Tuesday 30 August 2011

आधी जीत के मायने....




सच कहूं तो ये एक बड़ा सवाल है। आधी जीत की परिभाषा क्या है। मेरी नजर में तो जीत सिर्फ जीत होती है, आधी या फिर चौथाई कहकर खुद को खुश करने का ये बहाना भर है। मैने पिछले लेख में आपको संसदीय प्रक्रिया की जानकारी देने की कोशिश की थी, जिसमें बताया था कि संसद में किसी विषय पर कैसे चर्चो होती है। पहले तो आप यही जान लें कि शनिवार को जो चर्चा हुई, वो बेमानी है, उसका कोई मतलब ही नहीं है। क्योंकि केंद्रीय वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने संसद में कोई प्रस्ताव नहीं रखा, सिर्फ एक बयान दिया, जिस पर चर्चा तो हुई, पर संसद के किसी नियम के तहत नहीं। लिहाजा चर्चा खत्म होने पर कोई प्रस्ताव स्थाई समिति को नहीं भेजा गया, बल्कि ये कहा गया कि नेताओं ने जो भाषण दिए हैं, वही स्थाई समिति को भेज दी जाए। इसमें कौन सी जीत आपको दिखाई दे रही है।
लोकपाल का बिल ड्राप्ट करना है स्थाई समिति को। उस स्थाई समिति को जिसमें लालू यादव जैसे सांसद भी इसके सदस्य हैं। लालू खुलेआम सिविल सोसाइटी का विरोध कर रहे हैं। इसके अलावा मायावती की पार्टी बहुजन समाज पार्टी ने भी इसका विरोध किया। कई राजनीतिक दलों ने मंत्री के वक्तव्य पर टिप्पणी की और उसमें कई तरह के संशोधन का जिक्र किया। इसके बावजूद सरकार की ओर से कहा गया कि प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास हुआ। मित्रों आप खुद समझ सकते हैं कि सरकार की मंशा क्या है। सच सिर्फ इतना है कि अन्ना के आंदोलन से सरकार ही नहीं विपक्ष की भी मुश्किलें बढ गई थीं और वो किसी भी सूरत में अन्ना का अनशन समाप्त कराना चाहते थे, जिसमें वो कामयाब हो गए।
अन्ना क्या मांग कर रहे थे। वो कह रहे थे कि संसद में जनलोकपाल बिल पेश किया जाए और उसे पास कर 30 अगस्त तक कानून बनाया जाए। उनकी ये बात पूरी नहीं हुई। फिर अन्ना ने 30 अगस्त तक कानून बनाने की बात छोड दी और कहा कि उनके बिल पर संसद में चर्चा की जाए और उस पर मतदान कराया जाए। लेकिन सरकार ने बिना किसी नियम के संसद में महज एक बयान देकर चर्चा की और कोई प्रस्ताव पास नहीं किया। अन्ना ने कहा कि संसद मे सर्वसम्मति से बिल पास हो जाने पर वो अनशन तो तोड़ देगें लेकिन रामलीला मैदान में धरना जारी रहेगा। लेकिन हुआ क्या.. संसद में चर्चा के बाद अन्ना के पास कोई प्रस्ताव भेजने के बजाए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का पत्र लेकर विलासराव देशमुख पहुंचे और अन्ना को अनशन खत्म करना पड़ गया।
सवाल ये है कि अन्ना खुद अपना जनलोकपाल बिल संसद की स्थाई समिति को सौंप आए थे। बाद में प्रधानमंत्री ने भी इसे स्थाई समिति को भेज दिया था। उस दौरान टीम अन्ना से कहा गया कि अब वो अपनी बात स्थाई समिति से करें। लेकिन टीम अन्ना ने उस समय ऐसा नहीं किया। अब नई बात क्या हुई, क्या टीम अन्ना स्थाई समिति से बात नहीं कर रही है। मित्रों संसद में पेश किए जाने वाले किसी भी बिल को स्थाई समिति ही ड्राप्ट करती है। ऐसे में टीम अन्ना किस जीत की बात कर रही है। ये कम से कम मेरे समझ से परे है।
हां इस बात के लिए मैं अन्ना जी को जरूर क्रेडिट देना चाहूंगा कि भ्रष्टाचार जो आज एक गंभीर मुद्दा है, लेकिन इस पर आम जनता खामोश थी, उसमें जान फूंकने का काम किया अन्ना ने। आज जिस तरह से लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ एकजुट हैं, वो आने वाले समय में सिर्फ नेताओं के लिए नहीं, बेईमान अफसरों और कर्मचारियों पर भी लगाम लगाने मे जरूर कामयाब होगा।
इस दौरान एक चौंकाने वाला आरोप लगा अन्ना के अनशन पर। अगर टीम अन्ना ने सरकारी डाक्टरों को अन्ना के चेकअप करने से ना रोका होता तो ये आरोप को सिरे से खारिज किया जा सकता था। लेकिन लालू यादव ने अन्ना और उनके चिकित्सक डा. नरेश त्रेहन को बातों बातों में संदेह के घेरे में खडा कर दिया। उन्होंने यहां तक कहा कि इस पर दुनिया भर के डाक्टरों को रिसर्च करना चाहिए कि 74 साल का बुजुर्ग 12 दिन भूखे रहने के बावजूद किस तरह टनाटन बोल रहा है। वैसे अन्ना इसका जवाब ना देते तो बेहतर था, लेकिन उन्होंने लालू यादव की बात का जवाब दिया कि जिसने 12 बच्चे पैदा किए हों, वो ब्रह्मचर्य जीवन जीने वालों की ताकत को क्या जानेगें। हालाकि इसके बाद जो बात हुई, इससे ये विवाद और गहरा गया। कहा गया कि तो क्या बाबा रामदेव जो छह दिन में ही ढीले पड गए थे, वो ब्रह्मचर्य का जीवन नहीं जी रहे हैं। बहरहाल इस विवाद को यहीं छोड देता हूं, लेकिन इतना सही है कि अन्ना के अनशन पर तो उंगली उठ ही रही है।
इस पूरे प्रकरण में मीडिया की भूमिका पर सवाल खडे़ हो रहे हैं। ये सही है कि मीडिया को अन्ना और उनकी टीम ने खूब सराहा। आम जनता को भी मजा आ रहा था, वो जो कुछ कहना चाहती थी, मीडिया ने उन्हें भरपूर मौका दिया। लेकिन मुझे लगता है कि मीडिया को मंथन करना होगा कि ऐसे मौकों पर क्या जनभावना के साथ उन्हें भी बह जाना चाहिए, या फिर किसी तरह का नियंत्रण जरूरी है। मित्रों आपको बताना चाहता हूं कि मुंबई में जब ताज होटल पर हमला हुआ तो यहां मीडिया ने जिस तरह रिपोर्टिंग की, उससे ताज होटल में मौजूद आतंकी टीवी पर बाहर की सभी गतिविधियों को देख रहे थे, उन्हें पता चल रहा था कि उन्हें घेरने के लिए किस तरह कमांडो कार्रवाई की जा रही है। बाद में मीडिया ने यह कह कर पीछा छुडाने की कोशिश की कि ऐसा हमला पहली बार हुआ है, और हमें जो सतर्कता बरतनी थी वो नहीं बरत सके। देश की इलेक्ट्रानिक मीडिया अभी अपरिपक्व है, लेकिन प्रिंट से बेहतर की उम्मीद थी, पर जनभावना के आगे उन्होंने भी घुटने टेक दिए। दूसरे देशों में इस आंदोलन की तुलना सीरिया, लीबिया और मिश्र के आंदोलनों से की जाने लगी। दुनिया में देश के सम्मान को चोट पहुंचा। मुझे लगता है कि मीडिया आंदोलन की रिपोर्ट देने के बजाए इस आंदोलन की एक महत्वपूर्ण कड़ी बन गई थी। सच ये है कि सरकारी चाल की जानकारी अगर मीडिया ने लोगों को दी होती तो सबको सच्चाई का पता चलता।
इस आंदोलन की सबसे बडी ताकत थी गांधीवादी तरीके से आंदोलन का संचालन। हजारों की भीड लेकिन सब अनुशासन में। लेकिन इस अनुशासन को मंच पर तार तार किया ओमपुरी और किरन बेदी ने। सस्ती लोकप्रियता के लिए किरन बेदी भले ही अपने कृत्य को जायज ठहराएं, लेकिन मैं इसे कत्तई गांधीवादी आंदोलन का हिस्सा नहीं कह सकता। मंच पर इससे फूहड कुछ भी नहीं हो सकता। इसने आंदोलन की गंभीरता को कम किया। बाकी कसर स्वामी अग्निवेश ने पूरी कर दी।
सामाजिक संगठनो ने भी इसमें सही भूमिका नहीं निभाई। सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा राय ने जब मीडिया के सामने लोकपाल पर जब एक अलग बिल आगे बढाया तो ऐसा लगा कि अन्ना के खिलाफ ये एक साजिश है। लोग इसे सरकारी हथकंडा तक बताने लगे। बहरहाल अब स्थाई समिति के सामने ये मेरा बिल ये तेरा बिल करके लोकपाल को लेकर इतने मसौदे आ चुके हैं कि सभी का निस्तारण करने में समिति के हाथ पांव फूल रहे हैं। संवैधानिक मर्यादाओं में बंधी समिति को सभी मसौदों पर चर्चा करना जरूरी है। ऐसे में जाहिर है कि उसे और समय देना हो होगा।
जनलोकपाल बिल में कई ऐसे मुद्दे हैं, जिनका सीधा संबंध राज्य सरकारों से है। ऐसे में बिल पास करने के पहले समिति को ये भी ध्यान रखना होगा कि कहीं राज्य सरकारों की स्वायत्तता का अधिग्रहण ना हो जाए। अगर ऐसा हुआ तो बिल पास हो जाने के बाद राज्य सरकारों को इस बिल पर विधानसभा में भी सहमति बनानी पडेगी। इससे ये खतरा भी बढ सकता है कि कुछ राज्यों में ये कानून लागू हो जाए और कुछ स्थानों पर इसे लागू ना किया जाए।
बहरहाल सच ये है कि भ्रष्टाचार से देशवासी परेशान हैं और इसके लिए सख्त कानून बनना ही चाहिए। लेकिन कहते हैं ना कि वीणा के तार को इतना ना कसें कि तार ही टूट जाए और ना ही इतना ढीला कर दें कि उसमें सुर ही ना निकले। आपको पता है कि कानून से अपराध रुकते नहीं हैं, बल्कि इससे अपराधियों को सजा मिलती है। महात्मा गांधी जी का ही कहना था कि हमारी कोशिश ऐसी होनी चाहिए 99 गुनाहगार भले ही छूट जाएं, पर एक भी बेगुनाह को सजा नहीं मिलनी चाहिए। मुझे लगता है कि दहेज के मामले में बहुत सख्त कानून जरूर बना, पर इसका दुरुपयोग भी सबसे ज्यादा हो रहा है। ऐसे में मुझे भरोसा है कि कानून में गांधी जी की भावना का ध्यान रखा जाएगा और भ्रष्टाचार पर एक सख्त कानून जरूर पास होगा।

Saturday 27 August 2011

दिल्ली दूर है अन्ना जी.....

