आजाद भारत की ये पहली सरकार होगी जो इस कदर भ्रष्ट है। मनमोहन सिंह की अगुवाई में सरकार का प्रदर्शन तो दो कौड़ी का रहा ही, संवैधानिक संस्थाओं को भी कमजोर करने की साजिश की गई। चोरी पकड़े जाने पर केंद्र सरकार के मंत्रियों ने सीएजी के खिलाफ बातें कीं, सीबीआई के दुरुपयोग का मामला सबके सामने है। यूपीए-2 में प्रधानमंत्री कार्यालय, वित्त मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय, गृह मंत्रालय, रेल मंत्रालय, संचार मंत्रालय, कोयला मंत्रालय और कानून मंत्रालय समेत कई और मंत्रालयों की भूमिका संदिग्ध पाई गई और मंत्रियों पर भी गंभीर आरोप लगे। साफ-साफ तो ये भी दिखाई दे रहा है कि सरकार के लिए जरूरी संख्या भी इस समय यूपीए-2 के पास नहीं है। लेकिन सीबीआई है तो सरकार को कोई खतरा भी नहीं है। अब सरकार को मैं क्या नंबर दूं या आप खुद ही पढि़ए उनका रिपोर्ट कार्ड और जरूरत समझें तो दे दीजिए नंबर भी। अब नंबर दे ही दिया है तो मुझे भी बता दीजिए कि 10 में कितने नंबर दिए आपने ?
केंद्र की यूपीए-2 की सरकार बस दो दिन बाद यानि 22 मई को अपने चार साल पूरे करने जा रही है। वैसे तो यूपीए-2 शुरू से ही विवादों में रही है, लेकिन पिछले एक साल से सरकार की इतनी छीछालेदर हो चुकी है कि अब प्रधानमंत्री समेत किसी भी मंत्री की दो पैसे की विश्वसनीयता नहीं रह गई है। बता रहे हैं कि आजकल कांग्रेस के दिग्गज काफी परेशान हैं, वजह ये कि उन्हें सरकार के चार साल का रिपोर्ट कार्ड तैयार करने की जिम्मेदारी गई गई है। कहा गया है कि रिपोर्ट कार्ड ऐसा हो, जिससे देश में सरकार की एक साफ सुथरी छवि बने। अंदर की बात तो ये है कि पार्टी में पहले तो इसी बात को लेकर काफी समय तक विवाद रहा कि ये रिपोर्ट कार्ड कौन तैयार करेगा ? सरकार बनाएगी रिपोर्ट कार्ड या फिर पार्टी के नेताओं को ये जिम्मेदारी दी जाए ? बताते हैं कि पार्टी नेताओं ने तो रिपोर्ट कार्ड कि जिम्मेदारी लेने से मना ही कर दिया था, खुल कर तो कोई बोलता नहीं है, लेकिन उनका मानना यही था कि " गोबर " सरकार के मंत्री करते फिरें और वो उसे साफ करते रहें, ऐसा कब तक चलेगा ? बहरहाल अब नाव को डूबती देख सब मिल जुल कर रिपोर्ट तैयार कर रहे हैं। खैर उनकी रिपोर्ट तो दो दिन बाद आएगी, लेकिन 48 घंटे पहले मैं जारी कर रहा हूं सरकार का रिपोर्ट कार्ड बोले तो इस सरकार का असली चेहरा !
सबसे बड़ा सवाल ! अगर कोई मुझसे पूछे कि इस सरकार की सबसे बड़ी कामयाबी आप क्या मानते हैं ? मेरा सीधा सा जवाब होगा कि " जो सरकार चार महीने देश पर शासन करने के लायक नहीं थी, उसने चार साल पूरा किया, यही इस सरकार की सबसे बड़ी कामयाबी है "। मुझे याद है कि यूपीए-2 सरकार के शपथ ग्रहण के पहले ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बहुत कोशिश की कि उनकी सरकार मे डीएमके कोटे से ए. राजा और टीआर बालू को मंत्री न बनाया जाए। मनमोहन सिंह इन दोनों को अपनी सरकार में लेने के बिल्कुल खिलाफ थे। लेकिन टीआर बालू को तो मंत्री न बनाने पर डीएमके प्रमुख करुणानिधि तैयार हो गए, पर राजा के मामले में वो पीछे हटने को एकदम तैयार नहीं हुए। बल्कि डीएमके ने ना सिर्फ राजा को मंत्री बनाने पर जोर दिया, बल्कि उन्हें टेलीकम्यूनिकेशन मंत्रालय ही दिया जाएगा, ये भी सोदैबाजी हुई। ऐसे में आसानी से समझा जा सकता है कि डीएमके और राजा के सामने प्रधानमंत्री ने उसी समय घुटने टेक दिए थे, उन्हें