Friday, 16 December 2011

सोनिया को नहीं जानती मुनिया ...

स लड़की को नहीं पता कि देश की राजधानी दिल्ली में आज कल किस बात की जंग अन्ना छेड़े हुए हैं। इसे तो सिर्फ ये पता है कि अगर शाम तक उसकी लकड़ी ना बिकी तो घर में चूल्हा नहीं जलेगा। पूरे शरीर पर लकडी की बोझ तले दबी इस लड़की की कहानी वाकई मन को हिला देने वाली है। मुझे लगता है कि देश की तरक्की को मापने का जो पैमाना दिल्ली में अपनाया जा रहा है, उसे सिरे से बदलने की जरूरत है। जंगल की जो तस्वीर मैने देखी है, उसे आसानी से भुला पाना मेरे लिए कत्तई संभव नहीं है। 
ज्यादा दिन नहीं हुए हैं, मैं आफिस के टूर पर उत्तराखंड गया हुआ था। घने जंगलों के बीच गुजरते हुए मैने देखा कि जंगल में कुछ लड़कियां पेड़ की छोटी छोटी डालियां काट रहीं थी और वो इन्हें इकठ्ठा कर कुछ इस तरह समेट रहीं थीं, जिससे वो उसे आसानी से अपनी पीठ पर रख कर घर ले जा सकें। दिल्ली से काफी लंबा सफर तय कर चुका था, तो वैसे भी कुछ देर गाड़ी रोक कर टहलने की इच्छा थी, जिससे थोड़ा थकान कम हो सके।
हमने यहीं गाड़ी रुकवा दी, गाड़ी रुकते ही ये लड़कियां जंगल में कहां गायब हो गईं, पता नहीं चला। बहरहाल मैं गाड़ी से उतरा और जंगल की ओर कुछ आगे बढ़ा। हमारे कैमरा मैन ने जंगल की कुछ तस्वीरें लेनी शुरू कीं, तो इन लड़कियों को समझ में आ गया कि हम कोई वन विभाग के अफसर नहीं, बल्कि टूरिस्ट हैं। दरअसल लकड़ी काटने पर इन लड़कियों को वन विभाग के अधिकारी परेशान करते हैं। इसके लिए इनसे पैसे की तो मांग की ही जाती है, कई बार दुर्व्यवहार का भी सामना करना पड़ता है। लिहाजा ये कोई भी गाड़ी देख जंगल में ही छिप जाती हैं।
हमें थोडा वक्त यहां गुजारना था, लिहाजा मैं इन लड़कियों के पास गया और उनसे सामान्य बातचीत शुरू की। बातचीत में इन लड़कियों ने बताया कि उन्होंने दिल्ली का नाम तो सुना है, पर कभी गई नहीं हैं। बात नेताओं की चली तो वो सोनिया, राहुल या फिर आडवाणी किसी को नहीं जानती। हां इनमें से एक लड़की मुनिया है जो उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी का नाम जानती है, पर वो क्या थे, नहीं पता। मैने सोचा आज कल अन्ना का आंदोलन देश दुनिया में छाया हुआ है, शायद ये अन्ना के बारे में कुछ जानती हों। मैने अन्ना के बारे में बात की, ये एक दूसरे की शकल देखने लगीं।
