देश संकट के दौर से गुजर रहा है, ये वक्त है जब नेताओं को अपने दल से ऊपर देश को रखना होगा, उन्हें मिलकर सोचना होगा कि आखिर गल्ती कहां हुई, क्यों लोग सड़कों पर जमा हो रहे हैं ? सरकार के प्रति लोगों में इतनी नफरत क्यों है? इस समस्या का समाधान भी जल्दी तलाशना होगा। अगर सभी दलों के नेता आपस में ही झगड़ते रहे, तो उनका नुकसान तो ज्यादा नहीं होगा, लेकिन देश की जो दुर्गति होगी, उसकी भरपाई बिल्कुल आसान नहीं होगी। वक्त आ गया है कि राजनीतिक दल खुद ही भ्रष्टाचार से देश को बाहर निकालने का ऐसा रास्ता तलाशें, जिस पर लोगों को यकीन हो। सच्चाई ये है कि देश में महंगाई एक समस्या है, भ्रष्टाचार उससे भी बड़ी समस्या है, लेकिन सियासी दल जनता का भरोसा खोते जा रहे हैं ये सबसे बड़ी समस्या है। किसी भी लोकतांत्रिक देश में अगर राजनीतिक दलों से जनता का भरोसा खत्म होने लगे तो समझ लिया जाना चाहिए कि लोकतंत्र खतरे में हैं। इसी का फायदा उठा रही है टीम अन्ना।
मै मानता हूं कि देश में भ्रष्टाचार को लेकर लोगों में गुस्सा है। इसे रोकने के लिए पहले ही ठोस प्रयास किया जाना चाहिए था। पर ऐसा नहीं हुआ, गल्ती किसकी है, इस पर जाना बेमानी है। देश में वोट की राजनीति ने कानून को भी जाति धर्म के आधार पर बांट दिया है। आतंकवादियों से निपटने के लिए देश में बीजेपी की सरकार ने पोटा कानून बनाया, कांग्रेस ने महज एक तपके के वोट की लालच में इस कानून को खत्म कर दिया। मैं बहुत जिम्मेदारी के साथ एक बात कहना चाहता हूं कि आज भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कानून की बात की जा रही है। मैं कहता हूं कि कानून सख्त बन भी गया, लेकिन उस पद पर आदमी ढीला बैठ गया तो सख्त कानून का माखौल भर उड़ना है। मुझे लगता है कि कानून कैसा भी हो,आदमी सख्त हो तो वो सूरत बदलने में सक्षम होगा। आपको याद होगा निर्वाचन आयोग जैसी संवैधानिक संस्था को लोग गैरजरूरी समझते थे, लेकिन मुख्य चुनाव आयुक्त के पद पर तैनात हुए टीएन शेषन ने कानून के दायरे में रहकर बता दिया कि पद की मर्यादा कैसे कामय रखी जाती है।
बहरहाल मैं आज भी इस बात पर कायम हूं कि अन्ना की मांग सही है, परंतु तरीका बिल्कुल गलत। अन्ना का आंदोलन देश के लोकतांत्रिक ढांचे को तार तार करने वाला है, सच कहें तो ये आंदोलन संसद पर हमला है। संसद पर दस साल पहले पांच आंतकवादियों ने हमला किया था, लेकिन उनका मकसद कुछ लोगों की हत्या करना था, पर सिविल सोसायटी के पांच लोग संसद पर जो हमला कर रहे हैं वो उस आतंकी हमले के मुकाबले ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि इनका मकसद देश के लोकतंत्र की हत्या करना दिखाई दे रहा है। जब भी मैं ऐसा कहता हूं तो कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी मोर्चा संभाल लेते हैं और मुझ पर कांग्रेसी होने का ठप्पा लगाकर गंभीर मसले से जनता का ध्यान हटाने की साजिश करते हैं। अब आप ही बताएं कि सांसदों पर दबाव बनाया जा रहा है कि जो अन्ना कहें, संसद के भीतर उन्हें वही बोलना है, अगर वैसा नहीं बोला गया तो उस सांसद के घर के बाहर धरना शुरू हो जाएगा। यानि सांसद को देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद में टीम अन्ना का बंधक बना रहना होगा।