मंत्री बनाना और मनचाहा विभाग देना मनमोहन सिंह की मजबूरी थी। आसान शब्दों में कहा जाए कि मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए डीएमके से ये "डील" शपथ लेने के पहले की तो गलत नहीं होगा। अब पद की गरिमा होती है, वरना प्रधानमंत्री जानते हैं कि अगर रेल मंत्रालय उस वक्त ममता बनर्जी को नहीं देते तो उन्हें तृणमूल कांग्रेस का भी समर्थन नहीं मिलता। सच्चाई ये है कि मंत्रालय के नाम पर सभी दलों से प्रधानमंत्री को समझौता करना पड़ा। दरअसल सरकार के शपथ के पहले ही पार्टी और सहयोगी दलों ने मनमोहन सिंह को जिस हद तक घुटनों पर ला खड़ा किया था, मुझे लगता है कि मनमोहन सिंह की जगह कोई दूसरा आदमी होता तो वो प्रधानमंत्री बनने से साफ इनकार कर देता। लेकिन इस बात के तमाम उदाहरण है कि अपने प्रधानमंत्री को कुर्सी बहुत प्यारी हो और इसके लिए वो हर कीमत चुकाने को तैयार रहते हैं।
सरकार के रिपोर्ट कार्ड में सीबीआई के इस्तेमाल की चर्चा ना की जाए तो मुझे लगता है कि रिपोर्ट कार्ड मुकम्मल नहीं होगी। अब देखिए सरकार के दो सबसे बड़े घटक दल यानि डीएमके और टीएमसी सरकार से समर्थन वापस लेकर बाहर हो गए, फिर भी सरकार की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा। वजह आप जानते ही है, फिर भी मैं बता देता हूं। यूपी में ही नहीं बल्कि कहें कि राजनीति में एक दूसरे के कट्टर विरोधी मुलायम सिंह यादव और मायावती दिल्ली की सरकार के साथ बुरी तरह चिपके हुए है। मुंह खोलने की हिम्मत नहीं है इन नेताओ में। इसकी वजह केंद्र की सरकार का बढि़या काम नहीं है, बल्कि सीबीआई का डंडा है। दोनों के खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति का मामला विचाराधीन है। बेचारे मुलायम सिंह तो अपना दर्द छिपा भी नहीं पाते हैं, उन्होंने तो कई मौंको पर कहा कि समर्थन वापस लें तो ये सरकार हमारे पीछे सीबीआई को लगा देगी। अब ये अलग बात है कि जिस सीबीआई के दम पर केंद्र की सरकार चल रही है, वही सीबीआई आज प्रधानमंत्री के गले की ऐसी हड्डी बन गई है, जिसे ना वो निगल पा रहे हैं और ना ही उगल पा रहे हैं। सच तो ये है कि कहीं अगले चुनाव में कांग्रेस की सरकार नहीं बन पाई तो यही मनमोहन सिंह बेचारे सीबीआई मुख्यालय में कोल ब्लाक आवंटन के मामले में पूछताछ के लिए तलब होते रहेंगे। बहरहाल आज तो ये कहा ही जा सकता है कि दो बड़े दल उनका समर्थन छोड़कर चले गए, लेकिन उन्होंने सरकार पर आंच नहीं आने दी।
मुझे इंतजार है प्रधानमंत्री के जवाब का। एक समय में यही मनमोहन सिंह "मिस्टर क्लीन" कहे जाते थे। आज उन्हें लोग "अलीबाबा 40 चोर" कह रहे हैं। कोई "चोरों का सरदार" बता रहा है। ईमानदारी की बात तो यही है कि उनकी मिस्टर क्लीन की छवि अब पूरी तरह समाप्त हो गई है। यूपीए-2 सरकार में शुरू से ही विवादों का सिलसिला शुरू हो गया। कॉमनवेल्थ गेम्स को लेकर सुरेश कलमाड़ी को और टूजी मामले में सरकार के कैबिनेट मंत्री ए. राजा को जेल जाना पड़ा। इतना ही नहीं गठबंधन की सांसद कनिमोझी तक जेल गईं। ये ऐसा घोटाला था कि सरकार पूरी तरह बैकफुट पर आ गई, लेकिन प्रधानमंत्री ने इसे गठबंधन की मजबूरी बताकर पूरा दोष डीएमके पर मढ़ने की कोशिश की। इसी बीच आदर्श सोसायटी घोटाले में महाराष्ट्र के उस वक्त मुख्यमंत्री रहे अशोक चव्हाण कटघरे में आ गए और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। ये घटना भी सरकार की छवि खराब करने के लिए काफी थी। लोकपाल के लिए अन्ना के आंदोलन से भी सरकार की छवि खराब हुई जबकि रामदेव के आंदोलन को पुलिस के बल पर कुचलने से देश भर मे तीखी प्रतिक्रिया हुई। दिल्ली में गैंग रेप कांड से भी सरकार की छवि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
