Sunday 31 March 2013

संजय दत्त : अभिनेता या अपराधी !


संजय दत्त ! ऐसा लग रहा है कि संजय दत्त का मामला आज देश की राष्ट्रीय समस्याओं में सबसे बड़ी समस्या है। हर तरफ से विचार आ रहे हैं, राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता, फिल्म देखने वाले, फिल्म न देखने वाले, पूर्व जज, वकील सबके अपने अपने तर्क हैं। सोशल मीडिया में भी जबर्दस्त बहस चल रही है। मेरे एक फेसबुक मित्र ने तो अपनी वाल पर लिखा कि अगर साजिद खान की पिक्चर "हिम्मतवाला" में अजय देवगन की जगह संजय दत्त होते तो अब तक देश की जनता ही उन्हें जेल के अंदर कर आई होती। बहरहाल बहस का मुद्दा ये है कि संजय को सजा हो या माफ कर दिया जाए? हर जगह अपनी टांग फंसा कर सुर्खियों में रहने वाले पूर्व जस्टिस मार्कडेय काटजू ने तो राष्ट्रपति और महाराष्ट्र के राज्यपाल को पत्र भी लिख दिया कि संजय को माफ कर दिया जाए। सच बताऊं तो जिस तरह का माहौल बनाने की कोशिश की जा रही है, उससे तो ऐसा लग रहा है कि कोर्ट ने संजय के साथ बहुत नाइंसाफी की है। मैं तो इतना कनफ्यूज हो गया हूं कि समझ ही नहीं पा रहा हूं कि संजय दत्त को अभिनेता कहूं या फिर अपराधी । ये अलग बात है कि संजय खुद ही गाते रहे हैं कि नायक नहीं खलनायक हूं मैं...।

संजय दत्त के बारे में तो विस्तार से बात करूंगा, लेकिन पहले मैं सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मार्कंडेय काटजू की दो बातें कर लूं। मेरा व्यक्तिगत अनुभव उन्हें लेकर ठीक नहीं है। पहले आपको एक वाकया याद दिला दूं। ये वही काटजू हैं जो कुछ समय पहले टीवी चैनलों पर इसलिए गुर्रा रहे थे कि सदाबहार अभिनेता राजेश खन्ना की मौत को चैनलों ने इतना ज्यादा क्यों दिखाया ? उनका सवाल था कि ऐसा क्या हो गया कि चैनल पूरे दिन राजेश खन्ना को लेकर खबरें दिखातें रहे। हो सकता है कि उनका सवाल उस समय जायज हो। आज काटजू साहब मैं आपसे पूछता हूं कि ऐसा क्या है संजय दत्त में जो आप माफीनामे की पैरवी कर रहे हैं। आप खुद कहते हैं कि मैं फिल्म नहीं देखता, संजय से  आपकी कोई मुलाकात भी नहीं है, किसी ने आप से हमदर्दी की अपील भी नहीं की। फिर आप इसमें कहां से शामिल हो गए ? संजय दत्त के माफीनामे के लिए उनके परिवार के लोग या उनके प्रशंसक अपील करें तो बात समझ में आती है। लेकिन आप प्रशंसक भी नहीं, उसे जानते भी नहीं, लेकिन जहां तहां माफीनामे की चिट्टी ठोंकते चले जा रहे हैं।

मित्रों ! आपने कभी रामलीला देखी है, अगर देखी हो तो याद कीजिए। रामलीला में राम-रावण संवाद चल रहा हो, राम के वनवास का संवाद चल रहा हो, सीता हरण की कहानी चल रही हो या फिर राम को वन से वापस लेने भरत जंगल में आए हों। ऐसे गंभीर संवादों के दौरान भी अगर बाजी मार ले जाता है तो वो है तीन फिट का जोकर। जोकर कभी कुछ बोलकर लोगों में छा जाता है, अगर बोलने को कुछ नहीं रहता है तो अपनी हरकतों से जनता पर छा जाता है। काटजू साहब अन्यथा मत लीजिएगा, पर हर मामले में जब आपका बेतुका बयान आता है तो कसम से मुझे तो रामलीला के उसी तीन फिट के जोकर की याद सताने लगती है। और हां आप तो देश की 90 फीसदी आबादी को भेड़ बकरी के साथ ही ना जाने क्या क्या बोलते हैं। पर जब आपको मैं इसी तरह के बेतुके बयान देते सुनता हूं तो सच बताऊं उसी 90 फीसदी आबादी में आपको सबसे आगे खड़ा पाता हूं। लोकतंत्र में आपको यकीन नहीं है, आप वोट नहीं डालते, क्योंकि इसे बेमानी समझते हैं। फिर उसी बेमानी से चुनी हुई सरकार की कृपा से मिली कुर्सी पर जमें रहने में संकोच नहीं लगता आपको ? खैर एक लाइन कह कर आपकी बात खत्म करुंगा कि " कानून अंधा होता है, ये मैं पढ़ता आया हूं, लेकिन जज भी अंधा होता है ये देख रहा हूं " ।

जब से संजय को सजा सुनाई गई है, उसी दिन से एक खास तबका संजय को दी गई सजा माफ करने की अपील कर रहा है, लेकिन पहले आप उस घटना को याद कीजिए। 12 मार्च 1993 में मुंबई में एक-एक कर 13 धमाके हुए। इसमें 257 लोगों की मौत हो गई और 713 लोग घायल हो गए। इस मामले की सुनवाई के लिए बनी विषेश टाडा कोर्ट ने 12 लोगों को फांसी और 20 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई। टाडा कोर्ट ने नवंबर 2006 में अवैध तरीके से 9 एमएम की पिस्टल और एके-56 राइफल रखने के आरोप में अभिनेता संजय दत्त को 6 साल की सजा सुनाई थी, लेकिन आपराधिक साजिश रचने के आरोप से बरी कर दिया था। संजय 18 महीने जेल में बिता चुके हैं। इस सजा के खिलाफ संजय दत्त की अपील खारिज हो गई और अब उन्हें महीने भर के भीतर जेल जाना होगा। इसी बीच उनकी बाकी सजा को माफ करने की आवाजें उठने लगी हैं, तर्क दिया जा रहा है कि संजय अपराधी नहीं हैं, संजय ने कोई गुनाह नहीं किया है, संजय ने जो कुछ किया है वो नादानी है।

अब बड़ा सवाल ये है कि न्यायालयों में कानून की धाराओं के तहत फैसला होगा या फिर भावनाओं को ऊपर रखा जाएगा। अगर भावनाओं के आधार पर फैसला लिया जाने लगा तो फिर तो कानून का राज खत्म हो जाएगा। वैसे संजय के साथ लोगों की सहानिभूति का मैं भी सम्मान करता हूं, लेकिन लोग उन परिवारों की भावनाओं का सम्मान क्यों नहीं करते, जिनके परिवार का कोई ना कोई सदस्य उस धमाके में मारा गया है। मीडिया में भी संजय को लेकर बहुत बहस चल रही है, मैं कहता हूं कि मीडिया जरा पीड़ित परिवार के घर के बाहर खड़ी हो और वहां से ये आवाज उठाए कि संजय या अन्य किसी की सजा माफ कर दी जानी चाहिए। जस्टिज काटजू से भी मैं ये जानना चाहता हूं कि क्या उनमें ये हिम्मत है कि पीड़ित परिवारों से बात करें कि वो लोग ही संजय की सजा माफी की अपील राष्ट्रपति और गर्वनर से करें।

हालाकि अभी संजय की सजा माफी पर कोई फैसला नहीं हुआ है, लेकिन दूसरे राज्यों में भी इसकी प्रतिक्रिया शुरू हो गई है। पता चला है कि जम्मू-कश्मीर में आर्म्स एक्ट के तहत गिरफ्तार आरोपियों में काफी आक्रोश है। उनका कहना है कि अगर संजय दत्त को एके 56 रखने पर माफी दिए जाने की बात हो सकती है तो कश्मीरी युवकों के मामूली गुनाह पर माफी क्यों नहीं मिल सकती ? आपको बता दें कि जम्मू कश्मीर में कई युवा हैं जो मामूली अपराधों के लिए सलाखों के पीछे हैं और उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। बात चाहे एक पिता के इकलौते बेटे जोत सिंह की ही क्यों न हो जिसे मामूली अपराध के चलते गिरफ्तार कर लिया गया था, इनके बेटे को 2009 में पुलिस ने आर्म्स एक्ट के तहत गिरफ्तार किया है और तब से इसके पिता टूट चुके हैं। वहीं एक दूसरे मामले में 21 साल के रोहित सिंह को 16 साल की उम्र में ही गिरफ्तार कर लिया गया और वो आज तक अदालतों के चक्कर काट रहा है। संजय दत्त का तो अपराध सिद्ध हो चुका है जबकी इन्हें केवल शक के आधार पर गिरफ्तार किया गया है।

आप कहेंगे कि मैं क्या चाहता हूं, संजय के मामले में मेरी क्या राय है ? मेरी राय भी आपसे अलग नहीं है। संजय को माफी मिल जाती है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं। मेरा मानना है कि वैसे भी देश में एक लाख से अधिक अपराधी खुल्ला घूम रहे हैं, संजय की सजा माफ  होने के बाद ये संख्या एक लाख एक हो जाएगी, क्या फर्क पड़ता है। लेकिन सबसे बड़ी मुश्किल कानून के राज की विश्वसनीयता की है। मसलन कोई प्रोडक्ट मार्केट में आता है तो लोग अभिनेता, अभिनेत्रियों या खिलाड़ियों को साथ लेकर उस प्रोडक्ट का प्रचार करते हैं। इसके एवज में ये अभिनेता या खिलाड़ी करोड़ों कमाते हैं। मेरा मानना है कि अगर आर्मस एक्ट के मामले में संजय सजा काटते हैं तो देश में एक संदेश जाएगा कि कानून से ऊपर कोई नहीं है, देश में कानून सबके लिए बराबर है और देश का कानून सख्त भी है। संजय से पूरी हमदर्दी होने के बाद भी मैं यही कहूंगा कि अगर उसकी सजा माफ होती है तो देश में एक गलत संदेश जाएगा, इसके अलावा ये एक नजीर भी बन जाएगी। इसे आधार बनाकर आगे भी लोग सजा माफी की मांग करने लगेंगे।



Tuesday 26 March 2013

"ब्लाग टाइटिल" जोगीरा सररर.... गाने पर लगी रोक !