बेचारे अन्ना बुरे फंस गए। संसदीय प्रक्रिया को वो समझते नहीं और उनकी टीम में जो लोग समझते हैं, उनसे सरकार बात ही नहीं करना चाहती। वैसे तो मेरे पिछले लेख को आप पढें तो मैने साफ कर दिया था कि जिस तरह से ये आंदोलन चलाया जा रहा है, उससे अन्ना को कुछ भी हासिल नहीं हो सकता। अन्ना रामराज्य की बात कर रहे हैं, वो देश को पूरी तरह भ्रष्टाचार मुक्त करने चाहते हैं, लेकिन ये काम जिसे करना है, वो दागदार है। ऐसे में उनसे ज्यादा उम्मीद करनी ही नहीं चाहिए। ठीक उसी तरह जैसे सिविल सोसायटी में अगर अन्ना को छोड़ दें तो बाकी लोगों का दामन भी साफ है, ये पूरे विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता। जहां से आंदोलन शुरु हुआ था, हम वही आज भी वहीं खडे हैं, ये चर्चा पूरी तरह बेमानी है। इसका बिल ड्राप्ट होने में कोई महत्व नहीं है।
बाकी बातें हम बाद में करते रहेंगे, आज बिना भूमिका के मैं ये समझाने की कोशिश करुंगा कि सरकार कैसे मूर्ख बना रही है अन्ना को। अन्ना जी चाहते थे उनके जनलोकपाल बिल को तत्काल संसद में पेश किया जाए, और ना सिर्फ पेश किया जाए, बल्कि उसे पास करके कानून बनाया जाए। इस मामले में सरकार ने उन्हें समझाने की कोशिश की कि एक बिल इस मामले में पेश किया जा चुका है और वो स्थाई समिति के पास है, लिहाजा दूसरा बिल पेश नहीं किया जा सकता। लेकिन ये बात अन्ना टीम को समझ में नहीं आई, फिर सरकार ने माथापच्ची शुरू की।
कई दौर की बातचीत के बाद तय हुआ कि उनके बिल के कुछ खास बिंदुओं को एक प्रस्ताव के रुप में संसद में रखा जाएगा और इस पर चर्चा की जाएगी। अब पेच फंसा कि संसद में किस नियम के तहत ये चर्चा की जाए। सरकार नियम 193 के तहत चर्चा चाहती थी, जिसमें चर्चा के बाद कोई वोटिंग नहीं होती है, सिर्फ एक प्रस्ताव तैयार होता है। विपक्ष इस पर नियम 184 के तरह चर्चा चाहता था, जिसमें चर्चा के बाद वोटिंग होती है, इसके बाद प्रस्ताव स्थाई समिति को भेजा जा सकता है। इस बात को लेकर सरकार और विपक्ष में ठन गई और कहा गया कि ये चर्चा किसी नियम के तहत नहीं होगी। सरकार के मंत्री एक प्रस्ताव लाएंगे और उसी के आधार पर एक प्रस्ताव काम मजमून अन्ना के पास भेज कर उनसे अनशन खत्म करने का आग्रह किया जाएगा। आपको बता दूं कि ऐसी चर्चा आमतौर पर संसद के नियम 342 के तहत होती है, जिसमें संसद की भावना क्या है, इसकी जानकारी की जाती है।
यहां यह बताना जरूरी है कि जब किसी मसले पर एक बिल संसद में पेश किया जा चुका हो, तो उस पर संसद में किसी तरह की चर्चा नहीं की जा सकती। इससे स्थाई समिति जो एक संवैधानिक संस्था है, उसकी गरिमा गिरती है। गरिमा को छोड भी दें तो ऐसे प्रस्ताव का कोई मतलब नहीं है। क्योंकि बिल को अंतिम रूप देने का अधिकार स्थाई समिति को ही है। बहरहाल इस चर्चा से इतना साफ हो गया है कि ज्यादातर लोग जनलोकपाल बिल का समर्थन कर रहे हैं, लेकिन प्रस्ताव का समर्थन करने का यह मतलब कत्तई नहीं की, ये लोकपाल बिल का भी समर्थन करेंगे। यहां एक लाइन मे लालू का जिक्र करना जरूरी है, जो स्थाई समिति के सदस्य हैं। उनका साफ कहना है कि सभी दल संविधान के तहत काम करने की बात कर रहे हैं, लेकिन संविधान के तहत तो यह चर्चा ही नहीं हो सकती।
वैसे सरकार और सिविल सोसायटी दोनों ही जानते हैं कि इस चर्चा का कोई मतलब नहीं है। स्थाई समिति में इससे जु़डे चार बिल और हैं, इसलिए समिति को सभी बिलों को चर्चा के लिए सामने रखना होगा। इसके अलावा स्थाई समिति में आम आदमी भी अपना सुझाव दे सकता है। यहां सभी सुझावों पर गुण दोष के आधार पर फैसला होता है। ऐसे में सदन में की ये चर्चा सिर्फ समय की बर्बादी भर है, इसका कोई मायने नहीं है।
इससे जुडे कुछ और मसलों पर के बारे में आपको बताना चाहता हूं। दरअसल सरकार में शामिल कुछ लोग सरकार के खिलाफ काम कर रहे हैं। इसकी वजह भी आपको मालूम होनी चाहिए। आपको पता है कि सोनिया गांधी गंभीर रुप से बीमार हैं और अमेरिका में इलाज करा रही हैं। जानकार कहते हैं कि तीन चार महीने वो पार्टी के काम में सक्रिय नहीं रह सकती। अपनी अनुपस्थिति में पार्टी का कामकाज चलाने के लिए उन्होंने एक चार सदस्यीय कमेटी बनाई। इसमे राहुल गांधी, जनार्दन द्विवेदी, अहमद पटेल और ए के एंटोनी को शामिल किया है। इस टीम को लेकर सरकार और पार्टी में शामिल तमाम नेता पार्टी से सख्त नाराज हैं।
अन्ना ने जब आंदोलन की धमकी दी तो पहले ही बातचीत करके मसले का कुछ हल निकाला जा सकता था। लेकिन सोनिया की बनाई टीम को लोग उसकी औकात बताना चाहते थे, लिहाजा किसी ने कोई पहल ही नहीं की। जो कोई आगे आया भी तो वो बाबा रामदेव के तर्ज पर अन्ना से भी निपटने का सुझाव देते रहे। वो ऐसे सुझाव देते रहे, जिससे सरकार की किरकिरी हो। इसी के तहत पहले अन्ना को गिरफ्तार कराया गया, सरकार की किरकिरी हुई, फिर अन्ना को छोडने का फरमान सुनाया गया तो सरकार की किरकिरी हुई, अन्ना ने जेल से बाहर आने से इनकार कर दिया, फिर सरकार की किरकिरी हुई। अनशन के लिए जगह देने में जिस तरह का ड्राम सरकार की ओर से किया गया, उससे भी सरकार की किरकिरी हुई। अब सरकार ने संसद में इस मामले में पूरे दिन चर्चा की, लेकिन बिना किसी नियम के हुई इस चर्चा से वो किसे बेवकूफ बना रहे हैं। ये समझ से परे है। सरकार में तो आपस में मतभेद और संवादहीनता रही है है, टीम अन्ना सही तरह से आंदोलन चलाने में नाकाम रही है।
बेचारे अन्ना की अंग्रेजी जानते नहीं और हिंदी कम समझते हैं। टीम अन्ना के सदस्य उन्हें जिस तरह से बात समझाते हैं, वो उन्हें समझ में ही नहीं आती। कई बार देखा गया है कि मंत्रियों से बात कुछ हुई और रामलीला मैदान तक पहुंचते पहुंचते बात कुछ और हो जाती है। हालत ये हुई कि सरकार को अन्ना के नुमाइंदों से किनारा करना पडा और एक ऐसे मंत्री को अन्ना से बात करने की जिम्मेदारी दी गई जो महाराष्ट्र से आते हैं। जिससे अन्ना से सीधे मराठी में बात करके उन्हें समझाया जा सके और उनके चंगू मंगू को दूर किया जा सके। बहरहाल सरकार को ये काम पहले करना चाहिए था, जो उसने बाद में किया। वैसे भी अन्ना की टीम से दो महत्वपूर्ण सदस्य खासे नाराज हैं और वो यहां से जा चुके हैं।
बहरहाल अब अन्ना को एक प्रस्ताव थमाने की तैयारी है और हो सकता है वो अपना अनशन भी समाप्त कर दें। लेकिन मित्रों अन्ना को तीन दिन त उनकी टीम ने सिर्फ अपनी "फेस सेविंग" के लिए भूखा रखा। अन्ना को उस दिन ग्रेसफुल तरीके से अपना अनशन खत्म कर देना चाहिए था, जिस दिन संसद ने उनसे अपील की थी। लेकिन जिस संसद से उन्हें अपने बिल की उम्मीद है, उसकी गरिमा को अन्ना ने तार तार कर दिया।
आज मैं पूछना चाहता हूं अन्ना के नुमाइंदों से उस दिन और आज में अनशन तोडने मे क्या फर्क है। क्या कुछ नया हासिल कर लिया आपने। बिना किसी नियम के हुई इस चर्चा के बाद ये मसला भी स्थाई समिति में ही जाएगा। वहीं से इस बिल को ड्राफ्ट किया जाएगा। अगर बिल को स्थाई समिति से ही ड्राफ्ट होना था, तो ये बात तो प्रधानमंत्री बहुत पहले ही कह चुके थे , आप खुद उनसे मिल कर अपना बिल सौंप चुके थे। फिर इतने दिन अनशन से क्या हासिल हुआ। लेकिन हां आपकी टीम ने बहुत कुछ हासिल किया है, इन्हें कोई नहीं जानता था, अब इन लोगों की इतनी पहचान हो गई है कि वो चुनाव लड़ सकते हैं। अन्ना जी प्लीज अबकी बार आंदोलन शुरु कीजिए, तो पहले जान लीजिए कि हम किसलिए आंदोलन कर रहे हैं, और कहां तक बात माने जाने पर समझौता कर सकते हैं। ये दिल्ली है अन्ना जी और दिल्ली अभी भी आमआदमी से बहुत दूर है।