टूजी घोटाले को लेकर सरकार बुरी तरह घिरी हुई थी, संसद और सड़क तक प्रदर्शन हो ही रहे थे। इसी बीच जेल से बाहर आए पूर्व मंत्री ए राजा ने साफ किया कि उन्होंने जो भी फैसले लिए उन सबकी जानकारी वित्तमंत्री पी चिदंबरम और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को थी। उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया जिसकी जानकारी इन दोनों नेताओं को पहले से ना रही हो। अगर राजा की ये बात सच है तो प्रधानमंत्री को अपनी रिपोर्ट कार्ड में इसका भी खुलासा करना होगा। खैर टूजी को लेकर प्रधानमंत्री घिरे ही थे कि इस बीच कोयला घोटाला सामने आ गया। इस घोटाले में तो साफ-साफ कहा गया कि कोल ब्लाक आवंटन में पीएमओ शामिल है और जिस दौरान ये आवंटन हुए थे, उस समय कोयला मंत्रालय भी प्रधानमंत्री के ही पास था। मामला काफी उलझा हुआ था, आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने पूरे मामले की जांच सीबीआई को दी। सीबीआई की स्टे्टस रिपोर्ट में छेड़छाड़ की साजिश का पर्दाफाश होने के बाद बेचारे कानून मंत्री अश्वनी कुमार को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। हालाकि विपक्ष प्रधानमंत्री का इस्तीफा मांग रहा है, क्योंकि कानून मंत्री तो प्रधानमंत्री को ही बचाने के लिए सीबीआई की रिपोर्ट में बदलाव करा रहे थे, मैं भी इस बात से समहत हूं कि अब प्रधानमंत्री को जांच होने तक पद पर रहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। हेलीकाफ्टर घोटाले में भी सरकार की काफी किरकिरी हुई है। सेना के मामले में ज्यादा चर्चा नहीं हो पाई, लेकिन ट्रकों का सौदा काफी विवादित रहा है। रेलवे में प्रमोशन के लिए घूसखोरी में रेलमंत्री का भांजा रंगेहाथ पकड़ा गया, इसके बाद विपक्ष और मीडिया के भारी शोर-शराबे के बाद रेलमंत्री का इस्तीफा हुआ।
मनमोहन सरकार की कमजोरी और अनुभवहीता विदेश नीति के मामले में भी देखने को मिली। सरकार दावा करती है कि अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी से रिश्ते बेहतर हुए हैं, लेकिन मैं जानना चाहता हूं कि पड़ोसी देशों के साथ हमारे रिश्ते क्यों लगातार खराब होते जा रहे हैं ? पाकिस्तानी सीमा पर तो तनाव बना ही रहता था अब चीन की सीमाएं भी सुरक्षित नहीं रहीं। यहां तक की श्रीलंका, मालदीव देशों के साथ भी हमारी कूटनीति कमजोर साबित हुई है। मैं पूछना चाहता हूं कि पाकिस्तान के साथ सीमा पार से आतंकवाद का मामला हो या फिर पाक सैनिकों द्वारा भारतीय सैनिकों की हत्या और फिर सिर काट ले जाने जैसी अपमान की घटना, इतना ही नहीं सरबजीत की रिहाई का मामला, हर बार पाक सरकार भारत सरकार की कोशिशों पर पानी फेरती रही। लेकिन हम राजदूत को तलब कर आपत्ति जताने के अलावा कुछ नहीं कर पाए। आज देखा जा रहा है कि चीन के सैनिक भी भारतीय सीमा में लगातार घुसपैठ कर रहे हैं, हम अपने सीमावर्ती इलाके में विकास के काम तक नहीं कर पा रहे हैं। हालात ये है कि बीजिंग में दिल्ली की शिकायतें रद्दी की टोकरी में डाल दी जा रही हैं, इसे सरकार की नाकामी नहीं तो भला क्या कहा जाए ?
