Sunday, 20 May 2012

सम्मान से बहुत बड़ा है आत्म सम्मान ...


च कहूं तो इस समय देश की ही ग्रह दशा ही खराब है। हर जगह गंदगी और बेईमानी का का बोलबाला है। लगता है कि सच्चाई और ईमानदारी आज कल किसी हिल स्टेशन  पर बैठकर देश में हो रहे तमाशे को देख रही हैं। बात करें राजनीति की  तो जेल में बंद राजा छूटते ही संसद भवन पहुंच गए और सबसे पहले उन्होंने कलमाड़ी से हाथ मिलाया, आंखो आंखो में कुशल मंगल पूछ लिया। खेल के मैदान में जो हो रहा है वो भी किसी से छिपा नहीं है। अमेरिका में शाहरुख खान के कपड़े उतरवा कर सुरक्षाकर्मियों ने जांच की तो वहां ये जनाब गीद़ड बने रहे, मुंबई में सुरक्षाकर्मी ने कुछ कहा तो जिंदा गाड़ने की बात करने लगे। अब रही सही कसर माल्या टीम के आस्ट्रेलियाई खिलाड़ी ल्यूक पामर्शबैक ने अमेरिकी लड़की के साथ दुर्व्यवहार कर पूरी कर दी। राष्ट्रपति चुनाव में भी कुत्ता फजीहत शुरू हो गई है, शर्मिंदगी की बात ये है कि एक पढ़ा लिखा आदमी कह रहा है कि इस बार किसी आदिवासी को राष्ट्रपति बनाया जाना चाहिए। अब राष्ट्रपति जैसे अहम पदों पर भी जात पात की बात खुल कर करके शर्मनाक हालात पैदा किए जा रहे हैं। कल को कोई कहेगा कि विकलांग कभी राष्ट्रपति नहीं बना तो क्या विकलांग को बना देंगे। सेना में सबसे ज्यादा ईमानदारी की बात होती थी, बेचारे ईमानदार सेनाध्यक्ष के पीछे आर्म्स दलाल पड़ गए और उन्हें साल भर पहले ही रिटायर होने के लिए मजबूर कर दिया गया। बाजार की रौनक भी गायब है, डालर के मुकाबले रुपया अब तक के न्यूनतम स्तर यानि एक डालर की कीमत आज 54.54 रुपये हो गई है। चलिए भूमिका बहुत हो गई, विषय पर आते हैं।

राजनीति में सौ सौ जूते खाने पड़ते हैं,
कदम कदम पर सौ सौ बाप बनाने पड़ते हैं।

हाहाहाह... जब सब जगह गिरावट और अवमूल्यन हो रहा हो तो बेचारा ब्लाग जगत अपनी अस्मिता कैसे बचाए रख सकता है। ऐसा तो है नहीं कि ये किसी मजबूत आधार पर टिका है, यहां कोई ऐसा है, जिसकी सब रिस्पेक्ट करते हों। दूसरों की तो बात ही अलग है, खुद अभी क्या कह रहे हैं, थोड़ी देर बाद क्या कहेंगे, ये कहना भी मुश्किल है। अब ग्रह और नक्षत्रों के बारे में मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है, हां बहन संगीता पुरी अगर कुछ मदद कर सकें तो वाकई कुछ सकारात्मक हल निकल सकता है। रास्ते से भटके लोगों को ज्योतिष ज्ञान के जरिए कम से कम सही रास्ता तो पुरी दीदी बता ही सकती हैं, मानना और ना मानना उनके हाथ में तो है नहीं। अगर लोगों ने उनके रास्ते को अपनाया तो हो सकता है कि कुछ परिवर्तन देखने को मिले,  वरना क्या है, जैसे चल रहा है, चलता रहेगा।

आप सब जानते हैं कि शरीर में अगर सबसे महत्वपूर्ण कोई हड्डी है तो उसे रीढ़ की हड़डी कहते हैं। इस हड्डी के बिना शरीऱ की कल्पना करने भर से मन घबरा जाता है। लेकिन मुझे हैरानी होती है कि इस हड्डी के रहते हुए भी तमाम ब्लागर्स का व्यवहार ऐसा दिखाई दे रहा है जैसे उनके शरीर में इस हडडी ने काम करना ही बंद कर दिया है या फिर ये हड्डी उनके शरीर में है ही नहीं। सच्चाई ये है कि जब आप गलत होते हैं, तो आप कितना भी खुद को मजबूत दिखने की कोशिश करें, आपकी कमजोरी बार बार आपके सामने आकर खड़ी हो जाती है और चेताती है कि ये गलत कर रहे है। आमतौर पर लोग यहीं अपनी गल्तियों को सुधार लेते हैं, लेकिन अपने मन की न सुनकर भी जब लोग गल्तियां करने पर अमादा रहते हैं तो ऐसे लोग ईमानदार भी नहीं रह जाते। वजह साफ है कि जो आदमी अपने मन की सुनकर भी खुद को दुरुस्त नहीं करता, वो दूसरों की सुनकर भला खुद को क्यों दुरुस्त करेगा। क्योंकि फिर तो उसमें अहम आ जाता है कि ये हैं कौन जो मुझे सलाह दे रहे हैं।

