संसद हमले के मास्टर माइंड अफजल गुरू को फांसी पर लटकाए जाने के बाद तथाकथित बुद्धिजीवियों का एक तबका रोज नए-नए तर्कों के साथ ये बताने की कोशिश कर रहा है कि उसे फांसी गलत दी गई है। कुछ लोग कह रहे हैं कि ट्रायल सही नहीं हुआ, कुछ कह रहे हैं फांसी के पहले उसके परिवार से मिलने नहीं दिया गया, कुछ कह रहे हैं कि शव तो उसके परिवार को सौंपना ही चाहिए। सबसे बड़ी बात तो ये कि कुछ लोग फांसी की सजा पर ही सवाल खड़े कर रहे हैं, कह रहे हैं कि फांसी की सजा सभ्य समाज के लिए अभिशाप है। अब एक बात मेरी समझ में नहीं आ रही है कि आखिर एक आतंकवादी की इतनी हिमायत के मायने क्या है ? मुझे तो इस मामले में टीवी चैनलों का रवैया भी बचकाना लग रहा है। चलिए पहले मैं अपना नजरिया साफ कर दूं उसके बाद बात को आगे बढ़ाता हूं। मुझे भी लगता है कि फांसी के मामले में एक बहुत बड़ी गलती सरकार ने की है। इसके लिए सरकार की जितनी भी निंदा की जाए वो कम है। गलती ये कि सुप्रीम कोर्ट से जब 2004 में ही फांसी की सजा सुना दी गई तो अफजल को सूली पर टलकाने में आठ साल क्यों लगे ? क्यों नहीं उसी समय फांसी दी गई ? हम सब जानते हैं कि संसद पर हमले से पूरे देश में गुस्सा था, खुद अफजल ने अपनी भूमिका स्वीकार कर ली थी। उस वक्त फांसी दी जाती तो देश में सकारात्मक संदेश जाता और इस मुद्दे पर सियासत नहीं होती। आज अफजल का मुद्दा सियासी बन गया है, जिसके लिए सरकार का रवैया जिम्मेदार है।
मैं बात राष्ट्रपति के अधिकार यानि दया याचिकाओं के निस्तारण की भी करुंगा, लेकिन पहले छोटी सी बात अफजल गुरु की फांसी और उसके शव को लेकर हो रही सियासत की भी कर ली जाए। आजकल देख रहा हूं कि तमाम न्यूज चैनलों पर रंगीन खादी का कुर्ता, सदरी और टेढ़ी मेढ़ी दाड़ी रखे कुछ मानवाधिकार की बात करने वाले समाजसेवी डेरा जमाए रहते हैं और वो एक अलग ही राग अलापते फिर रहे हैं। खुद को ये साबित करने के लिए कि वो बड़े भारी चिंतक हैं, इसलिए हाथ में पेंसिल भी घुमाते रहते हैं, जबकि उनके सामने कागज या कापी तक नहीं होती है। कहते क्या हैं, जानते हैं ? इन्हें बहुत पीड़ा है कि अफजल को फांसी देने के पहले उसे उसके परिवार से नहीं मिलाया गया। व्यक्तिगत रूप से मेरी राय भी है कि मिला दिया जाता तो अच्छा था, लेकिन नहीं मिलाया तो जितनी हाय तौबा मची हुई है, उसकी जरूरत नहीं है। ये आतंकवादियों का मास्टर माइंड था, जब हम इसका चेहरा देखते हैं तो हमें संसद हमले में शहीद हुए जांबाज सैनिकों और उनके परिवारों की सूरतें भी याद आती हैं। क्या इस आतंकवादियों की मास्टरमाइंड ने पहले सबको बताया था कि आज संसद पर हमला होगा और इतने लोग मारे जाएंगे, सब लोग अपने घर वालों से मिलकर ड्यूटी पर आना। इसलिए मुझे नहीं लगता कि कुछ ऐसा कर दिया गया कि इतना गला फाड़ कर चिल्लाया जाए।