मुझे लगता है कि पड़ोसी मुल्कों से बेहतर रिश्ते की उम्मीद इस सरकार से करना बेईमानी है। ये सरकार देश मे राज्यों के साथ मतभेद करती है। कई बार ऐसे मामले देखने को मिले जहां केंद्र व राज्य सरकार के बीच दूरियां साफ नजर आईं। जहां राज्यों द्वारा संघीय ढांचे की दुहाई देकर केंद्र सरकार के एनसीटीसी बिल की राह में रोड़ा अटकाया गया, वहीं दूसरी ओर राज्यों के विरोध के चलते केंद्र सरकार अब तक आरपीएफ बिल नहीं ला पा रही। एनसीटीसी मामले पर तो मोदी, नीतीश, ममता, जयललिता, नवीन पटनायक मुख्यमंत्री केंद्र सरकार के खिलाफ बाकायदा लामबंद हो गए थे। राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति और एफडीआई को लेकर भी कई बार टकराव देखने को मिला, जिस तरह एफडीआई के मसले पर राज्यों की अनदेखी की गई, वही केंद्र और राज्यों के संबंधो को बताने के लिए पर्याप्त है।
आखिर में बात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अर्थशास्त्र की। देश को उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री कमजोर ही सही, लेकिन उनके रहने से देश की अर्थव्यवस्था तो मजबूत रहेगी। मेरा तो मानना है कि इस मोर्चे पर भी मनमोहन सिंह फेल रहे हैं। हालाकि ये बात तो सही है कि मंदी के दौर में जहां दुनिया की बड़ी-बड़ी इकॉनामी गच्चा खा गईं, वहीं सरकार ने एक के बाद एक एहतियाती कदम उठाकर देश की अर्थव्यवस्था को संभाले रखा। इस दौरान जहां अमेरिका की ग्रोथ रेट 1 से 2 फीसदी और यूरोपीय देशों की जीडीपी 1 फीसदी से भी कम हो गई थी, वहीं देश की ग्रोथ रेट 6 फीसदी और उससे ज्यादा बनी रही। लेकिन सरकार बढ़ती महंगाई पर रोक नहीं लगा पाई, जो प्रधानमंत्री और सरकार की एक बड़ी कमजोरी मानी गई। कृषि उत्पादों की मांग और आपूर्ति में आया अंतर, डीजल और पेट्रोल जैसे पदार्थों में हुए डिकंट्रोल ने महंगाई की दर को नई गति दी। बढ़ती कीमतें जनता की जेब पर भारी बोझ साबित हुई। एलपीजी पर सब्सिडी की वापसी ने महिलाओं के घरेलू बजट को बिगाड़ कर रख दिया। योजना आयोग ने गरीबों की थाली के रेट निर्धारण में हकीकत की अनदेखी कर गरीबों की गरीबी का मजाक बनाया।
बहरहाल विपक्ष के निशाने पर तो प्रधानमंत्री काफी पहले से थे, लेकिन पिछले दिनों आरोपी कानून मंत्री और रेलमंत्री के इस्तीफे के मामले में कांग्रेस की ओर से ऐसे संकेत दिए गए कि इस्तीफा ना होने से सोनिया गांधी बहुत नाराज है, इससे लगा कि मनमोहन सिंह ही इन दोनों को बचा रहे हें। इस संदेश के बाद तो प्रधानमंत्री की रही सही गरिमा भी खत्म हो गई। बहरहाल प्रधानमंत्री की नाराजगी के बाद अब पूरी पार्टी जरूर बैकफुट पर है। कहा तो जा रहा है कि प्रधानमंत्री ने चार पांच महीनों में कई बार अपने इस्तीफे की पेशकश की है, लेकिन मुश्किल ये है कि जिसे सोनिया गांधी चाहती हैं कि उन्हें प्रधानमंत्री बनाया जाए, वो सरकार का बोगडोर थामने को तैयार नहीं है, जो तैयार हैं उनकी छवि पहले ही इतनी खराब है कि वो सरकार की नइया भला क्या पार लगाएंगे। रही बात राहुल गांधी की वो ऐसा काम चाहते हैं, जहां जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए, काम हुआ तो ठीक, नहीं हुआ तो भी ठीक। आसान भाषा में कहूं तो वो ऐसा काम चाहते हैं कि हर्रे लगे ना फिटकरी, बस रंग चोखा ! रिपोर्ट कार्ड में कुछ छूट गया हो तो कृपया आप पूरा कर दें।
केंद्र की यूपीए-2 की सरकार बस दो दिन बाद यानि 22 मई को अपने चार साल पूरे करने जा रही है। वैसे तो यूपीए-2 शुरू से ही विवादों में रही है, लेकिन पिछले एक साल से सरकार की इतनी छीछालेदर हो चुकी है कि अब प्रधानमंत्री समेत किसी भी मंत्री की दो पैसे की विश्वसनीयता नहीं रह गई है। बता रहे हैं कि आजकल कांग्रेस के दिग्गज काफी परेशान हैं, वजह ये कि उन्हें सरकार के चार साल का रिपोर्ट कार्ड तैयार करने की जिम्मेदारी गई गई है। कहा गया है कि रिपोर्ट कार्ड ऐसा हो, जिससे देश में सरकार की एक साफ सुथरी छवि बने। अंदर की बात तो ये है कि पार्टी में पहले तो इसी बात को लेकर काफी समय तक विवाद रहा कि ये रिपोर्ट कार्ड कौन तैयार करेगा ? सरकार बनाएगी रिपोर्ट कार्ड या फिर पार्टी के नेताओं को ये जिम्मेदारी दी जाए ? बताते हैं कि पार्टी नेताओं ने तो रिपोर्ट कार्ड कि जिम्मेदारी लेने से मना ही कर दिया था, खुल कर तो कोई बोलता नहीं है, लेकिन उनका मानना यही था कि " गोबर " सरकार के मंत्री करते फिरें और वो उसे साफ करते रहें, ऐसा कब तक चलेगा ? बहरहाल अब नाव को डूबती देख सब मिल जुल कर रिपोर्ट तैयार कर रहे हैं। खैर उनकी रिपोर्ट तो दो दिन बाद आएगी, लेकिन 48 घंटे पहले मैं जारी कर रहा हूं सरकार का रिपोर्ट कार्ड बोले तो इस सरकार का असली चेहरा !