ये वो स्थिति होती है, जहां आदमी के खुद का विवेक शून्य हो जाता है, अब वो कोशिश करता है जनसमर्थन जुटाने का। आप जानते ही हैं कि जनसमर्थन के लिए नीति नियम तो कोई मायने रखते नहीं। क्योंकि इसकी भी सुननी पड़ेगी और उसकी भी। इन  दोनों  के बीच में हालत ये होती है कि बस बेचारी सच्चाई और ईमानदारी पिसती रहती है। आप जानते हैं ईश्वर को पता है कि आदमी ज्यादा ज्ञानी हुआ तो वो ईश्वरीय सत्ता को भी चुनौती दे सकता है, लिहाजा उन्होंने दो अधिकार अपने पास रखे। आदमी का जन्म और मृत्यु। मतलब हम चाहें या ना चाहें जन्म लेगें ही और न चाहते हुए भी मृत्यु भी तय है। अब हमारे पास जन्म से मृत्यु के बीच जो समय है, उसी के दायरे में रहकर अपने जीवन कर्तव्य का निर्वहन करना होगा। देखिए ऐसा नहीं है मैं ज्ञान की कोई ऐसी बातें कर रहा हूं जो आपको नहीं पता है, बल्कि आप सब हमसे ज्यादा जानने वाले लोग हैं। बस फर्क इतना है कि मेरी रीढ़ की हड्डी बहुत मजबूत है, लिहाजा मैं स्वाभिमान से कत्तई समझौता नहीं करता। फिर मैं जिस प्रोफेशन में हू, यहां मेरी रोजाना तरह तरह के लोगों से मुलाकात होती है। इस दौरान मैं देखता हूं कि नेता या नौकरशाह कितना भी बड़ा क्यों ना हो, अगर वो ईमानदार नहीं है तो उसमें नैतिक साहस भी नहीं होता है और दो तीन सवालों के बाद ही वो डगमगा जाता है।

कुछ ऐसी ही हालत आज परिकल्पना परिवार की देख रहा हूं। दशक के ब्लागर के बारे में मेरी एक सहज टिप्पणी थी कि ये मतदान की प्रक्रिया वाकई ठीक नहीं है। इसमें ब्लाग के वरिष्ठ लोगों को चाहिए कि वो कुछ लोगों का नाम शामिल कर दें। हम सब  यहां सीनियर्स की रिस्पेक्ट करते हैं, वही नाम अंतिम हो जाएंगे। लेकिन जब किसी व्यक्ति का अहम पूरे सिस्टम पर भारी होता है तो वो खुद को ज्ञानवान और सामने वाले को मूर्ख समझता है। फिर ये अहम उसका उस समय साथ छोड़ देता जब उसकी  उसे बहुत ज्यादा जरूरत होती है। आज हमारे आदरणीय का अहम कहां चला गया ? लोकतंत्र की बड़ी बड़ी बातें हांकने वाले आज समझौतावादी कैसे हो गए ? हैरान करने वाली बात ये है कि एक दूसरे ब्लागर साथी ने जब कहा कि ये मतदान तो वाकई ठीक नहीं है तो 48 घंटे बाद के रुझान में भाई का नाम शामिल हो गया।  अब देखिए एक साहब का सुझाव आया कि  आपने एक भी दलित ब्लागर का नाम शामिल नहीं किया। इस सुझाव देने वाले का तो भगवान ही मालिक है, पर इस सुझाव को स्वागत योग्य बताकर हमारे आदरणीय भाई ने सम्मान की मर्यादा ही खत्म कर दी। अरे हम दशक का ब्लागर चुनने जा रहे हैं या यहां दलित, पिछडा, अल्पसंख्यक, विकलांग, सीनियर सिटिजन, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कैसर और एड्स रोगी का कोटा थोडे ही भरने जा रहे हैं ?


