पहले एक भ्रम दूर कर दूं आप सबका। अगर आपको लगता है कि यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को हटा सकती हैं, तो आप गलत सोच रहे हैं। आज मनमोहन सोनिया की वजह से नहीं बल्कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की वजह से प्रधानमंत्री बने हुए हैं। अमेरिका में कारपोरेट जगत लगातार दबाव बना रहा था कि अगर भारत में अभी एफडीआई पर फैसला नहीं हुआ तो फिर देर हो जाएगा, क्योंकि ये सरकार अब वापस नहीं आने वाली, और दूसरा प्रधानमंत्री कम से कम मनमोहन जितना कमजोर नहीं होगा। अमेरिका के कारपोरेट जगत ने अमेरिकी प्रशासन को समझाया कि एफडीआई के फैसले पर मुहर लगाने के बाद भी वहां सरकार ज्यों की त्यौं बनी रहेगी। दरअसल अमेरिका को पता है कि यहां नेताओं की कीमत कितनी है। न्यूक्लीयर डील के दौरान क्या हुआ था ? वामपंथियों ने सरकार से समर्थन वापस लिया तो क्या सरकार गिर गई ? इस बार भी नहीं गिरेगी। अमेरिका कारपोरेट जगत देश में सक्रिय हो गया है। एफडीआई के मसले से नाराज ममता, मुलायम, मायावती को मनाने की जरुरत कांग्रेस को नहीं पड़ेगी, वो अमेरिकी मना लेंगे, उन्हें पता है इनकी कीमत। एफडीआई के फैसले पर मुहर लगने से वहां राष्ट्रपति बराक ओबामा का चुनाव भी आसान हो गया है। राजनीति पर बात करने से पहले दो बातें मीडिया की भी हो जाए, वरना लेख से मैं न्याय नहीं कर पाऊंगा.......
देश सच में कठिन दौर से गुजर रहा है, ऐसे में जरूरत है सोशल मीडिया अपनी जिम्मेदारी निभाए। अगर आपको लगता है कि प्रिंट और इलैक्ट्रानिक मीडिया आज जनता की आवाज बनकर हमारी नुमाइंदगी करेगी, तो आप बहुत बड़े भ्रम में हैं। मैं देख रहा हूं कि आज सड़क छाप राजनीति में मीडिया की भूमिका सिर्फ एक मदारी जैसी है, जो डमरू बजाकर भीड़ इकट्ठा करती है, फिर तरह तरह के मुंह बनाकर लोगों का मनोरंजन करती है। इसलिए वक्त आ गया है कि सोशल मीडिया अपनी जिम्मेदारी समझे और कम से कम सही गलत की जानकारी लोगों को दे। अगर आज बात की जाए इलैक्ट्रानिक मीडिया की, तो आप देखेगें कि रोजाना शाम को न्यूज चैनलों पर चौपाल लगी हुई है। यहां वही फुंके राजनीतिक चेहरे दिखाई देते रहते हैं। सच कहूं तो टीवी पर ऐसी सियासी जमात दिखाई देती है, जिनकी उनकी पार्टी में ही कोई हैसियत नहीं है। ये हम सब बखूबी जानते हैं, लेकिन ये एक कोरम है, जिसे पूरा करना जरूरी है। प्रिंट की बात करें तो स्टेशन पर सबसे कम दाम वाले अखबार की बिक्री ज्यादा होती है, वो इसलिए कि लोग अखबार बिछा कर बैठते हैं। पान की दुकानों पर अंग्रेजी के अखबार ज्यादा बिकते हैं क्योंकि उसमें ज्यादा पेज होते हैं और जिसमें पान वाला ग्राहकों को पान लेपेट कर देता है। घरों में अखबार एक स्टेट्स सिंबल बन गया है कि बाबू साहब के यहां इतने अखबार आते हैं। जिनके घर में छोटे बच्चे हैं, वहां अखबार का इस्तेमाल क्या होता है, आप सब जानते हैं।