खैर इनसे मेरी बात चल ही रही थी कि जेब में रखे मेरे मोबाइल पर घर से फोन आ गया, मै फोन पर बातें करने लगा। इस बीच मैं देख रहा था कि ये लड़कियां हैरान थीं कि मैं कर क्या रहा हूं। मेरी बात खत्म हुई तो मैने पूछा कि तुम लोग नहीं जानते कि मेरे हाथ में ये क्या है, उन सभी ने नहीं में सिर हिलाया। बहरहाल अब मुझे आगे बढना था, लेकिन मैने सोचा कि अगर इन्हें मोबाइल के बारे में थोड़ी जानकारी दे दूं, तो शायद इन्हें अच्छा लगेगा। मैने बताया कि ये मोबाइल फोन है, हम कहीं भी रहें, मुझसे जो चाहे मेरा नंबर मिलाकर बात कर सकता है। मैं भी जिससे चाहूं बात कर सकता हूं। मैने उन्हें कहा कि तुम लोगों की बात मैं अपनी बेटी से कराता हूं, ठीक है।
मैने घर का नंबर मिलाया और बेटी से कहा कि तुम इन लड़कियों से बात करो, फिर मैं बाद में तुम्हें बताऊंगा कि किससे तुम्हारी बात हो रही थी। बहरहाल फोन से बेटी की आवाज सुन कर ये लड़कियां हैरान थीं। हालाकि ये लड़कियां कुछ बातें तो नहीं कर रही थीं, लेकिन दूसरी ओर से मेरी बेटी के हैलो हैलो ही सुनकर खुश हो रही थीं।
अब मुझे आगे बढना था, लेकिन मैने देखा कि इन लड़कियों ने लकड़ी के जो गट्ठे तैयार किए हैं, वो बहुत भारी हैं। मैने पूछा कि ये लकड़ी का गट्ठर तुम अकेले उठा लोगी, उन सभी ने हां में सिर हिलाया। भारी गट्ठर देख मैने भी इसे उठाने की कोशिश की, मैं देखना चाहता था कि इसे मैं उठा सकता हूं या नहीं। काफी कोशिश के बाद भी मैं तो इसे नहीं उठा पाया। इसके पहले कि मै इन सबसे विदा लेता, मेरी गाड़ी में खाने पीने के बहुत सारे सामान थे, जो मैं इनके हवाले करके आगे बढ गया।
मैं इन्हें पीछे छोड़ आगे तो बढ गया, पर सच ये है कि इनके साथ हुई बातें मेरा पीछा नहीं छोड़ रही हैं। मैं बार बार ये सोच रहा हूं कि पहाड़ों पर रहने वाली एक बड़ी आवादी किस सूरत-ए-हाल में रह रही है। ये बाकी देश से कितना पीछे हैं। इन्हें नहीं पता देश कौन चला रहा है, इन्हें नहीं पता देश में किस पार्टी की सरकार है। राहुल गांधी और केंद्र सरकार अपनी सरकारी योजना नरेगा की कितनी प्रशंसा कर खुद ही वाहवाही लूटने की कोशिश करें, पर हकीकत ये है कि जरूरतमंदो से जितनी दूरी नेताओं की है, उससे बहुत दूर सरकारी योजनाएं भी हैं।
अन्ना के साथ ही उनकी टीम अपने आंदोलन को शहर में मिल रहे समर्थन से भले ही गदगद हो और खुद ही अपनी पीठ भी थपथपाए, पर असल लड़ाई जो लड़ी जानी चाहिए, उससे हम सब अभी बहुत दूर हैं। हम 21 सदी की बात करें और गांव गांव मोबाइल फोन पहुंचाने का दावा भी करते हैं, लेकिन रास्ते में हुए अनुभव ये बताने  के लिए काफी हैं कि सरकारी योजनाएं सिर्फ कागजों पर ही मजबूत हैं। घर वापस आकर जब मैने बेटी को बताया कि रास्ते में कुछ ऐसी लड़कियों से मुलाकात हुई जो कभी दिल्ली नहीं आई हैं, उन्हें नहीं पता कि यहां किसकी सरकार है। यहां तक कि ये लड़कियों मोबाइल फोन देखकर भी हैरान थीं, तो बच्चों को भी यकीन नहीं हो रहा है, पर सच ये है कि तस्वीर खुद बोलती है।     