हर शख्स अपनी तस्वीर को बचाकर निकले,
ना जाने किस मोड़ पर किस हाथ से पत्थर निकले।



दरअसल मैने कहा ना कि जब आदमी ईमानदार ना हो तो वह क्या कह रहा है, क्या कर रहा है, खुद नहीं समझ पाता। अगर ऐसा होता तो जो बातें डा. दिव्या की हमारे भाई को आसानी से समझ में आ गईं वही बातें मैने कहीं थी तो उन्हें समझ में क्यों नहीं आई ? मैने कहा तो मुझसे कुतर्क करते रहे। तब मुझे लगा कि भगवान राम ने ठीक ही कहा था कि "भय बिन होय ना प्रीत"। क्योंकि सभी को पता है कि मैं अपनी बातें बहुत ही संयम तरीके से कहता हूं, आप माने ना माने मेरी बला से। लेकिन डा. दिव्या बहन आयरऩ लेडी है, वो पहले आराम से बात समझाने की कोशिश करतीं है, अच्छा हो कि लोग बात यहीं आसानी से समझ जाएं, वरना फिर तो उसकी खैर नहीं। क्योंकि सब जानते  हैं कि परिकल्पना से कहीं ज्यादा उनकी पाठक संख्या है। वो कुछ कहतीं है तो समझ लेना चाहिए कि ब्लाग का एक बडा तपका ये बात कह रहा है। परिकल्पना से कई गुना उनकी पाठक संख्या भी है। ऐसे में जब उन्होंने ये मु्ददा उठाया तो परिकल्पना परिवार में हडकंप मच गया। उन्हें लगा कि विरोधियों की ताकत बढ़ रही है, बस उन्हें अपने खेमें में करने की साजिश शुरू हो गई। लेकिन उनके आड़ मे जो कुछ किया जा रहा है, उससे बदबू आ रही है।

वैसे मैं बहुत ही अदब के साथ आप सबसे कहना चाहता हू कि डैमेज कंट्रोल का सबसे बेहतर तरीका यही था कि परिकल्पना परिवार आपस में बैठता और लोगों की राय जो  ब्लाग पर आ चुकी है, उसके आधार पर कुछ अहम फैसला करता। लेकिन उन्हें  लगता  है कि ब्लाग पर उनके खिलाफ कोई आंदोलन चल रहा है, लिहाजा अपनी संख्या में इजाफा करने की रणनीति बनाई जा रही है, उनका पूरा समय इसी रणनीति पर काम करने में जाया हो रहा है। वैसे इसके लिए जो कुछ किया जा रहा है, वो साहित्य समाज पर ऐसा काला धब्बा है, जिसका दाग कभी मिटने वाला नहीं। नाराज लोगों के मुंह बंद कराने के लिए उनका नाम सम्मान सूची में डाला जा रहा है। ज्यादा नाराजगी हुई तो हो सकता है कि उन्हें दिल्ली आने जाने के लिए हवाई जहाज का टिकट और यहां पांच सितारा होटल का प्रबंध कर दिया जाए। वैसे ये सबके लिए तो संभव नहीं है, गुड लिस्ट वाले ही इसका लाभ उठा पाएंगे। बहरहाल अब कौन समझाए आयोजकों को ? वे कुछ लोगों को तो पांच सितारा होटल और हवाई जहाज का टिकट दे सकते हैं, पर 41 को देना तो मुझे नहीं लगता कि इनके लिए संभव होगा। फिर जिन लोगों का नाम मजबूरी मे रखा गया है, उन्हें तो तारीख बता दी जाएगी और कहा जाएगा कि वो खुद ट्रेन से पहुंचे। खैर डैमेज कंट्रोल का जो तरीका अपनाया जा रहा है उससे तो मुझे लगता है कि ये आयोजक या तो बेचारे बहुत सीधे हैं या फिर 24 कैरेट के मूर्ख। क्योंकि कोई भी ब्लागर दशक के पांच ब्लागर में नहीं चुना जाता है, तो उसे ज्यादा तकलीफ नहीं होगी, उसे लगेगा कि पांच लोगों को ही तो चुनना था, नहीं आया होगा मेरा नाम। पर अब 41 में नाम नही आया तब तो खैर नहीं। उसे लगेगा कि जरूर कुछ गडबड़झाला है। यहां मैं आपको लालू यादव का उदाहरण देना जरूरी समझ रहा हूं। बेचारे लालू ने सोचा कि अपने निर्वाचन क्षेत्र के हर गांव से एक युवा बेरोजगार को रेलवे में नौकरी दे दें। सोचा तो उन्होंने खराब नहीं था, और नौकरी दे भी दी, पर इससे पूरा निर्वाचन क्षेत्र नाराज हो गया कि इतने बड़े गांव से एक को ही नौकरी दी, पूरे गांव को लगा कि मेरे बेटे को नही दी। हालत ये हो गई कि वो अपने पुराने निर्वाचन क्षेत्र यानि जहां उन्होंने नौकरी दी थी वहां से चुनाव हार गए। लालू अगर इस बार दो जगह से चुनाव न लड़े होते तो बेचारे संसद भी न पहुंच पाते।