मैं हैरान हूं आज तमाम बुद्धिजीवी अन्ना के आँदोलन की तुलना उन देशों से कर रहे है, जहां किसी तानाशाह शासक का राज चल रहा है, वहां ना चुनाव होते हैं ना लोगों के नागरिक अधिकारों की रक्षा होती है। 30- 40 साल से कोई एक शख्स ताकत और पैसे के बल पर राज कर रहा है, ऐसे में एक ना एक दिन जनता का गुस्सा सड़कों पर आना ही था। अन्ना के सम्मान में तर्क दे रहे है कि ये आंदोलन कितना शांतिपूर्ण है, एक भी पत्थर नहीं चला। जबकि दूसरे मुल्कों के आंदोलन में कितना खून खराबा हुआ। अब इन्हें कौन बताए दूसरे मुल्कों में तानाशाह शासक हैं जो अपने ही देश के लोगों पर गोली बारी करा रहे थे, इसके जवाब में आंदोलनकारियों ने भी पत्थरबाजी और गोलीबारी की। यहां सरकार ने भी तो संयम बरता है, वरना जिस तरह से मंच से भड़काऊ भाषण देकर जनता को उकसाने की कोशिश हो रही है, अगर सरकार सख्ती करे, तो आंदोलन की सूरत यहां भी बदल सकती है। आंदोलन के शांतिपूर्ण होने का क्रेडिट अन्ना से ज्यादा सरकार को दिया जाना चाहिए। अन्ना के मुकाबले जेपी आंदोलन पर भी कीचड़ उछालने की कोशिश हो रही है। कहा जा रहा है कि उनके आंदोलन के दौरान देश में हिंसा हुई। मुझे लगता है कि उस दौरान आंदोलन को ताकत के बल पर कुचलने की कोशिश हुई, जिससे जनता में भी आक्रोश भड़का और कई जगह हिंसा, तोड़फोड़ और आगजनी की वारदातें हुईं।
जेपी आंदोलन आखिर में एक राजनैतिक आंदोलन बन चुका था, उन्हें लगने लगा था कि व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई के लिए जरूरी है कि राजनैतिक विकल्प भी खड़ा किया जाए। इसके बाद लोकनायक ने एक मजबूत विकल्प भी दिया। आज अन्ना कहां खड़े हैं अभी तक साफ नहीं है। यानि " ना ही में, ना सी मैं, फिर भी, पांचो उंगली घी में "। पर्दे के पीछे से सियासी लड़ाई नहीं लड़ी जाती। अगर वाकई मैदान में हैं और राजनीतिक दलों के साथ मिलकर सरकार को घेरना चाहते हैं, साफ कहना चाहिए। जिस जंतर मंतर से कुछ महीने पहले राजनेताओं को खदेडा गया, फिर उन्हें उसी मंच पर स्थान देने के लिए टीम अन्ना क्यों इतनी उतावली दिखी। क्या देश के लोगों पर से उसका भरोसा खत्म हो गया है। वैसे टीम अन्ना को पता था कि उनके मंच पर यूपीए के घटक दलों से तो कोई शामिल होगा नहीं, अच्छा मौका है जंतर मंतर पर विपक्ष को बुलाकर सरकार की किरकिरी कराई जाए, लेकिन ये दांव भी उल्टा पड़ गया। यहां बीजेपी नेता अरुण जैटली ने भले ही अन्ना की मांगो का समर्थन किया, लेकिन लेफ्ट नेता ए वी वर्धन ने टीम अन्ना को खूब खरी खरी सुनाई।
बहरहाल बीजेपी और उनके सहयोगी दलों को ये बताना चाहता हूं कि आप राजनीति तब करेंगे जब देश बचेगा, जब संसद और उसकी मर्यादा बची रहेगी। आज संसद की सर्वोच्चता पर सवाल खड़ा किया जा रहा है। क्या हम मान लें कि कुछ लोग सड़क पर मसौदा तैयार कर सरकार पर दबाव बनाएं कि इसे इसी रूप में कानून बनाया जाना चाहिए, क्या सरकार को ऐसी मांगे मान लेनी चाहिए। मुझे लगता है कि ये तरीका तो अनुचित है ही, अगर ऐसा होता है तो देश में एक ऐसा गलत रास्ता खुल जाएगा, जिसे बाद में बंद करना मुश्किल होगा।
मेरा मानना है कि कमजोर नेतृत्व के चलते सरकार हर गंभीर मसले पर घुटनों पर आ जाती है। अन्ना के आंदोलन से निपटने में सरकार फेल रही है। वैसे भी टीम अन्ना पर भरोसा नहीं किया जा सकता, ये जो बातें करते हैं उस पर कायम नहीं रहते। इसलिए अगर सरकार सख्त रहती, तो रास्ता ये निकलता कि सिविल सोसायटी के ही कुछ लोग बातचीत का प्रस्ताव लेकर सरकार के पास आते। सच तो ये भी है कि जिन लोगों से सरकार की बात हो रही थी, वो इसके काबिल नहीं थे। वरना प्रधानमंत्री के पत्र के बाद पहले तो अन्ना ने अनशन खत्म किया, फिर पूरे देश में जीत का जश्न मनाया गया। इस बीच ऐसा क्या हो गया जिससे टीम अन्ना लोकसभा उप चुनाव में हिसार जाकर कांग्रेस उम्मीदवार का विरोध करने लगी। यूपी के कई शहरों में जाकर कांग्रेस के खिलाफ बात की गई।