एक बात मैं बहुत जिम्मेदारी के साथ कहना चाहता हूं। आज मांग हो रही है कि अफजल का शव उसके परिवार वालों को सौपा जाए। ये मांग कश्मीर की सरकार से लेकर वहां की ज्यादातर राजनीतिक पार्टियां तक कर रही हैं। अगर किसी वजह से सरकार ने लचीला रुख अपनाया और ऐसा किया तो सरकार कश्मीर के मामले में अब तक की सबसे बड़ी गलती करेगी। कश्मीर के नेताओं के जिस तरह से बयान आ रहे हैं, उससे तो ऐसा लगता है कि जैसे अफजल गुरु आतंकवादियों का मास्टर माइंड ना होकर कोई इनका धर्मगुरू था। फिर देश की दो कौडी की राजनीति और राजनेताओं का कोई भरोसा नहीं है, ये कुर्सी के लिए कुछ भी कर सकते हैं। पता चला कि कोई मुख्यमंत्री शपथ लेते ही अफजल गुरू को शहीद का दर्जा दे और उसकी कब्र पर जाकर फूल माला चढ़ाए। अफजल की कब्र पर सियासत शुरू हो सकती है। हमें अमेरिका की कुछ चीजें याद रखनी चाहिए। ओसामा बिन लादेन को मारने के बाद अमेरिका ने उसके शव को समुद्र में दफन कर दिया। उसने ये विवाद ही खड़ा नहीं होने दिया कि शव कौन दफनाएगा ? कहां दफनाया जाएगा? शव उसके परिवार को सौंपा जाएगा या नहीं? शव को समुद्र में दफन कर सभी विषय एक ही रात में खत्म कर दिया। यहां क्या हो रहा है पूरा देश देख रहा है। हमें लगता है कि आतंकवादियों के मामले में अगर कोई भी व्यक्ति, संस्था या समाज उसकी पैरोकारी करे और एक साजिश के तहत विवाद खड़े करे, तो उसके खिलाफ भी सख्त कार्रवाई होनी चाहिए।
मुझे महामहिम लोगों से भी शिकायत है। बहुत बड़ी-बड़ी बहस हुआ करती है कि देश की अदालतों में लाखों मामले लंबित है। मुकदमों की सुनवाई नहीं हो पा रही है। देश के लोगों को कोर्ट कचहरी का कई-कई साल चक्कर लगाने पड़ रहे हैं। लेकिन इस बात पर कभी बहस नहीं होती कि आखिर ट्रायल कोर्ट, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट अपना कीमती वक्त जाया कर मामलों की सुनवाई करता है, और सजा सुनाता है। फिर खुंखार अपराधी एक दया याचिका लगाकर सरकार पर, देश पर और जेल पर बोझ बना रहता है। आखिर महामहिम लोगों के पास ऐसे कौन से काम होते हैं जो दया याचिकाओं का निस्तारण नहीं कर पाते हैं। वैसे भी इस मामले में ज्यादातर तो सरकार के फैसले पर ही राष्ट्रपति को मुहर लगानी होती है, फिर ये बात समझ से परे है कि दया याचिका कई साल तक लंबित रहे। अफजल गुरू का मामला राजनीति में तब्दील हो जाने की एक बड़ी वजह पूर्व महामहिम भी रहे हैं। इस मामले का समय से निस्तारण हो जाता तो बीजेपी इसे मुद्दा ना बना पाती। अब अफजल को फांसी देकर सरकार और कांग्रेस नेता जिस तरह सीना तान रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि उन्होंने आतंकवादियों को संदेश देने की नहीं बल्कि बीजेपी को संदेश देने की कोशिश की है।
अच्छा ये एक संवेदनशील मामला था, इस पर फूंक फूंक कर कदम रखने की जरूरत थी और है। लेकिन इन खबरिया चैनलों का क्या किया जाए ? यहां कुछ भी अलंतराणी चलती रहती है। टीवी चैनलों पर जिस तरह हर मुद्दे पर बहस हो रही है, उससे लगता है कि चैनलों में " महाज्ञानी " बैठे हैं, जिन्हें सब कुछ पता है। अच्छा चैनलों की भीड़ की वजह से अब पढ़े लिखे और समझदार नेताओं ने टीवी से किनारा कर लिया है, घिसे पिटे नेता, सामाजिक कार्यकर्ता और रिटायर पत्रकार चैनल के माध्यम से एक विचार थोपने की कोशिश करते हैं। मेरा मानना है कि अधकचरे विचार आतंववाद और आतंकवादियों से कहीं ज्यादा खतरनाक हैं। अब आज कल देश में बुद्धिजीवियों की बुद्धि मापने का कोई निर्धारित पैमाना तो है नहीं। तमाम सामाजिक