चलिए दूसरों की बातें बहुत हो गईं। अपनी बात की जाए और मेरा मानना है कि आत्मसम्मान से बढ़कर कोई सम्मान नहीं हो सकता। फिर जब मैं देख रहा हूं कि सम्मान देने वाला ही अपने आत्मसम्मान को गिरवी रख चुका है तो ये सम्मान महज छलावा, जालसाजी, डैमेज कंट्रोल से ज्यादा कुछ हो ही नहीं सकता। मैं एक बार फिर डा. दिव्या का आभारी हूं कि उन्होंने मेरे नाम का जिक्र सम्मान के लिए किया, पर मैं दिल से जानता हूं कि मैं इसके काबिल नहीं हूं, क्योंकि मेरा आत्मसम्मान अभी जिंदा है। लिहाजा मेरे नाम पर कत्तई विचार ना किया जाए। हां आयोजकों को एक सलाह और कि वो इसी तरह के शिगूफे छोड़ते रहें, जिससे लोग कम से कम खामोश रहेंगे, उनमें उम्मीद होगी कि हो सकता है उनकी भी लाटरी लग जाए। अगर आपने आयोजन के पहले ही सम्मान सूची घोषित कर दी, फिर तो भइया खैर नहीं। वैसे सच में इतना गंदा खेल पहले नहीं देखा था।

नोट.. मित्रों आप सब मेरी ताकत है, इसके बाद भी मेरी सलाह है कि अगर आप सम्मान पाना चाहते हैं तो प्लीज यहां बिल्कुल कमेंट मत कीजिए। यहां सिर्फ वो कमेंट कर सकते हैं जिनके लिए सम्मान से बढ़कर आत्मसम्मान है। मैं आपको सम्मान भले ना दिला सकूं, पर आत्मसम्मान की वो ऊंचाई जरूर दे सकता हूं, जहां से आपको ये सब जो हो रहा है बहुत छोटा और बौना लगेगा।

कबिरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ,
जो घर फूकै आपनो, चले हमारे साथ।


 

43 comments:

  1. मैं भी आपकी बात से १००% सहमत हूँ महेंद्र जी ....

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  2. महेन्द्र जी क्या खूब कहा है आपने ………ये वो ब्लोगजगत है जो एक तरफ़ तो सम्मान की बात कर रहा है और दूसरी तरफ़ महिलाओं का अपमान करने से गुरेज नही करता फिर ऐसे मे सोचिये सम्मान देना या ना देना क्या मायने रखता है………जहाँ कोई मर्यादा ना हो , किसी के भी चरित्र का चीरहरण कर दिया जाये वहाँ कैसे उम्मीद की जा सकती है कि सब कुछ हमारे आपके चाहे से होगा ………कहो मत कहो यहाँ फ़र्क नही पडता होगा वही जो कुछ लोग चाहेंगे और हमेशा होता भी आया है ………बस सबसे बडी बात होती है आत्मसम्मान और हमारे पास भी और कुछ नही है सिवाय आत्मसम्मान के ………उसी के बल पर जीते हैं और मस्त रहते हैं क्योंकि दुनिया जितनी खूबसूरत है उतनी ही बदसूरत भी ………यहाँ तस्वीरें जल्दी से नही बदला करतीं।

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    1. जी मुझे सारे वाकये की जानकारी है। लेकिन ब्लाग जगत में जो कुछ हो रहा है,उसके लिए कहीं ना कहीं हम भी जिम्मेदार हैं, क्योंकि हम गलत चीजों के लिए आवाज नहीं उठाते।
      आपका समर्थन मुझे ताकत देने वाला है..

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    2. महेन्द्र जी जब तक एकता नही होगी किसी भी मुद्दे पर आवाज़ उठाना बेमानी है।

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    3. जी आपकी बात सही है, लेकिन एकता में बाधा कौन बन रहा है। उसकी पहचान जरूरी है ना।

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  3. क्या बात है!!
    आपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 21-05-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-886 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

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    1. बहुत बहुत आभार चंद्रभूषण जी

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  4. भाई ... हम जो कहते हैं , उसे दूसरे लोग गलत अर्थ दे देते हैं . जब हम चारों तरफ से बेवजह कुछ सुनते हैं तो किसी की छोटी बात पर भी गुस्सा हो जाते हैं ... हम सब परिपक्व हैं - इसे समझना चाहिए . बड़े होने के नाते मैं कह रही हूँ ... बड़े से बड़ा आयोजन भी परफेक्ट नहीं होता . और किसी बात को क्यूँ इतना तुल देना . इतना हल्का नहीं होता सम्मान कि अपमानित हो जाए .