Wednesday 24 August 2011

संसद पर हमला है ये आंदोलन

दोपहर में एक जरूरी मीटिंग निपटाने के बाद दिल्ली से नोएडा आफिस लौट रहा था। कार संसद भवन के सामने से निकल रही थी, आज ना जाने क्यों मेरी निगाह संसद भवन से हट ही नहीं रही थी, जबकि कार को ड्राईवर संसद भवन से राजपथ पर काफी दूर तक ला चुका था। लेकिन मैं पीछे इसी ऐतिहासिक इमारत को देखता रहा। अचानक मुझे ना जाने क्या हुआ, मैने ड्राईवर से कहा कि इंडिया गेट से वापस मुझे फिर संसद भवन आना है। हालाकि ड्राईवर ने मुझे याद दिलाया कि आपको वैसे ही आफिस पहुंचने में देर हो चुकी है, और आप दोबारा संसद भवन जाने को कह रहे हैं। ये बात याद दिलाते हुए ड्राईवर फिर संसद भवन के करीब पहुंच कर कार रोक दी।
आपको बता दूं कि पिछले पांच छह महीनों को छोड़ दें तो इसके पहले कई साल तक ऐसा शायद ही कोई दिन रहा हो, जब हम अपने पत्रकार मित्रों के साथ एक दो घंटे संसद भवन के सामने विजय चौक पर ना बिताते हों। सच तो ये है कि हम सभी पत्रकार साथी सुबह आफिस निकलने के बाद पूरे दिन जहां कहीं से भी कोई रिपोर्ट कर रहे हों, लंच हम सब यहीं विजय चौक पर साथ ही करते रहे हैं। इसलिए ऐसा भी कुछ नहीं कि मैं पहली बार संसद भवन के सामने से गुजर रहा हूं। खैर पांच सात मिनट यहां ख़ड़े रहने के दौरान मैं फिर गाडी में बैठा और आफिस के लिए रवाना हो गया।
वापस लौटते वक्त सोचता रहा आखिर कितने हमले झेलेगी ये पर्लियामेंट। एक बार 13 दिसंबर 2001 को पांच आतंकी सीमापार हथियारों से लेस होकर यहां घुस आए। वो तो इस संसद को लहुलुहान कर देना चाहते थे और यहां एक ऐसी काली इबारत लिखना चाहते थे, जो धब्बा हम जीवन भर ना भुला सकें। लेकिन हमारे बहादुर सिपाहियों ने उन पांचो को मार गिराया और संसद भवन के भीतर भी घुसने नहीं दिया।
आज 10 साल बाद एक बार फिर संसद पर हमला हो रहा है। आप भले कहें कि ये कोई आतंकी हमला नहीं है। लेकिन मित्रों मैं बताऊं ये उससे भी बड़ा और खतरनाक हमला है। इस हमले में किसी एक व्यक्ति या नेता की हत्या करना मकसद नहीं है। बल्कि इनका मकसद संसदीय परंपराओं और मान्यताओं की हत्या करना है। आज तमाम लोग भावनाओं में बहकर शायद उन पांच आतंकियों को ज्यादा खतरनाक कहें तो हथियार के साथ संसद भवन में घुसे थे, लेकिन मैं उनके मुकाबले सिविल सोसाइटी के पांच लोगों को उनसे ज्यादा खतरनाक मानता हूं। बस दुख तो ये है कि ये सीमापार से नहीं आए हैं, हमारे ही भाई है। लोकतांत्रिक व्यवस्था से भली भांति परिचित भी हैं, फिर भी देश के लोकतंत्र को कमजोर और खत्म करने पर आमादा हैं।
आपको ये जानना जरूरी है कि संसद सदस्य पर ये दबाव नहीं बनाया जा सकता कि वो किस बिल का समर्थन करें और किसका नहीं। ये संवैधानिक अधिकार उन्हें बाबा भीमराव अंबेडकर ने दिया है। अगर उन्हें संसद की किसी कार्रवाई के लिए बाध्य किया जाता है तो यह संसद सदस्य के विशेषाधिकार के उलंघन का मामला बनता है। आज अन्ना जो खुद को गांधी कहे जाने पर गर्व महसूस करते हैं, वो कह रहे हैं कि जो सांसद बिल का समर्थन ना करे, उसके घर के बाहर धरना दो। यहां फिर अन्ना के चेले कहेगें कि सांसद भी तो पैसे लेकर सवाल पूछते हैं, उनका क्या होगा। अरे भाई उन्हें कानून सजा देगा ना। दिल्ली पुलिस ने वोट के बदले नोट कांड में राज्यसभा सदस्य अमर सिंह समेत कई और लोगों के खिलाफ कोर्ट मे चार्जशीट दायर किया है ना। हां आप कह सकते हैं कि इन मामलों के निस्तारण की रफ्तार कम है। इसके लिए स्पेशन कोर्ट बनाकर मामलों की सुनवाई जल्दी की जा सकती है। लेकिन आज सांसदो को मजबूर किया जा रहा है कि वो सिविल सोसाइटी के जनलोकपाल बिल का ही समर्थन करें। वरना उनके घर के बाहर हम हंगामा करेंगे, धरना देंगे।
सिविल सोसायटी घमंड में चूर है। उसे लग रहा है कि आज वो किसी भी तरह का फैसला करा सकते हैं। उनकी भाषा बेअंदाजों जैसी है। उन्हें लग रहा था कि अनशन शुरू होते ही सरकार हिल जाएगी। मंच से चिल्लाने लगे कि सरकार से जो बात होगी वो यहीं रामलीला मैदान के मंच पर होगी। हालत ये हुई कि सरकार ने बात करने से ही इनकार कर दिया। इस पर सभी हैसियत में आ गए। सरकार ने ठीक ढंग से बात की तो कहने लगे, सरकार झुक गई। भूखे अन्ना तो इतने बेलगाम हैं कि उन्होंने सरकार को सीधे धमकी दी कि अगर 30 अगस्त तक बिल पास ना करा पाए तो गद्दी छोडकर जाएं। अन्ना की बात पर हंसी आती है। दरअसल अन्ना जी ने तमाम लडाइयां जरूर लडी हैं, लेकिन वो छोटे स्तर की थी। मुंबई में नगर पालिका के खिलाफ, प्रदेश सरकार के मंत्री के खिलाफ, कुछ अफसरों को लेकर धरना दिया, और वो कामयाब भी हुए हैं। लेकिन अन्ना जी अब आपकी लडाई केंद्र से है। खैर इसमें आपकी भी कोई ज्यादा गल्ती नहीं है। आपकी पढाई तीन दर्जे तक हुई है, आपके साथ जो लोग हैं उनके बारे में सबको पता है।
कहा जा रहा है कि एक भुट्टे को पैदा करने के लिए एक दाने को शहीद होना ही पड़ता है। यानि जब एक बीज जमीन में डाला जाता है, तभी एक पूरा भुट्टा पैदा हो सकता है। तो क्या सिविल सोसाइटी अन्ना जी को शहीद होने का दाना समझ रही है। रामलीला मैदान है, यहां लोग कई साल से तरह तरह की लीलाएं देखने के लिए जमा होते हैं। यह कोई शहीद स्थल तो है नहीं। आपकी लीला भी देश देख रहा है। अन्ना जी आप अपने टीम के मुखौटा हैं। आपके साथी तो आपको मुखौटा बनाकर जंतर मंतर की छोटी मोटी लडाई लड़ना चाहते थे, लेकिन भ्रष्टाचार से परेशान लोग आपके साथ खडे हैं।
प्रधानमंत्री सच्चे आदमी हैं, वो आपकी तरह झूठी बात जनता के सामने नहीं कह सकते। वजह उनकी बातों की और पद की एक मर्यादा है। आप कुछ भी कह सकते हैं। बताइये जिस देश का प्रधानमंत्री कह रहा हो कि भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए उनके पास कोई जादू की छड़ी नहीं है, जो एक दिन में इसे खत्म कर दें। लेकिन अन्ना और टीम जिस तरह से बात कर रही है उससे लगता है कि जनलोकपाल बनते ही भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा।
वैसे सच सिर्फ इतना भर है कि देश में बडी संख्या में सियासी, नौकरशाह और निचले स्तर पर कर्मचारी बेईमान हो गए हैं। इसकी वजह से आम आदमी की मुश्किलें बढ गई हैं। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि 121 करोड़ की आबादी को कानून के दायरे में नहीं बांधा जा सकता। देश में आज किस अपराध के लिए सख्त कानून नहीं है, फिर भी कौन सा अपराध देश में नहीं हो रहा है। मित्रों मुंबई पर हमला करने वाले कसाब को हम सजा नहीं दे पा रहे हैं। संसद पर हमला करने का षडयंत्र करने वाला अफजल गुरू जेल मे वीआईपी सुविधा ले रहा है। और हम चोरों को फांसी देने की बात कर रहे हैं। अन्ना जी सरकार अपराधियों को न्यायालय से मिली सजा पर अमल भर करने लगे, तो लोगों में कानून के प्रति सम्मान और भय पैदा होगा। बडे बडे भ्रष्टाचारी जेल जाने लगें और उनकी संपत्ति जब्त होने लगे, छोटे कर्मचारी तो ऐसे ही रास्ते पर आ जाएंगे।
अन्ना जी प्रधानमंत्री ने आज सर्वदलीय बैठक कर आपकी बातों को उनके सामने रख दिया। सर्वदलीय बैठक ने आपके जनलोकपाल को खारिज कर दिया। लेकिन सभी दलों ने आपके प्रति सम्मान व्यक्त किया है, और सलाह दी है कि आप अनशन खत्म करें। प्लीज अन्ना दादा मैं भी आपकी बातों और तरीके से सहमत नही हूं। आप पहले अनशन खत्म करें, फिर सरकार के साथ बात करके मजबूत बिल बनाने के लिए सरकारी तंत्र के साथ लडाई लडें।

