प्रधानमंत्री के लिए रथयात्रा...
लालकृष्ण आडवाणी की चिंता से जायज है, बताइये उन्हें लोग एक साजिश के तहत "ओवरएज" बताकर हाशिए पर डालने की कोशिश कर रहे थे। हालाकि कम लोग जानते हैं कि उनकी सेहत का राज ही पीएम इन वेटिंग कहा जाना है। अब भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जनता के निशाने पर कांग्रेस है, उम्मीद की जा रही है कि अगले चुनाव में बीजेपी को कुछ फायदा मिल सकता है। वैसे तो ये कहना जल्दबाजी है, लेकिन सबकुछ ठीक रहा तो केंद्र में एक बार फिर बीजेपी की अगुवाई में सरकार बन सकती है। सरकार बनने की गुंजाइश दिखाई दे रही है तो ना जाने कहां से युवा नेतृत्व की बात छेड़ दी गई। यही बात आडवाणी जी के गले नहीं उतर रही है।
संघ के दबाव में पहले उन्हें नेता विपक्ष का पद छोड़ने को कहा गया, हालांकि बहुत ही भारी मन से उन्होंने ये पद छोड़ा। मुझे लगता है कि उनके राजनीतिक जीवन में सबसे बड़ा झटका ये होगा कि उनकी मौजूदगी में लोग प्रधानमंत्री पद के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का नाम ले रहे हैं और मजबूरी में उन्हें भी सभी के हां में हां मिलाना पड़ रहा है। बस फिर क्या था आडवाणी को साबित करना था कि अभी उनमें राजनीति बची हुई है। इसके लिए वो एक बार फिर रथ पर सवार हो गए। यात्रा पर निकलने से ठीक पहले उन्होंने ये कह कर चौंका दिया कि प्रधानमंत्री कौन बनेगा ये फैसला पार्टी करेगी। अब किसी में ये भ्रम नहीं होना चाहिए कि आडवाणी प्रधानमंत्री की दौड से बाहर हैं, क्योंकि जब पार्टी के सभी महत्वपूर्ण फैसले आज भी आडवाणी जी ही कर रहे हैं तो प्रधानमंत्री के बारे में भला उनकी राय को कैसे अनदेखा किया जा सकता है। उधर बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार जो नरेन्द्र मोदी को बिहार में देखना नहीं चाहते, वो आडवाणी की रथयात्रा को हरी झडी दिखाने को तैयार हो गए। भइया ये राजनीति है, इसे समझने के लिए चाणक्य दिमाग की दरकार होगी।
राहुल बाबा मान जाओ...
ये आधा नहीं पूरा सच है कि राहुल गांधी अभी प्रधानमंत्री के लिए फिट नहीं हैं। पूर्व मुख्यमंत्री अच्युतानंद की बात को भले ही कांग्रेस नेताओं ने खारिज कर दिया हो, पर मैं उनकी बात से पूरी तरह सहमत हूं कि राहुल गांधी अभी राजनीति के अमूल बेबी से ज्यादा कुछ नहीं हैं। मुझे लगता है कि कांग्रेस इस समय जिस बुरे दौर से गुजर रही है, शायद ही इसके पहले कभी उसने ऐसा दिन देखा हो। इसमें पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव राहुल गांधी कहीं नहीं दिखाई दे रहे हैं। यूपीए चेयरपर्सन श्रीमति सोनिया गांधी जब इलाज के लिए विदेश गईं तो उन्होंने सरकार और पार्टी के महत्वपूर्ण फैसले के लिए चार सदस्यीय टीम का गठन कर दिया।
इसी दौरान जनलोकपाल बिल को लेकर अन्ना हजारे का हाई प्रोफाइल ड्रामा शुरू हो गया। कांग्रेस नेता एक के बाद एक गल्ती करते रहे, लेकिन ना ही राहुल की अगुवाई वाली पूरी टीम पर्दे से गायब रही। माना जा रहा था कि अगर राहुल इस मामले में आगे आते और कुछ ठोस पहल करते तो ये मामला पहले ही सुलझ सकता था, पर कांग्रेस के भीतर की गुटबाजी का नतीजा ये हुआ कि अन्ना ने पूरी सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया।
सवाल ये है कि जब इस मामूली समस्या को सुलझाने में राहुल गांधी की ना ही कोई रुचि रही और ना ही उन्होंने इसके लिए कोई पहल किया। प्रधानमंत्री के तौर पर तो रोजाना इससे भी बडी मुश्किलों का सामना करना होगा। राहुल बाबा आप के लिए ये ठीक है स्कूली बच्चों और दलित गांव की महिलाओं के बीच रोटी सोटी तोड़ते रहिए। देश को संभालना ना आपके बस की बात है और ना ही आप की इसमें कोई रुचि दिखाई दे रही है। हां कांग्रेस नेता कैमरे पर होते हैं तो भले ही उन्हें आपमें प्रधानमंत्री के सभी गुण दिखाई देते हों, पर कैमरे के बाहर उन्हें भी पता है कि आप अभी इस पद के लिए बिल्कुल फिट नहीं हैं। वैसे ही मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाकर कांग्रेस एक करीब दस साल पीछे चली गई है और अगर उसने आपको प्रधानमंत्री बनाने की कोशिश की तो पार्टी की केंद्र में वही दशा होगी जो देश के सबसे बडे राज्य यूपी में है।
अन्ना नहीं रहे वो अन्ना...