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    1. आपकी बातें मेरे लिए आदेश हैं, जिसकी मैं अनदेखी नहीं कर सकता।

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  5. महेंद्र जी,...आत्मसम्मान पहले सम्मान बाद में,क्योकि आत्म् सम्मान से बढकर कोई सम्मान नही,....

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    1. जी बिल्कुल,
      और आत्मसम्मान की रक्षा लोगों को खुद करनी होती है

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  6. बुराई तब राज करती है जबकि अच्छे लोग चुप रहते हैं।
    बुरे लोग हमारे बीच में ही होते हैं। उनके सींग नहीं होते कि उन्हें शक्लों से पहचाना जा सके।
    उनके कामों से उनकी पहचान होती है।
    सम्मानित करना अच्छी बात है लेकिन इस काम को ईमानदारी और पारदर्शिता से किया जाए और बात जब दशक के ब्लॉगर का चुनाव करने की बात हो तो यह बात सबकी प्रतिष्ठा से अनायास ही जुड़ जाती है।
    जब बात 30-40 हज़ार से ज़्यादा ब्लॉगर्स से जुड़ी हो तो उनकी राय को अहमियत देना ज़रूरी है।
    ‘ब्लॉग की ख़बरें‘ ने उनके हरेक सम्मान आयोजन की समीक्षा की और ब्लॉगर्स को समय रहते चेताया। इसके बावजूद भी ब्लॉगर्स सम्मान पाने के लिए दिक्कतें झेलकर दूर दराज़ तक से दिल्ली आए और पूंजीपति स्पांसर के कार्यक्रम में एक शोपीस की तरह ठगे से बैठे रहे।
    अपनी ज़ाती रंजिश के चलते ईनाम की सूची ही बदल डाली। जिन ब्लॉगर्स को ईनाम देना घोषित किया था, उनमें से किसी को छोड़ दिया और किसी का नाम जोड़ दिया।
    एक पत्रकार ब्लॉगर की तो ऐसी फ़ज़ीहत हुई कि वह अपना ईनाम वहीं ठुकराकर लौटे और ऐलान कर दिया कि अब हिंदी में ब्लॉगिंग नहीं करूंगा, केवल अंग्रेज़ी में ही किया करूंगा।
    मज़े की बात यह है कि वापसी में उनके साथ 2 ब्लॉगर और भी थे। दोनों उनके दोस्त थे। उन्हें कुढ़ते-कलपते हुए देखकर भी वे दोनों अपने अपने ईनाम और शाल-दुशाले कसकर पकड़े बैठे रहे और उन्हें दिलासे देते रहे।
    ‘भड़ास‘ ब्लॉग ने उस कार्यक्रम की पूरी रिपोर्ट देते हुए बताया कि कैसे इस कार्यक्रम की भदद पिटी ?
    सम्मान पाकर लौटे कुछ ब्लॉगर्स ने भी इसकी तस्दीक़ की और आइन्दा इस तरह के सम्मान के लिए दौड़ने से भी तौबा कर ली।
    पिछली ग़लतियों से कुछ सीखा होता तो रवींद्र प्रभात जी फिर अपने फ़ैसले ज़बर्दस्ती न थोपते।
    इस बार तो उनका आयोजन शुरू से ही विवादित और संदिग्ध हो गया है।

    सुझाव केवल डा. दिव्या ने ही नहीं दिए हैं बल्कि उनसे पहले हमने दिए हैं और रचना जी, एस.एम. मासूम साहब और बहुत से दूसरे ब्लॉगर्स ने भी दिए हैं। अलबेला खत्री जी और कुछ दूसरे ब्लॉगर्स ने उनसे कुछ सवाल भी पूछे हैं। ऐतराज़ जताने वाले भी बहुत से हैं।
    दिव्या जी के अलावा भी कुछ नाम आपने और दिए होते तो तस्वीर और ज़्यादा क्लियर हो जाती कि एक ब्लॉगर का विरोध दो ब्लॉगर ने किया है, ऐसा नहीं है।
    आत्म सम्मान के प्रति सचेत ब्लॉगर अभी मौजूद हैं।

    आपने अपनी टिप्पणियों के माध्यम से उन्हें सही राह दिखाई। आपने ‘पूरा सच‘ कहा है, यह सराहनीय है।
    ‘ब्लॉग की ख़बरें‘ ने 2 पोस्ट्स के माध्यम से उसे प्रकाशित किया है। दोनों ही लोकप्रिय पोस्ट्स के कॉलम में देखी जा सकती हैं।
    आपकी यह पोस्ट भी निम्न लिंक पर देखी जा सकती है-
    http://blogkikhabren.blogspot.in/2012/05/blog-post_21.html