इस सवाल पर टीम अन्ना का जवाब होता है कि केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व में ही सरकार चल रही है, वो चाहे तो जनलोकपाल बिल पास करा सकती है। टीम अन्ना को कौन समझाए कि खुदरा व्यापार में प्रधानमंत्री एफडीआई के पक्ष में थे, लेकिन उनके सहयोगी और विपक्ष के तीखे विरोध के चलते ये बिल संसद में पास नहीं हो सका। हमारे देश के लोकतंत्र की यही खूबसूरती है। अगर सरकार चाह कर भी एफडीआई नही पास करा पाई तो वो जनलोकपाल बिल कैसे पास करा सकती है ? तमाम घटनाक्रम को देखने से साफ हो जाता है कि टीम अन्ना इस ड्रामें की पात्र भर है, इनकी स्क्रिप्ट कहीं और लिखी जाती है। टीम अन्ना लोगों को किस कदर गुमराह करती है, इसे भी समझना जरूरी है। स्थाई समिति की रिपोर्ट का माखौल उड़ाते हुए कहा गया कि कमेटी में कुल 30 लोग हैं, जिसमें दो सदस्य कभी आए नहीं। 17 लोगों ने विरोध किया, जबकि सात कांग्रेस के अलावा लालू यादव और अमर सिंह जैसे 11 लोगों ने मिलकर देश के कानून का मसौदा तैयार कर दिया। टीम ने कहा कि सिर्फ 11 लोग देश का कानून कैसे बना सकते हैं? मैं पूछता हूं, कि चलो वो तो 11 लोग थे, लेकिन आप तो सिर्फ पांच लोग ही हैं जो 121 करोड़ जनता के लिए कानून अपने मनमाफिक बनवाने पर आमादा हैं।
बहरहाल मैं चाहता हूं कि स्थाई समिति की प्रक्रिया की संक्षेप में जानकारी लोगों को होनी ही चाहिए। इस मसौदे में कुल लगभग 24 प्रस्ताव हैं। जिन 17 लोगों ने डिसेंट नोट (असहमति पत्र) दिया है, उसका ये मतलब नहीं है कि उन्होंने कमेटी के पूरे मसौदे को ही खारिज कर दिया है। आमतौर पर कोई सदस्य किसी एक प्रस्ताव से सहमत नहीं होता है, किसी को दो पर आपत्ति होती है, कुछ को तीन चार पर भी आपत्ति हो सकती। इससे ये नहीं समझना चाहिए कि सदस्यों ने पूरा मसौदा ही खारिज कर दिया, चूंकि इस मामले में गलत संदेश लोगों को देने की कोशिश हो रही है, लिहाजा इस पर चर्चा जरूरी थी। एक बात और की जा रही है कि प्रधानमंत्री ने आश्वस्त किया था कि निचले स्तर के अधिकारियों कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे में लाया जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। अब टीम अन्ना लोगों मै कैसे जहर घोलती है, ये देखें। प्रधानमंत्री के पत्र में साफ किया गया था कि निचले स्तर के अधिकारियों और कर्मचारियों को उपयुक्त तंत्र के जरिए नियंत्रित करने का प्रयास किया जाएगा। अब सरकार ने सीवीसी को उपयुक्त तंत्र माना है, तो ये कैसे कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री ने जो आश्वासन दिया था, उसे पूरा नहीं किया।
टीम अन्ना की मांगे बेतुकी भी हैं। वो कह रहे हैं सीबीआई को जनलोकपाल के अधीन कर दिया जाए। अब आप बताएं सीबीआई क्या केवल भ्रष्टाचार की ही जांच करती है? अरे सीबीआई के दायरे में दुनिया भर के अपराध शामिल हैं। कई बार हत्या और बलात्कार जैसी घटनाओं की भी जांच सीबीआई करती है। ऐसे में जनलोकपाल भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कैसे केंद्रित हो सकता है। जब ये सवाल उठा तो कहा गया कि पूरी सीबीआई को ना दें, आर्थिक मामलों की जांच करने वाली टीम को लोकपाल के दायरे में कर दिया जाए। अब टीम अन्ना की ऐसी बातों से लगता है कि वो महज विवाद को बनाए रखना चाहते हैं। मैं एक वाकया बताता हूं, यूपी के स्वास्थ्य विभाग में करोडो का घोटाला हुआ, जिसकी जांच सीबीआई कर रही है। इसमें गिरफ्तार एक स्वास्थ्य महकमें के अफसर को गिरफ्तार कर जेल भेजा गया, जहां बाद में उसकी संदिग्ध हालातों में मौत हो गई। अब क्या एक ही मामले में आधी जांच लोकपाल और आधी जांच कोई अन्य विभाग करेगा ?
