर था कि लालकृष्ण आडवाणी इस बात से नाराज हैं कि उनके न चाहते हुए भी नरेंद्र मोदी को चुनाव प्रचार अभियान समिति का प्रमुख बनाया गया, लेकिन इसकी कल्पना शायद ही किसी को रही हो कि वह इस कदर नाराज हो जाएंगे कि एक तरह से अपने ही द्वारा सींचे गए पौधे को हिलाने का काम कर बैठेंगे।
नरेन्द्र मोदी को हल्का साबित करने के लिए आडवाणी ने कोई कसर बाकी नहीं रखी। यहां तक की उन्होंने इशारों-इशारों में मोदी के मुकाबले मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान को ज्यादा कारगर मुख्यमंत्री बता दिया और कहाकि गुजरात पहले से विकसित राज्य रहा है, लेकिन बीमारू राज्य को स्वस्थ बनाने का काम शिवराज ने किया है। लेकिन आडवाणी भूल गए कि शिवराज और उनकी पत्नी पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगते रहे हैं। मोदी के खिलाफ कम से कम इस तरह का कोई आरोप तो नहीं है। आडवाणी के समर्थन का ही नतीजा है कि आज चौहान ने मध्यप्रदेश में निकाली अपनी यात्रा में मोदी का चित्र लगाना बेहतर नहीं समझा। सवाल ये है कि पार्टी जिस नेता को लोकसभा चुनाव का मुख्य चेहरा बता रही है। इतना ही नहीं पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अमेरिका में ऐलान किया कि अगर पार्टी को बहुमत मिलता है तो मोदी ही प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे। इन तमाम बातों के बाद भी क्या शिवराज सिंह चौहान की ये हैसियत है कि वो मोदी से किनारा करने की कोशिश करेगे। बिल्कुल नहीं, बस उन्हें दिल्ली में बैठे कुछ कद्दावर नेता गुमराह कर रहे हैं। वरना लोकप्रियता में चौहान के मुकाबले मोदी कई गुना आगे हैं।
सच्चाई ये है कि मोदी जब दिल्ली आते हैं तो मीडिया को पार्टी के ही कुछ नेता अंदरखाने ब्रीफिंग कर पार्टी के संसदीय बोर्ड में हुई बातचीत का ब्यौरा देते हैं। जिसमें ये बताने की कोशिश की जाती है कि मोदी पर नकेल कस दिया गया है। मोदी जो चाहेंगे वो नहीं कर पाएंगे, बल्कि आडवाणी और उनके करीबी नेता जो चाहेंगे वही अंतिम फैसला होगा। अब विरोधी दलों के लिए भला इससे बेहतर और क्या हो सकता है कि जब भाजपा को एकजुट होकर आगे बढ़ना चाहिए, तब वह लड़खड़ाती हुई नजर आ रही है। हालत ये हो जाती है कि कई बार पार्टी के भीतर से वो आवाज बाहर आती है जो बात कांग्रेस के नेताओं से उम्मीद की जाती है। मोदी को कमजोर साबित करने के लिए कुछ नेताओं ने हवा उड़ाई की पार्टी के वरिष्ठ नेता मोदी को रिपोर्ट करने को राजी नहीं है। मुझे तो इस बात पर हंसी आती है, क्योंकि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की हैसियत ये है कि उनकी कुर्सी छीन कर जूनियर नेताओं को दे दी जा रही है, तब तो उनकी आवाज निकलती नहीं है, मोदी को रिपोर्ट करने से मना करने की हैसियत मुझे तो नहीं लगता कि किसी में है। बहरहाल मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि अगर समय रहते आडवाणी पर लगाम नहीं लगाया गया तो वो आने वाले समय में पार्टी के लिए एक बड़ी मुसीबत बन सकते हैं।
कुछ नही होगा...महेन्द्र जी ! मोदी का तीर कमान से निकल चूका है और शिकार करके ही लौटेगा !और अडवाणी जी का वक्त बीत गया और बीता वक्त लौटता नही ...बस अच्छी-बुरी यादें रहती हैं, अच्छी ख़ुशी देती हैं और बुरी पछतावा ये अडवाणी जी पर निर्भर है वो किस से समय बिताएं !
ReplyDeleteबाकि आप समझदार हैं और मीडिया से सम्बन्ध रखते हैं ..क्रिकेट और पोलिटिक्स में भविष्यवाणी नही करनी चाहिए ...देखे आप भी और हम भी ऊंट किस करवट बैठता है ....कुछ ज्यादा ही हो गया ,,क्षमा !
जी, सही कहा आपने..
Deleteलेकिन आडवाणी जी अब बीजेपी को नुकसान पहुंचा रहे है।
सटीक विश्लेषण-
ReplyDeleteआभार-
आभार भाई जी
Deleteदिलचस्प स्टोरी है...
ReplyDeleteहमारे देश में सब पार्टियाँ एक जैसी हैं , जिसमें विपक्ष शुरुआत से ही चीखना शुरू करता है की खा गए खा गए , घोटाला घोटाला ...
कब तक खाओगे , इन्हें हटाओ हमें बिठाओ ...
हम कम खायेंगे या बिलकुल नहीं खायेंगे विश्वास करो मगर इन चोरों को हटाओ !