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    1. दरअसल जब भी कोई व्यक्ति अपने कर्तव्यों के प्रति ईमानदार नहीं होगा, लेकिन ईमानदार दिखने की कोशिश करेगा, तो उसके सामने कई तरह की मुश्किलें आएंगी। वो खुद भी नहीं समझ पाएगा कि मैं क्या सही कर रहा हूं क्या गलत। अपनी बात को ऊंची करने के लिए वो कोशिश करेगा कि कुछ बिगडैल टाइप के लोगों को साथ रखकर ईमानदार कोशिशों का गला दबा दिया जाए। कुछ ऐसा ही प्रयास किया जा रहा है इस समय।
      विषय से लोगों को भटकाने के लिए कुछ ऐसे प्रयास किए जा रहे हैं कि लोगों का हमला दूसरी ओर होने लगे। मसलन उन्होंने अपने बचाव के लिए जिस तरह से कुछ ब्लागर बाऊंसरों की मदद ली है, ये सब वही कर सकते हैं। उन्हें मुबारक हो।

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  7. मैं बस इतना जानती हूँ कि ब्लोगिंग में मैं सम्मानित होने नहीं आई हूँ ... और सच कहूँ तो मैं ब्लोगिंग करती भी नहीं हूँ ...बस जो मन में भाव होते हैं उनको कविता का रूप दे सबके बीच रख देती हूँ .... पाठकों का साथ मिलता है अच्छा लगता है ....

    आत्मसम्मान रहे बस इससे ज्यादा कुछ नहीं ... सार्थक पोस्ट

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    1. काश आप जैसों की बात लोगों की समझ मे आए और सही रास्ते पर आगें बढें। लेकिन अहम आदमी को अंधा बना देता है, तब उसे कुछ दिखाई नहीं देता। खैर जो मर्जी हो करें, मेरा काम था सिर्फ लोगों को आगाह करना, वो कर दिया।

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  8. आदरणीय महेंद्र जी
    पहली बात तो यह की रचनात्मकता किसी सम्मान की मोहताज नहीं होती , वह प्रोत्साहन की मोहताज जरुर हो सकती है . लेकिन अगर कहीं से कोई प्रोत्साहन नहीं भी मिल रहा है तो भी रचनाकार अभिव्यक्ति करना नहीं छोड़ता. क्योँकि सार्थक और समाजोपयोगी अभिव्यक्ति उसकी रूह की आवाज है .....विश्व के साहित्य पर दृष्टिपात करें तो ऐसे रचनाकार हुए हैं जो सिर्फ और सिर्फ रचनात्मकता के लिए ही जाने जाते हैं , और रचनात्मकता के सिवा उन्होंने किसी चीज को महता ही नहीं दी .....और निश्चित रूप से ऐसे रचनाकार आत्मसम्मानी ......सम्मान से बढ़कर है आत्मसम्मान ....लेकिन आज इसकी ही तो सबसे ज्यादा कमी देखी जाती है ...मैंने जब ब्लॉगिंग पर शोध कार्य करना शुरू किया था तो तब में ब्लॉगिंग प्रत्यक्ष रूप से नहीं करता था ....हाँ ब्लॉगस पढता जरुर था ....लेकिन अब दो वर्षों के सतत अनुभव के बाद कह सकता हूँ कि चाहे ब्लॉगस कि संख्या 50000 मानी जा रही हो , लेकिन यहाँ मौलिक चिंतन का आभाव है , हाँ कुछ ब्लॉगर निश्चित रूप से महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं .....लेकिन उनकी संख्या उँगलियों पर गिनी जा सकती है , हम इस बात को स्वीकारते हैं कि मौलिक चिंतन, शोधपरक, समाजोपयोगी तो होना ही चाहिए जिसका लाभ नेट युजर्स उठा सके कोई भी लेखक स्वांत: सुखाय लिखता है . अगर उसके लेखन को समाज स्वीकार कर लेता है यह उसके लिए बोनस ही है......लेकिन यहाँ लेखन से प्रेम कम और प्रचार से ज्यादा है . इसलिए कई ब्लॉगर तो एक पोस्ट का लिंक ही कई ब्लॉगस पर लगा देते हैं ....कुछ दूसरों से पोस्ट मंगवाकर अपने ब्लॉग पर पोस्ट करते रहते हैं .....कुछ टी . वी. और अखवारों के समाचार को अपने ब्लॉग पर पोस्ट करते रहते हैं ...ऐसे में जब लेखन के लिए नियत ही ठीक न हो तो बाकी की क्या अपेक्षा कि जा सकती है .....आत्मसम्मान सम्मान से बढ़कर है ...और उसे हर हाल में बचाए रखना हमारा ही काम है .