Tuesday 23 August 2011

कृष्णा : ना आना म्हारे देश

मित्रों
काफी दिनों से कुछ ऐसे मुद्दों पर आप लोगों से बात चीत  कर रहा था, जिसमें मैने देखा कि तमाम लोगों की रुचि ही नहीं है। हालत ये हुई लोगों ने मुझे हाशिए पर डाल दिया। मैं आप सभी श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की बधाई देने के साथ ही कविवर डा. सुनील जोगी की एक रचना पढवाता हूं। मुझे पक्का भरोसा है कि आप सभी को ये रचना पसंद आएगी।
लेकिन दोस्तों कल से मैं फिर देश की बातें करुंगा, क्योंकि सच्चाई से आपको रुबरू कराना को मैं अपना नैतिक धर्म समझता हूं, इसके लिए कोई मुझे कांग्रेसी कहता है, कोई पत्रकारिता कैसी होनी चाहिए ये समझाने की कोशिश करता है, लेकिन मैं जानता हूं कि सच वो नहीं है जो आंखो के सामने है, सच वो है जो लोगों के मन मे है।  आइये फिलहाल इस रचना का आनंद लीजिए......

कलयुग में अब ना आना रे प्यारे कृष्ण कन्हैया
तुम बलदाऊ के भाई यहाँ हैं दाउद के भैया।।

दूध दही की जगह पेप्सी, लिम्का कोकाकोला
चक्र सुदर्शन छोड़ के हाथों में लेना हथगोला
 कलयुग में अब. . .।।

गोबर को धन कहने वाले गोबर्धन क्या जानें
रास रचाते पुलिस पकड़ कर ले जाएगी थाने
लेन देन करके फिर छुड़वाएगी जसुमति मैया।
कलयुग में अब. . .।।

नंद बाबा के पास गाय की जगह मिलेंगे कुत्ते
औ कदंब की डार पे होंगे मधुमक्खी के छत्ते
यमुना तट पर बसी झुग्गियों में करना ता थैया।
कलयुग में अब. . .।।

जीन्स और टीशर्ट डालकर डिस्को जाना होगा
वृंदावन को छोड़ क्लबों में रास रचाना होगा
प्यानो पर धुन रटनी होगी मुरली मधुर बजैया।
कलयुग में अब. . .।।

देवकी और वसुदेव बंद होंगे तिहाड़ के अंदर
जेड श्रेणी की लिए सुरक्षा होंगे कंस सिकंदर
तुम्हें उग्रवादी कह करके फसवा देंगे भैया
कलयुग में अब. . .।।

विश्व सुंदरी बनकर फ़िल्में करेंगी राधा रानी
और गोपियाँ हो जाएँगी गोविंदा दीवानी
छोड़के गोकुल औ' मथुरा बनना होगा बंबइया।
कलयुग में अब. . .।।

साड़ी नहीं द्रौपदी की अब जीन्स बढ़ानी होगी
अर्जुन का रथ नहीं मारुति कार चलानी होगी
ईलू-ईलू गाना होगा गीता गान गवैया।
कलयुग में अब. . .।।

आना ही है तो आ जाओ बाद में मत पछताना
कंप्यूटर पर गेम खेलकर अपना दिल बहलाना
दुर्योधन से गठबंधन कर बनना माल पचइया..
कलयुग मे अब ना आना रे........


Friday 19 August 2011

आंदोलन या आराजकता.....


धरा बेच देगें, गगन बेच देगें,
नमन बेच देगें, शरम बेच देगें।
कलम के पुजारी अगर सो गए तो,
वतन के पुजारी, वतन बेच देगें।

बात कहां से शुरू करूं, समझ नहीं पा रहा हूं। दरअसल मैं बताना चाहता हूं कि प्रधानमंत्री के निकम्मे सलाहकारों की वजह से आज देश का लोकतंत्र खतरे में पड़ गया है। मैं मानता हूं कि अन्ना जी का तरीका गलत हो सकता है, लेकिन उनकी मांग पूरी तरह जायज है। देश भर में अन्ना को जिस तरह का समर्थन मिल रहा है, उसके पीछे वजह और कुछ नहीं, सिर्फ सरकारी तंत्र में फैला भ्रष्टाचार है। आज देश में नीचे से ऊपर तक फैले भ्रष्टाचार से लोग उकता गए हैं और अब तो इस तंत्र से बदबू भी आने लगी है। ये जनसैलाब जो सड़कों पर उतरा है, इसके पीछे यही भ्रष्टाचार ठोस वजह है।
इस भीड़ का दुश्मन नंबर एक कौन है ? इस सवाल का सिर्फ एक जवाब है वो है राजनेता। इस सवाल का दूसरा कोई जवाब हो ही नहीं सकता। लोग जब देखते हैं पहला चुनाव लड़ने के दौरान जिस आदमी की हैसियत महज एक 1974 माडल जीप की थी, आज वो कई एकड वाले रिसार्ट, आलीशान बंगला, फरारी, पजीरो और होंडा सिटी कार का मालिक कैसे बन गया। नेताओं के बच्चे कैसे विदेशों में पढाई करने के साथ ही मल्टीनेशनल कंपनी में ऊंचे ओहदे पा गए। हम तो यही सोच कर शांत हो गए कि.....
प्यास ही प्यास है जमाने में, एक बदली कहां कहां बरसे।
ना जाने कौन कौन उसे छलकाएगा, कौन दो घूंट के लिए तरसे।।