और हम फिर चल देते हैं वोट देने ..
यह क्रम जारी है और रहेगा जबतक अशिक्षा है !
बहुत बहुत आभार..
Deleteवैसे आपका कहना सही है लेकिन मुझे लगता है कि आज आडवाणीजी उस हालत में नहीं है जिसमें वे बहुत ज्यादा कुछ कर सके क्योंकि संघ से लेकर कार्यकर्ता तक सब मोदी के साथ खड़े हैं !
ReplyDeleteसहमत हूं आपकी बात से।
Deleteलेकिन वो फायदा भले ना पहुंचाएं, लेकिन पार्टी में रहकर जो बोलते हैं, उससे नुकसान जरूर हो रहा है।
सटीक विश्लेषण,रोचक बात..
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार..
Deleteमुझे तो कई बार लगता है ये बी जे पी की कोई चाल न हो ... अगर २०० सीटें आ गयीं तो मोदी अगर १५० तक आई तो अडवानी जी को आगे कर देंगे ... कई लोग उनके साथ शायद आ जाए जो १५० तक होने पे नरेंद्र मोदी के साथ न जाएं ...
ReplyDeleteहाहाहाहहाहाह... नहीं आडवाणी अपनी पारी खेल चुके हैं..
Deleteफिर तीसरा कोई और बाजी मार ले जाएगा.
ये राजनीति है ...यहाँ कभी भी कुछ भी हो सकता है
Deleteसही है...
Deleteइससे अच्छा सटीक विचार-विमर्श तो पार्टी वाले भी नहीं कर पाते ....बहुत बढ़िया
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार कविता जी
Deleteबहुत बहुत आभार शास्त्री जी
ReplyDeleteek asadhran neta apni ATI MAHTVAKANKSHA ki bhent chadh raha hai ..sateek vishleshan .
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार
DeleteThe reason why Advani never made it to the top is because he has never been sure of himself and always remained indecisive on all matters. Two blunders he has made 1) Participated in Babri Majid demolition and denying it and now trying to portray himself as most Secular leader 2) His controversial remark when he went to visit Jinnah's monument in Karachi.
ReplyDeleteThe reason why Advani never made it to the top is because he has never been sure of himself and always remained indecisive on all matters. Two blunders he has made 1) Participated in Babri Majid demolition and denying it and now trying to portray himself as most Secular leader 2) His controversial remark when he went to visit Jinnah's monument in Karachi.
ReplyDeleteबिल्कुल सहमत हूं..
Deleteis party ke andruni halat sabhi jante hain yahan har koi pradhanmantri banne ko taiyyar hai chahe janta vot dene ko taiyyar ho ya n ho par mungeri laal arthat pahle advani ji fir modi maharaj ji sapne dekhne ka hak to hamare is loktantr me rakhte hi hain .bahut sundar vishleshan kiya hai aapne .
ReplyDeleteकभी कभी आप मेरी बात से सहमत होती है।
Deleteबहुत बहुत आभार
मुझे तो लगता है कि अन्दरूनी और बाहरी विरोध के कारण ही मोदी अधिक मजबूत बनते जा रहे हैं। यदि उनका इतना विरोध नहीं होता तो शायद आज वे भी एक साधारण मुख्यमंत्री की ही तरह होते। देखते रहिए कि भारत के भाग्य में क्या लिखा है? हम कहें भले ही कि स्वयं से पहले राष्ट्र है लेकिन जब खुद की बारी आती है तब स्वयं ही सब कुछ हो जाता है, राष्ट्र और दल दोनों को ही लोग भूल जाते हैं। बस वही याद आता है कि भाग्यहीन नर पावत नाहीं।
ReplyDeleteबिल्कुल सही ..
Deleteआभार
आडवाणी जी के पास अपना स्वप्न पूरा करने के लिए ज्यादा समय नहीं है...इसीलिए वे मोदी के खिलाफ हैं, मोदी को तो बाद में भी मौका मिल सकता है, मिल बैठ कर उन्हें बात कर लेनी चाहिए.
ReplyDeleteबात मौके की नहीं है, बात काबिलियत की है। आडवाणी को मौका मिल चुका है..
Deleteअब उन्हें मोदी का साथ देना चाहिए
प्रधानमन्त्री की कुर्सी तक पहुँचने का जूनून है, देश इनकी बला से जाए भाड़ में !
ReplyDeleteसही कहा आपने..
Deleteआभार
मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि अगर समय रहते आडवाणी पर लगाम नहीं लगाया गया तो वो आने वाले समय में पार्टी के लिए एक बड़ी मुसीबत बन सकते हैं।
ReplyDeleteGood analysis Mahendra ji, I agree.
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जी, बहुत बहुत आभार..
Deleteबीजेपी को पता होना चाहिये कि मोदी की जगह कौई भी अन्य नाम पर पार्टी की हार ही होगी अभी मोदी के नाम पर ही चुनाव जीता जा सकता है ।
ReplyDeleteहां, ऐसा तो मुझे भी लगता है..
Deleteअपने देश में बुजुर्गो को कब समझ में आएगी.. वानप्रस्थ की परम्परा ?
ReplyDeleteहाहाहा, बिल्कुल समझना चाहिए ..
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