ज की सबसे बड़ी खबर यही है कि गृह मंत्रालय के अलर्ट के बाद देश के पांच बड़े शहरों दिल्ली, मुंबई,  कोलकता, चेन्नई और बंगलोर में होली से ठीक 24 घंटे पहले यानि मंगलवार (26 मार्च) की रात से जोगीरा... सररर...सररर, जोगीरा... सररर...सररर....सररर...सररर गाने पर रोक लगा दी गई है। इस रोक की कोई वजह नहीं बताई गई है, लेकिन माना जा रहा है कि कानून व्यवस्था को बनाए रखने के लिए ये सख्त कदम उठाया गया है। वैसे तो पुलिस की रोक के बाद इस गाने की सीडी मार्केट से गायब हो जानी चाहिए थी, लेकिन देखा जा रहा है कि सीडी की ना सिर्फ बिक्री बढ़ी है, बल्कि इस सीडी की कालाबाजारी भी शुरू हो गई है। मैं तो बचपन से देखता आ रहा हूं कि जब होली के हुड़दंगियों की टोली निकलती है तो उनके बीच में यही गाना जोगीरा... सररर...सररर, जोगीरा... सररर...सररर....सररर...सररर  सबसे ज्यादा तेज आवाज मे सुनाई देता है, जबकि सच्चाई ये है कि मुझे आज तक इस गाने की पंक्ति का अर्थ समझ में नहीं आया, लेकिन गाया तो मैने भी है। चलिए अगर आपको पता चले कि आखिर ये क्या बला है, जोगीरा... सररर...सररर तो प्लीज मुझे जरूर बताइयेगा।

इस मामले में मैने जब पुलिस से जानने की कोशिश की तो उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा मसला है, हम इस पर कुछ भी नहीं कह सकते। इस मामले में कोई भी जानकारी गृह मंत्रालय से ही लेनी होगी। चूंकि जोगीरा... सररर...सररर....सररर... महज एक गाना नहीं है , ये लोगों के दिलों में बसा हुआ है और लोग इसे बहुत मन से गुनगुनाते हैं। ये सिर्फ हिंदुस्तान में नहीं बल्कि दूसरे देशों में भी जहां भारतीय बसे हैं, वो इसे बहुत ही मन से सुनते हैं। ऐसे में इस पर रोक लगा देना और इसकी कोई वजह ना बताना वाकई हिंदुस्तानियों के मूल अधिकारों का हनन है। इस बात को ध्यान में रखते हुए हम पहुंच गए गृह मंत्रालय। मैने देखा कि गृह मंत्रालय के बाहर बड़ी संख्या में लोग सरकार के खिलाफ नारेबाजी कर रहे हैं। उनकी मांग है कि अगर उन्हें जोगीरा... सररर...सररर....सररर... गाने से रोका गया तो वो घर में बने पकवान को राजपथ पर लाकर इसकी होली जलाएंगे। इस चेतावनी से मंत्रालय में हड़कंप मचा हुआ है।

बहरहाल देश में भारी नाराजगी को देखते हुए गृहमंत्रालय ने तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, केरल, उड़ीसा, कर्नाटक, त्रिपुरा, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम, मणिपुर राज्यों से इस प्रतिबंध को हटा लिया है। अब इन प्रदेशों में लोग पहले की तरह ही इस गाने को गा सकेंगे। सरकार ने साफ कर दिया है कि उत्तर भारत खासतौर पर दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और मुंबई में तो इसे गाने की इजाजत  किसी कीमत पर नहीं दी जा सकती। पता चला है कि पिछले  साल कुछ लोगों ने 10 जनपथ के बाहर
ये गाना गा दिया था, इसके बाद से ही ये गाना और गायक दोनों सरकार की निगाह मे आ गए। जानकार तो यहां तक कहते हैं कि दस जनपथ के बाहर गाए गए इस गाने से सोनिया जी काफी ज्यादा नाराज थीं। बाद में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की बैठक में कुछ महत्वपूर्ण फैसला लिया गया और उसकी जानकारी मैडम को दी गई। कहा गया कि अब होली के एक दिन पहले इस गाने पर ही रोक लगा दिया जाएगा। बहरहाल मैडम का गुस्सा देख दस जनपथ के बाहर स्कूली बच्चों से आधे घंटे तक..

ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार
हाऊ आर वंडर व्हाट यू आर ।

गाया गया। तब कहीं जाकर सोनिया जी सामान्य हुईं। हालाकि इसकी राजनीतिक हल्कों में काफी तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है। गाने पर रोक लगाने का आदेश देकर अपने प्रधानमंत्री तो डरबन चले गए। कहा तो ये जा रहा है कि उन्हें भी डर था कि कहीं इस बार उनके घर के बाह लोग ये गाना ना गाने लगें। इसीलिए वो होली के पहले निकल गए। वैसे पता चला है कि उनके साथ गए एक अफसर के बैग में इस गाने की सीडी बरामद हुई है। सीडी प्रकरण को प्रधानमंत्री ने बहुत गंभीरता से लिया है। उन्होंने सुरक्षा अधिकारियों से कहा कि अगर वो हमारे हवाई जहाज की सुरक्षा में इतनी लापरवाही कर रहे हैं तो देश की सुरक्षा में कितनी करते होंगे? बहरहाल इस अधिकारी को प्रधानमंत्री के साथ गई टीम से निकाल दिया गया है और उसे स्वदेश वापस भेजा जा रहा है, जबकि सीडी को नष्ट कर दिया गया है।

इस बीच राजेडी सुप्रीमों लालू यादव, समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव दिल्ली में डेरा डाले हुए हैं, उनकी मांग है कि जब तक जोगीरा... सररर...सररर....सररर... गाने पर लगी  रोक नहीं हटती है वो अपने प्रदेश वापस नहीं जाएंगे। लालू ने सरकार पर आरोप लगाया है कि एक साजिश तहत उत्तर भारत के इस लोकप्रिय गाने को दूसरे प्रदेशों को सौंपा जा रहा है। बहरहाल ये मामला आसानी से सुलझता नजर नहीं आ रहा है। इस बीच रेलमंत्री ने साफ किया है कि अगर लोगो को ये गाना इतना ही प्रिय है तो वो कुछ स्पेशल ट्रेन दक्षिण भारत के लिए चला देते हैं, लोग वहां जाकर इस गाने के साथ होली मनाएं। अभी ये मामला सुलझा भी नहीं था कि सूचना प्रसारण मंत्रालय के एक और नोटिफिकेशन से बवाल खड़ा हो गया है। बताया गया है कि कुछ नामचीन ब्लागों को लेकर मंत्रालय ने आपत्तिजनक  टिप्पणी की है। ब्लागर्स इससे काफी खफा हैं। इसकी एक कापी मेरे हाथ लग गई है, देखिए आप भी।

उच्चारण क्या दिक्कत है ठीक कर सकते हैं ।

मेरी भावनाएं हो सके तो डायरी में लिखें।

जख्म जो फूलों ने दिए ठीक हुआ या नहीं।

दुनिया रंग रगीली  ओह ! तो  ?

चला बिहारी ब्लागर बनने पहुंचा या नही ?

यादें अब तो भूल जाइये।

उडन तस्वरी जमीन पर कब आएगी ?

कासे कहूं हे भगवान ! खत्म नहीं हुई तलाश ?

पहली बार तो ठीक है, पर कितनी बार !

बुरांस के फूल से भला क्या, गले लगाएं।

अहसास बेमानी है।

न दैन्यं न पलायनम् बोले तो बेमानी है !

कुछ दिल से और बाकी ?

गाफिल की अमानत बोले तो अमानती सामान गृह।

अपनों का साथ यानि यादों की बारात ।

झरोखा कहां रहा, अब तक खिड़की बन गई।

कौशल दिखेगा कब ?

मैं और मेरी कविताएं और दूसरे ब्लाग पर दूसरों की।

ठाले बैठे हैं तो कुछ काम करो भाई...

जाले साफ करना जरूरी है।

हथकड़ से बचकर।

एक ब्लाग सबका सच में !

भारतीय नारी जरा  बच के !

पढ़ते-पढ़ते भी कहां पहुंचे ?

अपनी उनकी सबकी बातें यानि ग्राम पंचायत

सरोकार नहीं- नहीं सरकार !

परवाज.. शब्दों के पंख संभालना भी जरूरी

उल्टा तीर चूक गए निशाना !

मन के मन के मन चंगा तो कठौती में गंगा !