लेकिन मित्रों ये सोच लेने भर से हम शांत नहीं हो सकते हैं, क्योंकि हमारी भूख का क्या होगा। रोजी रोटी भी तो जरूरी है। इसके लिए क्या किया जाए। आज करोडों नौजवानों के हाथ पढाई पूरी करने के बाद भी खाली हैं। अगर पढा लिखा नौजवान किसी भी नौकरी के लिए जाता है, तो जिस तरह पैसे की मांग होती है, वो किसी से छिपी नहीं है। जब देश की सीमा की रखवाली करने के लिए हम सेना में भर्ती होने की बात करते हैं और वहां भी पैसे की मांग होती है, तब सच में शर्म आने लगती है भारतीय होने पर। आज नौकरी के लिए केंद्र या राज्य सरकार के किसी भी महकमें में नौजवान आवेदन करता है तो उससे खुलेआम पैसे की मांग की जाती है। तब मै सोचता हूं जो लोग लाखों रुपये रिश्वत देकर नौकरी पाते हैं तो हम उनसे ईमानदारी की उम्मीद कैसे कर सकते हैं। इस मामले को लेकर अगर आप अपने इलाके के सांसद के पास चले गए तो भगवान ही मालिक है। उसके रवैये पर हैरत होती है।
कोई राहत की भीख मांगे, तो आप संगीन तान लेते हैं।
और फौलाद के शिकंजे में, फूल का इंतहान लेते हैं।।
ये बात सच है दोस्तों की इन नेताओं ने रिश्वतखोरी,बेईमानी को न सिर्फ बढावा दिया है, बल्कि ये इसका एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। इसलिए हमारा गुस्सा इनको लेकर जितना भी है वो कम है। बहरहाल इस गंभीर मामले में जब जनता ने आवाज बुलंद की तो उसे चुप कराने का जो तरीका सरकार ने इख्तियार किया, इससे इतना तो साफ है कि ये सत्ता के नशे में चूर हैं। जबकि कांग्रेस को जनता के गुस्से का कई बार पहले भी सामना करना पड़ चुका है। लेकिन कांग्रेस नेता इतिहास से पता नहीं क्यों सबक लेने को तैयार नहीं हैं।
दोस्तों अब दो एक बातें देश के लिए भी कहनी है। पडो़सी देश पाकिस्तान को ले लें, इसकी आज जो दशा है उसकी मुख्य वजह वहां लोकतंत्र का लगभग खात्मा हो चुका है। उसका रिमोट कंट्रोल पूरी तरह अमेरिका के हाथ में है। लोकतंत्र कमजोर होने से नेपाल की अस्थिरता भी किसी से छिपी नहीं है। आज अन्ना का आंदोलन भी कहीं ना कहीं लोकतंत्र के लिए सबसे बडा खतरा है। संसद की सर्वोच्चता किसी भी सूरत में बरकरार रखनी ही होगी।
मैं ही नहीं टीम अन्ना भी जानती है कि उनके आंदोलन का कोई नतीजा नहीं निकलने वाला है। मैं आज ही बता देता हूं कि आंदोलन के दवाब में सरकार सिविल सोसाइटी के जनलोकपाल के मसौदे को संसद में किसी रूप में पेश कर सकती है। फिर ये मसौदा संसद की स्थाई समिति में जाएगा। वहां दोबारा सिविल सोसाइटी को अपनी बात रखने का मौका मिल सकता है। आप जानते हैं कि स्थाई समिति में सभी दलों के नेता हैं, इसलिए यहां से भी सिविल सोसायटी को ज्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिए। बहरहाल स्थाई समिति अगर इसे मान भी लेती है और ये मसौदा कैबिनेट से होता हुआ संसद में आएगा तो यहां उसकी वही हश्र होने वाला है जो महिला आरक्षण विल का हो रहा है।
आइए अन्ना की तर्ज पर हुए कुछ पुराने लेकिन बडे आंदोलनों की चर्चा कर लें। पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी की नीतियों और इमरजेंसी के खिलाफ लोकनायक जयप्रकाश ने आंदोलन का बिगुल फूंका। रामलीला मैदान की तरह ही पटना के गांधी मैदान में भी हजारों लोग जुटे। जेपी ने जनता पार्टी का गठन कर सरकार का विकल्प खडा किया, लेकिन बाद में जनता पार्टी के जितने नेता थे, उतनी पार्टी बन गई। ये आंदोलन बिखर गया और एक बार फिर सत्ता कांग्रेस के हाथ में आ गई।
दूसरा आंदोलन पूर्व प्रधानमंत्री स्व वीपी सिंह ने खडा़ किया। बोफोर्स घोटाले और मंडल कमीशन को लेकर आवाज बुलंद कर राजीव गांधी को सत्ता से बाहर करने के बाद बी पी सिंह भी ज्यादा कुछ नहीं कर पाए। ना बोफोर्स में भ्रष्टाचार साबित कर पाए और ना ही मंडल कमीशन को लेकर ऐसा कुछ कर पाने में कामयाब हुए, जिससे लोगों की तकदीर बदल गई हो। हां वीपी सिंह खुद जरूर राजनीति के हाशिए पर आ गए।
तीसरा बडा आंदोलन हमने राम मंदिर के लिए देखा। इसके जरिए भारतीय जनता पार्टी एक बार केंद्र में और एक बार उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने में भले कामयाब हो गई हो, लेकिन बाबरी मस्जिद ढहाने का जो धब्बा इस आंदोलन से देश पर लगा, उससे दुनिया भर में देश की किरकिरी हुई। आज बीजेपी कहां है, किसी से छिपा नहीं है।
मैं नहीं कहता कि जनता को अपनी आवाज उठाने का हक नहीं है, जरूर उठाना चाहिए। लेकिन हमें ये भी देखना है कि कहीं संवैधानिक संस्थाओं का अस्तित्व खतरे में ना पड़ जाए। मैं फिर दावे के साथ कहता हूं कि भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिए हमारे पास कानून की कमी नहीं है। उसका कड़ाई से पालन भर किया जाए तो बहुत कुछ समस्या का समाधान हो सकता है। तमाम बडे बडे नेताओं को भ्रष्टाचार के मामले में जेल की हवा खानी पड़ चुकी है। आज भी कई नेता जेल में हैं। सैकडो आईएएस और आईपीएस अफसर भ्रष्टाचार के मामले में पकडे जा चुके हैं। लेकिन कानून का पालन ही ना हो, तो लोकपाल बन जाने से भी कुछ नहीं होने वाला है।
मैं जानना चाहता हूं किस कानून में लिखा है कि आतंकवादी अफजल गुरु को सुप्रीम कोर्ट से फांसी की सजा सुनाए जाने के पांच साल बाद तक उसका मामला गृहमंत्रालय में सिर्फ इसलिए लटकाए रखा जाए, हमें एक खास तपके का वोट चाहिए। मुंबई हमले के आरोपी कसाब को वीआईपी सुविधाएं दी जाएं। आतंकवादियों के खिलाफ सख्त और जल्दी कार्रवाई के लिए बने पोटा कानून को इसी कांग्रेस की सरकार ने खत्म कर दिया। सिविल सोसाइटी क्यों नहीं इस मामले में सरकार से जवाब मांग रही है।
मुझे इस बात पर भी आपत्ति है कि इस आंदोलन को आजादी की दूसरी लडाई कहा जाए। समझ लीजिए ये कह कर हम आजादी के लिए दी गई कुर्बानी और शहीद हुए लोगों को गाली दे रहे हैं। अन्ना खुद को गांधी कहे जाने पर गर्व जरूर महसूस करें, लेकिन मैं उन्हें गांधीवादी तो कह सकता हूं, पर दूसरा गांधी नहीं। जो लोग उन्हें दूसरा गांधी बोल रहे हैं, वो पहले गांधी को गाली दे रहे हैं। मुझे लगता है कि ये जिम्मेदारी अन्ना की है कि लोगों उन्हें दूसरा गांधी कहने से रोकें। बहरहाल मैं तो इस आंदोलन को आंदोलन कम आराजकता ज्यादा मानता हूं।
गणपति बप्पा मोरिया, गणपति बप्पा मोरिया।
राजघाट में गांधी बाबा सुबुक-सुबुक के रो रिया।।








Tuesday 16 August 2011

चिठ्ठी: अन्ना दादा के नाम....