सबसे बड़ा सवाल ! अगर कोई मुझसे पूछे कि इस सरकार की सबसे बड़ी कामयाबी आप क्या मानते हैं ? मेरा सीधा सा जवाब होगा कि " जो सरकार चार महीने देश पर शासन करने के लायक नहीं थी, उसने चार साल पूरा किया, यही इस सरकार की सबसे बड़ी कामयाबी है "। मुझे याद है कि यूपीए-2 सरकार के शपथ ग्रहण के पहले ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बहुत कोशिश की कि उनकी सरकार मे डीएमके कोटे से ए. राजा और टीआर बालू को मंत्री न बनाया जाए। मनमोहन सिंह इन दोनों को अपनी सरकार में लेने के बिल्कुल खिलाफ थे। लेकिन टीआर बालू को तो मंत्री न बनाने पर डीएमके प्रमुख करुणानिधि तैयार हो गए, पर राजा के मामले में वो पीछे हटने को एकदम तैयार नहीं हुए। बल्कि डीएमके ने ना सिर्फ राजा को मंत्री बनाने पर जोर दिया, बल्कि उन्हें टेलीकम्यूनिकेशन मंत्रालय ही दिया जाएगा, ये भी सोदैबाजी हुई। ऐसे में आसानी से समझा जा सकता है कि डीएमके और राजा के सामने प्रधानमंत्री ने उसी समय घुटने टेक दिए थे, उन्हें मंत्री बनाना और मनचाहा विभाग देना मनमोहन सिंह की मजबूरी थी। आसान शब्दों में कहा जाए कि मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए डीएमके से ये "डील" शपथ लेने के पहले की तो गलत नहीं होगा। अब पद की गरिमा होती है, वरना प्रधानमंत्री जानते हैं कि अगर रेल मंत्रालय उस वक्त ममता बनर्जी को नहीं देते तो उन्हें तृणमूल कांग्रेस का भी समर्थन नहीं मिलता। सच्चाई ये है कि मंत्रालय के नाम पर सभी दलों से प्रधानमंत्री को समझौता करना पड़ा। दरअसल सरकार के शपथ के पहले ही पार्टी और सहयोगी दलों ने मनमोहन सिंह को जिस हद तक घुटनों पर ला खड़ा किया था, मुझे लगता है कि मनमोहन सिंह की जगह कोई दूसरा आदमी होता तो वो प्रधानमंत्री बनने से साफ इनकार कर देता। लेकिन इस बात के तमाम उदाहरण है कि अपने प्रधानमंत्री को कुर्सी बहुत प्यारी हो और इसके लिए वो हर कीमत चुकाने को तैयार रहते हैं।
सरकार के रिपोर्ट कार्ड में सीबीआई के इस्तेमाल की चर्चा ना की जाए तो मुझे लगता है कि रिपोर्ट कार्ड मुकम्मल नहीं होगी। अब देखिए सरकार के दो सबसे बड़े घटक दल यानि डीएमके और टीएमसी सरकार से समर्थन वापस लेकर बाहर हो गए, फिर भी सरकार की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा। वजह आप जानते ही है, फिर भी मैं बता देता हूं। यूपी में ही नहीं बल्कि कहें कि राजनीति में एक दूसरे के कट्टर विरोधी मुलायम सिंह यादव और मायावती दिल्ली की सरकार के साथ बुरी तरह चिपके हुए है। मुंह खोलने की हिम्मत नहीं है इन नेताओ में। इसकी वजह केंद्र की सरकार का बढि़या काम नहीं है, बल्कि सीबीआई का डंडा है। दोनों के खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति का मामला विचाराधीन है। बेचारे मुलायम सिंह तो अपना दर्द छिपा भी नहीं पाते हैं, उन्होंने तो कई मौंको पर कहा कि समर्थन वापस लें तो ये सरकार हमारे पीछे सीबीआई को लगा देगी। अब ये अलग बात है कि जिस सीबीआई के दम पर केंद्र की सरकार चल रही है, वही सीबीआई आज प्रधानमंत्री के गले की ऐसी हड्डी बन गई है, जिसे ना वो निगल पा रहे हैं और ना ही उगल पा रहे हैं। सच तो ये है कि कहीं अगले चुनाव में कांग्रेस की सरकार नहीं बन पाई तो यही मनमोहन सिंह बेचारे सीबीआई मुख्यालय में कोल ब्लाक आवंटन के मामले में पूछताछ के लिए तलब होते रहेंगे। बहरहाल आज तो ये कहा ही जा सकता है कि दो बड़े दल उनका समर्थन छोड़कर चले गए, लेकिन उन्होंने सरकार पर आंच नहीं आने दी।