बातें कुछ दिल की कुछ जग की बेमानी है !

सुनहरी कलम से कभी ब्लाग ना लिखें

स्वप्न मेरे हकीकत क्यों नहीं हो जाते !

ताऊजी डॉट कॉम से परेशान ताईजी डॉट इन !

मग्गा बाबा का चिट्ठाश्रम से मग्गा गायब !

ताऊ डाट इन नजरबंद ।

ब्लॉग जगत के लोकप्रिय ब्लोगर्स कहां गए वो लोग !

Paradise बोले तो अब कच्चा लोहा !

मेरे गीत ! तेरे बिन सूने

My Expression बेमानी  है !

HINDI KAVITAYEN, AAPKE VICHAAR कंधे पर हल लिए किसान !

बूँद..बूँद...लम्हे.... जाया होने से बचाएं ।

अभिव्यंजना बूझो तो जानें !


बहरहाल पहली बार देख रहा हूं कि होली के ठीक पहले देश में इतना तनाव है। खासतौर पर ब्लागर्स तो सरकार के फैसले और उसकी टिप्पणी को लेकर बहुत खफा है। पता चला है कि ब्लागर्स की नाराजगी की जानकारी गृह मंत्रालय और सूचना प्रसारण मंत्रालय हो गई है। इसके बाद मंत्रालय ने  अपने नए नोटिफिकेशन में कहा है कि कोई भी "बुरा ना माने होली है" । लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि आप इस नोटिफिकेशन को पढ़कर उछल जाएं और गाने लगें जोगीरा सररर सररर सरर..... ।



नोट : इसी ब्लाग पर चर्चा मंच, वटवृक्ष, ब्लाग4वार्ता पर चली कैंची पढ़ना बिल्कुल ना भूंले। चलिए जी कोई बात नहीं मैं आपको उसका लिंक भी दे देता हूं।  http://aadhasachonline.blogspot.in/2013/03/4.html








Sunday 24 March 2013

चर्चामंच, वटवृक्ष, ब्लाग4वार्ता पर चली कैंची !


सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए भारत सरकार ने इस पर नकेल कसनी शुरू कर दी है, अगर सरकार की चली तो ब्लाग पर होने वाली अनियमितता तो खत्म होगी ही, साथ ही ब्लागर्स को उनका हक भी ईमानदारी से मिल सकेगा। फिलहाल सरकार ने इसकी शुरुआत चर्चामंच से की है। मंच के कर्ताधर्ता डा. रुपचंद्र शास्त्री पर तमाम गंभीर आरोप लगाते हुए उन्हें मंच के संरक्षक, संस्थापक पद से हटाने के साथ ही साफ कर दिया है कि अब 30 दिन तक उनकी कोई तस्वीर मंच पर नहीं प्रकाशित होगी। इसके अलावा उनकी कविता, कहानी को सप्ताह में सिर्फ एक बार ही मंच पर जगह दी जा सकती है। सरकार की टेढ़ी नजर वटवृक्ष में अहम भूमिका निभा रहीं रश्मि प्रभा पर भी है। पता चला है कि वटवृक्ष पर कविताओं के प्रकाशन में भेदभाव किया गया है, इसलिए जितने भी लोगों की रचनाएं यहां प्रकाशित हुई है, सभी पर आर्थिक दंड लगाया गया है। इसके लिए वटवृक्ष के प्रबंधकों और संपादक को महीने भर का समय दिया गया है। कहा गया है कि दंड की वसूली कर इस पैसे से ब्लागरों को लैपटाप बांटे, और इसकी जानकारी सूचना प्रसारण मंत्रालय को भी दें। सरकार के निशाने पर ब्लाग 4 वार्ता भी है, आदेश में कहा गया है कि वार्ता के रखरखाव को और दुरुस्त करने के साथ ही इसके प्रमोटर ललित शर्मा 15 दिन के भीतर अपनी मूंछे पतली करें और नई तस्वीर मंत्रालय को भेजने के साथ ही ब्लाग पर भी पोस्ट करें । और हां ये तो बताना ही भूल गया है कि पिछले साल बांटे गए "ब्लाग सम्मान" को भी सरकार ने खारिज कर दिया है और समारोह के मुख्य आयोजक रवीन्द्र प्रभात से कहा गया है कि वो सभी ब्लागर से सप्ताह भर के भीतर सम्मान पत्र वापस लेकर उस पर लिखे नाम को मिटाकर  खाली सम्मान पत्र मंत्रालय में जमा करें। जो लोग इस आयोजन में बाहर से आए थे, उन्हें आने-जाने का किराया भी प्रभात को देना होगा।


दरअसल पिछले कुछ समय से देखा जा रहा है कि देश में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में सोशल मीडिया का प्रभाव बढ़ रहा है। इस लिए दुनिया भर में सोशल मीडिया पर नकेल कसने की साजिश की जा रही है। देश में भी सरकार के तमाम नेताओं के बारे में टिप्पणी और कार्टून से सरकार की छवि पर धब्बा लगा है। इसी से नाराज सरकार ने महीने भर का खास अभियान चलाकर ब्लाग पर लगाई जा रही पोस्ट की गहन समीक्षा की है। समीक्षा में सबसे पहले उन ब्लाग्स को निशाने पर लिया गया है जिनके फालोवर की संख्या चार सौ से ज्यादा है। इस समीक्षा में कई बातों का ध्यान रखा गया है। मसलन तमाम महिला ब्लागरों के ब्लाग्स को देखा गया है, जिन पर कमेंट की संख्या बहुत ज्यादा हैं, जबकि उनके लेखन में कोई खास वजन नहीं है। छानबीन हुई तो पता चला कि इन महिलाओं ने अपने लेख, कविता, कहानी में उतना ध्यान नहीं है, जितना ध्यान अपनी तस्वीर को खूबसूरत बनाने में दिया है। इन महिलाओं को आदेश दिया गया है कि वो 10 दिन के भीतर अपने ब्लाग पर वो तस्वीर लगाएं जो तस्वीर उनके मतदाता पहचान पत्र में है। सरकार का मानना है कि महिलाएं अगर अपने लेख से फालोअर की संख्या बढाती हैं तो कोई हर्ज नहीं है, लेकिन तस्वीरों के जरिए उन्हें ऐसा नहीं करने दिया जा सकता। इससे अच्छे लेखकों में गलत संदेश जाता है और जो पुरुष सही तरह से हिंदी और साहित्य की सेवा कर रहे हैं, वो हतोत्साहित भी होते हैं। इस गलत प्रैक्टिस पर जरूर रोक लगेगी और महिलाओं को 10 दिन में मतदाता पहचान पत्र वाली तस्वीर को ब्लाग पर लगाना ही होगा।


सरकार के इस आदेश के बाद महिला ब्लागर्स में तीखी प्रतिक्रिया हुई है। इस आदेश के बाद तमाम महिलाओं ने अपने  ब्लाग को ही ब्लाक कर दिया है। उनका कहना है कि सरकार की ऐसी कार्रवाई महिला अधिकारों का हनन है। तस्वीरों को बदलने का ये मुद्दा दिल्ली में गरमाता जा रहा है, पता चला है कि कुछ महिला ब्लागरों ने सुश्री मायावती से मुलाकात की और कहाकि वो इस मामले को संसद मे उठाएं और ब्लाग पर महिलाएं कौन सी तस्वीर लगाएं, ये अधिकार महिलाओं के पास ही रहना चाहिए। हालाकि पता चला है कि मायावती ने महिलाओं को वापस भेज दिया और कहाकि वो सरकार के फैसले के साथ हैं। नाराज महिलाएं अब इस मसले को महिला आयोग में ले जाने की तैयारी कर रही हैं। सूत्र बताते हैं कि सरकार ने ये कार्रवाई कुछ पुरुष ब्लागर्स की शिकायत पर की है। पुरूषों की शिकायत थी कि वो इतने दिनों से लिख रहे हैं लेकिन उनके फालोअर की संख्या नहीं बढ़ रही है, जबकि महिलाएं कमेंट और फालोअर की संख्या दोनों में बाजी मार ले जा रही हैं। शिकायत तो ये भी की गई है कि कई महिलाओं ने स्कूल कालेज के समय की तस्वीर ब्लाग पर लगा रखीं है। इन्हीं शिकायतों के आधार पर मंत्रालय ने ये सख्त कार्रवाई की है। मंत्रालय इस पर भी विचार कर रहा है कि महिलाओं की तस्वीर में "ड्रेसकोड" बना दिया जाए, यानि ब्लाग पर  रंगबिरंगे कपड़ों के बजाए नीली साड़ी वाली तस्वीर ही डाली जा सकेगी। वैसे अभी इस पर अंतिम फैसला नहीं लिया गया है। सरकार का एक और फैसला महिलाओं के गले नहीं उतर रहा है। जिसमें कहा गया है कि अब महिलाओं को अपने नाम के साथ ही अपना स्टे्टस भी साफ-साफ लिखना जरूरी होगा। उदाहरण के लिए अब प्रोफाइल पर नाम ऐसे लिखा जाएगा। मीरा कुमारी ( शादीशुदा, दो बच्चे ) । महिलाएं इस फैसले से तो बहुत ज्यादा ही नाराज हैं, उनका मानना है कि ये उनका निजी मामला है, इसे सार्वजनिक करने की बाध्यता नहीं होनी चाहिए।