अन्ना दा,
सादर प्रणाम
दादा जी उम्मीद है आपका गांव तो खुशहाल होगा, यहां दिल्ली में आपकी वजह से दम घुट रहा है। सड़कों पर चलना मुश्किल हो गया है। हालत ये है कि 15 मिनट का रास्ता दो घंटे में भी पूरा हो जाए तो गनीमत है। दादा जी इस बार बच्चों का बहुत मन था कि वो 15 अगस्त को दिल्ली के लाल किला पहुंचे और वहां आजादी का जश्न मनाएं। इसके लिए उन्होंने बहुत तैयारी भी कर रखी थी,  लेकिन सुबह से ही टीवी पर आप और आपके समर्थकों का हो हल्ला देखकर हिम्मत नहीं पड़ी कि घर से बाहर निकलें। पहले तो बच्चों को  बुरा लगा, लेकिन कोई बात नहीं मैने उनके लिए मैकडोनाल्ड से पिज्जा मंगवा लिया था, इसलिए उन्हें झंडारोहण न देख पाने का कोई मलाल नहीं है। हां एक बात और बच्चों से वादा किया था कि शाम को दिल्ली में अच्छी रोशनी होती है, वो देखने चलेंगे। पर आजादी वाले दिन आपने रात को घर की बत्ती बंद रखने की अपील कर ये मुश्किल भी आसान कर दी। बच्चों को बताया कि अन्ना दादा ने रात में पूरे घंटे भर बिजली बंद रखने को कहा है, अंधेरे में तो दिल्ली में कुछ भी हो सकता है। बस बच्चे डर गए और उन्होंने खुद ही मना कर दिया घर से बाहर जाने के लिए।
दादा आप जानते हैं कि स्वतंत्रता दिवस देश का राष्ट्रीय पर्व है। आज के दिन और कुछ हो ना हो,  पर  इस दिन हम शहीदों को याद तो करते हैं, और उन्हें सम्मान देते हैं। लेकिन आपने शहीदों का ये हक भी छीन लिया। कल पूरे दिन लोग टीवी पर आपको ही तरह तरह की मुद्रा में देखते रहे। आप तो जानते ही हैं कि आजकल टीवी पर वैसे भी शहीदों के लिए कोई समय नहीं रह गया है। एक मौका था, जब शहीदों के बारे में बच्चे कुछ जान पाते तो वो मौका भी  आपने छीन लिया। दादा देश आपको आपको गांधी कह रहा है, इसलिए आपकी जिम्मेदारी कहीं ज्यादा बढ गई है, क्योंकि  आपने कुछ भी ऐसा वैसा किया, जो नहीं होना चाहिए तो आपका  कुछ नहीं होगा, हां गांधी के बारे में बच्चों  के बीच  गलत राय बनेगी। पिछले दिनों आपने फांसी देने की बात की, आपने ये भी कहा कि गांधी के रास्ते बात ना बने तो शिवाजी का रास्ता अपनाना होगा। अरे दादा आपको तो पता है कि गांधी जी कहते थे कि कोई एक गाल पर तमाचा मारे तो दूसरा सामने कर दो। पर आप तो कुछ भी बोल रहे हैं। इससे बच्चों में गलत संदेश जा रहा है। गांधी जी तो हर हाल में अंहिसा को मानने वाले थे। दादा कई बार आप जब भाषा की मर्यादा तोडते हैं, उस समय बच्चे पूछते हैं कि गांधी जी भी ऐसे ही बोला करते थे, तो  मेरे पास  कोई जवाब नहीं होता है।
दादा, आपका जीवन बहुत कीमती है, पूरा देश आपको बहुत प्यार करता है। सभी लोग चाहते हैं कि देश में भ्रष्टाचार ना रहे, लोगों को उनका हक मिले। हर आदमी का काम बिना रिश्वत और जल्दी हो। जरा सोचिए द अगर ऐसा हो जाए तो लोगों का जीवन कितना आसान हो जाएगा। लेकिन दादा जी अब मैं कुछ बात आपको बताना चाहता हूं, पर आप अपनी उम्र बताकर ये मत कहिएगा कि आपको सब पता है,  मुझे कुछ भी नहीं सुनना।  सच ये है दादा  कि जब तक आप फौज में थे, तो आप सामान पहुंचाने की जिम्मेदारी निभाते रहे, वहां से आए तो गांव में छोटे से मंदिर में रह कर गांव को दुरुस्त करने में लग गए। कई बार आपका आमना-सामना महाराष्ट्र की सरकार से हो चुका है। भूख हड़ताल तो आपकी एक तरह से आदत हो गई है। दादा आप नाराज मत होना, सच कहूं तो आप आज की दुनियादारी को  नहीं समझ पा रहे हैं। अब हम इतना भ्रष्ट हो चुके हैं कि सुधरने की गुंजाइश नहीं रह गई है।
अन्ना दादा कडुवा सच ये है कि अगर रिश्वत बंद हो जाए, तो सरकारी नौकरी करने के लिए कोई तैयार ही नहीं होगा। प्राईवेट सेक्टर में मैनेजमेंट किए बच्चों को जो वेतन मिलता है, उससे कम वेतन आईएएस, आईपीएस को मिलता है। अन्ना दा आपको तो पता होगा कि ज्यादातर राज्यों में जिले के कलक्टर और पुलिस कप्तान का पद बिकता है। दादा जब कलक्टर और कप्तान की ये हालत है तो और पदों के बारे में क्या कहा जाए। देश में थाने बिकना तो आमबात है। आज बाबू की तनख्वाह से दस गुना उसकी ऊपर की कमाई है। बडे शहरों में अगर अफसर और सरकारी कर्मचारी ईमानदार हो जाएं तो उसका घर चलाना मुश्किल हो जाएगा।
दादा जी अंदर की बात तो ये है कि भ्रष्टाचारियों को फांसी देने की आपकी मांग पूरी हो जाए तो, कम से कम 10 हजार जल्लादों की भर्ती तत्काल करनी होगी, और इन्हें देश भर मैं तैनात करना होगा। इसके बाद हर जिले में कम से कम दो सौ लोगों को अगर रोजाना फांसी पर लटकाया जाए, और ये प्रक्रिया साल भर भी चलती रहे, फिर भी हम देश को सौ फीसदी भ्रष्टाचारियों से मुक्त नहीं कर सकेंगे। दादा ऱिश्वतखोरों की पैठ बहुत गहरी है। जिस देश में मृत्यु प्रमाण पत्र के लिए बाबू को पैसे देने पडें, जिस मुल्क में शहीदों के लिए खरीदे जाने वाले ताबूत में दलाली ली जाती हो, जिस मुल्क में सैनिकों को घटिया किस्म का बुलेट प्रूफ जैकेट देकर सीमा पर मरने के लिए छोड़ दिया जाता हो, जिस देश में डाक्टर चोरी से मरीज की किडनी निकाल लेते हों, जिस देश शहीदों की विधवाओं के लिए बने फ्लैट पर सेना के अफसर और नेता कब्जा जमा लेते हों, उस देश को पूरी तरह  ईमानदार बना देना इतना आसान है क्या।
मैं तो जानता हूं कि आपने कभी ईमानदारी से समझौता नहीं किया। आप तो देश में एक बार फिर रामराज्य की कल्पना कर रहे हैं। आप  जब भी किसी आंदोलन का बिगुल फूंक देते हैं तो पीछे नहीं हटते। लेकिन दादा ये आंदोलन कामयाब हो गया तो मेरे साथ ही करोडों लोगों को बहुत मुश्किल होगी। मेरा तो बड़ा से बडा काम इतनी आसानी से हो जाता है कि पता ही नहीं चलता। सब लोग महीनों पहले ट्रेन में सफर करने के लिए रिजर्वेशन कराते हैं, मुझे तो टीटीई को एक फोन भर करना होता है, उसके बाद सारा इंतजाम वो खुद करता है। हां थोडा पैसा ज्यादा देता हूं। बिजली का बिल जमा करने के लिए मैं आज तक कभी लाइन में नहीं लगा। बिजली विभाग का आदमी खुद ही हर महीने आकर चेक ले जाता है। उसे भी थोडे से पैसे देता हूं, मेरा बिल भी दूसरों के मुकाबले  कम आता है। सरकारी अस्पताल में कितनी भी भीड़ हो, मुझे डाक्टर सबसे पहले देखते हैं, और दवा भी वहीं से मिल जाती है,जबकि वही दवा दूसरे लोगों को  बाहर से खरीदनी पड़ती हैं। दादा टेलीफोन विभाग से भी मुझे कोई दिक्कत नहीं होती है। वो बेचारे थोडे से पैसे लेते हैं, मेरा बिल सिर्फ महीने का किराया भर आता है।
अन्ना दा आपको पता   है मैं जिस भी सरकारी महकमें में जाता हूं, लोग मेरी बहुत इज्जत करते हैं। इसके लिए मुझे ज्यादा कुछ नहीं करना पडता। बस थोडे से पैसे अफसरों से लेकर कर्मचारी तक को देनें पडते हैं, और दीपावली पर कुछ छोटा मोटा गिफ्ट। लेकिन काम  कोई नहीं रुकता। आज हालत ये है कि  दूसरों  का कोई काम रुकता है तो वो भी मेरे पास आते हैं। मेरे एक फोन करने भर से लोगों की मदद हो जाती है, पर दादा अगर रिश्वतखोरी बंद हो गई तो हमारा क्या होगा। मुझे तो अपना भी  कोई काम करने की आदत नहीं है। हमें ही नहीं हमारे जैसे करोडों लोग हैं, जो अपना काम भी खुद से नहीं कर पाते।
हां दादा भूल गया था, आज टीवी पर देखा कि पुलिस ने आपको गिरफ्तार कर लिया और अनशन करने  से रोक दिया। पहले तो  मुझे दिल्ली पुलिस पर थोडा गुस्सा आया, फिर लगा कि ठीक ही है। दिल्ली में शांति तो रहेगी, रास्ता चलना तो थोडा आसान रहेगा। बेवजह का शोर शराबा  बंद रहेगा।
दादा आप जनलोकपाल के चक्कर में ना पडें। आप पुराने जमाने की सोचते हैं। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि 121 करोड की आवादी वाले देश को किसी भी कानून में नहीं बांधा जा सकता। ईमानदारी के लिए लोगों में नैतिकता की जरूरत है और आज देश में कोई नैतिक नहीं रह गया। दादा आप कहते हैं कि अगर जनलोकपाल बन गया तो आधे मंत्री जेल में होगे, ये सुनकर आप हैरत में पड जाएंगे कि अगर ईमानदारी से बेईमानों की पहचना की  गई तो सेना के आधे से ज्यादा बडे अफसरों को जेल भेजना होगा। आज जितनी भ्रष्ट हमारे देश की सेना है, उसका किसी दूसरे महकमें से कोई मुकाबला नहीं है। दादा आपने लोगों से एक हफ्ते की छुट्टी लेकर आंदोलन में शामिल होने को कहा था। सरकार कर्मचारियों ने तो छुट्टी नहीं ली, सब काम पर हैं, पर घर की बाई जरूर छुट्टी चली गई। इसलिए आपको लेकर घर में भी बहुत नाराजगी है।
चलिए दादा अब पत्र बंद करते हैं, आफिस भी जाना है। हां चलते चलते आपको स्व. शरद जोशी जी की दो लाइने पढ़ाना चाहता हूं। वो कहते हैं ना कि सरकार किसी काम के लिए ठोस कदम उठाती है, कदम चूंकि ठोस होते हैं, इसलिए उठ नहीं पाते। देश की बर्बादी के सिर्फ दो कारण हैं, ना आप कुछ कर सकते हैं, ना मैं कुछ कर सकता हूं। होता वही है जो होता रहता है।
दादा प्रणाम।
जेल से बाहर आइये तो मुलाकात होगी।

महेन्द्र श्रीवास्तव

Thursday 11 August 2011

ये कैसी जिद्द है अन्ना दा....