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    1. भाई केवल जी,
      बेशक हमारी मुलाकात नहीं हुई है, पर मैं आपका प्रशंसक हूं। मैं आपको पढता हूं। मुझे पहले भी किसी ने बताया था कि आप ब्लाग पर शोध कर रहे हैं और बहुत कुछ आपने इस ब्लाग परिवार को अपने लेखनी के जरिए दिया।
      दरअसल मैं सामने गलत काम होते देख नहीं पाता। वैसे सच मे मुझे लग रहा है कि मै भी कहां कि बातें लेकर बैठ गया। सबकी अपनी अपनी दुकाने हैं चलती रहेंगी। मुझे इसे नजरअंदाज करना चाहिए था। लेकिन मैने जब बात उठाई थी तो उसके पीछे मंशा सुधार की थी, मुझे उम्मीद थी कि अभी भी सुधार की गुंजाइश बनी हुई है। पर सुधार के बजाए मेरे ऊपर व्यक्तिगत हमला किया गया। जिससे मैंने खुद को आहत महसूस किया।
      बहरहाल मेरा मानना कि अगर हम अपने स्वाभिमान की रक्षा नहीं कर सकते, तो दूसरों को न्याय क्या दिलाएंगे।

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    2. आपका मत निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है ......!

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  9. बहुत सशक्त पोस्ट है ..!
    मेरी समझ से भी ...लिखना ...और सार्थक लिखना ज्यादा ज़रूरी है न कि सम्मान पाना |और सबसे ज़रूरी तो आत्म सम्मान की रक्षा ही है |सार्थक लिखते चलें वस्तुतः आज के परिपेक्ष में उससे बड़ा सम्मान कुछ भी नहीं ...!
    शुभकामनायें ...!!

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    1. अनुपमा जी आपके समर्थन से मुझे ताकत मिली है।आपका बहुत बहुत आभार

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  10. ल्र्खा बहुत अच्छा लगा |बधाई |
    आशा

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  11. आपसे सहमत हूँ कि आत्मसम्मान से बड़ा कुछ भी नहीं ... पर क्या ऐसा नहीं लगता कि इस बार परिकल्पना सम्मान कुछ ज्यादा ही चर्चा मे आ गया है ... शायद इस की वजह पिछले साल हुये कुछ विवाद है ... या सच मे ऐसा है कि इतने दिनो से सब सो रहे थे अचानक सब की नींद एक साथ खुली है ... कोई पहली बार तो हो नहीं रहा यह सब ! मैं खुद काफी असमंजस मे हूँ यह सब देख कर ... यकीन जनिएगा मुझे इन सम्मानों की कोई लालसा नहीं है ... मैं ब्लॉग जगत मे ऐसे है आ गया था ... पर कब यहीं का हो गया पता ही नहीं चला ... जो स्नेह और अपनापन यहाँ मिला मेरे लिए सब से बड़ा सम्मान तो वही है और सदा रहेगा ! जहां तक मेरी समझ जाती है रवीन्द्र प्रभात जी हो न हो खुद इस समय काफी असमंजस मे होंगे कि अचानक से कैसे वो और उनका परिकल्पना सम्मान संदेह के घेरे मे आ गया है ... कहाँ चूक हो गयी उनसे ... ऐसे मे जब विरोध मे इतने स्वर उठ रहे हो ... यह जरूरी हो जाता है कि बातें जितनी जल्द साफ हो जाये उतना अच्छा ... आखिर इस सब से नुकसान तो हिन्दी ब्लॉग जगत का ही हो रहा है न !

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    1. मैने तो साफ सुथरे तरीके से एक बात कहने की कोशिश की। जबाव में मुझे अज्ञानी बताया गया। हालाकि मैं बहुत ईमानदारी से बताऊं मुझे लग रहा है कि मै बेवजह इस पचड़े में पड़कर अपना समय खराब कर रहा हूं। लेकिन अगर ये नहीं करता तो पता लगता कि सच्चाई का साथ देने को कोई तैयार नहीं रहता है। सब नामिनेशन में लगे हुए है, सब सम्मान के लोभी हैं।
      बस इसीलिए मैने अपनी बात मजबूती से रखी। अब वो जाने और उनका काम....