एक और बड़े फैसले से महिलाएं खफा हैं। महिला ब्लागरों के किताब लिखने पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी गई है। इसकी वजह घरेलू हिंसा बताई गई है। सरकार की जानकारी में कुछ  पीड़ित पतियों के जरिए एक बात सामने लाई गई है। जिसमें महंगाई का हवाला देते हुए कहा गया है कि पतियों की इतनी कमाई नहीं है कि वो अपनी पत्नी की तीन चार कविताएं किसी पुस्तक में छपवाने के एवज में दो से तीन हजार रुपये चंदे में दे सकें। इसे लेकर घर में झगड़े शुरू हो गए हैं। इस मामले में कुछ प्रकाशकों का नाम सामने आया है, जो बेचारी सीधी साधी महिलाओं को बहला फुसलाकर संपादक बनाने के लिए अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। महिलाओं को समझाया जाता है कि संपादक के नाम की जगह आपका नाम प्रकाशित होगा, आपको महज अपनी 25-30 सहेलियों से तीन तीन हजार रुपये और उनकी कुछ कविताओं का जुगाड़ करना होगा। बस महिलाएं इसी बहकावे में आ जाती हैं और घर में झगड़े शुरू हो जाते हैं। वैसे भी जो किताबें छापी जा रही हैं, उसे कोई पूछ नहीं रहा है। ऐसे में अब तय हुआ है कि आगे से  वही किताबें प्रकाशित हो सकेंगी, जिसके लिए लेखक पहले खरीददारों की सूची सरकार को सौंपेगे। सभी खरीददारों से एक प्रमाणपत्र भी लेना होगा कि वो अपनी मर्जी से ये किताब खरीद रहे हैं, उनके किताब खरीदने से उनके घर के बजट पर कोई प्रभाव नहीं पडेगा। इस प्रमाणपत्र में पूरे परिवार का हस्ताक्षर जरूरी होगा।


सरकार ने अगर अपने रुख को नरम नहीं किया तो सबसे मुश्किल "चर्चा मंच"  और उसके संस्थापक डा. रुपचंद्र शास्त्री को होने वाली है। दरअसल एक हजार से भी ज्यादा फालोवर देख सरकार की नींद उड़ गई । सरकार को लग रहा है कि अगर मंच पर कब्जा जमा लिया जाए तो सोशल मीडिया को आसानी से कब्जे में किया जा सकता है। मंच की छानबीन शुरू हुई तो पता चला कि हजार फालोवर में कई तो ऐसे हैं जो ब्लागिंग छोड़कर अब दूसरे काम में लग गए हैं। कई साल से उनके ब्लाग पर कुछ लिखा ही नहीं गया है। माफ कीजिएगा पर जांच में ये भी निकल कर आया है कि कुछ ब्लागर तो अब दुनिया में भी नहीं रहे। लेकिन मंच पर सभी फालोवर के तौर पर बरकरार हैं। सरकार ने इसे गंभीरता से लिया है। इसीलिए मंच के कामकाज पर उंगली उठाते हुए कहाकि आज इलेक्ट्रानिक मीडिया में जो हाल दूरदर्शन का हो गया है, कुछ वैसा ही ब्लाग की दुनिया में चर्चामंच का होता जा रहा है। मंच पर कहने को तो एक हजार फालोवर है, लेकिन कमेंट 20-25 पर सिमट जाते हैं। इस बारे में सरकार के सर्वे के नतीजे चौंकाने वाले हैं। कहा गया है कि बेचारे चर्चाकारों को किसी तरह की सुविधा नहीं दी जा रही है, इससे मंच की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है।

अब फैसला लिया गया है कि जितने चर्चाकार है, सभी को दिल्ली में तीन-तीन कमरों का सरकारी आवाज आवंटित किया जाएगा, इसके अलावा उन्हें एक मोटर भी दी जाएगी, जिससे उन्हें कहीं भी आने जाने में दिक्कत ना हो। पांच करोड की लागत से मंच का एक कार्यालय भी दिल्ली में बनाया जाएगा, जिसमें दफ्तर के साथ ही गेस्ट हाउस की भी सुविधा होगी। बाहर से आने वाले ब्लागर यहां बिना पैसे दिए रुक सकेंगे। चर्चाकारों को दिल्ली में आवास की सुविधा मिलने से अब मंच से जुड़ने के लिए लोगों की दौड़ शुरू हो गई है। मंत्रालय में चर्चाकारों की ढेर सारी शिकायतें मिल रही हैं। ज्यादातर शिकायतों में चर्चाकारों की समझ पर ही सवाल खड़े किए जा रहे हैं, कहा जा रहा है कि उनकी समझ काफी कम है, अब मंत्रालय की मुश्किल ये है कि यहां समझ नापने का कोई पैमाना तो है नहीं। ऐसे में लगता नहीं कि किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई हो सकेगी। बहरहाल चर्चामंच पर लिंक लगाने के लिए एक "माडल कोड आफ कंडक्ट" बनाया जा रहा है. जिसमें चर्चाकारों को आरक्षित वर्ग का खास ध्यान रखना होगा। मसलन हर चर्चा में ध्यान दिया जाएगा कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अल्पसंख्यक, विकलांग, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, सीनयर सिटिजन, महिलाएं, खिलाड़ी सभी का जो कोटा है वो जरूर पूरा किया जाए। मकसद ये है कि मंच पर सभी का प्रतिनिधित्व हो सके, जबकि अभी तक चर्चाकार आरक्षित वर्ग की अनदेखी कर रहे थे। अब अनदेखी पर उन्हें सजा भी हो सकती है। बहरहाल पता चला है कि चर्चाकारों ने दिल्ली में मकान लेने के लिए आवेदन मंत्रालय में जमा कर दिए हैं।


एग्रीगेटर्स पर सरकार की खास नजर है। दो नामचीन एग्रीगेटर्स ब्लाग बुलेटिन और ब्लाग 4 वार्ता की भी समीक्षा की जा रही है। हालाकि अभी इनकी समीक्षा पूरी तरह नहीं की जा सकी है, लेकिन फौरी तौर पर वार्ता के प्रमोटर ललित शर्मा को स्पीड़ पोस्ट से एक पत्र भेजा गया है, जिसमें कहा गया है कि पत्र मिलते ही वो अपनी मूंछे पतली कराएं। नई तस्वीर पहले मंत्रालय को भेजें, उसे यहां एक टीम के सामने रखा जाएगा, अगर वो तस्वीर पास हो गई, तभी वो उसे ब्लाग पर लगा सकेंगे। वैसे तो बुलेटिन को अभी ज्यादा ठीक से देखा नहीं गया है, लेकिन मंत्रालय ने कहा है कि "ऊंचे लोग ऊंची पसंद" से बचें और ब्लागर्स के साथ हैलो-हाय सही रखें। बुलेटिन में एक ऐसी तस्वीर लगाने की बात भी हो रही है, जिसमें बुलेटिन के सभी रिपोर्टर एक साथ हों और सबके हाथ जुड़े होने चाहिए। अगर महीने भर में ऐसा नहीं हुआ तो माना जाएगा कि ये लोग अपने बर्ताव मे बदलाव लाने के तैयार नहीं हैं। सरकार के नए प्रावधान से सबसे बड़ा झटका ब्लागर्स को लगा है, अब ब्लागरों को रोजाना कम से कम सौ ब्लागों पर कमेंट करना जरूरी कर दिया गया है, ऐसा ना करने पर उनके ब्लाग पर आने वाले कमेंट स्पैम में चले  जाएंगे, जिन्हें पब्लिश ही नहीं किया जा सकेगा।


एक बड़े फैसले के तहत पिछले साल बाटे गए ब्लाग सम्मान को भी खारिज कर दिया गया है। ये फैसला भी बड़ी संख्या में मिली शिकायतों पर लिया गया है। सम्मान को महज खारिज ही नहीं किया गया है, बल्कि रवींद्र प्रभात से कहा गया है कि उनके द्वारा जिन्हें भी सम्मान पत्र दिया गया है, उनके यहां किसी को भेजकर ये प्रमाण पत्र वापस मगाएं। इतना ही नहीं वापस आए सम्मान पत्र पर लिखे नाम को प्रभात खुद मिटाएंगे और सभी सम्मान पत्र दिल्ली में जमां करें। जिससे इसका दुरुपयोग ना हो सके। कई ब्लागरों का कहना था कि वो इस आयोजन में शामिल होने के लिए वहां गए थे, जिसमें उनका काफी पैसा खर्च हुआ है। ऐसे में अगर ब्लागर जरूरी बिल प्रभात के पास जमा करते हैं तो उन्हें इसका भुगतान करना होगा।