28 comments:

  1. आपका संस्मरण जहां विचार-उत्तेजक हैं वहीं भारत और इंडिया के अंतर को उजागर कर रहा है... परंतु मुझे संदेह है की कोई भी जन आंदोलन भारत के भीतर तक सही मायानों मे पहुँच पाया है... वैसे भारत को लोग कितना समझ पाएँ हैं और कितना समझा पाएँ हैं समझने वाले नहीं कहा जा सकता... https://twitter.com/knkayastha

    ReplyDelete
  2. दुखद है पर सच है कि एक वक़्त था , जब मैं बहुतों को जानती थी . जवाहरलाल नेहरु की तस्वीर , गाँधी जी की , सुभाषचंद्र बोस , भगत सिंह .... की तस्वीर के आगे श्रद्धा से सर झुक जाता था . आज मुनिया क्या , (उसकी तो दुनिया वही है), मैं भी बहुतों को नहीं जानती , सुनकर भूल जाती हूँ , क्योंकि हर शाख पे कौवा बैठा है अंजाम ए गुलिस्तान क्या होगा.......

    ReplyDelete
  3. ye bhi hamaara hi sach hai , chaunkaau nahi kahungi . maine bhi aisa dekha hai .

    ReplyDelete
  4. Mahendraji, we all know reality of this kind is not rare. You step of the capital and you will notice these hard facts about more than 50% of Indians who are still struggling for their basic neccessities. Their only concern for the life to how to meet daily needs. Some people are so poor and deprived that they do not have the luxary to afford meals twice a day.
    www.rajnishonline.blogspot.com

    ReplyDelete
  5. ye poora sach hai...hruday vidarak sach....

    ReplyDelete
  6. आपका आलेख आज की हकीकत है,पूरा सच.....विचारणीय पोस्ट..

    मेरी नई पोस्ट की चंद लाइनें पेश है....

    नेता,चोर,और तनखैया, सियासती भगवांन हो गए
    अमरशहीद मातृभूमि के, गुमनामी में आज खो गए,
    भूल हुई शासन दे डाला, सरे आम दु:शाशन को
    हर चौराहा चीर हरन है, व्याकुल जनता राशन को,

    पूरी रचना पढ़ने के लिए काव्यान्जलि मे click करे

    ReplyDelete
  7. अन्ना के साथ ही उनकी टीम अपने आंदोलन को शहर में मिल रहे समर्थन से भले ही गदगद हो और खुद ही अपनी पीठ भी थपथपाए, पर असल लड़ाई जो लड़ी जानी चाहिए, उससे हम सब अभी बहुत दूर हैं।

    अन्ना पर इस लेख में कटाक्ष क्यूँ ?
    इसमें अन्ना क्या कर सकते हैं.उन्होंने जो भी अपने गाँव व देश के लिए करने की कोशिश की है,वह सराहनीय है.

    वैसे आपके लेख से सुन्दर जानकारी मिली.

    ReplyDelete
  8. ये भारत की वास्‍तविक तस्‍वीर है।
    महानगरों से काफी पीछे।
    उत्‍तराखंड ही नहीं, किसी भी वनांचल में ऐसी तस्‍वीरें मिल ही जाएंगी... पर अफसोस हर कोई आपकी तरह संवेदनशील नहीं होता.....इनकी दशा और दिशा सुधारने का 'ठेका' रखने वाले नेता तो कतई नहीं.... वरना ऐसी तस्‍वीरें अब नहीं मिलतीं....
    बढिया पोस्‍ट......

    ReplyDelete
  9. संवेदनशील पोस्ट, बिलकुल यथार्थ के करीब !

    आभार !!

    ReplyDelete
  10. देश में यह संख्‍या बहुत बड़ी है लेकिन इस देश का दुर्भाग्‍य है कि मीडिया भी इनकी खोज-खबर नहीं लेता। किसी ने कभी बिजली नहीं देखी है तो किसी ने रेल। शिक्षा किस चिडिया का नाम है ये लोग नहीं जानते। बस शोषण ही लिखा है इनके भाग्‍य में। इन्‍हीं परिस्थितियों का लाभ उठाकर नक्‍सलवादी पैदा किये जाते हैं। आपके अच्‍छी जानकारी दी है, आपको बधाई।

    ReplyDelete
  11. आप के लेख ,मुझ जैसों की टिप्पणी के मोहताज नही ,मुझ जैसों को
    पूरा सच जानने के लिए है ......!
    आभार और शुभकामनाएँ!

    ReplyDelete
  12. बेहद सार्थक व सटीक लेखन ...आभार ।

    ReplyDelete
  13. बहुत ही सार्थक व सटीक चित्रण....

