चुनाव निशान हाथी को लेकर जिस तरह की बातें हो रही हैं वो मुझे हैरान करती हैं। मुझे लगता है कि वाकई ये देश चल कैसे रहा है। यहां जो लोग बड़ी बड़ी कुर्सियों की जिम्मेदारी संभालते हैं, अगर वो कोई गलत फैसला करते हैं और उससे देश को नुकसान होता है, तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है, जिम्मेदारी अगर तय भी हो जाए तो नुकसान की भरपाई कैसे होगी ? मैं तो इस मत का हूं कि अगर किसी हुक्मरान के किसी गलत फैसले से सरकारी खर्च बढता है तो वो रकम उस हुक्मरान से ही वसूली जानी चाहिए, क्योंकि देश के जो हालात हैं, हम किसी एक व्यक्ति की गलती का खामियाजा देश को भुगतने के लिए नहीं छोड़ सकते।
भला हो पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषन का जिसने अपनी सख्त कार्यप्रणाली से लोगों को बताया कि देश में एक भारत निर्वाचन आयोग जैसी स्वतंत्र और संवैधानिक संस्था भी है, जो निष्पक्ष चुनाव के लिए कड़े से कडे़ फैसले कर सकती है। ये सब करके दिखाया भी टी एन शेषऩ ने। सच कहूं तो आप किसी से भी बात कर लें और पूछें कि शेषन के पहले भारत निर्वाचन आयोग में मुख्य निर्वाचन आयुक्त कौन था, मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि कोई उनका नाम नहीं बता पाएगा, क्योंकि उसके पहले ये आयोग में तैनात होने वाले अफसर किसी तरह समय काटते थे और सेवानिवृत्त होकर घर बैठ जाते थे। खैर शेषन के बाद 10 साल तो ठीक से चला, लेकिन उसके बाद फिर उसी ढर्रे पर आयोग लौट रहा है। अब निष्पक्ष होकर कड़ा फैसला लेने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाते।
ताजा मामला लेते हैं बीएसपी यानि मायावती की पार्टी के चुनाव निशान हाथी का। मायावती ने सरकारी धन का दुरुपयोग कर पूरे प्रदेश में कई पार्क बनवा दिए। पार्क का नाम दलित नेताओं के नाम पर रखा। मुख्यमंत्री मायावती इस कदर बेलगाम हैं कि उन्होंने अपनी पार्टी के संस्थापक कांशीराम और खुद अपनी मूर्तियां तो पार्क में लगवाई हीं, पार्टी के चुनाव निशान हाथी को भी खूब इस्तेमाल किया। पार्क में एक दो जगह पर हाथी की प्रतिमा रख दी जाती, तो किसी को कोई परहेज नहीं था, लेकिन हजारों मूर्तियां रखे जाने से बवाल होना ही था।
बवाल हुआ और ये मामला निर्वाचन आयोग पहुंच गया। लेकिन इस गल्ती के लिए आयोग को सजा सुनाना चाहिए था बीएसपी सुप्रीमों के खिलाफ, लेकिन आयोग ने सजा सुनाया सरकारी खजाने के खिलाफ। आयोग का फैसला तो मायावती के फैसले से भी ज्यादा खराब है। मुख्य चुनाव आयुक्त ने कहा कि चुनाव तक सभी मूर्तियों को ढक दिया जाए। बताया जा रहा है कि एक अनुमान के मुताबिक केवल लखनऊ और नोएडा में ही मूर्तियों को ढकने में पांच करोड रुपये से ज्यादा खर्च किए गए हैं। अभी इन मूर्तियों को ढकने में खर्च हुआ और चुनाव बाद इसे हटाने में खर्च किया जाएगा। मैं एक सवाल पूछता हूं ये मूर्तियां अगर आज गलत हैं, तो कल भी गलत होंगी। ऐसे में क्या अब हर चुनाव में मूर्तियों को ढकना और उतारऩा होगा। इस पर जो खर्च आएगा, उसके लिए जिम्मेदार कौन होगा, फिर अगर ऐसा है तब तो इसके लिए सरकार को एक स्थाई फंड बनाना होगा। मुझे नहीं लगता कि इसका कोई जवाब निर्वाचन आयोग के पास होगा। जिस देश में जिंदा हाथियों के रखरखाव का मुकम्मल इंतजाम ना हो, उस देश में पत्थर की मूर्तियों को ढकने और उतारने पर करोडों रुपये पानी की तरह बहाने को क्या जायज ठहराया जा सकता है। मेरा मानना है कि कोई भी इसे सही फैसला नहीं मानेगा।