संस्थाओं की कमान चोट्टों के हाथ में है। लेकिन हमारी आपकी मजबूरी है कि उनके नाम सामाजिक संस्था का पंजीकरण है, तो उन्हें सामाजिक कार्यकर्ता तो कहना ही पड़ेगा। बहरहाल बिना मांगी राय का कोई मतलब नहीं है, लेकिन मैं न्यूज चैनल के रहनुमाओं से कहना चाहता हूं कि " वो टाक शो " तत्काल प्रभाव से बंद कर दें। इसका कोई सकारात्मक प्रभाव ना चैनल पर पडता है और न ही समाज पर कोई असर होता है। फुंके हुए कारतूस दोबारा नहीं चलाए जा सकते, इन पर दांव लगाना बेमानी है और जनता के साथ धोखा भी। न्यूजरूम को नेता और सामाजिक कार्यकर्ता बनाने का काम छोड़ना होगा।
चलते - चलते :
बहुत बात हो रही है कि अफजल और कसाब को फांसी हो गई, लेकिन अब क्या होगा ? मित्रों माफ कीजिएगा प्रसंगवश मुझे ये बात कहना पड़ रहा है कि दो मुसलमानों को फांसी देने के बाद अब सरकार की औकात नहीं है कि तीसरी फांसी भी किसी मुसलमान को दी जाए। अब कुछ हिंदुओं को फांसी पर लटकाया जाएगा और वो भी जल्दी। इंतजार कीजिए, जल्दी मिलेगी खबर।
मैं बात राष्ट्रपति के अधिकार यानि दया याचिकाओं के निस्तारण की भी करुंगा, लेकिन पहले छोटी सी बात अफजल गुरु की फांसी और उसके शव को लेकर हो रही सियासत की भी कर ली जाए। आजकल देख रहा हूं कि तमाम न्यूज चैनलों पर रंगीन खादी का कुर्ता, सदरी और टेढ़ी मेढ़ी दाड़ी रखे कुछ मानवाधिकार की बात करने वाले समाजसेवी डेरा जमाए रहते हैं और वो एक अलग ही राग अलापते फिर रहे हैं। खुद को ये साबित करने के लिए कि वो बड़े भारी चिंतक हैं, इसलिए हाथ में पेंसिल भी घुमाते रहते हैं, जबकि उनके सामने कागज या कापी तक नहीं होती है। कहते क्या हैं, जानते हैं ? इन्हें बहुत पीड़ा है कि अफजल को फांसी देने के पहले उसे उसके परिवार से नहीं मिलाया गया। व्यक्तिगत रूप से मेरी राय भी है कि मिला दिया जाता तो अच्छा था, लेकिन नहीं मिलाया तो जितनी हाय तौबा मची हुई है, उसकी जरूरत नहीं है। ये आतंकवादियों का मास्टर माइंड था, जब हम इसका चेहरा देखते हैं तो हमें संसद हमले में शहीद हुए जांबाज सैनिकों और उनके परिवारों की सूरतें भी याद आती हैं। क्या इस आतंकवादियों की मास्टरमाइंड ने पहले सबको बताया था कि आज संसद पर हमला होगा और इतने लोग मारे जाएंगे, सब लोग अपने घर वालों से मिलकर ड्यूटी पर आना। इसलिए मुझे नहीं लगता कि कुछ ऐसा कर दिया गया कि इतना गला फाड़ कर चिल्लाया जाए।
एक बात मैं बहुत जिम्मेदारी के साथ कहना चाहता हूं। आज मांग हो रही है कि अफजल का शव उसके परिवार वालों को सौपा जाए। ये मांग कश्मीर की सरकार से लेकर वहां की ज्यादातर राजनीतिक पार्टियां तक कर रही हैं। अगर किसी वजह से सरकार ने लचीला रुख अपनाया और ऐसा किया तो सरकार कश्मीर के मामले में अब तक की सबसे बड़ी गलती करेगी। कश्मीर के नेताओं के जिस तरह से बयान आ रहे हैं, उससे तो ऐसा लगता है कि जैसे अफजल गुरु आतंकवादियों का मास्टर माइंड ना होकर कोई इनका धर्मगुरू था। फिर देश की दो कौडी की राजनीति और राजनेताओं का कोई भरोसा नहीं है, ये कुर्सी के लिए कुछ भी कर सकते हैं। पता चला कि कोई मुख्यमंत्री शपथ लेते ही अफजल गुरू को शहीद का दर्जा दे और उसकी कब्र पर जाकर फूल माला