    ReplyDelete
  14. संवेदनशील व सार्थक लेखन ...आभार ।

    ReplyDelete
  15. देश की सही दशा वर्णित की है .. अजीत गुप्ता जी की बात से सहमत हूँ ..

    ReplyDelete
  16. मुझे लगता है कि देश की तरक्की को मापने का जो पैमाना दिल्ली में अपनाया जा रहा है, उसे सिरे से बदलने की जरूरत है।

    एकदम सही कहते हैं आप....
    विचारणीय तथ्यों को समेटे संस्मरण....
    सादर.

    ReplyDelete
  17. महेंद्र जी ...आपका लेख पढ़ा ...और जो समझ में आया उस के ही आधार पर आपको ये टिप्पणी दे रही हूँ
    हम लोगो के देश में ७०%लोग अब भी गरीबी रेखा के नीचे है ...जो हम लोगो की दुनिया से ताल मेल नहीं
    बिठा पाते हैं ...वो शहरी जिन्दगी ,यहाँ के मौहोल ...यहाँ की राजनीति गलियारे को नहीं जानते
    उनकी अपनी ही एक दुनिया है ..जहाँ वो सिर्फ अपनी भूख से ही दो चार हो पाते है
    ना तो वो लोग इस दुनिया का हिस्सा बन सकते है ...और ना ही ये ऊँचे लोग (हम जैसे भी ) उन्हें स्वीकार करंगे

    फिर भी आपके लेख सोचने को मजबूर करता है कि ....अब तक ऐसा क्यूँ हो रहा है ...ये फर्क क्यूँ ?
    अपने ही देश में ...गावों से इतना मतभेद क्यूँ ?

    ReplyDelete
  18. ज़िन्दगी की जंग से फुर्सत मिले तो जाने मुनिया किसी को ..... सार्थक विचार

    ReplyDelete
  19. काश ! ये लेख सोनिया जी पढ़ पातीं,
    उन्हें न तो हिंदी आती है और न ही
    गरीबों की भाषा. और ठीक भी तो
    है जब मुनिया सोनिया को नहीं
    जानती तो फिर सोनिया मुनिया
    को क्यों जाने.
    उत्तम रचना.
    धन्यवाद.
    आनन्द विश्वास.

    ReplyDelete
  20. ये आधा नहीं पूरा सच है. बड़ी विकट परिस्थिति है. दिल्ली में बैठ कर तमाम योजनायों की जमीनी हकीकत यही है.

    सच को स्वीकारने के अलावा कोई रास्ता नहीं. बस कोई रास्ता निकले और सब का भला हो. यही कामना है.

    ReplyDelete
  21. आपके पोस्ट पर आना सार्थक होता है । मेरे नए पोस्ट "खुशवंत सिंह" पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।

    ReplyDelete
  22. संस्मरण सोचने को विवश करता है!

    ReplyDelete
  23. बहुत अच्छा लेख...
    बड़ी गंभीर बात एवं रोचक प्रस्तुतीकरण.

    ReplyDelete
  24. बहुत बढ़िया आलेख ...

    ReplyDelete
  25. बहुत सुन्दर आलेख महेंद्र जी, आज हमरे देश में ऐसे तमाम लोग है जिन्हें अपनी रोटी रोज़ी के लिए जी तोड़ मेहनत करनी होती है, इन्हें अन्ना या राजनीती से कोई लेना देना नहीं है, जब तक इनके हालात नहीं सुधरेंगे तब तक देश व समाज का वास्तविक विकास नहीं हो सकता, सच को उजागर करती समसामयिक रचना.

    ReplyDelete
  26. यह नेता इन्ही भोले भाले लोगो को सपने दिखा कर अपना उल्लू सीधा कर लेते हे..

    ReplyDelete

जी, अब बारी है अपनी प्रतिक्रिया देने की। वैसे तो आप खुद इस बात को जानते हैं, लेकिन फिर भी निवेदन करना चाहता हूं कि प्रतिक्रिया संयत और मर्यादित भाषा में हो तो मुझे खुशी होगी।