मुझे इंतजार है प्रधानमंत्री के जवाब का। एक समय में यही मनमोहन सिंह "मिस्टर क्लीन" कहे जाते थे। आज उन्हें लोग "अलीबाबा 40 चोर" कह रहे हैं। कोई "चोरों का सरदार" बता रहा है। ईमानदारी की बात तो यही है कि उनकी मिस्टर क्लीन की छवि अब पूरी तरह समाप्त हो गई है। यूपीए-2 सरकार में शुरू से ही विवादों का सिलसिला शुरू हो गया। कॉमनवेल्थ गेम्स को लेकर सुरेश कलमाड़ी को और टूजी मामले में सरकार के कैबिनेट मंत्री ए. राजा को जेल जाना पड़ा। इतना ही नहीं गठबंधन की सांसद कनिमोझी तक जेल गईं। ये ऐसा घोटाला था कि सरकार पूरी तरह बैकफुट पर आ गई, लेकिन प्रधानमंत्री ने इसे गठबंधन की मजबूरी बताकर पूरा दोष डीएमके पर मढ़ने की कोशिश की। इसी बीच आदर्श सोसायटी घोटाले में महाराष्ट्र के उस वक्त मुख्यमंत्री रहे अशोक चव्हाण कटघरे में आ गए और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। ये घटना भी सरकार की छवि खराब करने के लिए काफी थी। लोकपाल के लिए अन्ना के आंदोलन से भी सरकार की छवि खराब हुई जबकि रामदेव के आंदोलन को पुलिस के बल पर कुचलने से देश भर मे तीखी प्रतिक्रिया हुई। दिल्ली में गैंग रेप कांड से भी सरकार की छवि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
टूजी घोटाले को लेकर सरकार बुरी तरह घिरी हुई थी, संसद और सड़क तक प्रदर्शन हो ही रहे थे। इसी बीच जेल से बाहर आए पूर्व मंत्री ए राजा ने साफ किया कि उन्होंने जो भी फैसले लिए उन सबकी जानकारी वित्तमंत्री पी चिदंबरम और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को थी। उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया जिसकी जानकारी इन दोनों नेताओं को पहले से ना रही हो। अगर राजा की ये बात सच है तो प्रधानमंत्री को अपनी रिपोर्ट कार्ड में इसका भी खुलासा करना होगा। खैर टूजी को लेकर प्रधानमंत्री घिरे ही थे कि इस बीच कोयला घोटाला सामने आ गया। इस घोटाले में तो साफ-साफ कहा गया कि कोल ब्लाक आवंटन में पीएमओ शामिल है और जिस दौरान ये आवंटन हुए थे, उस समय कोयला मंत्रालय भी प्रधानमंत्री के ही पास था। मामला काफी उलझा हुआ था, आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने पूरे मामले की जांच सीबीआई को दी। सीबीआई की स्टे्टस रिपोर्ट में छेड़छाड़ की साजिश का पर्दाफाश होने के बाद बेचारे कानून मंत्री अश्वनी कुमार को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। हालाकि विपक्ष प्रधानमंत्री का इस्तीफा मांग रहा है, क्योंकि कानून मंत्री तो प्रधानमंत्री को ही बचाने के लिए सीबीआई की रिपोर्ट में बदलाव करा रहे थे, मैं भी इस बात से समहत हूं कि अब प्रधानमंत्री को जांच होने तक पद पर रहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। हेलीकाफ्टर घोटाले में भी सरकार की काफी किरकिरी हुई है। सेना के मामले में ज्यादा चर्चा नहीं हो पाई, लेकिन ट्रकों का सौदा काफी विवादित रहा है। रेलवे में प्रमोशन के लिए घूसखोरी में रेलमंत्री का भांजा रंगेहाथ पकड़ा गया, इसके बाद विपक्ष और मीडिया के भारी शोर-शराबे के बाद रेलमंत्री का इस्तीफा हुआ।
मनमोहन सरकार की कमजोरी और अनुभवहीता विदेश नीति के मामले में भी देखने को मिली। सरकार दावा करती है कि अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी से रिश्ते बेहतर हुए हैं, लेकिन मैं जानना चाहता हूं कि पड़ोसी देशों के साथ हमारे रिश्ते क्यों लगातार खराब होते जा रहे हैं ? पाकिस्तानी सीमा पर तो तनाव बना ही रहता था अब चीन की सीमाएं भी सुरक्षित नहीं रहीं। यहां तक की श्रीलंका, मालदीव देशों के साथ भी हमारी कूटनीति कमजोर साबित हुई है। मैं पूछना चाहता हूं कि पाकिस्तान के साथ सीमा पार से आतंकवाद का मामला हो या फिर पाक सैनिकों द्वारा भारतीय सैनिकों की हत्या और फिर सिर काट ले जाने जैसी अपमान की घटना, इतना ही नहीं सरबजीत की रिहाई का मामला, हर बार पाक सरकार भारत सरकार की कोशिशों पर पानी फेरती रही। लेकिन हम राजदूत को तलब कर आपत्ति जताने के अलावा कुछ नहीं कर पाए। आज देखा जा रहा है कि चीन के सैनिक भी भारतीय सीमा में लगातार घुसपैठ कर रहे हैं, हम अपने सीमावर्ती इलाके में विकास के काम तक नहीं कर पा रहे हैं। हालात ये है कि बीजिंग में दिल्ली की शिकायतें रद्दी की टोकरी में डाल दी जा रही हैं, इसे सरकार की नाकामी नहीं तो भला क्या कहा जाए ?