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  12. पहले हिंदी ब्‍लॉगिंग से अश्‍लीलता, नफरत, धर्मोन्‍माद, वर्ग भेद मिटाने और हिंदी ब्‍लॉगिंग को पाठ्यक्रम में लाने की सख्‍त जरूरत है। हम वह तो कर नहीं रहे हैं, उसके बाद हमें इस प्रकार के कामों पर अपना समय बरबाद नहीं करना होगा। हम वह तो कर नहीं रहे हैं, वह कर रहे हैं जिसकी कोई जरूरत ही नहीं है। यह सब तो अपने आप होता चला जाएगा। समय सब कुछ मथ देगा और मंथन से जो बाहर आएगा, उसी पर चिंतन किए जाने की जरूरत है। कुछ भी लिख दो , सलाह देने वाले खूब मिल जाएंगे लेकिन कदम उठाने से सब घबराएंगे। यह सब जानते हैं कि सिर्फ लिखने से कुछ होने-जाने वाला नहीं है। जब तक कुछ व्‍यवहार में सार्थक किया ही नहीं जाएगा, तो उन्‍नति की आशा कैसे की जा सकती है। यहां सच का साथ देने वाले नहीं, मजे लेने वाले सक्रिय हो चुके हैं। कोई कि‍सी के लिए अपशब्‍द कहे, उसे जान से मारने की धमकी दे (मानो वही सर्वशक्तिमान है), वह भी अश्‍लीलता के समर्थन में, यहां पर तो तब भी कतिपय दो-चार हिंदी ब्‍लॉगरों को छोड़कर किसी में रीढ़ की मौजूदगी नहीं नजर आई, आत्‍म सम्‍मान और सम्‍मान की बात तो बहुत दूर की बात है। यह जानते हुए भी यही स्थिति कल को उसके साथ भी हो सकती है। महिलाएं पूरे हिंदी ब्‍लॉग जगत को हिलाने पर आमादा हैं, उसमें उनके हिमायती खुलकर उनका साथ दे रहे हैं और वह वहां पर गालियों और धमकियों को पढ़कर उनका समर्थन भी कर रही हैं।
    इसे कहते हैं खाने और दिखाने के अलग अलग दांत। वैसे अलग अलग होने ही चाहिएं। नहीं तो रोजाना सारे दांत ही साफ करने होंगे। सारे दांतों की सफाई पर रोज लग गए तो फेसबुक का फेकबुकीय लाभ और ब्‍लॉगिग पर जॉगिंग और जिम का आनंद कैसे ले पाएंगे। इतना ही काफी है, वैसे महिलाओं की रचनात्‍मक शक्ति बहुत गजब की है और एकजुटता भी, अब चाहे वह गलत के प्रति ही क्‍यों न हो, संगठन में शक्ति यूं ही नहीं कही गई है।

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    1. मैं आपकी सभी बातों से पूरी तरह सहमत हूं। दरअसल हम यहां कुछ रचनात्मक करने की शैली ही विकसित नहीं कर पाए। यहां जो कुछ हो रहा है, उसके लिए वही जिम्मेदार हैं जिन्हें दशक का ब्लागर कहने जा रहे हैं। खैर...

      हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
      वो कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती ।।

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  13. महेन्द्र जी हम तो सम्मान से अधिक आत्म सम्मान में विश्वास रखते हैं...बहुत सशक्त लेख...आभार

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  14. very well said mr mahendra shrivastav
    we have been saying this every time such prizes are being given but they say ITS NECESSARY TO PROMOTE HINDI .
    every one is well aware that these prize ceremonies are conducted only to develop PR with various people who can promote the organisers .
    the funds are being mobilzed from various places but never once the accounts are given
    last year the same happened
    the blogger of last ten years is just one , the person who started the first blog in hindi and many even dont know his name

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    1. शुक्रिया रचना जी
      आपका बहुत बहुत आभार

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  15. वाह...बेहतरीन और प्रशंसनीय प्रस्तुति...

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  16. किसी भी समझदार इंसान को सम्मान से ज्यादा आत्म सम्मान ही प्रिय होगा। बहुत ही अच्छा विश्लेषण किया है आपने सार्थक पोस्ट शुभकामनायें

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  17. सार्थकता लिए हुए सटीक प्रस्‍तुति... आभार ।

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  18. आज के चर्चा मंच से आपकी इस पोस्ट पर आना हुआ ! बहुत सटीक विश्लेषण किया है आपने! आपकी लेखनी में तो साक्षात सरस्वती विराजती हैं ! निसंदेह आत्म-सम्मान से बड़ा कुछ भी नहीं होता ! यदि आत्म-सम्मान रहेगा तो स्वमेव ही सारे सम्मान क़दमों में आ बिछेंगे ! आत्म-सम्मान ही हमारे व्यक्तित्व का आधार-स्तम्भ है !--वन्दे मातरम् !

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जी, अब बारी है अपनी प्रतिक्रिया देने की। वैसे तो आप खुद इस बात को जानते हैं, लेकिन फिर भी निवेदन करना चाहता हूं कि प्रतिक्रिया संयत और मर्यादित भाषा में हो तो मुझे खुशी होगी।