नए प्रावधान के तहत अब "प्रेम" पर कविताएं नहीं लिखी जा सकेंगी। समीक्षा में पाया गया है कि वो लोग भी प्रेम पर लिखना शुरू कर दिए, जिससे इसका कोई सरोकार ही नहीं है। यही वजह है कि अब यहां प्रेम के नाम पर घटिया रचनाएं आ रही हैं। इतना ही नहीं "बोल्ड रचनाएं" लिखने वालों के लिए भी कुछ अहम फैसले लिए गए हैं। तय हुआ है कि ऐसे ब्लाग को "ए" सर्टिफिकेट दिया जाएगा और ये ब्लाग रात को 11 बजे के बाद ही खोला जा सकेगा और तीन बजे इसे बंद करना जरूरी होगा। एक  बार जो ब्लाग ए सर्टिफिकेट पा जाएगा, उसे इस कटेगरी से फिर नहीं हटाया जाएगा। कमेंट करने के नियम भी सख्त किए जा रहे हैं। अक्सर देखा जा रहा है कि कुछ बड़े ब्लाग "तुम मुझे पंत कहो मैं तुम्हें निराला " के पैटर्न पर चलते हुए गलत परंपरा को जन्म दे रहे हैं। मसलन एक दूसरे को कमेंट का आदान प्रदान करते हैं। मंत्रालय ने इसे कमेंट का सौदा माना है। इस पर रोक लगाने की तैयारी हो रही है। फिलहाल तो अब बड़े ब्लागर को रोजाना 20 नए ब्लाग पर जाकर कमेंट करना होगा। कमेंट मे सिर्फ "अच्छी प्रस्तुति" लिखकर आप कोरम पूरा नहीं कर पाएंगे, बल्कि आपको नए ब्लागर को बकायदा उसकी रचनाओं की समीक्षा के साथ और अच्छा लिखने का मंत्र भी देना होगा। ऐसा नहीं करने पर हो सकता है कि आप पर अलग से जुर्माना लगाया जाए।


आखिर में कुछ पुरुष ब्लागरों के नाम भी मंत्रालय में आएं हैं, इनके बारे में भी पूरी जानकारी जुटाई जा रही है। इन पर आरोप है कि अपनी महिला दोस्तों को गलत ढंग से ब्लाग पर बढावा दे रहे हैं। ये लोग लिखते खुद हैं और उसे अपने महिला दोस्त के नाम से उसके ब्लाग पर प्रकाशित करते हैं। ये शिकायत लगातार बढ रही है, ऐसे में इस पर भी जल्दी ही कोई सख्त निर्णय मंत्रालय ले सकता है। सरकार ने एक टीम का गठन किया है जो ब्लाग के नाम को लेकर समीक्षा कर रही है। उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि ब्लाग के नाम के पीछे ब्लागर की मंशा क्या है ? जैसे किलर झपाटा, चला बिहारी ब्लागर बनने, रामपुरिया, उडनतस्तरी, ख्वाब  बंजारे, दुनाली, तन्हाई के खजाने से, बक-बक, ख्वाबों का तसव्वुफ, तन्हाई के तहखाने से, ओढना-बिछौना, टिप टिप, तमंचा और तमाचा, नाटो, चाकू छुरी समेत कई और ब्लाग हैं जिनके लेख पढ़े जा रहे हैं। बाद में तय होगा कि इन पर क्या कार्रवाई हो।
(बुरा ना मानो होली हैं)



   

Sunday 17 March 2013

हकीकत : दिल्ली से भीख मांगते रहे नीतीश !


बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दिल्ली आए तो थे अधिकार मांगने लेकिन भीख मांगकर चले गए। उनके पूरे भाषण में एक बार भी ऐसा नहीं लगा जैसे वो अपने अधिकार की मांग कर रहे हों। उन्हें न ही केंद्र की सरकार से कोई शिकायत थी, न ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह या कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से। शिकायत करना तो दूर अलबत्ता वित्तमंत्री पी चिदंबरम की तो वो वाह-वाही करते रहे। उनके पूरे भाषण का लब्बोलुआब अगर कहें तो वो ये समझाने की कोशिश कर रहे थे कि अभी बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दे दिया तो ये बिहार पर केंद्र सरकार का एहसान होगा, वरना 2014 यानि चुनाव के बाद तो वो ले ही लेंगे। मसलन वो दिल्ली को कम बल्कि बिहार को ज्यादा संदेश दे रहे थे कि अगर दिल्ली अभी उनकी मांग को नहीं मानती है तो बिहार की जनता लोकसभा चुनाव में जेडीयू को और ताकतवर बनाए। क्यों नीतीश जी ! यही बात आप समझाने की कोशिश कर रहे थे ना ? मै कोई गलत तो नहीं कह रहा हूं ? नीतीश जी एक बात आपको बताऊं, वैसे तो ये अंदर की बात है, लेकिन आप जान लीजिए। जिस कांग्रेस ने अपने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सिर्फ पद दिया हो, पद का अधिकार नहीं, उस बेचारे मजबूर आदमी से आप बिहार का अधिकार मांग रहे हैं।

रामलीला मैदान में अगर आज आपने नीतीश कुमार की बाँडी लंग्वेज को पढ़ा हो तो उनमें साफ-साफ घमंड नजर आ रहा था। बिहार में वो बीजेपी के सहयोग से मुख्यमंत्री हैं और ये भी नहीं बीजेपी की संख्या कोई कम है, बल्कि बीजेपी विधायकों की संख्या ठीक ठाक है। ऐसे में अगर वो दिल्ली में बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग करने आए थे तो बीजेपी से दूरी क्यों बनाए रहे ? इसकी वजह कम से कम मेरे समझ में तो नहीं आई। खैर सच ये है कि दिल्ली में आज कल सब कुछ उल्टा पुल्टा चल ही रहा है। अब देखिए ना केंद्र सरकार के कानून में तंबाकू इस्तेमाल करने की उम्र 18 साल, मतदान करने की उम्र 18 साल, शादी करने की उम्र 18 साल लेकिन सेक्स करने की उम्र 16 साल। अब ये क्या है ? एक कांग्रेसी नेता से मैने पूछा कि ये क्या माजरा है ? आंख दबा कर कहने लगे की शादी के पहले दो साल तैयारी की छूट दी गई है। मुझे तो नीतीश का काम भी कुछ ऐसा ही लग रहा है, अरे भाई मुख्यमंत्री के नाते आप बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग कर रहे हैं और जिस बीजेपी की वजह से मुख्यमंत्री हैं, उसे दूर रख रहे हैं ? भला ये कैसे संभव है। अब सच्चाई ये है कि बीजेपी में भी इतनी गुटबाजी है, वरना तो जिस वक्त नीतीश कुमार  दिल्ली में थे, उस दौरान पटना में बीजेपी विधायकों को राज्यपाल के पास समर्थन वापसी का पत्र सौंपना चाहिए था।

नीतीश कुमार कई महीने से बिहार के विभिन्न इलाकों मे दौरा कर लोगों को समझा रहे थे कि दिल्ली में अधिकार रैली क्यों करने जा रहे हैं। इसके लिए वो एक बार पटना में भी बड़ी रैली कर चुके हैं। नीतीश का मानना है कि बिहार के साथ दिल्ली न्याय नहीं करती है, बिहार को उसका वाजिब हक नहीं दिया जा रहा है। यही वजह है कि दूसरे राज्यों के मुकाबले बिहार पिछड़ा है। कुमार का दावा है कि बिहार को भी विकास का पूरा अधिकार है। बिहार का  रोना रोते हुए मुख्यमंत्री कहते हैं कि बिहार के लोग मजबूरी में अपने प्रदेश को छोड़ते हैं, सही बात है, मजबूरी ना हो तो भला कोई रोजी रोटी के लिए अपना घर क्यों छोड़ेगा ? एक सवाल उठाया गया कि जिस बिहार की एक गौरवशाली परंपरा रही है, आजादी के आंदोलन में जिस राज्य ने अहम भूमिका निभाई, आखिर वो राज्य इतना पीछे क्यों हो गया ? अगर नीतीश दिल्ली में आकर ये सवाल पूछते हैं तो लगता है कि वो भी ईमानदार नहीं हैं। इस सवाल का जवाब तो आपको पटना के गांधी मैदान में ही मिल सकता है। जमा कर लीजिए पूरे सूबे की जनता को गांधी मैदान में। बिहार में अब तक के सभी मुख्यमंत्रियों का लेखा जोखा वहां रखिए। लोग खुद बता देंगे कि मुख्यमंत्री चाहे जगन्नाथ मिश्र रहे हों या लालू यादव या फिर आप ही क्यों ना हों। किससे कहां-कहां चूक रही है, सब पता चल जाएगा। नीतीश जी, क्या आपको लगता है कि आपकी सरकार में छेद नहीं है, अगर ऐसा लगता है तो आप गलत फहमी में हैं। इसीलिए कह रहा हूं कि बिहार के पिछड़ने के लिए जिम्मेदार तो वहां के नेता हैं, ऐसे में इसका जवाब दिल्ली नहीं पटना ही दे देगी।

रामलीला मैदान में मुख्यमंत्री ने गिडगिड़ाते हुए दिल्ली की गूंगी और बहरी सरकार को बताने की कोशिश की कि देखिए सुविधाओं के मामले में भी बिहार की उपेक्षा हुई है। बिहार में प्रति व्यक्ति आय देश की आय से कम है, कृषि विकास के लिए जो पैसा उन्हें मिला है, वह भी नाकाफी है। हमारी जरूरत के हिसाब से हमें पैसा नहीं मिलता है। नीतीश बोले बिहार में जनसंख्या का घनत्व भी ज्यादा है। ऐसे में बिहार को विशेष राज्य का दर्जा मिला तो यहां विकास होगा। विशेष दर्जे के मानदंडों में भी बदलाव होना जरूरी है। रैली से पहले बिहार के मुख्यमंत्री ने कहा है कि आज यानि उनके जमाने में बिहार पहले से ज्यादा तरक्की कर रहा है और अगर केंद्र की ओर से राज्य को सहयोग मिले तो वह जल्द ही विकसित राज्यों में शामिल हो जांएगे। अच्छा नीतीश के सामने जो लोग थे, उनमें से एक बड़ी संख्या उन लोगों की थी जो दिल्ली आकर बस गए हैं और मजदूरी करके परिवार चलाते हैं। आपको पता है दिल्ली में बिहार के लोगों की संख्या 35 से 40 लाख के करीब है। नीतीश को लगा कि अगर उनकी बात नहीं की गई तो ये निराश होंगे, लिहाजा उन्होंने दिल्ली की सरकार का नाम लिए बगैर कहा कि बिहार के लोग दिल्ली में भी जहां रहते हैं वहां उन्हें बहुत तकलीफ में रहना पड़ता है, मसलन  बुनियादी सुविधाएं यहां भी नहीं मिलती। खैर ये सब तो ठीक है।