मुझे लगता है कि पड़ोसी मुल्कों से बेहतर रिश्ते की उम्मीद इस सरकार से करना बेईमानी है। ये सरकार देश मे राज्यों के साथ मतभेद करती है। कई बार ऐसे मामले देखने को मिले जहां केंद्र व राज्य सरकार के बीच दूरियां साफ नजर आईं। जहां राज्यों द्वारा संघीय ढांचे की दुहाई देकर केंद्र सरकार के एनसीटीसी बिल की राह में रोड़ा अटकाया गया, वहीं दूसरी ओर राज्यों के विरोध के चलते केंद्र सरकार अब तक आरपीएफ बिल नहीं ला पा रही। एनसीटीसी मामले पर तो मोदी, नीतीश, ममता, जयललिता, नवीन पटनायक मुख्यमंत्री केंद्र सरकार के खिलाफ बाकायदा लामबंद हो गए थे। राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति और एफडीआई को लेकर भी कई बार टकराव देखने को मिला, जिस तरह एफडीआई के मसले पर राज्यों की अनदेखी की गई, वही केंद्र और राज्यों के संबंधो को बताने के लिए पर्याप्त है।
आखिर में बात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अर्थशास्त्र की। देश को उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री कमजोर ही सही, लेकिन उनके रहने से देश की अर्थव्यवस्था तो मजबूत रहेगी। मेरा तो मानना है कि इस मोर्चे पर भी मनमोहन सिंह फेल रहे हैं। हालाकि ये बात तो सही है कि मंदी के दौर में जहां दुनिया की बड़ी-बड़ी इकॉनामी गच्चा खा गईं, वहीं सरकार ने एक के बाद एक एहतियाती कदम उठाकर देश की अर्थव्यवस्था को संभाले रखा। इस दौरान जहां अमेरिका की ग्रोथ रेट 1 से 2 फीसदी और यूरोपीय देशों की जीडीपी 1 फीसदी से भी कम हो गई थी, वहीं देश की ग्रोथ रेट 6 फीसदी और उससे ज्यादा बनी रही। लेकिन सरकार बढ़ती महंगाई पर रोक नहीं लगा पाई, जो प्रधानमंत्री और सरकार की एक बड़ी कमजोरी मानी गई। कृषि उत्पादों की मांग और आपूर्ति में आया अंतर, डीजल और पेट्रोल जैसे पदार्थों में हुए डिकंट्रोल ने महंगाई की दर को नई गति दी। बढ़ती कीमतें जनता की जेब पर भारी बोझ साबित हुई। एलपीजी पर सब्सिडी की वापसी ने महिलाओं के घरेलू बजट को बिगाड़ कर रख दिया। योजना आयोग ने गरीबों की थाली के रेट निर्धारण में हकीकत की अनदेखी कर गरीबों की गरीबी का मजाक बनाया।
बहरहाल विपक्ष के निशाने पर तो प्रधानमंत्री काफी पहले से थे, लेकिन पिछले दिनों आरोपी कानून मंत्री और रेलमंत्री के इस्तीफे के मामले में कांग्रेस की ओर से ऐसे संकेत दिए गए कि इस्तीफा ना होने से सोनिया गांधी बहुत नाराज है, इससे लगा कि मनमोहन सिंह ही इन दोनों को बचा रहे हें। इस संदेश के बाद तो प्रधानमंत्री की रही सही गरिमा भी खत्म हो गई। बहरहाल प्रधानमंत्री की नाराजगी के बाद अब पूरी पार्टी जरूर बैकफुट पर है। कहा तो जा रहा है कि प्रधानमंत्री ने चार पांच महीनों में कई बार अपने इस्तीफे की पेशकश की है, लेकिन मुश्किल ये है कि जिसे सोनिया गांधी चाहती हैं कि उन्हें प्रधानमंत्री बनाया जाए, वो सरकार का बोगडोर थामने को तैयार नहीं है, जो तैयार हैं उनकी छवि पहले ही इतनी खराब है कि वो सरकार की नइया भला क्या पार लगाएंगे। रही बात राहुल गांधी की वो ऐसा काम चाहते हैं, जहां जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए, काम हुआ तो ठीक, नहीं हुआ तो भी ठीक। आसान भाषा में कहूं तो वो ऐसा काम चाहते हैं कि हर्रे लगे ना फिटकरी, बस रंग चोखा ! रिपोर्ट कार्ड में कुछ छूट गया हो तो कृपया आप पूरा कर दें।
आपकी यह रचना कल सोमवार (20-05-2013) को ब्लॉग प्रसारण के "विशेष रचना कोना" पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
ReplyDeleteशुक्रिया भाई अरुण जी
Deleteमहेंद्र जी
ReplyDeleteआजाद भारत की यह पहली सरकार है जो सोशल मीडिया का सीधे सामना कर रही है .इस बात की तो दाद देनी ही पड़ेगी .अगली सरकारें सोशल मीडिया से बचने का तरीका जरूर निकाल लेंगी .