क्या होना चाहिए, क्या नहीं, ये सब जानते हैं। सभी को पता है कि देश में 121 करोड़ की आबादी को किसी कानून के दायरे में नहीं बांधा जा सकता। जब तक लोग खुद नैतिक नहीं होंगे, तब तक ईमानदारी की बात करना बेमानी है। अन्ना का आंदोलन पूरी तरह राजनैतिक आंदोलन है और इससे राजनैतिक आंदोलन की तरह ही निपटा जाना चाहिए। सरकार जितना घुटना टेकेगी, टीम अन्ना एक के बाद एक मुद्दे पर ऐसे ही सरकार को घुटनों पर लाने की कोशिश करेगी, क्योंकि इस आंदोलन के पीछे की कहानी कुछ और ही है।
मै मानता हूं कि देश में भ्रष्टाचार को लेकर लोगों में गुस्सा है। इसे रोकने के लिए पहले ही ठोस प्रयास किया जाना चाहिए था। पर ऐसा नहीं हुआ, गल्ती किसकी है, इस पर जाना बेमानी है। देश में वोट की राजनीति ने कानून को भी जाति धर्म के आधार पर बांट दिया है। आतंकवादियों से निपटने के लिए देश में बीजेपी की सरकार ने पोटा कानून बनाया, कांग्रेस ने महज एक तपके के वोट की लालच में इस कानून को खत्म कर दिया। मैं बहुत जिम्मेदारी के साथ एक बात कहना चाहता हूं कि आज भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कानून की बात की जा रही है। मैं कहता हूं कि कानून सख्त बन भी गया, लेकिन उस पद पर आदमी ढीला बैठ गया तो सख्त कानून का माखौल भर उड़ना है। मुझे लगता है कि कानून कैसा भी हो,आदमी सख्त हो तो वो सूरत बदलने में सक्षम होगा। आपको याद होगा निर्वाचन आयोग जैसी संवैधानिक संस्था को लोग गैरजरूरी समझते थे, लेकिन मुख्य चुनाव आयुक्त के पद पर तैनात हुए टीएन शेषन ने कानून के दायरे में रहकर बता दिया कि पद की मर्यादा कैसे कामय रखी जाती है।
बहरहाल मैं आज भी इस बात पर कायम हूं कि अन्ना की मांग सही है, परंतु तरीका बिल्कुल गलत। अन्ना का आंदोलन देश के लोकतांत्रिक ढांचे को तार तार करने वाला है, सच कहें तो ये आंदोलन संसद पर हमला है। संसद पर दस साल पहले पांच आंतकवादियों ने हमला किया था, लेकिन उनका मकसद कुछ लोगों की हत्या करना था, पर सिविल सोसायटी के पांच लोग संसद पर जो हमला कर रहे हैं वो उस आतंकी हमले के मुकाबले ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि इनका मकसद देश के लोकतंत्र की हत्या करना दिखाई दे रहा है। जब भी मैं ऐसा कहता हूं तो कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी मोर्चा संभाल लेते हैं और मुझ पर कांग्रेसी होने का ठप्पा लगाकर गंभीर मसले से जनता का ध्यान हटाने की साजिश करते हैं। अब आप ही बताएं कि सांसदों पर दबाव बनाया जा रहा है कि जो अन्ना कहें, संसद के भीतर उन्हें वही बोलना है, अगर वैसा नहीं बोला गया तो उस सांसद के घर के बाहर धरना शुरू हो जाएगा। यानि सांसद को देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद में टीम अन्ना का बंधक बना रहना होगा।
मैं हैरान हूं आज तमाम बुद्धिजीवी अन्ना के आँदोलन की तुलना उन देशों से कर रहे है, जहां किसी तानाशाह शासक का राज चल रहा है, वहां ना चुनाव होते हैं ना लोगों के नागरिक अधिकारों की रक्षा होती है। 30- 40 साल से कोई एक शख्स ताकत और पैसे के बल पर राज कर रहा है, ऐसे में एक ना एक दिन जनता का गुस्सा सड़कों पर आना ही था। अन्ना के सम्मान में तर्क दे रहे है कि ये आंदोलन कितना शांतिपूर्ण है, एक भी पत्थर नहीं चला। जबकि दूसरे मुल्कों के आंदोलन में कितना खून खराबा हुआ। अब इन्हें कौन बताए दूसरे मुल्कों में तानाशाह शासक हैं जो अपने ही देश के लोगों पर गोली बारी करा रहे थे, इसके जवाब में आंदोलनकारियों ने भी पत्थरबाजी और गोलीबारी की। यहां सरकार ने भी तो संयम बरता है, वरना जिस तरह से मंच से भड़काऊ भाषण देकर जनता को उकसाने की कोशिश हो रही है, अगर सरकार सख्ती करे, तो आंदोलन की सूरत यहां भी बदल सकती है। आंदोलन के शांतिपूर्ण होने का क्रेडिट अन्ना से ज्यादा सरकार को दिया जाना चाहिए। अन्ना के मुकाबले जेपी आंदोलन पर भी कीचड़ उछालने की कोशिश हो रही है। कहा जा रहा है कि उनके आंदोलन के दौरान देश में हिंसा हुई। मुझे लगता है कि उस दौरान आंदोलन को ताकत के बल पर कुचलने की कोशिश हुई, जिससे जनता में भी आक्रोश भड़का और कई जगह हिंसा, तोड़फोड़ और आगजनी की वारदातें हुईं।