अच्छा मीडिया की इस हालत के लिए कोई और नहीं हम सब ही जिम्मेदार हैं। कोई सिरफिरा अगर देश की शान तिरंगे, राष्ट्रीय चिह्न, संसद और भारत माता के खिलाफ अनर्गल प्रलाप करता है तो हम उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हो जाते हैं। हम गलत काम का भी विरोध करने से परहेज करते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब अगर यही सब है, तो मुझे लगता है कि इस आजादी पर पाबंदी लग जानी चाहिए। अच्छा वो दिन कब आएगा जब मीडिया अपने भीतर भी झांकना शुरू करेगी ? नीरा राडिया के टेप में तमाम बड़े बड़े पत्रकारों का नाम आया, जो सत्ता की दलाली करते हैं। इस टेप में क्या है, किसका नाम है, मीडिया के लोग जानते हैं। लेकिन क्यों नहीं मीडिया के भीतर से ये मांग उठी कि इन्हें पत्रकारिता के अयोग्य घोषित कर दिया जाना चाहिए ? अगर मीडिया ऐसा नहीं कर सकती है तो क्या उसे भ्रष्ट्र मंत्री का इस्तीफा मांगने का हक है ? एक जनहित याचिका का निस्तारण करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मीडिया अपनी लक्ष्मण रेखा खुद तय करे। चलिए मीडिया लक्ष्मण रेखा भले तय ना करे, लेकिन जिम्मेदारी तो तय कर ले।
आज हालत क्या है ? सब जानते हैं, जिस तरह से सिगरेट के पैकेट पर लिखा रहता है कि सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। उसके बाद हर शहर और राज्य में सिगरेट की बिक्री पर कोई रोक टोक नहीं होती, ये धडल्ले से बिकती है। थोड़ा और शोर शराबा मचा तो सिगरेट बनाने वाली कंपनियों को कहा गया कि वो सिगरेट के डिब्बे पर एक काला चित्र भी बनाएं, बस हो गई कार्रवाई। ठीक उसी तरह इलैक्ट्रानिक मीडिया ने भी चैनल पर चलाना शुरू कर दिया है कि " अगर आपको चैनल पर दिखाई जाने वाले किसी खबर पर एतराज है तो आप एनबीए को सुझाव दे सकते हैं। अरे मेरा मानना है कि जब सिगरेट पीना वाकई स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है तो इसे देश में बननी ही क्यों चाहिए और बिक्री क्यों होनी चाहिए ? मीडिया के मालिकान अगर ईमानदारी से सोचें तो क्या उन्हें नहीं पता है कि हम कहां से कहां जा रहे हैं, क्या क्या सुधार की जरूरत है ? सभी सब कुछ पता है, पर नहीं करेंगे, क्योंकि अब मीडिया मिशन नहीं प्रोफेशन हो गई है।
कई बार मुझे लगता है कि देसी मीडिया अपनी विश्वसनीयता भी खोती जा रही है। देखिए ना इलैक्ट्रानिक मीडिया हो या फिर प्रिंट मीडिया। सभी यूपीए सरकार की कारगुजारियों को जनता के सामने लाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। सभी ने कहा कि देश के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का अर्थशास्त्र फेल हो गया है। प्रधानमंत्री कमजोर और असहाय नजर आ रहे हैं। देश मे इससे ज्यादा भ्रष्ट्र सरकार कभी नहीं रही। मनमोहन को मजबूत नहीं मजबूर प्रधानमंत्री कहा गया। कुछ लोगों ने तो उन्हें चोरों का सरदार तक कहा, क्योंकि उनके मंत्रिमंडल में चोरों की संख्या कहीं ज्यादा है। हर बड़े मंत्री पर कोई ना कोई दाग है। अब देश की मीडिया ने प्रधानमंत्री तक को कोयले का गुनाहगार बता दिया। इसके बावजूद कोई फर्क नहीं पड़ा। कभी सरकार ने सफाई देने की कोशिश नहीं की। लेकिन अमेरिकी मैंग्जीन पहले टाइम ने फिर वहां के एक अखबार वाशिंगटन पोस्ट ने प्रधानमंत्री को कमजोर प्रधानमंत्री बताया तो हल्ला मच गया। पीएमओ सफाई देता फिर रहा है। इससे एक सवाल पैदा होता है कि देश के प्रधानमंत्री भारत की जनता और मीडिया के प्रति जवाबदेह हैं या अमेरिका के। अमेरिकी पत्रिका में उनके खिलाफ खबर छपने से इतनी बौखलाहट क्यों ?