निर्वाचन आयोग के पास किसी भी राजनीतिक दल का चुनाव चिह्न जब्त करने और उसे बदलने का अधिकार है। मैं जानना चाहता हूं कि आखिर आयोग ने अपने इस अधिकार का इस्तेमाल क्यों नहीं किया। हैरानी तो इस बात पर होती है कि बीएसपी सुप्रीमों मायावती इतने पर भी नहीं मानतीं कि उन्होंने कुछ गलत किया है। उनका तर्क है कि उनके चुनाव निशान में जो हाथी है, उसका सूंड नीचे है जबकि पार्कों में लगे हाथियों का सूंड ऊपर है। इसलिए ये कहना कि चुनाव निशान का दुरुपयोग किया गया है, वो गलत है। अब मुझे लगता है कि आयोग को मुझे समझाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए, अगर मायावती मानती हैं कि उनके चुनाव निशान और पार्क के हाथियों में अंतर है, वो एक जैसे नहीं है, तो आयोग को उनकी बात मानते हुए सूबे के निर्दलीय उम्मीदवारों को सूड ऊपर किए हाथी चुनाव निशान आवंटित कर दिया जाना चाहिए, फिर मैं देखता हूं कि मायावती को आपत्ति होती या नहीं। लेकिन आयोग ने जो फैसला सुनाया, उससे तो सरकारी खजाने पर ही बोझ बढ़ा है।
भारत निर्वाचन आयोग के फैसले को मैं तो सही नहीं ठहरा सकता, बल्कि मुझे लगता है कि इस मामले को न्यायालय में चुनौती दी जानी चाहिए कि आयोग का फैसला गलत है, क्योंकि ये सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ाने वाला है। इतना ही नहीं इस गलत फैसले जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई भी मुख्य चुनाव आयुक्त से ही की जानी चाहिए। कड़ाके की इस ठंड में इंसान के शरीर पर एक कपडा नहीं है, किसी तरह वो आग के पास बैठ कर रात गुजार रहे हैं और पत्थर की इन मूर्तियों को मंहगे कपडों से ढका गया है। आखिर इस बेवकूफी की सजा तो मिलनी ही चाहिए ना।
वाह रे मायावती और उसका चुनाव चिन्ह....
ReplyDeleteहाहाहहा शुक्रिया
Deleteमहेंद्र जी,...मै आपके सुझाव से सहमत हूँ मेरे ख्याल से चुनाव चिन्ह जप्त कर लेना चाहिए,....बेहतरीन प्रस्तुति,......
ReplyDeletewelcome to new post...वाह रे मंहगाई
मै आपका समर्थक बन गया हूँ आपभी समर्थक बने तो मुझे खुशी होगी...आभार
ReplyDeleteबिल्कुल, क्यों नहीं।
Delete...आप सही कह रहे है...मायावती के लिए हाथी का चुनाव चिन्ह रद्द कर देना चाहिए!..उम्दा पोस्ट!
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
Deleteजी, आपका बहुत बहुत आभार
Deleteसच्ची बात लिख डालने का हौसला बना रहे ...
ReplyDeleteक्यों नहीं, बस आपका आशीर्वाद चाहिए
Deleteu have made an absolutely valid point mahendra ji.
ReplyDeletethanks farheen
Deleteबिलकुल सच कहा है आपने..राजनीति खेल ही ऐसा है..