बड़ा सवाल ये है कि नीतीश कुमार दिल्ली क्यों आए थे ? उन्हें अगर मांगने से अधिकार मिल रहा होता तो कब का मिल चुका होता, क्योंकि वो कई बार पटना में रैली कर चुके हैं, दिल्ली में प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष से व्यक्तिगत तौर पर मिल चुके हैं। सच कहूं तो वो कांग्रेस के सामने घुटने टेकते हुए यहां तक कह चुके हैं कि जो बिहार का साथ देगा, उसे उनका साथ मिलेगा। नीतीश पुराने नेता हैं, लेकिन मुझे उनकी सोच पर हैरानी होती है। नीतीश जी क्या आपको पता  नहीं है?  कांग्रेस को इंतजार है आपकी एक गलती का, उसके बाद जहां सीबीआई में आपकी एक फाइल खुली, बस फिर तो आप भी कतार में खड़े हो जाएंगे। देख रहे है ना, माया मुलायम एक दूसरे के कट्टर विरोधी, लेकिन कांग्रेस को दोनों का समर्थन, वजह दोनों की फाइल है सीबीआई में। लालू यादव बेचारे सीबीआई की वजह से ही तो कांग्रेस की हां में हां मिला रहे हैं। डीएमके सुप्रीमों करुणानिधि के मंत्री ए राजा ही नहीं बेटी कनिमोझी तक को जेल भेज दिया, पर समर्थन जारी है। सब सीबीआई का खेल है। कांग्रेस को महज एक गलती भर मिल जाए आपकी, बस फिर क्या मुलायम और माया की तरह पता चला कि बिहार  से लालू और नीतीश भी कांग्रेस के दरबार में हाजिरी लगा रहे हैं।

बहरहाल मेरा अभी भी यही सवाल है कि आप दिल्ली क्यों आए ? जब आपको कांग्रेस की सरकार में सबकुछ  गुडी-गुडी नजर आ रहा है तो ये करोड़ो रुपये फूंकने की जरूरत क्या थी ? नीतीश जी अगर आपको केंद्र सरकार को कुछ खरी खरी नहीं सुनानी थी तो आपने  पटना में ही ये जलसा क्यों नहीं कर लिया ? जब बिहार में जेडीयू और बीजेपी गठबंधन की सरकार है तो अधिकार रैली से बीजेपी को दूर क्यों रखा ? आपने कहाकि हम यहां अधिकार मांगने आए हैं। जिस तरह से आप अधिकार मांग रहे थे, उससे तो देश में यही संदेश जा रहा था कि आप "भीख" मांग रहे हैं। अधिकार की बात तो  आक्रामक शैली में की जाती है, गिडगिड़ाकर तो भीख ही मांगा जाता है। आपने कई बार वित्त मंत्री की पीठ थपथपाई। अरे उन्होंने अभी क्या दे दिया बिहार को ? वित्तमंत्री ने तो एक जनरल बात की है कि विशेष दर्जा देने के जो मापदंड है उसमें बदलाव जरूरी है। क्या बदलाव होगा, ऐसा कुछ तो कहा नहीं गया है। ये भी नहीं कहा गया है कि बिहार को इसमें शामिल ही कर लिया जाएगा। फिर भी आप जिस शान  की बात कर रहे थे, वो शान दिखाई नहीं दी। मुझे तो लगता है कि आपकी कांग्रेस से अंदरखाने कुछ बात हो गई है। नीतीश जी एक शेर सुनाऊं ?

अल्लाह ये तमन्ना है जब जान से जाऊं। 
जिस शान से आया हूं, उसी शान से जाऊं।।

खैर कांग्रेस के लिए अच्छी खबर है। बिहार बीजेपी में टकराव हो गया है। कई धड़े बन गए हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अविश्वसनीय हो गए हैं। बीजेपी के उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी बेपेंदी के लोटा हैं, उनकी कोई हैसियत ही नहीं दिखाई दे रही है। अभी जो हालात हैं उसे देखते हुए तो ऐसा ही लग रहा है कि 2014 में कांग्रेस तो अपने लिए वोट मांगती ही फिरेगी, लालू यादव, राम विलास पासवान और अब नीतीश कुमार भी चुनाव भले अलग लड़ें, लेकिन सब काम कांग्रेस के लिए ही करेंगे। झारखंड में सियासी समीकरण बदल रहे हैं, अगर सब सही रहा तो वहां झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ कांग्रेस गठबंधन की सरकार बन सकती है। ऐसे में 2014 में शिबु सोरेन भी कांग्रेस के लिए काम करते दिखाई देंगे।

चलते - चलते

राजनाथ जी आपरेशन बिहार शुरू कीजिए, वरना ऐन  मौके पर ऐसा धोखा खाएंगे कि चारो खाने चित्त हो जाएंगे। अच्छा ज्यादा कुछ करना भी नहीं है, बस नीतीश सरकार से समर्थन वापस लीजिए, सुशील मोदी को किसी जिले का अध्यक्ष बनाकर पैदल कीजिए, बिहार में पार्टी  के गुटबाजों को बाहर कीजिए। अब इंतजार बहुत हो गया, सुशील मोदी ने पार्टी को नीतीश सरकार में गिरवी रख दिया है। अब तैयार हो जाइये, अगर बिहार में कुछ करना है ....



Thursday 14 March 2013

किसके मामा हैं इटली में ?


ज सबकी जुबान पर एक ही सवाल है, आखिर इटली में किसके मामा रहते हैं जो उसने इतनी जुर्रत की। इटली के राजदूत  ने सुप्रीम कोर्ट मे हलफनामा दायर किया था कि उनके देश में चुनाव चल  रहा है और वहां के दो नागरिकों पर भारत में हत्या का मुकदमा चल रहा है ।  उन्हें वोट डालने के लिए देश जाने की अनुमति दी जाए। वोट डालने के बाद दोनों अभियुक्त भारत वापस आ जाएंगे। राजदूत के हलफनामें और इटली के साथ पुरानी दोस्ती को देखते हुए दोनों अभियुक्तों को इटली जाकर वोट डालने की छूट दे दी गई। लेकिन कोर्ट का यह आदेश अब उल्टा पड़ गया है। इटली सरकार ने साफ कर दिया है कि समुद्र में जिस स्थान पर ये घटना हुई, दरअसल वो भारतीय सीमा क्षेत्र में नहीं है। अगर भारत को कोई आपत्ति है तो इस मामले में वो अंतर्राष्ट्रीय कोर्ट में जा सकता है। अब देश खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है।

आइये, पहले आपको पूरी घटना बता दें। दरअसल केरल के पास भारत की समुद्री सीमा से एक जहाज गुज़र जा रहा था। उस जहाज के दो नाविकों ने पास में मछली मार रहे एक नाव की तरफ गोली चला दी। इस गोलीबारी में भारत के दो मछुआरों की मौत हो गई। इस मामले में इटली निवासी मासिमिलानो और जिरोन को गिरफ्तार कर लिया गया और उनके खिलाफ हत्या का मुकदमा शुरू हुआ । यहां तक तो सब ठीक था, लेकिन गड़बड़ हो गई 22 फरवरी को, सुप्रीम कोर्ट ने इटली के चुनाव में वोट देने के नाम पर दोनों को ज़मानत दे दी, वह भी 4 हफ्ते के लिए, अब तीन हफ्ते की मौज़ के बाद इटली ने कहा कि हम हत्यारों को वापस नहीं भजेंगे। सरकार तो खामोशी से पूरे मामले को देखती रही, लेकिन जब संसद में विपक्ष ने इस मामले को जोर शोर से उठाया तो सरकार के पांव तले जमीन खिसक गई।

मैं जानता हूं कि सुप्रीम कोर्ट ने इटली के साथ बेहतर रिश्ते को देखते हुए ही उन्हें वोट डालने की छूट दी होगी। कोई वजह नहीं कि सुप्रीम कोर्ट की मंशा पर किसी तरह का शक  जाहिर किया जाए। लेकिन एक सवाल तो खड़ा होता ही है। क्या किसी भारतीय हत्याभियुक्त को सुप्रीम कोर्ट ये छूट दे सकती है कि वो जेल से अपने गृहनगर जाकर वोट दे। अगर ये सुविधा भारतीय अभियुक्तों के लिए नहीं है तो फिर विदेशियों पर ऐसी मेहरबानी क्यों की गई ? देश में जब ऐसा समय आता है तो ड्यूटी पर तैनात कर्मचारियों और कैदियों को "पोस्टल बैलेट " की सुविधा दी जाती है, मतलब वो जहां है वहीं से अपना वोट डाल सकते हैं। ये सुविधा इटली में भी है। अगर दोनों को वोट डालना इतना ही जरूरी था तो वो यहां अपने दूतावास के जरिए अपने मताधिकार का प्रयोग कर सकते थे। ये ऐसी ठोस वजह नहीं थी जिसके लिए उन्हें इटली जाने की इजाजत दी जाती।