जी हां, जिस अन्ना को मैं जानता था, ये अन्ना अब वो अन्ना नहीं रहे। अन्ना ही नहीं उनकी पूरी टीम को लगता है कि अब वो देश से ऊपर हैं। यही वजह है कि लोग उन पर और उनकी टीम पर उंगली उठाने लगे हैं। जनलोकपाल में जैसे ही एनजीओ को शामिल करने की बात चली तो टीम अन्ना के तेवर कडे हो गए, अरे भाई ईमानदारी सिर्फ नेताओं में ही क्यों होनी चाहिए, सामाजिक कार्यकर्ताओं में ईमानदारी क्यों नही होनी चाहिए।
मेरे मन में एक सवाल है जो मैं टीम अन्ना से पूछना चाहता हूं। रामलीला मैदान में जो फैसला हुआ था कि जनलोकपाल बिल को संसद के शीतकालीन सत्र में पेश किया जाएगा, तो ऐसा क्या हो गया टीम अन्ना ने सत्र के पहले ही खुलकर कांग्रेस का विरोध शुरू कर दिया। मैं कहता हूं कि चलिए मान भी लिया जाए कि हिसार में अन्ना की टीम के विरोध से कांग्रेस चुनाव हार सकती है, तो इससे कौन पहाड टूट पडेगा। लेकिन टीम अन्ना ने ये भरोसा जरूर तोड़ दिया कि वो जो कहते हैं, उस पर अडिग नहीं रहते।
और अगर दबाव बनाने के लिए हिसार उपचुनाव में कांग्रेस का विरोध हो रहा है तो जब रामलीला मैदान में अनशन के दौरान सरकार घुटनों पर थी, तो अनशन खत्म करके ढील क्यों दी गई। सरकार संसद में चर्चा कर ही रही थी, फिर क्यों नहीं कहा गया कि संसद का सत्र चल रहा है, हमें इसी सत्र में जनलोकपाल बिल चाहिए। इससे तो साफ लगता है कि अन्ना और उनकी टीम अब अपने को खुदा समझने लगी है, उन्हें लगता है कि देश में वो जो कर रहे हैं, वही ठीक है, बाकी सब गलत।
मित्रों मुझे लगता था कि जो अन्ना प्रधानमंत्री पर उंगली उठाते हैं और कहते हैं कि मनमोहन सिंह इमानदार हैं, लेकिन उनका रिमोट कहीं और है। सच कहूं तो मुझे भी यही लगता है कि अन्ना इमानदार हैं, लेकिन उनका रिमोट भी कहीं और है। जिस तरह से उनकी टीम ने तिरंगा लेकर खुलेआम एक पार्टी के उम्मीदवार का विरोध किया, उससे तो यही लगता है। क्योंकि अन्ना भी जानते हैं कि अकेले कांग्रेस ही जनलोकपाल बिल संसद मे पास नहीं करा सकती, इसके लिए उसे बीजेपी की भी मदद लेनी होगी, फिर विरोध सिर्फ कांग्रेस का ही क्यों। ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिससे लगता है कि ये अन्ना वो अन्ना नहीं रहा। अन्ना का लोग सम्मान करते थे, लेकिन जिस तरह से बेलगाम हो चुके हैं, उससे अब उनपर ना सिर्फ कांग्रेस बल्कि और नेताओं ने भी उंगली उठानी शुरू कर दी है। शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने तो खुले आम चेतावनी दी कि अन्ना उनसे ना उलझें, क्योंकि वो गांधीवादी नहीं है। मतलब साफ है कि वो ईंट का जवाब पत्थर से देते हैं। इसके बाद अन्ना बेचारे खामोश हो गए। टीम अन्ना को बिखर जाए, इसके पहले उन्हें आत्ममंथन करना चाहिए।
सटीक विश्लेषण करता आलेख।
ReplyDeleteसादर
बढ़िया प्रस्तुति |
ReplyDeleteहमारी बधाई स्वीकारें ||
राहुल बाबा आप के लिए ये ठीक है स्कूली बच्चों और दलित गांव की महिलाओं के बीच रोटी सोटी तोड़ते रहिए।
ReplyDeleteमहेंद्र भाई आप भी खूब मस्त सोचते हैं.