जेपी आंदोलन आखिर में एक राजनैतिक आंदोलन बन चुका था, उन्हें लगने लगा था कि व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई के लिए जरूरी है कि राजनैतिक विकल्प भी खड़ा किया जाए। इसके बाद लोकनायक ने एक मजबूत विकल्प भी दिया। आज अन्ना कहां खड़े हैं अभी तक साफ नहीं है। यानि " ना ही में, ना सी मैं, फिर भी, पांचो उंगली घी में "। पर्दे के पीछे से सियासी लड़ाई नहीं लड़ी जाती। अगर वाकई मैदान में हैं और राजनीतिक दलों के साथ मिलकर सरकार को घेरना चाहते हैं, साफ कहना चाहिए। जिस जंतर मंतर से कुछ महीने पहले राजनेताओं को खदेडा गया, फिर उन्हें उसी मंच पर स्थान देने के लिए टीम अन्ना क्यों इतनी उतावली दिखी। क्या देश के लोगों पर से उसका भरोसा खत्म हो गया है। वैसे टीम अन्ना को पता था कि उनके मंच पर यूपीए के घटक दलों से तो कोई शामिल होगा नहीं, अच्छा मौका है जंतर मंतर पर विपक्ष को बुलाकर सरकार की किरकिरी कराई जाए, लेकिन ये दांव भी उल्टा पड़ गया। यहां बीजेपी नेता अरुण जैटली ने भले ही अन्ना की मांगो का समर्थन किया, लेकिन लेफ्ट नेता ए वी वर्धन ने टीम अन्ना को खूब खरी खरी सुनाई।
बहरहाल बीजेपी और उनके सहयोगी दलों को ये बताना चाहता हूं कि आप राजनीति तब करेंगे जब देश बचेगा, जब संसद और उसकी मर्यादा बची रहेगी। आज संसद की सर्वोच्चता पर सवाल खड़ा किया जा रहा है। क्या हम मान लें कि कुछ लोग सड़क पर मसौदा तैयार कर सरकार पर दबाव बनाएं कि इसे इसी रूप में कानून बनाया जाना चाहिए, क्या सरकार को ऐसी मांगे मान लेनी चाहिए। मुझे लगता है कि ये तरीका तो अनुचित है ही, अगर ऐसा होता है तो देश में एक ऐसा गलत रास्ता खुल जाएगा, जिसे बाद में बंद करना मुश्किल होगा।
मेरा मानना है कि कमजोर नेतृत्व के चलते सरकार हर गंभीर मसले पर घुटनों पर आ जाती है। अन्ना के आंदोलन से निपटने में सरकार फेल रही है। वैसे भी टीम अन्ना पर भरोसा नहीं किया जा सकता, ये जो बातें करते हैं उस पर कायम नहीं रहते। इसलिए अगर सरकार सख्त रहती, तो रास्ता ये निकलता कि सिविल सोसायटी के ही कुछ लोग बातचीत का प्रस्ताव लेकर सरकार के पास आते। सच तो ये भी है कि जिन लोगों से सरकार की बात हो रही थी, वो इसके काबिल नहीं थे। वरना प्रधानमंत्री के पत्र के बाद पहले तो अन्ना ने अनशन खत्म किया, फिर पूरे देश में जीत का जश्न मनाया गया। इस बीच ऐसा क्या हो गया जिससे टीम अन्ना लोकसभा उप चुनाव में हिसार जाकर कांग्रेस उम्मीदवार का विरोध करने लगी। यूपी के कई शहरों में जाकर कांग्रेस के खिलाफ बात की गई।
इस सवाल पर टीम अन्ना का जवाब होता है कि केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व में ही सरकार चल रही है, वो चाहे तो जनलोकपाल बिल पास करा सकती है। टीम अन्ना को कौन समझाए कि खुदरा व्यापार में प्रधानमंत्री एफडीआई के पक्ष में थे, लेकिन उनके सहयोगी और विपक्ष के तीखे विरोध के चलते ये बिल संसद में पास नहीं हो सका। हमारे देश के लोकतंत्र की यही खूबसूरती है। अगर सरकार चाह कर भी एफडीआई नही पास करा पाई तो वो जनलोकपाल बिल कैसे पास करा सकती है ? तमाम घटनाक्रम को देखने से साफ हो जाता है कि टीम अन्ना इस ड्रामें की पात्र भर है, इनकी स्क्रिप्ट कहीं और लिखी जाती है। टीम अन्ना लोगों को किस कदर गुमराह करती है, इसे भी समझना जरूरी है। स्थाई समिति की रिपोर्ट का माखौल उड़ाते हुए कहा गया कि कमेटी में कुल 30 लोग हैं, जिसमें दो सदस्य कभी आए नहीं। 