एक संवेदनशील मुद्दे को आगे रख कर आंदोलन खडा करना आसान है, पर उसे समेटना बहुत मुश्किल है, लोगों को सड़क पर लाना आसान है, वापस घर भेजना मुश्किल है, लोगों को एक बार भड़काना तो आसान है, पर भड़के लोगों को समझाना बहुत मुश्किल। देश भर से जिस तरह के संकेत मिल रहे हैं, मुझे पता नहीं क्यों लगता है कि दिल्ली पर ऐसा दाग लगने वाला है, जिसे कई साल तक धोना मुश्किल होगा।
बिना लाग लपेट के कुछ मुद्दों पर चर्चा करना चाहता हूं। पत्रकारिता से जुड़े होने की वजह से अक्सर देश के विभिन्न इलाकों में जाने का अवसर मिलता है। मैं जहां भी जाता हूं,लोगों से एक सवाल जरूर जानने की कोशिश करता हूं कि उनकी सबसे बड़ी समस्या क्या है। जवाब एक ही है दो वक्त की रोटी अब मुश्किल से मिलती है। मंहगाई ने ये हाल कर दिया है कि सुबह खाना खाया तो रात का गायब और रात को मिला तो सुबह नहीं। पता नहीं अन्ना और उनकी टीम को मालूम है या नहीं । पिछड़े इलाकों और ज्यादातर गांवो के लोग हैरान हो जाते हैं, जब उन्हें ये पता चलता है कि शहरों में लोगों के घर में एक रसोई घर अलग से होती है, जहां सिर्फ खाने पीने का इंतजाम होता है। अन्ना जी आप तो गांव से जुडे हैं, आप गांव वालों की असली मुश्किलों से वाकिफ हैं। कुछ ऐसा कीजिए कि गांव वाले भी अपने घर में एक रसोई घर बनाने लगें। ये तब होगा जब उन्हें लगेगा कि हां अब दोनों वक्त खाना बनेगा।
अन्ना जी आप क्या मांग रहे हैं, जनलोकपाल। यानि एक ऐसा कानून जिसमें भ्रष्ट्राचारियों को सख्त और जल्दी सजा मिले। जनलोकपाल में आप प्रधानमंत्री और सर्वोच्च अदालत को भी शामिल करना चाहते हैं। आप अपनी जगह सही हो सकते हैं, लेकिन मुझे लगता है कि सरकारी लोकपाल जिसे आप सड़कों पर फूंकते फिर रहे हैं, वो भी कम नही है। जिस सिविल सोसाइटी की रहनुमाई आप कर रहे हैं, उसमें 95 फीसदी लोग स्थानीय प्रशासन और राज्य सरकार के भ्रष्ट्राचार से परेशान हैं। कानूनगो, नायब तहसीलदार, तहसीलदार, एसडीएम, डीएम और राज्य सरकारों के अफसरों ने इनकी नींद उडा रखी है। पीएमओ के भ्रष्ट्राचार से पांच फीसदी प्रभावित होते हैं और बडे लोग हैं, वो जिस तरह का काम करते हैं, उसे पूरा करने का रास्ता भी निकाल लेते हैं। अन्ना जी अगर सरकारी लोकपाल ही संसद में पास हो जाए तो देश में एक क्रांति आ जाएगी। आप अभी पांच फीसदी लोगों को छोड़ दीजिए, 95 फीसदी को इसी सरकारी लोकपाल से राहत मिल जाएगी।
मै एक उदाहरण देता हूं आपको..। सूचना के अधिकार कानून में पीएमओ समेत कई और मंत्रालयों को इससे अलग रखा गया है, तो क्या आपको लगता है कि सूचना का अधिकार कानून बेकार है। इसमें कोई ताकत नहीं है। इसकी प्रतियां आप फूंकने लगेगें। अन्ना के सहयोगी अरविंद केजरीवाल को कोई जानने वाला नहीं था, आज अगर इनकी पहचान बनी है तो आरटीआई एक्टिविस्ट के नाम से जाने जाते हैं। इसी सूचना के अधिकार के तहत उन्होंने बहुत बडी लडाई लडी। अगर इसी बात को लेकर विवाद खड़ा कर दिया जाता कि आरटीआई के तहत पीएमओ और रक्षा मंत्रालय सभी को शामिल किया जाए, तो क्या होता, एक अच्छा कानून देश में लागू ना हो पाता। अभी इस पर भी विवाद बना रहता।
भीड़ में आप कुछ भी बोलते रहें, उसका कोई मतलब नहीं है। सच ये है कि आपका मुद्दा सही है, पर तरीका गलत है। अन्ना दा ये तो आप भी जानते हैं देश में कोई भी कानून जंतर मंतर या रामलीला मैदान में नहीं बन सकता। इसके लिए तो संसद की ही शरण लेनी होगी। अब आपने पहले तो नेताओं को जंतर मंतर से कुत्तों की तरह खदेड़ दिया। आपने सोचा कि अब तो कानून जंतर मंतर पर ही बन जाएगा। कुछ दिन बाद आप कांग्रेसियों के झांसे में आकर उनके साथ गलबहियां करने लगे। आज आपको ये दिन न देखना पडता अगर आपने थोडा सा सूझ बूझ के साथ काम लिया होता। दादा अन्ना ये महाराष्ट्र नहीं दिल्ली है। यहां राज ठाकरे नहीं, उनके पिता जी बैठे हैं। अगर आपने ड्राप्टिंग कमेटी के गठन के दौरान व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को अलग कर देश हित में सोचा होता तो आज ये हालत ना होती। आपको सिर्फ इतना करना था कि कमेटी में सभी राजनीतिक दलों के नेताओं को प्रतिनिधित्व देने की मांग करते। यहीं सबके पत्ते खुल जाते और आपको एक एक नेता दरवाजे पर मत्था टेकना नहीं पडता।
हम सब आपमें गांधी की तस्वीर देखते हैं। हमने जब देखा कि आप एक भ्रष्ट्र नेता लालू यादव के घर गए और लोकपाल पर समर्थन मांगा, जवाब में उसने पत्रकारों के सामने आपका मजाक बनाया, तो ये अच्छा नहीं लगा। अन्ना जी सच तो ये है कि हमारे देश में पर्याप्त कानून है, बशर्ते उस पर अमल हो। आप देखें कानून की वजह से ही तो ए राजा, सुरेश कलमाडी जेल में है। यहां तक की राजकुमारी की तरह जिंदगी जीने वाली कनिमोझी को भी जेल की सलाखों के पीछे जाना पडा है। बीजेपी के मुख्यमंत्री वी एस यदुरप्पा, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्वाण को भ्रष्टाचार में शामिल होने की वजह से ही कुर्सी छोड़नी पडी।
बहरहाल अब जिस तरह से आप राजनीतिक दलों की तरह लोकपाल को जोकपाल बता रहे हैं। सड़कों पर उसकी प्रतियां फूंक रहे हैं। इससे लगता है कि आप एक राजनीतिक दल की तरह काम कर रहे हैं। इस आंदोलन के पीछे विरोधी दलों का हाथ बताया जाने लगा है। मै मानता हूं कि भ्रष्टाचार गंभीर समस्या बन चुकी है। इसे खत्म होना ही चाहिए। लेकिन अन्ना दा जब हम आतंकवादियों को सजा नहीं दे पा रहे हैं तो भ्रष्टाचारियों को क्या दे पाएंगे। बहरहाल अन्ना जी, मैं जानता हूं कि आपकी बात इतनी आगे बढ चुकी है कि पीछे नहीं हटेंगे। लेकिन मैं ये भी जानता हूं कि इस बार भी आपको सिर्फ भरोसा मिलेगा और आपको ये अनशन खत्म करना ही होगा। सरकार की नीयत भी साफ नहीं है, उसकी पूरी कोशिश होगी कि यहां भीड़ को जमा ना होने दिया जाए। इसके लिए वो किसी भी हद तक जा सकती है।
देश को दो दिन बाद आजादी का जश्न मनाना है। दिल्ली में सरकार की तैयारी स्वतंत्रा दिवस समारोह को कामयाब बनाने की है, आपकी अनशन को कामयाब बनाने की। आतंकवादी खतरे के मद्देनजर पहले ही दिल्ली को अलर्ट पर रखा गया है। संसद का मानसून सत्र चल रहा है, यहां कोई काम नहीं हो पा रहा। आज आपने भी इतने सियासी दलों को अपना विरोधी बना लिया है कि सरकार जनलोकपाल की बात मान भी ले तो उसे संसद में पास कराना मुश्किल होगा। महिला आरक्षण संबधी विधेयक कितने साल से लटका हुआ है। इसे सरकार पास नहीं करा पा रही है। बहरहाल मेरा तो मानना है कि अब ये तथाकथित सिविल सोसायटी भी देश की शांति व्यवस्था के लिए एक बडा खतरा है।

Tuesday 9 August 2011

प्लीज सचिन, अब बस.....


चिन आप महान हैं, वर्ल्ड कप में आपका प्रदर्शन बेमिसाल रहा है। आपके इस योगदान को देशवासी कभी नहीं भूल सकते। आपको भारत रत्न मिलना ही चाहिए, आपको अब तक के 21 साल के क्रिकेट कैरियर में भरपूर मौका मिला और आपने हम सबको निराश भी नहीं किया। लेकिन अब बड़ा सवाल ये है कि आखिर कब तक, जवाब यही है सचिन अब बस...। वैसे तो आपके पास इतना समय था कि वर्ल्डकप में ही आप अपने शतकों के शतक को पूरा कर लेते, लेकिन आप नहीं कर पाए। वर्ल्ड कप हाथ में थामना आपका सबसे बड़ा सपना था, वो पूरा हो गया। अब दूसरों को मौका दीजिए। 121 करोड़ की आबादी वाले इस देश में नए सचिन की तलाश करने और नया सचिन बनाने में अपना योगदान दीजिए। 4 करोड़ की आबादी वाले देश ऑस्ट्रेलिया और दो करोड़ की आबादी वाले श्रीलंका से हमें नसीहत लेने की जरूरत है। जहां एक से बढ़कर एक खिलाड़ी देश का नेतृत्व कर रहे हैं।
देखिए पूर्व कप्तान सुनील गावास्कर का मानना है कि आपको ऐसे समय में संन्यास ले लेना चाहिए, जब लोग आप से पूछें कि अरे ये क्या..आपने सन्यास क्यों ले लिया? ऐसा मौका नहीं देना चाहिए कि लोग खिलाड़ी से सवाल पूछने लगें कि भइया संन्यास कब ले रहे हो। पाकिस्तान के पूर्व कप्तान इमरान खान ने 1992 में वर्ल्ड कप शुरू होने के पहले कह दिया कि ये मेरा आखिरी वर्ल्डकप है। उन्हें उस समय पता भी नहीं था कि पाकिस्तान की टीम फाइनल में पहुंचेगी, जब पाकिस्तान फाइनल में पहुंचा तो एक दिन पहले इमरान ने ऐलान किया कि ये उनका आखिरी वनडे है।
देश में ही नहीं दुनिया भर में ऐसे तमाम उदाहरण है, जब लोगों ने बेहतर फार्म में होने के दौरान खुद को मैदान से बाहर कर लिया। वजह सिर्फ ये कि नौजवानों को मौका मिले। ताजा उदाहरण श्रीलंका के फिरकी गेंदवाज मुथैया मुरलीधरन को ले लें। वो श्रीलंका की वर्ल्ड कप टीम में इसलिए शामिल थे कि उनका प्रदर्शन अभी भी वहां के और स्पिनरों के मुकाबले बेहतर है, लेकिन उन्होंने भी पहले ही ऐलान कर दिया कि ये वर्ल्डकप उनका आखिरी टूर्नामेंट है और उन्होंने टूर्नामेंट खत्म होने के साथ ही एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय मैच को अलविदा कह दिया।
सचिन, कई मैच ऐसे रहे हैं, जिसमें टीम आपके बिना उतरी है और कामयाब भी रही है। अब आपको सोचना है कि उभरते हुए खिलाड़ी को मौका देना है या फिर उनके अवसर को खत्म करना है। वैसे तो आप जानते हैं कि बीसीसीआई और चयनकर्ताओं ने यह कह कर आपको सम्मान दिया है कि आप जब तक चाहें, खेल सकते हैं, साथी खिलाड़ी भी आपको भगवान से कम नहीं मानते। इसलिए आप भी भगवान का धर्म निभाएं और ऐसा फैसला करें जिससे युवाओं और उभरते हुए खिलाड़ियों का रास्ता साफ हो।
सचिन, अगर आप को लगता है कि अगला वर्ल्ड कप भी भारत के हाथ में रहे तो अभी से भारत के 'भविष्य की टीम' की रूपरेखा तैयार करनी होगी। आप को पता है कि गंभीर ओपनर बैट्समैन हैं, पर आपकी वजह से उन्हें नंबर तीन पर खेलना पड़ रहा है। इसी तरह अन्य खिलाड़ियों की भी बैटिंग लाइन पटरी पर नहीं रह पाती है। आपकी वजह से कई बल्लेबाज बाहर बैठने को मजबूर हैं। इसलिए ये अच्छा मौका है कि आप टीम इंडिया के खिलाड़ियों को आशीर्वाद दें और देश के साथ आप भी नए सचिन की तलाश में जुट जाएं।
मै सैल्यूट करता हूं राहुल द्रवि़ड को, जिसने उस समय वन डे और टी 20 से सन्यास लेने का ऐलान कर दिया, जब भारतीय चयन कर्ताओं ने उस पर भरोसा जताया। प्रबंधन को लग रहा है कि इंगलैंड में टीम के प्रदर्शन को राहुल द्रविड के जरिए धारदार बनाया जा सकता है। लेकिन राहुल ने साफ कर दिया कि चूंकि टीम में उनका चयन किया गया है, इसलिए मैंच छोडना संभव नहीं है, लेकिन मैच खेलने के पहले ही उन्होने सन्यास का ऐलान कर ये साफ कर दिया कि अब वे सिर्फ टेस्ट क्रिकेट परही ध्यान केंद्रित करेंगे।
सचिन अब पता नहीं क्यों लगता है कि आप देश के लिए कम अपने लिए ज्यादा सोच रहे हैं। अखबारों और टीवी चैनल पर भी लोगों को सिर्फ आपके शतकों के शतक का इंतजार है। मुझे पता है कि देश और दुनिया में करोडों लोग आपके प्रशंसक हैं। मै भी आपका प्रशंसक हूं, लेकिन मैं देश की कीमत पर आपका प्रशंसक नहीं बन सकता। मुझे लगता है कि भविष्य की टीम को चुनने का वक्त आ गया है। ऐसे में सचिन प्लीज अब बस करो........।