कभी आडवाणी, तो कभी अन्ना,बीच में राहुल बाबा
अच्छा विश्लेषण किया आपने।
ReplyDeleteआडवाणी पीएम की दौड में हैं..... ये बात नहीं समझ आई कि क्या भाजपा यह मान रही है कि भारत के इतिहास में इकलौते गैर कांग्रेसी जो एक बार से ज्यादा प्रधानमंत्री बने.... अटल जी वो चूक गए हैं जो उनके जीते जी कभी आडवाणी को पीएम इन वेटिंग बताया जाता है तो कभी नरेन्द्र मोदी का नाम सामने लाया जाता है.....
राहुल गांधी की बात है तो वो केन्द्र में मंत्री नहीं बने.... चाहते तो बन सकते थे.... इस पर मुझे याद आ रहा है मेरे एक मित्र की वो टिप्प्णी जिसमें उसने कहा था.. गांधी सरनेम के लोग मंत्री नहीं बनते... प्रधानमंत्री बनते हैं....
और अन्ना..... अन्ना ने एक अच्छे मिशन पर काम करना प्रारंभ किया था लेकिन लगता है कि उनके साथ जुडे लोगों के साथ साथ उनकी अपनी महत्वाकांक्षा उन्हें भी राजनीति के कीचड में समेट न ले....
बेहद ईमानदारी पूर्ण लेख....
ReplyDeleteशुभकामनायें !
दरअसल ... गर्वोक्ति में लोग की चाल ही बदल जाती है और खुद तो गिरते ही हैं , कईयों को ले डूबते हैं - बेचारा देश ! , मैं उठूं क्या ? हाहाहा
ReplyDeleteकल 13/10/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
क्या बात है! वाह! बहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteईमानदारी से विश्लेषण करता सटीक आलेख...
ReplyDeleteआपका विश्लेषण बहुत प्रभावित करता है एक सोच में आपकी पोस्ट्स को सन्दर्भ के तौर पर देखता हूँ ....आपका शुक्रिया
ReplyDeleteसही मुद्दे को लेकर आपने बहुत सुन्दरता से प्रस्तुत किया है! सटीक आलेख!
ReplyDeleteसार्थक व सटीक लेखन ... बेहतरीन प्रस्तुति ।
ReplyDeleteबहुत सटीक विश्लेषण...
ReplyDeleteआडवाणी जी की रथ यात्रा का मकसद क्या रहता है ये हर कोई जानता है .......और अगर कहनी इस देश के प्रधानमंत्री मोदी जी बन गए तो सच में बेडा पार हो जायेगा .....सच में देश का भला ही होगा उनके आने से .....रही बात राहुल गाँधी की ........ना वो अभी इस लायक नहीं कि पार्टी और देश की बागडोर अकेले संभाल सके ...
ReplyDeleteआधे सच के साथ पूरा सच रखने के लिए धन्यवाद आपका
बहुत प्रभावी होता है आपका हर पोस्ट..विवाद करने की कही से कोई गुन्जाईस नहीं रहती..
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