17 लोगों ने विरोध किया, जबकि सात कांग्रेस के अलावा लालू यादव और अमर सिंह जैसे 11 लोगों ने मिलकर देश के कानून का मसौदा तैयार कर दिया। टीम ने कहा कि सिर्फ 11 लोग देश का कानून कैसे बना सकते हैं? मैं पूछता हूं, कि चलो वो तो 11 लोग थे, लेकिन आप तो सिर्फ पांच लोग ही हैं जो 121 करोड़ जनता के लिए कानून अपने मनमाफिक बनवाने पर आमादा हैं।
बहरहाल मैं चाहता हूं कि स्थाई समिति की प्रक्रिया की संक्षेप में जानकारी लोगों को होनी ही चाहिए। इस मसौदे में कुल लगभग 24 प्रस्ताव हैं। जिन 17 लोगों ने डिसेंट नोट (असहमति पत्र) दिया है, उसका ये मतलब नहीं है कि उन्होंने कमेटी के पूरे मसौदे को ही खारिज कर दिया है। आमतौर पर कोई सदस्य किसी एक प्रस्ताव से सहमत नहीं होता है, किसी को दो पर आपत्ति होती है, कुछ को तीन चार पर भी आपत्ति हो सकती। इससे ये नहीं समझना चाहिए कि सदस्यों ने पूरा मसौदा ही खारिज कर दिया, चूंकि इस मामले में गलत संदेश लोगों को देने की कोशिश हो रही है, लिहाजा इस पर चर्चा जरूरी थी। एक बात और की जा रही है कि प्रधानमंत्री ने आश्वस्त किया था कि निचले स्तर के अधिकारियों कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे में लाया जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। अब टीम अन्ना लोगों मै कैसे जहर घोलती है, ये देखें। प्रधानमंत्री के पत्र में साफ किया गया था कि निचले स्तर के अधिकारियों और कर्मचारियों को उपयुक्त तंत्र के जरिए नियंत्रित करने का प्रयास किया जाएगा। अब सरकार ने सीवीसी को उपयुक्त तंत्र माना है, तो ये कैसे कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री ने जो आश्वासन दिया था, उसे पूरा नहीं किया।
टीम अन्ना की मांगे बेतुकी भी हैं। वो कह रहे हैं सीबीआई को जनलोकपाल के अधीन कर दिया जाए। अब आप बताएं सीबीआई क्या केवल भ्रष्टाचार की ही जांच करती है? अरे सीबीआई के दायरे में दुनिया भर के अपराध शामिल हैं। कई बार हत्या और बलात्कार जैसी घटनाओं की भी जांच सीबीआई करती है। ऐसे में जनलोकपाल भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कैसे केंद्रित हो सकता है। जब ये सवाल उठा तो कहा गया कि पूरी सीबीआई को ना दें, आर्थिक मामलों की जांच करने वाली टीम को लोकपाल के दायरे में कर दिया जाए। अब टीम अन्ना की ऐसी बातों से लगता है कि वो महज विवाद को बनाए रखना चाहते हैं। मैं एक वाकया बताता हूं, यूपी के स्वास्थ्य विभाग में करोडो का घोटाला हुआ, जिसकी जांच सीबीआई कर रही है। इसमें गिरफ्तार एक स्वास्थ्य महकमें के अफसर को गिरफ्तार कर जेल भेजा गया, जहां बाद में उसकी संदिग्ध हालातों में मौत हो गई। अब क्या एक ही मामले में आधी जांच लोकपाल और आधी जांच कोई अन्य विभाग करेगा ?
क्या होना चाहिए, क्या नहीं, ये सब जानते हैं। सभी को पता है कि देश में 121 करोड़ की आबादी को किसी कानून के दायरे में नहीं बांधा जा सकता। जब तक लोग खुद नैतिक नहीं होंगे, तब तक ईमानदारी की बात करना बेमानी है। अन्ना का आंदोलन पूरी तरह राजनैतिक आंदोलन है और इससे राजनैतिक आंदोलन की तरह ही निपटा जाना चाहिए। सरकार जितना घुटना टेकेगी, टीम अन्ना एक के बाद एक मुद्दे पर ऐसे ही सरकार को घुटनों पर लाने की कोशिश करेगी, क्योंकि इस आंदोलन के पीछे की कहानी कुछ और ही है।
आप अनैतिक लोगों से नैतिक होने की उम्मीद क्यों कर रहे हैं?टीम अन्ना की स्क्रिप्ट देश-द्रोही लोगों के सिवा कौन लिख सकता है?