Tuesday 2 August 2011

भारतीय क्रिकेट के बद्तमीज़.......


मित्रों काफी दिनों से सोच रहा था कि ब्लाग जगत में खेलों की चर्चा बहुत ही कम हो रही है, जबकि देश का एक बडा तपका इससे जुड़ा हुआ है। इसलिए खेल और खिलाड़ियों के बारे में भी कुछ बात कर ली जाए। सच कहूं तो हिम्मत नहीं हो रही है, कि पता नहीं इस लेख को कितना समर्थन मिलेगा, लेकिन अब चर्चा करना जरूरी हो गया है, क्योंकि पानी सिर के ऊपर हो चुकाहै। बहरहाल छोटी छोटी सिर्फ दो चार बातें कर लेते हैं। बात खेल की हो तो इसकी शुरुआत क्रिकेट से होती है और क्रिकेट से ही खत्म हो जाती है। इसलिए मैं भी क्रिकेट पर ही ज्यादा बात करूंगा, लेकिन दूसरे खिलाड़ियों को यहां याद करना जरूरी है, जिन्होंने देश का नाम रोशन किया है।बैडमिंटन- सायना नेहवाल, गोपीचंद फुलेला, मुक्केबाजी- विजेन्दर सिंह, कुश्ती, डिस्कस थ्रो- कृष्णा पूनिया, एथलीट- आशीष कुमार, टेनिस- साइना मिर्जा, शूटिंग- गगन नारंग, अभिनव बिन्द्रा के साथ तमाम और लोग भी हैं, जिन्होंने अपने अपने क्षेत्र में देश का नाम रोशन किया है। इनके प्रयासों को मैं सलाम करता हूं।
चलिए अब बात करते हैं भारतीय क्रिक्रेट और उसके बद्तमीज़ों की...। विश्वकप में जब भारत ने जीत हासिल की तो देश ने क्रिकेटरों को सिर पर बैठा लिया और कई दिन तक उनके जयकारे लगाए। क्रिकेटर जहां भी जाते उनके फैंस उन्हें घेर लेते। क्योंकि इस टीम ने देश का नाम रोशन किया था। लेकिन ये क्रिकेटर बद्तमीज़ होते जा रहे हैं। आज हालत ये हो गई है कि पैसे के लिए ये देश के मान सम्मान की भी चिंता नहीं करते। इसके लिए एक हद तक तो बीसीसीआई भी कम जिम्मेदार नहीं है। आइये देश को शर्मशार करने वाली कुछ घटनाओं की याद दिलाते हैं।
पिछले साल खेल में बेहतर प्रदर्शन करने के लिए महेन्द्र सिंह धोनी और हरभजन सिंह को पदमश्री से सम्मानित करने का फैसला किया गया, लेकिन गृह मंत्रालय से मिली जानकारी के मुताबिक धोनी और हरभजन ने राष्ट्रीय सम्मान पद्मश्री लेने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी। इसके बाद भी जब उनको पुरस्कार दिया गया तो वे इसे लेने नहीं पहुंचे। आपको हैरत होगी कि इन दोनों ने इस पुरस्कार को इतना असम्मानित किया कि इन्होंने अपना बायोडाटा तक गृहमंत्रालय को नहीं भेजा। यहां तक कि धोनी ने तीन महीने तक गृहमंत्रालय के फोन का जवाब तक नहीं दिया। सम्मान समारोह के कुछ दिन पहले हरभजन ने एसएमएस किया कि वो पद्मश्री लेने नहीं आ सकते, लेकिन धोनी ने तो आखिरी समय तक कोई जवाब नहीं दिया। गृह मंत्रालय के अधिकारियों ने जब इन दोनों को आठ-दस बार फोन किया तो इनके घरवालों से ये जवाब सुनने को मिला कि वो सो रहे हैं।
धोनी के बारे में एक और जानकारी दे दूं, पिछली बार उन्हें खेल जगत का सर्वोच्च सम्मान राजीव गांधी खेल रत्न अवॉर्ड दिया गया। उस दौरान वे श्रीलंका में सीरीज खेल रहे थे। केंद्र सरकार ने उन्हें ऑफर दिया गया कि यदि वे आने को तैयार हों तो उनके लिए विशेष विमान की व्यवस्था की जा सकती है, लेकिन धोनी से आने से मना कर दिया।
ये तो कुछ पुरानी बातें हैं। अभी टीम इंडिया इंगलैंड में टेस्ट सीरीज खेल रही है। टीम के सम्मान में लंदन में भारतीय उच्चायोग ने एक डिनर पार्टी का आयोजन किया। इसमें इंगलैंड के साथ ही दुनिया के दूसरे देशों के राजदूतों को भी आमंत्रित किया गया था। प्रोटोकाल के अनुसार इस आयोजन मे शामिल होने से कोई इनकार नहीं कर सकता है। लेकिन बेहूदे क्रिकेटरों ने इस आयोजन में शामिल होने से साफ इनकार कर दिया। बाद में पता चला कि उच्चायोग के डिनर में जाने से क्रिकेटरों ने इस लिए इनकार किया कि धोनी की पत्नी के नाम वाले साक्षी फाउंडेशन का एक कार्यक्रम था। इसमें विश्वकप के दौरान जिस बल्ले से धोनी ने खेला था उसकी नीलामी थी। धोनी का बल्ला यहां 71 लाख रुपये में नीलाम हुआ। पैसा जब क्रिकेटरों के लिए देश से बडा हो जाए, तो हमें आपको इस पर जरूर सोचना चाहिए। सच तो ये है कि अगर बीसीसीआई ने समय रहते इन पर लगाम नहीं लगाया तो ये देश की साख को पैरों तले रौंद देंगे।
यहां आपको ये बताना जरूरी है देश का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न खिलाडियों को भी दिया जा सके, इसके लिए संविधान में संशोधन किया जा रहा है। देश भर से मांग उठ रही है कि सचिन तेंदुलकर को ये सम्मान मिलना चाहिए। इसके मद्देनजर सरकार इस सम्मान के प्रावधानों को बदलने भी जा रही है। लेकिन बडा सवाल ये कि क्रिकेट ये बदतमीज देश के सम्मान को कब तक ठोकर मारते रहेंगे।
बात खत्म करूं इसके पहले कल के मैच में हुई भारत की हार की चर्चा जरूरी है। खेल में हार जीत एक सामान्य बात है, होती रहती है, लेकिन इनके हास्यास्पद तर्क से कई सवाल खडे हो जाते हैं। टेस्ट मैंच में हार के बाद धोनी ने कहा कि वेस्टइंडीज के दौरे के बाद उनकी टीम को आराम नहीं मिला, जिसकी वजह से प्रदर्शन निराशाजनक रहा। अब धोनी से कौन पूछे कि विश्व कप के थकान भरे मैच के दो दिन बाद ही आईपीएल खेलने के समय ये शिकायत क्यों नहीं की। क्योंकि यहां उन्हें और खिलाडियों को पैसा दिख रहा था। इतना ही नहीं आईपीएल के बाद वेस्टइंडीज दौरे में तमाम खिलाडियों ने आराम के लिए टीम से नाम वापस ले लिया। अगर इन्हें देश की फिक्र होती तो ऐसा नहीं करते। आईपीएल में तो विरेंद्र सहवाग और गौतम गंभीर घायल होने के वाबजूद खेलते रहे।
खैर अब जरूरी हो गया है कि क्रिकेटरों पर लगाम लगाया जाए, क्योंकि देश के मान सम्मान से समझौता नहीं किया जाना चाहिए, चाहे वो कितना ही बडा खिलाडी क्यों ना हो। समय रहते ऐसा नहीं किया गया तो ये क्रिकेट के बद्तमीज देश की नाक कटवा देगें।