चढ़ाए। अफजल की कब्र पर सियासत शुरू हो सकती है। हमें अमेरिका की कुछ चीजें याद रखनी चाहिए। ओसामा बिन लादेन को मारने के बाद अमेरिका ने उसके शव को समुद्र में दफन कर दिया। उसने ये विवाद ही खड़ा नहीं होने दिया कि शव कौन दफनाएगा ? कहां दफनाया जाएगा? शव उसके परिवार को सौंपा जाएगा या नहीं? शव को समुद्र में दफन कर सभी विषय एक ही रात में खत्म कर दिया। यहां क्या हो रहा है पूरा देश देख रहा है। हमें लगता है कि आतंकवादियों के मामले में अगर कोई भी व्यक्ति, संस्था या समाज उसकी पैरोकारी करे और एक साजिश के तहत विवाद खड़े करे, तो उसके खिलाफ भी सख्त कार्रवाई होनी चाहिए।
मुझे महामहिम लोगों से भी शिकायत है। बहुत बड़ी-बड़ी बहस हुआ करती है कि देश की अदालतों में लाखों मामले लंबित है। मुकदमों की सुनवाई नहीं हो पा रही है। देश के लोगों को कोर्ट कचहरी का कई-कई साल चक्कर लगाने पड़ रहे हैं। लेकिन इस बात पर कभी बहस नहीं होती कि आखिर ट्रायल कोर्ट, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट अपना कीमती वक्त जाया कर मामलों की सुनवाई करता है, और सजा सुनाता है। फिर खुंखार अपराधी एक दया याचिका लगाकर सरकार पर, देश पर और जेल पर बोझ बना रहता है। आखिर महामहिम लोगों के पास ऐसे कौन से काम होते हैं जो दया याचिकाओं का निस्तारण नहीं कर पाते हैं। वैसे भी इस मामले में ज्यादातर तो सरकार के फैसले पर ही राष्ट्रपति को मुहर लगानी होती है, फिर ये बात समझ से परे है कि दया याचिका कई साल तक लंबित रहे। अफजल गुरू का मामला राजनीति में तब्दील हो जाने की एक बड़ी वजह पूर्व महामहिम भी रहे हैं। इस मामले का समय से निस्तारण हो जाता तो बीजेपी इसे मुद्दा ना बना पाती। अब अफजल को फांसी देकर सरकार और कांग्रेस नेता जिस तरह सीना तान रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि उन्होंने आतंकवादियों को संदेश देने की नहीं बल्कि बीजेपी को संदेश देने की कोशिश की है।
अच्छा ये एक संवेदनशील मामला था, इस पर फूंक फूंक कर कदम रखने की जरूरत थी और है। लेकिन इन खबरिया चैनलों का क्या किया जाए ? यहां कुछ भी अलंतराणी चलती रहती है। टीवी चैनलों पर जिस तरह हर मुद्दे पर बहस हो रही है, उससे लगता है कि चैनलों में " महाज्ञानी " बैठे हैं, जिन्हें सब कुछ पता है। अच्छा चैनलों की भीड़ की वजह से अब पढ़े लिखे और समझदार नेताओं ने टीवी से किनारा कर लिया है, घिसे पिटे नेता, सामाजिक कार्यकर्ता और रिटायर पत्रकार चैनल के माध्यम से एक विचार थोपने की कोशिश करते हैं। मेरा मानना है कि अधकचरे विचार आतंववाद और आतंकवादियों से कहीं ज्यादा खतरनाक हैं। अब आज कल देश में बुद्धिजीवियों की बुद्धि मापने का कोई निर्धारित पैमाना तो है नहीं। तमाम सामाजिक संस्थाओं की कमान चोट्टों के हाथ में है। लेकिन हमारी आपकी मजबूरी है कि उनके नाम सामाजिक संस्था का पंजीकरण है, तो उन्हें सामाजिक कार्यकर्ता तो कहना ही पड़ेगा। बहरहाल बिना मांगी राय का कोई मतलब नहीं है, लेकिन मैं न्यूज चैनल के रहनुमाओं से कहना चाहता हूं कि " वो टाक शो " तत्काल प्रभाव से बंद कर दें। इसका कोई सकारात्मक प्रभाव ना चैनल पर पडता है और न ही समाज पर कोई असर होता है। फुंके हुए कारतूस दोबारा नहीं चलाए जा सकते, इन पर दांव लगाना बेमानी है और जनता के साथ धोखा भी। न्यूजरूम को नेता और सामाजिक कार्यकर्ता बनाने का काम छोड़ना होगा।