ReplyDeleteसब एक -दूसरे के लिए लक्ष्मण रेखा खींचने में लगे हैं .
ReplyDeleteआपका पूरा आलेख बेबाकी से और वास्तविकता की धरातल पर लिखा गया है और आखिर में लिखी लाईनें सार कहीं जा सकती हैं,
ReplyDelete''देश में 121 करोड़ की आबादी को किसी कानून के दायरे में नहीं बांधा जा सकता। जब तक लोग खुद नैतिक नहीं होंगे, तब तक ईमानदारी की बात करना बेमानी है।''
पूरी तरह सहमत।
वैसे भी अन्ना लोकपाल, राईट टू रिकाल, राईट टू रिजेक्ट की मांग कर रहे हैं..... मैं कहता हूं कि पहले एक देश तो बना लें... एक राष्ट्र तो बना लें..... जहां हिंदु के लिए अलग कानून, मुस्लिम के लिए अलग कानून, अनुसूचित वर्ग के लिए अलग कानून... जिस देश के कुछ राज्यों में देश का कानून लागू नहीं होता......जिस देश का मतदाता जागरूक नहीं..... कई बडे सवाल हैं....... क्या इन सवालों पर टीम अन्ना ने कभी बात की है। बात होनी चाहिए मतदान को अनिवार्य करने की...... सब्सिडी, मुफ्त बिजली, मुफ्त चावल जैसी सुविधाएं बंद हों... सबको समान हक मिले.... क्या अन्ना इस पर बात करेंगे........
भाई हम तो ठहरे ग़ाफ़िल सो क्या कहें पर पानी सर से इतना ऊपर है कि फिर याद आ रही है दुष्यन्त कुमार जी की यह लाइन-
ReplyDelete‘मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।आमीन।
गहन विचारो से ओत-प्रोत बढ़िया आलेख!
ReplyDeleteसोचने को मजबूर करती पोस्ट ....और सच जानने को आतुर भी ......इस राजनीति में सब कुछ है जो परदे के पीछे से होता है .....
ReplyDeleteआपकी इस सुन्दर प्रस्तुति पर हमारी बधाई ||
ReplyDeleteterahsatrah.blogspot.com
adha sach nahi balki pura sach.... badhiya aalekh
ReplyDeletesateek bat kahi hai aapne .vicharotejak aalekh .aabhar
ReplyDeleteक्या होना चाहिए, क्या नहीं, ये सब जानते हैं। सभी को पता है कि देश में 121 करोड़ की आबादी को किसी कानून के दायरे में नहीं बांधा जा सकता। जब तक लोग खुद नैतिक नहीं होंगे, तब तक ईमानदारी की बात करना बेमानी है...
ReplyDeleteअतुलजी ने सही कहा है सार यही है...गहन विचार
किसी आंदोलन के वास्तविक चरित्र और उद्देश्य का निर्धारण उसके नारों से नहीं उसमें शामिल लोगों के वर्ग( और भारत मे वर्ण) से होता है।अण्णा टीम के सदस्य ही नहीं उसमें शामिल होने वाले लोगो का 90 फीसदी हिस्सा समाज के उच्च और बीच के मध्यवर्ग से आता और उनकी आकांक्षाओं का ही प्रतिनिधित्व करता हैं। अण्णा का 'देश की दूसरी आजादी की लडाई' का नारा दरअसल आजादी के बाद देश की 85 फीसदी आबादी की कीमत पर के फलेफूले उच्च और मध्य वर्गों का हे जो अब देश के गरीबों के उन जनवादी अधिकारों को भी छीन लेना चाहते है जिनको इन्होंने छह दशकों दौरान भारी संघषों से हासिल किए है।
ReplyDeleteअन्ना विश्लेषण स्क्रिप्ट बहुत सही लिखा है आपने , बधाई.....