मुझे नहीं लगता कि अब वो कोई तरीका निकाल पाएंगी।
Deleteअब सरकारों को अतिरिक्त सावधानी बरतनी ही होगी.
वरना उनका भी हाल मनमोहन जैसा होगा।
आभार
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteदाढ़ीवाले मि.क्लीन कैसे हो सकते हैं भला।
अन्दर दाढ़ी बाहर दाढ़ी, कैसे समझे इन्हें अनाड़ी...!
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आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज सोमंवार (20-05-2013) के सरिता की गुज़ारिश : चर्चामंच 1250 में मयंक का कोना पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी
Deleteआपका स्नेह लिखने की ताकत देने वाला होता है।
सटीक विश्लेषण करके रिपोर्ट कार्ड तैयार किया है !!
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार
Deleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति !
ReplyDeleteबहुत कुछ का अनुसरण कर बहुत कुछ देखें और पढें
शुक्रिया भाई
Deleteवाह ... बेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteसादर
बहुत बहुत आभार ....
Deleteसच कहा आपने मनमोहन सरकार क्लीन कहाँ रही घोटाले ही घोटाले होते रहे 'अली बाबा 40 चोर' कहावत चरितार्थ होती है सही रिपोर्ट एकदम....
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार रंजना जी
Deleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार २ १ / ५ /१ ३ को चर्चामंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां स्वागत है ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार
Deleteरोचक और जानकारी से भरा आलेख...
ReplyDeleteशुक्रिया अंकुर
Delete२ ० १ ४ अब २ ० १ ३ नवम्बर में ही भुगता लिया जाएगा .मिस्टर क्लीन के अन क्लीन अवतार को दूध में पड़ी मख्खी की मानिंद फैंक दिया जाएगा .नम्बर कैसे इस सरकार की तो निगेटिव मार्किंग होनी चाहिए .
ReplyDeleteस्कोर रहे :
माइनस टेन बोले तो (- १ ० ).ॐ शान्ति .यूपीए २ विकृतियों का गठबंधन बना .
२ ० १ ४ अब २ ० १ ३ नवम्बर में ही भुगता लिया जाएगा .मिस्टर क्लीन के अन क्लीन अवतार को दूध में पड़ी मख्खी की मानिंद फैंक दिया जाएगा .नम्बर कैसे इस सरकार की तो निगेटिव मार्किंग होनी चाहिए .
ReplyDeleteस्कोर रहे :
माइनस टेन बोले तो (- १ ० ).ॐ शान्ति .यूपीए २ विकृतियों का गठबंधन बना .
आपसे भी महेन्द्र भाई एक गलती हो गई आपने कसावदार रिपोर्ट के चक्कर में पूरा सच लिख दिया .बधाई .
बहुत बहुत आभार
Deleteरिपोर्ट कार्ड ... पर मनमोहन जी को २२ को देंगे ...
ReplyDeleteमिस्टर क्लीन अब मिस्टर भ्रष्टता के प्रतीक बन के रह गए हैं ...
बिल्कुल सहमत हूं
Deleteआभार
क्या इस वक्त मध्यावती चुनाव नहीं हो सकते ?
ReplyDeleteताकि इस देश को कुछ तो राहत मिले ...इस भ्रष्ट सरकार के लिए सब बातों के अब कोई मायने नहीं रह गए ...फिर भी इस रात की सुबह जरुर होगी ...एक उम्मीद के साथ ...इस देश का हर आम नागरिक
सही कहा आपने, उम्मीद पर तो दुनिया कायम है।
Deleteआभार
पब्लिक है पर नहीं जानती है। बढ़िया विश्लेषण किया है आपने। बधाई।
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आप सादर आमंत्रित हैं। पसंद आनेपर शामिल होकर अपना स्नेह अवश्य दें। सादर
शुक्रिया भाई गौरव
Deleteसरकार की उपलब्धि सरकार के लिए ही समस्या है और एक बहुत बड़ा प्रश्न
ReplyDeleteजिसका जवाब अब जनता के पास है
और अब जनता ही जवाब देगी
सुन्दर विश्लेषण
साभार!
शुक्रिया भाई शिवनाथ कुमार जी
Deleteसटीक विश्लेषण किया है
ReplyDeleteहमेशा की तरह बढ़िया आलेख !
बहुत बहुत आभार सुमन जी
Deletekajal kee kothri me kaiso hi yatan karo kajal ka dag bhai lage hi lage ,to manmohan ji kaise bach sakte the .
ReplyDeleteक्या ऐसा नहीं हो सकता ..
Deleteचंदन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग ...
आप ये क्यों कह रही हैं कि काजल लगना ही है। मनमोहन तो ईमानदारी के लिए जाने जाते रहे हैं।
आपका बहुत बहुत आभार