चलते - चलते :
बहुत बात हो रही है कि अफजल और कसाब को फांसी हो गई, लेकिन अब क्या होगा ? मित्रों माफ कीजिएगा प्रसंगवश मुझे ये बात कहना पड़ रहा है कि दो मुसलमानों को फांसी देने के बाद अब सरकार की औकात नहीं है कि तीसरी फांसी भी किसी मुसलमान को दी जाए। अब कुछ हिंदुओं को फांसी पर लटकाया जाएगा और वो भी जल्दी। इंतजार कीजिए, जल्दी मिलेगी खबर।
सरकार के काम काज ,तथाकथित बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार के पैरोकारो की पोल खोलते अच्छे आलेख के लिए शुभकामनाये ,बहुत बहुत साधुवाद
ReplyDeleteशुक्रिया लोकेश जी
Deletefansi dene ke baad congress seena taan rahi hai or BJP usme meenmekh nikaal rahi hai.sab siyasat hai.lekin kasaab aur afzal guru ki suraksha par jo karodon rupaya kharch hua hai uska jimmedaar koun hai vo kisase vasoola jaye??kisi nirnay ko nirdharit samy seema me poora karne ka koi to niyam hona chahiye..aur news channels ka kya kahen bas ye hai ki jab tak charcha chalti hai hame pata hota hai ki news channel is samy me nahi dekhana hai..badiya aalekh.
ReplyDeleteसही सवाल उठाया है आपने, इसका जवाब सरकार को देना ही चाहिए।
Deleteशुक्रिया
आतंकवादियों पर राजनीति और जनता पर उनके रहने का बोझ .... गरीबों को एक वक़्त की रोटी नहीं और आतंकवादियों पर करोड़ों खर्च .... ऐसे अपराधियों के लिए निर्णय त्वरित होने चाहिए ।
ReplyDeleteजी बिल्कुल, मैं सहमत हूं आपकी बात से
Deleteअमेरिका को भले ही ओसामा को ढूँढने में १० साल लग गए हों लेकिन इन १० सालों में एक मिनट के लिए भी अमेरिका ने ओसामा को ढूँढने का अपना काम बंद नहीं किया| और न ही उस के दिए जख्म को मिटाने की कोशिश की| जबकि हमारे यहाँ आतंकवादी हमारे हाथ में था , उसके खिलाफ सजा तय हो चुकी थी , फिर भी हमने उसे ८ साल तक सरकारी मेहमान बना के रखा | मैं उस पर खर्च किये गए रुपयों की बात नहीं कर रहा हूँ (हालाँकि जिस देश में एक बड़ी आबादी को दो वक्त का खाना भी नसीब न हो , जहाँ बच्चो को प्राथमिक शिक्षा तक न मिल पाती हो , वहाँ ये एक बहुत बड़ा मुद्दा है), वो बात तो सभी कह रहे हैं , मैं ये कहना चाहता हूँ कि अगर सरकार इस मुद्दे पर गंभीरता और उत्साह दिखाती तो जरूर आवाम में एक अच्छा सन्देश जाता कि घबराने की जरूरत नहीं है , हम तुम्हारे साथ हैं , इन लोगों को कभी माफ नहीं किया जाएगा और साथ ही आतंकवादियों के भी मन में डर बैठता | लेकिन यहाँ उसे भी सियासी मुद्दे की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है | पता नहीं राष्ट्रपति जी को उस आदमी की दया याचिका पर फैसला लेने में इतना वक्त कैसे लग गया जिस आदमी ने इतने अमानवतावादी काम को करने में चंद पल भी नहीं सोचा होगा शायद |
ReplyDeleteसाथ ही मुझे इस मुद्दे पर कश्मीर सरकार (अब्दुल्ला साहब) का रुख ज़रा भी नहीं समझ आ रहा | वो किस देश की पैरवी कर रहे हैं !