ReplyDeletekalamdaan.blogspot.com
शुक्रिया रीतू
Deleteकुछ कहूँगा तो लोग कहेंगे कि मैं भी कुछ कहता हूँ ......!
ReplyDeleteजी कोई बात नहीं, अभी तो मै अकेला मोर्चा संभाल रहा हूं,जरूरत हुई सबसे पहले आपको याद करुंगा
Deleteआपने जो लिखा है, वह चुनाव आयोग में पदों पर बैठे 'मिटटी के माधवों' को समझ नहीं आता शायद वरना अब तक तो बसपा का चुनाव चिन्ह बदल भी गया होता या फिर इसे ढकने और उतारने का खर्च बसपा के चुनाव खर्च में जोड दिया जाता।
ReplyDeleteविचारणीय पोस्ट।
शुक्रिया अतुल
Deletesarkari khajane par aise bevkoofiyan hoti rahti hai lekin ye to inki sartaj hai..mere khyal se ise itihas me darj kar lena chahiye ...
ReplyDeleteजी, आपका बहुत बहुत आभार
Delete100 प्रतिशत आप सही कह रहे हैं पर किससे??? उसी से जिसके कान ही नहीं है अथवा हम जैसों से जिन्हें अपाहिज बना दिया गया है मानसिक रूप से। हम अपना सब कुछ गंवा सकते हैं पर जरा सोच-विचार कर हाथ-पैर नहीं चला सकते। मेंहदी लगाये रहते हें हर वक्त। आप भी सोच-समझकर बोला करिए जी कम से कम तभी बोलिए जब कोई सुनने वाला हो
ReplyDeleteसहमत हूं, पर क्या करें, आदत से मजबूर हूं। नहीं कहूंगा तो घुटता रहूंगा।
Deleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति!
ReplyDelete--
घूम-घूमकर देखिए, अपना चर्चा मंच ।
लिंक आपका है यहीं, कोई नहीं प्रपंच।।
आपका बहुत बहुत आभार
Deletesatya hai ji bahut khoob Mahender ji...........me to fan ho gaya apka
ReplyDeleteशुक्रिया संजय जी
Deleteचुनाव आयोग सरकार की कठपुतली बना हुआ है जो सरकार ने कह दिया बस वही करना है। लगता है जैसे समझदारी को ताक पर रख दिया गया है।
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत आभार।
Deleteअंधेर नगरी चौपट राजा .. प्रजा बन जाए चाहे बाजा..
ReplyDeleteशुक्रिया अमृता
Deleteकितनी सार्थक व सटीक बात कही है आपने इस आलेख में ...आभार ।
ReplyDeleteबहुत सही कहा महेन्द्र जी..ऐसे ही हौसला बुलन्द रखे..
ReplyDeleteअरे भैये, ये देश तो ईश्वर के सहारे चल रहा है... देखते नहीं, कितनी मंदिरें, मसजिदें आदि सड़कों के बीच बने हुए हैं :)
ReplyDeleteआपकी किसी पोस्ट की चर्चा है नयी पुरानी हलचल पर कल शनिवार 21/1/2012 को। कृपया पधारें और अपने अनमोल विचार ज़रूर दें।
ReplyDeleteसटीक लेखन...कहीं पढ़ा था मैंने कि -शुक्र है पंजे के निशान को ध्यान में रख..लोगों के हाथ कटवाने का आदेश नहीं दिया गया आयोग द्वारा..
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति...
बिलकुल सही कहा है ..मूर्तियां ढक भी दी जाएँ तो भी सबको पता है की वहाँ हाथी है ..वैसे भी ढकी चीज़ के पीछे जानने की जिज्ञासा ज्यादा होती है ..एक तरह से चुनाव आयोग ने और ज्यादा प्रचार किया है ..जनता के पैसे का दुरुपयोग हो रहा है ..
ReplyDeleteसहमत हूँ सर!
ReplyDeleteसादर
सटीक लेखन...
ReplyDeletemae aapse sahmat hun or yah ham sbhi ki kamjoriyaon ka natija hae .
ReplyDeletesahi aur satik bate. thanks
ReplyDelete