इसका जवाब भी मैं आपको बताता हूं। आपको पता है कि अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव चल रहा है। वहां का कारपोरेट जगत लगातार व्हाइट हाउस पर दबाव बना रहा था कि भारत में जल्दी ही एफडीआई शुरू होनी चाहिए। कारपोरेट जगत ने समझाया कि इस समय वहां सबसे कमजोर प्रधानमंत्री हैं, इनके रहते ही काम हो सकता है। वरना अब देश में कभी भी चुनाव हो सकता है और अब कांग्रेस की वापसी मुश्किल है। अमेरिकी राष्ट्रपति से कहा गया कि न्यूक्लीयर डील के दौरान भी सरकार से एक दल ने समर्थन वापस ले लिया था, पर वहां समर्थन के लिए दूसरे दलों को मैनेज कर लिया गया था। इस बार भी अगर कोई समर्थन वापस लेगा तो भी सरकार नहीं गिरेगी। आपको पता है देश में एफडीआई के मुद्दे पर जितनी बैठकें नहीं हुई होंगी, उससे ज्यादा बैठकें अमेरिका में हो चुकी हैं। आज अपनी चुनावी सभाओं में भी अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत मे एफडीआई का रास्ता साफ हो जाने को अपनी उपलब्धि बता रहे हैं।
सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि आज एफडीआई के मुद्दे पर भले कुछ राजनीतिक दल जिसमे तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और द्रमुक शोर शराबा कर रहे हैं। कुछ लोग समर्थन वापसी तक की धमकी दे रहे हैं, पर सरकार यूं ही चलती रहेगी। मनमोहन सिंह का कुछ नहीं होने वाला है। शोर मचाने वाले दलों को अमेरिकी कारपोरेट जगत खुश कर देगा। फिर ये खामोश हो जाएंगे, जैसे न्यूक्लीयर डील के दौरान हुआ था। वामपंथी गए तो मुलायम तुरंत उनका साथ छोड़कर सरकार के पास आ गये, जबकि मुलायम की कोई बात भी नहीं मानी गई थी। रोजाना सरकार के खिलाफ जहर भी उगल रहे थे, लेकिन चुपचाप पड़े रहे।
मुझे तो हंसी आती है जब मैं सुनता हूं कि सोनिया गांधी ने त्याग किया और मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बना दिया। लेकिन ये बात बिल्कुल गलत है। अगर सोनिया गांधी ने उन्हें प्रधानमंत्री बनाया होता तो अब तक कब का उन्हें बाहर कर चुकी होतीं। साबित हो गया है कि ये कमजोर प्रधानमंत्री हैं, साबित हो चुका है कि इनके राज में भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला, साबित हो चुका है कि मंत्रियों पर मनमोहन का नियंत्रण नहीं है। ऐसी एक भी काबिलियत नहीं जिसकी वजह से ये प्रधानमंत्री बने रहें, फिर क्या वजह है कि मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री हैं। आप जानना चाहते हैं तो सुन लीजिए अमेरिका की वजह से मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री हैं। आज अगर सोनिया गांधी भी चाहें तो मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री के पद से नहीं हटा सकतीं। इन्हें जब कभी हटाया जाएगा तो अमेरिका ही हटायेगा। इसीलिए अमेरिका जो चाहता है, वो काम मनमोहन सिंह तुरंत कर देते हैं। हां वो बस इस बात की गारंटी लेते हैं कि सरकार नहीं जाएगी और मैं ही प्रधानमंत्री बना रहूंगा।
एक बात बताइये अमेरिकी अखबार वाशिंगटन पोस्ट में एक खबर छपने का नतीजा ये हुआ कि सरकार ने सबसे विवादित मुद्दे रिटेल में एफडीआई को मंजूरी दे दी। जबकि देश के सारे चैनल और अखबार इसके बारे में लिख रहे हैं, सरकार के सहयोगी दलों की ओर से विरोध किया जा रहा है और प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि हम फैसला वापस नहीं लेगें। आप आसानी से समझ सकते हैं कि कमजोर प्रधानमंत्री को आखिर ताकत कहां से मिलती है। इसके अलावा ये बात भी सही है कि विरोध कर रहे राजनीतिक दलों का मकसद भी एफडीआई को वापस करना नहीं बल्कि अपनी कीमत बढाना भर है, आखिर लोकसभा के चुनाव आने वाले हैं, ऐसे में चुनाव के लिए पैसा भी तो चाहिए।
जिस देश में ऐसे हालात हो, लोकतंत्र खतरे में हो, मीडिया दिग्भ्रमित हो तो फिर उम्मीद किससे की जा सकती है। मुझे लगता है कि सोशल मीडिया को यहां एक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी, सभी को कोशिश करनी होगी कि देश की असल सच्चाई को कैसे आम आदमी तक पहुंचाया जाए। मैं एक बात यहां फिर दुहराना चाहता हूं कि
वतन की फिक्र कर नादां, मुसीबत आने वाली है।
तेरी बरबादियों के मशवरे हैं आसमानों में ।।
न समझोगे तो मिट जाओगे, ऐ हिन्दोस्तां वालों।
तुम्हारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानों में।।
सही विवेचन किया है आपने इस आलेख में!
ReplyDeleteशुक्रिया सर
Deleteये मीडिया...ये सोशल साइडस और राजनीति का ऊंट कब और कैसे किस करवट बैठने वाला है ...ये अब तो अपनी समझ से बाहर है ..हर कोई बस बात करता ...पर सही निर्णय और सही बात आज तक किसी ने ना कही और ना अमल की हैं ....बाकि सब कुछ आने वाला वक्त तय करेगा .....इस वक्त हम लोगों फिर से गुलामी की जंजीरों में जकडे हुए हैं ...जानते हुए भी ना समझी का नाटक जारी है .......