ReplyDeleteaap ka kaam tareef kerne layak hai sara sach aapke saath hai www.sarasach.com
ReplyDeleteकोई भी परिवर्तन कभी भी पूर्णतया शुद्ध तरीकों से कभी नहीं आया. परिवर्तन लाने वाले भी व्यक्ति हैं और उनकी भी सीमाएं हैं. परिवर्तन किसी व्यक्ति के विरुद्ध नहीं होता किन्तु ऐसा प्रतीत होने लगता है की ये व्यक्ति के खिलाफ है क्यूंकि अमुक समय पर वह व्यक्ति उस व्यवस्था का चेहरा होता है. जैसे लोकपाल कांग्रेस के खिलाफ नहीं है लेकिन कांग्रेस सत्ता मैं है, परिवर्तन करने की सबसे ज्यादा कूवत उसी मैं है सो बात उसी से होगी. अन्ना अगर राजनीती मैं आने की बात करें तो आप कहेंगे उनका उद्देश्य स्वयं का स्वार्थ है, न आयें तो आप कहेंगे की उनका उद्देश्य स्पष्ट नहीं है. अगर वो राजनेताओं से बात न करें तो आप कहेंगे वो जिद्दी है, संसद और सांसदों पर तनिक भी विश्वास नहीं. बात करें तो आप कहेंगे विपछ से मिले हुए हैं. ऐसे मैं वो वही कर रहे हैं जो उन्हें सही लगता है. व्यवस्था अक्सर जड़ हो जाया कराती है, उसके अन्दर बैठे लोग उसमें आमूल परिवर्तन नहीं ला सकते. ऐसे मैं हमेशा बाहर के लोग उसपर आक्रमण करते हैं, उसे झकझोरते हैं, उसे हिलाते हैं, ताकि व्यवस्था मैं राम चुके लोग अपनी आरामदायक सीमायों से बहार निकलें. खुद ही निर्धारित की जा चुकी कमजोरियों पर सवाल उठाएं. सांसद बोलते हैं, भ्रस्टाचार के कारन हम विकास नहीं कर सकते. लोग कहते हैं बिना भ्रस्ताचार के हम जी नहीं सकते. राजनीती कहती है ऐसा कुछ मत करो जिससे चुनाव मैं नुक्सान हो जाये इसलिए कोई मुकम्मल कदम मत उठाओ. ऐसे मैं पहल कौन करेगा? पहला पत्थर कौन मरेगा? कौन कहेगा की परिवर्तन चाहिए और उसके लिए प्रयास अपनी अपनी सीमा के पार जाकर हो? कोई भी ऐसा देश नहीं जहाँ लोग इतने नैतिक हों की अपने आप सही कार्य करें. राम राज्य भी राजा राम के कारन ही चल पाया, उनके बाद सब पुनः भ्रष्ट हो गए. ये कहना की जनता का जमीर बदलो, सच्चाई से भागने की बात है. आप अगर बदल सकते हो जमीर तो बदल कर दिखाइए वरना जो तरीका सब जगह चलता है, यानी, सख्त कानून, पारदर्शी कार्य प्रणाली, उसे अपनाइए. इसे अना और कांग्रेस की लड़ाई देखना मुर्खता है. नज़र लक्ष्य पर होनी चाहिए, तीर पर नहीं. संसद मैं सांसदों की खरीद फ़रोख्त से लोकतंत्र नहीं टूटता, मुजरिमों के सांसद बनने से लोकतंत्र कमजोर नहीं होता, राजनेताओं के अपने बेटे, बेटियों और पत्नियों को मंत्री बनने से लोकतंत्र नहीं टूटता, मंत्रियों के तिहाड़ के अन्दर होने से लोकतंत्र नहीं टूटता, लेकिन जन आन्दोलन से लोकतंत्र टूटता है. वास री सद्बुद्धि. आन्दोलन अंत में थोड़े परिवर्तन के बाद टूट जाते हैं, तो क्या? देश की सरकारें भी तो बदल जाती हैं. कोई भी विचार, व्यक्ति, परंपरा शास्वत नहीं हो सकती, न ही वो हर परेशानी का अंत हो सकती है. किन्तु अपने समय काल में यदि वो कुछ अच्छा कर गुजर सकती है तो वो सही है.
ReplyDelete"जब तक लोग खुद नैतिक नहीं होंगे, तब तक ईमानदारी की बात करना बेमानी है।''
ReplyDeleteपूरी तरह सहमत।
अन्ना ने आम आदमी के हथियार अनशन को भोथरा कर दिया है. अब जब तक इतने हो हल्ले और लाव लश्कर के साथ कोई विरोध नहीं करेगा तबतक उसकी आवाज़ नहीं सुनी जाएगी... बेहतर होता की टीम अन्ना खुद चुनाव लड़कर सदन में बैठते और तब इस मुद्दे को हवा देते.. वैसे दबे छिपे इरादा तो है उनका राजनीती में कूदने का... इस मुद्दे पर मुझे बीजेपी का दोहरा चरित्र नहीं समझ आ रहा एक तरफ इस्लामिक आतंकवाद को मुल्क के लिए खतरा बताती है और दूसरी तरफ उसी फोर्ड फाउंडेशन से पैसा लिए लोगों के साथ कड़ी हो जाती है, जिस फाउंडेशन ने फिलिस्तीन के उन एनजीओ को पैसा दिया था जो इजराईल में आतंकवाद को बढ़ावा दे रहे थे. दुनिया भर में मालूम है कि फोर्ड फाउंडेशन सीआईए का मुखौटा है. जांच तो इस बात कि भी होनी चाहिए कि कहीं अन्ना के बहाने देश को अस्थिर करने कि साज़िश तो नहीं हो रही
ReplyDelete