(मेरी रिक्वेस्ट पर इतनी जल्दी काम करने के लिए शुक्रिया , इससे साफ़ पता चलता है कि आप यकीनन भारत सरकार के मातहत नहीं हैं :D :D)
सादर
आपको ये कैसे लगा कि मैं भारत सरकार के मातहत भी हो सकता हूं... हाहहाहा
Deleteशुक्रिया आपने वक्त दिया, मन से पढा और विचारों का समर्थन किया।
अरे सर , ये मैंने सिर्फ आपसे मजाक में कहा था , क्यूंकि आपने सरकार जैसी लेट-लतीफी नहीं की न :) :)
Deleteशुक्रिया भाई रस्तोगी जी
ReplyDeleteआपने बिलकुल ठीक कहा, सरकार अब राजीव गाँधी हत्याकांड के आरोपियों को फांसी पर लटकाने का विचार कर रही है।
ReplyDeleteकृपया इस जानकारी को भी पढ़े :- इंटरनेट सर्फ़िंग के कुछ टिप्स।
शुक्रिया भाई हर्षवर्धन
Deleteहमारे देश में आतंकवाद किसने पनपाया ?
ReplyDeleteदेश की सुरक्षा से जुड़े मामलों पर भी राजनीति की जा रही है। यह ग़लत है लेकिन ग़लत काम करने वाले ही सदा से राज करते आए हैं।
मुजरिमों को सज़ा देने में भी राजनीति की जा रही है तो फिर न्याय कैसे होगा ?
अन्याय होगा तो आक्रोश पैदा होगा। आक्रोश फूटेगा तो फिर सुरक्षाकर्मी मरेंगे और तब न्याय के लिए जनता में से ही कुछ को सज़ा सुना दी जाएगी। ये मरे या वह, जो अन्याय करता है, वह महफ़ूज़ रहता है। आतंकवाद का मूल यही है। मूल सुरक्षित है। मूल की सुरक्षा हमारा कर्तव्य बना दिया गया है। ऐसा न किया तो संदिग्ध बन जाएगा।
राजनेता बड़े खिलाड़ी हैं। ये राजनीति भले ही दो कौड़ी की करते हों लेकिन अक्ल बहुत ऊँची रखते हैं।
हमारे देश में आतंकवाद नहीं था। इसे किसने पनपाया ?
जब भी इस सवाल का जवाब ढूंढा जाएगा तो किसी न किसी राजनेता का नाम ही सामने आएगा। आतंकवाद के असल ज़िम्मेदार को कभी सज़ा सुनाई गई हो, ऐसा कोई रिकॉर्ड नहीं है।
प्यादे मारे जा रहे हैं, शाह सलामत है।
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आदरणीय महेन्द्र श्रीवास्तव जी, आपकी पोस्ट का लिंक हमने यहां दिया है-
http://commentsgarden.blogspot.in/2013/02/blog-post_19.html
देश की सुरक्षा से जुड़े मामलों पर भी राजनीति की जा रही है। यह ग़लत है लेकिन ग़लत काम करने वाले ही सदा से राज करते आए हैं।
Deleteमैं आपकी बातों से सहमत हूं। मैने यही बात कहने की कोशिश की है कि इन सबके मूल में दो कौडी की रातनीति और राजनेता ही शामिल हैं।..
शुक्रिया डाक्टर साहब..
देर आये दुरुस्त आये,गुनाहों की सजा तो मिलेगी ही.
ReplyDeleteसही कहा आपने, पर तकलीफ तथाकथित बुद्धिजीवियों से है....
Deleteकुछ ज्यादा ही सभ्य हो गए हैं हम-
ReplyDeleteजी ऐसा ही कुछ मुझे भी लगता है...