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा आपने
Delete
ReplyDeleteवतन की फिक्र कर नादां, मुसीबत आने वाली है।
तेरी बरबादियों के मशवरे हैं आसमानों में ।।
न समझोगे तो मिट जाओगे, ऐ हिन्दोस्तां वालों।
तुम्हारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानों में।।
.... सही है
जी बिल्कुल सही कहा आपने..
Deleteकाश लोग समझ सकें आज के हालात
आपकी एक एक बात सत्य है ये सारे विरोध कुछ दिन चलेंगे उसके बाद शांत हो जायेंगे !!
ReplyDeleteअमेरिकी दबाव में विदेशी पूंजी निवेश !!
बहुत बहुत शुक्रिया पूरण जी
Deleteपाण्डव हारे युद्ध यह, मोहन कौरव पास |
ReplyDeleteमाया मरती सड़क पर, ममता का उपहास |
ममता का उपहास, मुलायम मिटटी दलदल |
ध्वस्त हुवे अरमान, बाम बीजे जद छल-बल |
प्राणवायु ले खींच, सिलिंडर नव का तांडव |
जित मोहन उत जीत, हार जाते हैं पाण्डव ||
जी आपका अलग अंदाज है
Deleteइस अंदाज के क्या कहने
बहुत बहुत आभार
चिंतनीय विषय का गहन विश्लेषण.
ReplyDeleteएक ऐसा सच है जो आम आदमी तक नहीं पहुंचा है आप ने सही कहा कि
अब सोशल मीडिया ही अहम भूमिका निभा सकती है .
आपका बहुत बहुत आभार
Deleteलेकिन सोशल मीडिया में कुछ लोग अपने अपने काम में लगे हैं...
उन्हें इन चीजों से भला क्या लेना देना
वाह!
ReplyDeleteआपकी इस ख़ूबसूरत प्रविष्टि को आज दिनांक 17-09-2012 को ट्रैफिक सिग्नल सी ज़िन्दगी : सोमवारीय चर्चामंच-1005 पर लिंक किया जा रहा है। सादर सूचनार्थ
शुक्रिया चंद्रभूषण जी
Deleteबेहद तार्किक और सटीक आलेख ......
ReplyDeleteजी,
Deleteआपका बहुत बहुत आभार
महेंद्र जी , आज तो आपने 'पूरा सच" ही लिख डाला .....
ReplyDeleteबहुत-बहुत मुबारक स्वीकारें !
शुभकामनायें!
सर, मैं तो हमेशा ही सच लिखता हूं, वो भी पूरा
Deleteलेकिन क्या कहूं... कुछ अपने मित्र मानते ही नहीं
बहुत बहुत आभार
विदेशी पूंजी निवेश स्वदेश को गर्त में लेजावेगा ये जानते हुए भी लोग सरकार के हर फैसले को स्वीकार कर के अपने ही पैर पे कुल्हाड़ी मार रहे है ,विरोध के नाम पर कुछ दिन हो हल्ला फिर सब कुछ स्वीकार ,कन्हा जा रहा है देश अमेरिकी पूंजीवाद के साथ कुछ पता नहीं , अच्छा जागरूक करने वाले लेख के लिए साधुवाद
ReplyDeleteमैं बिल्कुल सहमत हूं आपकी बातों से
Deleteबहुत बहुत शुक्रिया
बुरा मत मानियेगा ...आप सदैव मेरा हौसला बढ़ाते रहे हैं इसलिए थोडा झिझक के साथ संक्षेप में लिख रही हूँ ...."इस जनतंत्र में सोसिअल मीडिया तक कितने और सही अर्थों में जागरूक लोगों की पहुँच है ?!!!"
ReplyDeleteअरे नहीं, बुरा क्यों मानना,
Deleteमुद्दों पर बहस यहां नहीं होगी तो फिर कहां होगी.
सोशल मीडिया की ताकत अभी आपने देखा जनलोकपाल के लिए आंदोलन में.. इस पूरे आंदोलन को फेसबुक और ट्विटर ने खड़ा कर दिया।
एक अकेले आदमी ने कांग्रेस के दिग्गज नेता अभिषेक मनु सिंघवी की नौकरी ले ली। उनसे जुडा एक वीडियो वो बार बार सोशल नेटवर्क पर साइट पर डालता रहा, अंत में अभिषेक को पार्टी ने घर बैठा दिया.
सोशन नेटवर्क साइट की ताकत से सरकार बौखलाई हुई है, इसीलिए बार बार इस पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश होती है...
हमें आपको इसकी ताकत को समझना होगा..
सच है देश सच में कठिन दौर से गुजर रहा है,
ReplyDeleteपता नहीं इसका अंजाम क्या होगा !
विस्तृत आलेख ...आभार !
बहुत बहुत आभार सुमन जी
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