हमारी गिनती भले ही दुनिया के सबसे विशाल लोकतंत्र में होती हो, हम खुद को 'सुपर पावर' कहलाने की हसरत रखते हों, लेकिन इटली ने खुलेआम चौराहे पर ऐसा तमाचा जड़ा है कि गाल पर पड़े ये निशान आसानी से मिटने वाले नहीं है। सच कहूं तो इटली ने भारत को इतना मजबूर बना दिया है कि विदेश मंत्रालय से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक कसमसाकर रह गया है। सवाल उठता है कि आखिरकार 6 करोड़ लोगों के देश ने सवा सौ करोड़ आबादी वाले हिंदुस्तान को बेवक़ूफ और बेचारे की हालत में कैसे खड़ा कर दिया। आपको ये भी बता दूं इसके पहले दिसंबर में मछुआरों के ये दोनों हत्यारे क्रिसमस का केक काटने के लिए भी इटली गए थे, लेकिन तब ये केक काटकर वापस लौट आए थे, लेकिन वोट डालने गए, तो वहीं के होकर रह गए. इस महादेश के महानुभावों को मूर्ख बनाकर रोम के हत्यारे उड़ गए और हम कुछ नहीं कर सके।

भारतीय मूर्खता कि एक कहानी बता देता हूं। पता चला है कि वहां चुनाव के दौरान कई नेताओं ने ये मुद्दा उठाया था कि भारत की जेल में बंद अपने नागरिकों को वो हर कीमत पर वापस लाएंगे। अरे भाई जब चुनाव में खुलेआम ये भाषण दिए जा रहे हों, तो सरकार को भी एक बार इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए था ना। सरकारी वकील को इस बात की जानकारी कोर्ट को भी देनी चाहिए थी कि ये संवेदनशील मामला है और इस पर बहुत सतर्क होकर निर्णय लेने की जरूरत है। खैर अब डैमेज कंट्रोल की तैयारी है। इसके लिए इटली के राजदूत को तलब किया गया और उन्हें बताया गया कि 22 मार्च तक हत्याभियुक्तों को भारत वापस लाएं, वरना इटली के साथ राजनयिक संबंध बनाए रखना मुश्किल होगा। मतलब साफ है कि इटली के राजदूत को यहां से वापस भेज दिया जाएगा। बहरहाल अब पीएम कुछ भी कहें और सरकार कुछ भी करे, लेकिन दुनिया के सबसे विशाल लोकतंत्र के तौर पर इटली ने हमारी हैसियत को तो हवा में उड़ा ही दी है।

कुछ कडवी बात कह दी जाए। दरअसल जब भी किसी मामले में इटली का नाम आता है, हमारे नेताओं और हुक्मरानों के कान खड़े हो जाते हैं। अब मैं ये नहीं कह रहा कि इटली के नाम का असर सुप्रीम कोर्ट पर भी रहा है। लेकिन आम जनता में कुछ इसी तरह का संदेश है। चाहे क्वोत्रोची का मामला हो या फिर हेलीकाप्टर खरीद मे धांधली की बात हो। हर मामले में इटली का नाम जुड़ा है और ये भी कि हम इटली के प्रति साफ्ट हैं। अब ऐसा क्यों है ? ये मैं क्या देश का बच्चा बच्चा जानता है।

सच कहूं तो जब आज संसद में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इटली को खरी खरी सुना रहे थे तो कानों को भरोसा ही नहीं हो रहा था। प्रधानमंत्री भला इटली को कैसे ऐसा कह सकते  हैं। मैं ही नहीं बहुत सारे लोग इसे " जोक आफ द डे " बता रहें थे, क्योंकि संसद से बाहर निकलने के बाद विपक्ष के नेता ही नहीं कांग्रेसी भी खिलखिलाकर हस रहे थे। वैसे मुझे पता  है कि सरकार लाख प्रयास कर ले, कोर्ट भी तमाम प्रयास कर लें, लेकिन हत्याभियुक्तों को लाना उतना आसान नहीं है। मुझे लगता है कि अगर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी इटली से अपने व्यक्तिगत रिश्तों की बात करते हुए हत्याभियुक्तों की मांग करें तो बात बन सकती है।

सुप्रीम कोर्ट का रुख सख्त ..

सुप्रीम कोर्ट के रुख को भांजे ने भांप लिया है। मुझे लगता है कि अब कोर्ट कचहरी के बजाए मामा-भांजे ही इस मामले को सलटा लेगें। सच बताऊं तो मुझे अभी भी विश्वास नहीं हो रहा है कि इटली ने आखिर किसके दम पर ऐसा ऐलान किया है। जाहिर है अपनी ताकत के बल पर तो कत्तई नहीं। क्या इटली को लेकर हमारी नीति में कुछ खोट है, या फिर देश में कांग्रेस की सरकार होने की वजह से वो खुद को बहुत सहज समझता है। उसे लगता है कि जब तक ये सरकार है तब तक कुछ नहीं हो सकता। हालाकि इटली की सरकार अगर ऐसा सोचती है, तो उसके पीछे मजबूत कारण भी है। लेकिन इटली कांग्रेस को भले ही समझ ले, कि वहां उनके शुभचिंतक है, लेकिन "मामा जी " ये मामला मनमोहन को नहीं कोर्ट को देखना है। कोर्ट की हालत ये है कि उसने कोल ब्लाक आवंटन में सीबीआई को फटकार लगाने के साथ ही कहा है कि वो अपनी जांच रिपोर्ट सरकार के साथ साझा ना करे। मतलब समझे, सरकार की नीयत पर ही कोर्ट को शक है।

अब प्रधानमंत्री तो सख्त कदम के नाम पर इटली के राजदूत को ही यहां से वापस भेजने वाले थे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सही कदम उठाया। साफ कर दिया कि जब तक कोर्ट इजाजत ना दे, जब तक वो देश के बाहर नहीं जा सकते। मतलब साफ है कि इटली के राजदूत की मुश्किल बढ़ सकती है। दरअसल राजदूतों को कुछ विशेष अधिकार हासिल हैं। लेकिन इटली के राजदूत का मामला अब अलग है। क्योंकि उन्होंने खुद सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दिया है कि इन दोनों हत्याभियुक्तों को वोट डालने के लिए इटली जाने की इजाजत दी जाए। मैं अगर ये कहूं कि उन्होंने वापसी की गारंटी ली थी, तो गलत नहीं होगा। बहरहाल सुप्रीम कोर्ट ने  इटली के राजदूत को भारत छोड़ने पर रोक लगा दी है। कोर्ट ने राजदूत को नोटिस जारी कर 18 मार्च तक जवाब देने को कहा है। मुझे लगता है कि इटली को समय रहते बुद्धि आ जानी चाहिए, क्योंकि ये डरपोक भी हैं।

वैसे वहां की आर्म्स लाबी भी भारत के साथ संबंध खराब नहीं करना चाहेगी, क्योंकि भारत वहां से बड़ी संख्या में आर्म्स की खरीद करता है। वो भारत को मजबूत बाजार भी समझते हैं। इसलिए वहां के आर्म्स लाबी भी सरकार हर तरह से दबाव बनाने की कोशिश करेगीय़। उनका भी मानना होगा कि दो नाविकों के चक्कर में भारत के साथ रिश्ते खराब करना ठीक नहीं होगा। वैसे यहां से भी काफी चीजें इटली को निर्यात की जाती हैं। अगर दोनों देशों के रिश्तों में दरार आई तो मुझे लगता है कि इटली को इसकी भारी कीमत चुकानी पडेगी। अभी तो आप सब जानते हैं कि देश में इटली का एक खास दर्जा है। बहरहाल देखना ये है कि इटली आसानी से बात मानकर अपने खास दर्जे को बरकरार रखता है, या फिर दो- दो हाथ करने को मैदान में उतरता है। 







Sunday 10 March 2013

जिसने सिर काटा उसे सिर पर बैठाया !

कुछ व्यक्तिगत कारणों से मेरा और मेरे मन का आपस में संपर्क ही कटा रहा, लिहाजा ना मैं ब्लाग लिख पाया और ना ही आपके ब्लागों तक पहुंच पाया। बहरहाल अब आगे बढ़ते हैं, व्यक्तिगत बातें सार्वजनिक मंच पर करके मैं आप सबको विषय से भटकाना नहीं चाहता, लेकिन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री राजा परवेज अशरफ की निजी यात्रा में भारत के सरकारी रवैये को देखकर मुझसे रहा नहीं गया और दो शब्द लिखने चला आया, क्योंकि इससे सिर्फ मैं ही नहीं पूरा देश हैरान है। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि आखिर सिर काटने वालों को सिर पर बैठाने की जरूरत सरकार को क्यों महसूस हुई ? अब देखिए है ना अजीब हालात हैं,   पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की यात्रा तो निजी बताई गई, लेकिन उन्होंने यहां रोटी-मुर्गा सरकारी तोड़ी। अच्छा ये भी नहीं कि वो सिर्फ अपने परिवार के साथ आए हों, बल्कि पूरे लाव-लश्कर मसलन उनकी टीम में कुल 48 लोग शामिल थे। बात आगे करूं इसके पहले विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद को जितना भी कोसा जाए, मेरे खयाल से कम होगा। वैसे सेनाध्यक्ष विक्रम सिंह ने पाक प्रधानमंत्री के देश में रहने के दौरान ही चुनौती पूर्ण बातें कर देश का मान जरूर बढाया।

पाकिस्तानी प्रधानमंत्री राजा परवेज अशरफ का हफ्ते भर बाद यानि 16 मार्च को कार्यकाल खत्म हो रहा है। उन्होंने सोचा चलो चलते चलाते सरकारी विमान से अजमेर में गरीब नवाज के दरबार में मत्था टेक आएं। प्रोग्राम तो था कि बस अपने परिवार के साथ आएंगे, लेकिन जब चलने लगे तो पता चला कि दोपहर का भोजन भारत सरकार की ओर से है, फिर क्या था एक के बाद एक कुल 48 लोग सरकारी विमान में सवार हो गए। खैर पाकिस्तान को पता चलना चाहिए कि जब हम उनके आतंकवादी कसाब को कई साल तक चिकन और बिरयानी खिला सकते हैं, फिर प्रधानमंत्री राजा परवेज और उनके सिपाहसलारों को एक टाइम क्यों नहीं खिला सकते। वैसे हमारा दिल बड़ा है, हम तो ऐसा करते रहते हैं, क्योंकि हम " अतिथि देवो भव: " को मानने वाले हैं। हमारे नामचीन शायर वसीम बरेलवी भी कहते हैं कि ...