Deleteजब सुरक्षा कर्मियों के क्षतविक्षत मिट्टी गाँव में आती है : तब ये मानवाधिकार वादी कहीं नज़र नहीं आते. रीढ़विहीन निपुंसक लोगों को दर्शकों के सामने परोस कर मीडिया को पता नहीं क्या मिलता है.
ReplyDeleteजी सही कहा आपने..
Deleteसबसे गैर जिम्मेदाराना अमल तो न्यूज़ चैनल्स का है इन दिनों ! मीडिया अगर सही रास्ते पर चले तो समाज के लिए कितना सशक्त और प्रभावी हो सकता इसका कोई अनुमान नहीं लगा सकता लेकिन हमारे देश में मीडिया सिर्फ लकीर पीटने में यकीन रखता है ! मीडिया यदि सही मुद्दों को समय पर उठाये और उस वक्त सरकार की ढुलमुल नीतियों पर शिकंजा कसे तब तो कुछ बात बन भी सकती है लेकिन यहाँ हाथी निकल जाने के बाद उसकी दुम खींचने की रवायत ही बनी हुई है ! जब अपने तेवर तेज़ करने चाहिए उस समय सब ऊंघते रहते हैं ! विचारणीय आलेख के लिए आभार !
ReplyDeleteजी मैं पूरी तरह सहमत हूं आपकी बात से
Deleteआभार
मीडिया के जरिये जो इस फांसी के खिलाफ आवाज़ उठा रहे हैं तो उनसे पूछा जाए जो आतंकी या पाकिस्तानी भारतीय सैनिकों के सिर ले गए हैं क्या उन्होंने वापिस किए उसी दिन मैंने भी यही लिखा था फेस बुक पर कि बहुत देर करदी फेंस्ला लेते लेते खैर जो हुआ अच्छा हुआ किन्तु दामिनी के गुनह्गारो के लिए इतनी देर क्यूँ या और ऎसे ही क्राइम की इंतज़ार कर रही है सरकार|आप के आलेखों से बहुत जानकारी प्राप्त होती है हार्दिक आभार
ReplyDeleteजी सहमत हूं आपसे
Deleteबहुत बहुत आभार
सच बात है, इतने सालों तक एक आतंकवादी को सजा होने के बाद भी जीवित रखा जाता है, जनता भूखी है और इनपर करोड़ों का खर्च किया जाता है, अब फांसी के बाद अब क्या उचित क्या अनुचित, इनको तरस आता है क्या जब ये निरपराध लोगों को निर्ममता से मार डालते हैं जो इनपर तरस खाया जाये... बढ़िया आलेख...
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार संध्या जी
Deleteसोने-सी खरी बातें..
ReplyDeleteजी , शुक्रिया
Deleteसच लिखा है इस आलेख में भी.
ReplyDeleteटोक शो ..मिर्च मसाले वाली बहस..टी अर्र पी बढ़ाने का ज़रिया भर..नतीजा क्या निकलता है?बंद होने चाहिए इस तरह के शो या नियंत्रित .
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आम नागरिक तो सियासी खेल के पासे बने हुए हैं बस.
बेबस है भारत की जनता !
जी सहमत हूं मैं आपकी राय से
Deleteआभार
बहुत ही बढ़िया तरीके से पूरे मामले की विवेचना की है आपने। लेख पढ़ते हुये लगा जैसे ये बिलकुल मेरे ही विचार हों। कथित बुद्धिजीवी अफजल को निर्दोष बताते हुये ऐसे चिल्ला रहे हैं जैसे कोर्ट समेत पूरा देश मूर्ख हो और वही बस अक्लमन्द हों। संसार का शायद ही कोई और ऐसा देश होगा जहाँ ऐसे मूढ़ बुद्धिजीवी हों जो अपने ही देश की खिलाफत करते हों।
ReplyDeleteआपसे पूरी-पूरी सहमती है आइसे बेहूदा और वाहियात तक शो बंद होने ही चाहिए
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteबहुत दिनों तक टीवी,ब्लॉग और नेट से दूरी के बाद आपके ब्लॉग पर आ कर सब कुछ पढ़ना सुखद रहा ....एक बार फिर सच से रूबरू करवा दिया ...आपका आभार महेंद्र जी
ReplyDeleteहर राजनीति पार्टी अपने अपने हित की सोच रही है कोई इस देश के बारे में क्यों नहीं सोचता ??????