अल्लाह मेरे घर की बरकत ना चली जाए,
दो रोज से घर में कोई मेहमान नहीं है। 

लेकिन ये मेहमाननवाजी भारत सरकार को मंहगी पड़ गई। सीमा पर तैनात हमारे जवान का सिर काट ले जाने वाले पाकिस्तान को लेकर देश मे भड़का गुस्सा ठंडा नहीं पड़ा था कि हैदराबाद में सीरियल ब्लास्ट ने आग में घी डालने का काम किया। इसके बाद जब हमारे नेता पाकिस्तानी नेताओं के लिए रेड कारपेट बिछाते हैं तो देशवासियों की नाराजगी जायज ही है। यहां तक की दरगाह के दीवान जेनुअल आबेदीन ने पाकिस्तान प्रधानमंत्री को अपने हाथों से पारंपरिक सत्कार नवाजने से साफ इनकार कर दिया। उनका कहना था कि सीमा पर तैनात जवानों के सिर काट ले जाने वाले देश के प्रमुख का वो सत्कार नहीं कर सकते। अजमेर दरगाह प्रमुख ने साफ ऐलान किया कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री राजा परवेज़ अशरफ़ का स्वागत नहीं किया जा सकता, हालाकि दरगाह में खादिमो की संस्था के मुताबिक दरगाह में कोई भी श्रदालु आ सकता है। लेकिन मेरा व्यक्तिगत तौर पर मानना है कि देश में कौमी एकता की इससे बड़ी मिसाल भला क्या हो सकती है?

सवाल उठा विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद की भूमिका को लेकर। कहा गया कि जब प्रोटोकाल  के तहत अगर किसी देश का प्रधानमंत्री या राष्ट्राध्यक्ष निजी दौरे पर आते है तो नौकरशाह यानि केंद्र सरकार में विदेश मंत्रालय या फिर किसी भी महकमें का सचिव स्तर का अधिकारी उनकी आगवानी कर सकता है। मेरा सवाल है कि अगर प्रोटोकाल में साफ साफ दर्ज है कि किसी अफसर को भी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की आगवानी के लिए भेजा जा सकता था तो फिर दिल्ली में पूरा कामकाज छोड़कर विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद को जयपुर क्यों भेजा गया ? जानकारी तो यहां तक है कि सलमान खुर्शीद की तैयारी तो पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को एयरपोर्ट पर जाकर रिसीव करने की थी, लेकिन जब उन्होंने देखा कि देश की मीडिया और आम जनता में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हो रही है तो बेचारे एयरपोर्ट जाने की हिम्मत नहीं  जुटा पाए और होटल में ही उनकी प्रतीक्षा करते रहे। अच्छा एक बात आप सबसे भी जानना चाहता हूं, आपको कैसा लगता है जब दुश्मन देश के नेता के साथ अपने देश का नेता पांच सितारा होटल में रोटी तोड़ने के बाद जनता के बीच में उसके साथ हाथ मिलाते हुए फोटो खिंचवाता है। मैं बताऊं, कसम से ऐसी गाली निकलती है, रहने दीजिए, मैं यहां लिख नहीं सकता।

खैर सलमान खुर्शीद के बारे में क्या कहूं, जब वो विकलांगों के नाम पर पैसा हड़प सकते हैं, तो फिर उनसे किसी तरह की उम्मीद करना बेमानी ही होगी। लेकिन सलमान साहब एक सवाल पूछना चाहता हूं.. जब आपके सामने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री खाने की टेबिल पर बैठे  थे तो आपका पूरा ध्यान खाने पर ही लगा होगा। चिकेन, मटन, फिश, तरह तरह की सब्जियां, पांच तरह की दालें आदि आदि। सच बताइयेगा  कि एक बार भी आपके मन में शहीद सैनिक की विधवा की तस्वीर दिखाई दी। एक मिनट भी आपको लगा कि जिसके साथ आप लजीज खाना चटखारे लेते हुए खा रहे हैं, वो उस देश का प्रधानमंत्री है जो हमारे सैनिक का सिर काट ले गया। मुझे तो पक्का यकीन है कि आपके मन में ये बात बिल्कुल नहीं आई होगी। चलिए सैनिक की बात तो हो सकती है कि आपकी नजर में पुरानी हो गई हो, क्योंकि नेताओं की मेमोरी बहुत कमजोर होती है, लेकिन हैदराबाद में सीरियल ब्लास्ट तो आपको याद ही होना चाहिए। छोड़िए सलमान साहब नेता तो आप हैं हीं, कोशिश कीजिए कि आदमी भी बन जाएं, मैं विश्वास के साथ कह सकता हूं कि जिस दिन आप आदमी बन गए ना उस दिन अच्छे नेता आप खुद बन जाएंगे।


बुरी - बुरी बातें बहुत हो गईं, कुछ अच्छी बातें भी कर लें। पहले तो मैं सेनाध्यक्ष विक्रम सिंह को सैल्यूट करना चाहता हूं। मुझे याद है कि जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पाकिस्तान से बेहतर संबंध बनाने की मंशा के साथ बस में सवार होकर वहां गए तो प्रोटोकाल के तहत उनकी  आगवानी में प्रधानमंत्री के साथ तीनों सेना प्रमुखों को भी वहां होना चाहिए था। पर तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ तो वहां थे, पर सेना प्रमुख नहीं आए। अगर उस अपमान का जवाब पाकिस्तान को किसी ने दिया है तो मै कह सकता हूं कि आज सेनाध्यक्ष विक्रम सिंह ने दिया है। पहली बार हुआ होगा जब पडोसी देश (दुश्मन देश) का प्रधानमंत्री देश में था और हमारे सेना प्रमुख ने कहा कि " हमारे सैनिकों ने भी चूडियां नहीं पहन रखीं है, हम हर तरह से जवाब देने में सक्षम हैं और देंगें" । हालांकि सेना प्रमुख ने खुलकर तो विरोध नहीं किया, पर उनकी बात से साफ हो गया कि विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद के लंच देने से वो भी खुश नहीं थे। उन्हें लगा कि अगर आज सख्त विरोध दर्ज नहीं किया गया तो ये नेता देश की ऐसी तैसी करने से नहीं चूकने वाले। सेना प्रमुख ने साफ कर दिया कि सलमान खुर्शीद का उनके साथ भोजन करना कूटनीतिक फैसला होगा, उनका नहीं। सेना प्रमुख ने सच कहूं सैनिकों के मन की बात कह दी।

वैसे पाकिस्तानी प्रधानमंत्री का जयपुर और अजमेर के आम नागरिकों ने भी जमकर विरोध किया। हालत ये हो गई कि बेचारे प्रधानमंत्री जिस रास्ते से दरगाह पहुंचे, वापसी में उन्हें रास्ता बदलना पडा। मुझे लगता है कि पहली बार ही ऐसा हुआ होगा कि दूसरे देश के प्रधानमंत्री को सुरक्षा कारणों से इधर उधर से लाना ले जाना पडा। खैर मुझे तो लगता है कि पाक प्रधानमंत्री का विरोध जायज था, उन्हें संदेश मिलना चाहिए कि देश जनता भी उनके देश की करतूतों से वाकिफ है और जरूरत पड़ने पर वो भी ना सिर्फ सड़क पर उतर सकती है, बल्कि किसी भी हद तक जा सकती है।



मित्रों !  मेरे दूसरे ब्लाग TV स्टेशन पर भी आपका स्वागत है। यहां आपको मिलेगा कुंडा की घटना का सच। मतलब मैने बताने की कोशिश की है कि उस घटना को लेकर दरअसल पर्दे के पीछे चल क्या रहा है। मेरा तो मानना है कि लोगों को सीओ से कत्तई हमदर्दी नहीं रह गई, राजनेता उस परिवार की आड़ में वोट बैंक दुरुस्त करने में लगे हैं, बेगम साहिबा ने नौकरी पाने वालों  की इतनी लंबी सूची थमा दी है.. अब सबकुछ यहीं नहीं। आइये दूसरे ब्लाग पर..

लिंक भी दे रहा हूं..  http://tvstationlive.blogspot.in/2013/03/blog-post_10.html?showComment=1362986326233#c7175009973830449847