मेरा अभी भी मानना है कि कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के बारे में कुछ लिखना, पढ़ना सिर्फ समय खराब करने से ज्यादा कुछ नहीं है। राहुल जब से राजनीति में आए हैं, अगर हम जानना चाहें कि उन्होंने इस दौरान किया क्या है ? तो मुझे तो सिर्फ दो बातें याद आ रही हैं। पहला उन्होंने घूम घूम कर दलितों के घर भोजन किया और दूसरा वो भारतीयों की दुर्दशा से इतने परेशान है कि अब उन्हें भारतवासी होने पर शर्म आती है।
देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस की पूरी राजनीति गांधी परिवार के ही इर्दगिर्द घूमती रहती है। बीमारी के बाद सोनिया गांधी स्वस्थ तो हैं, पर पहले की तरह एक्टिव नहीं हैं। चूंकि कांग्रेसियों को गांधी परिवार के अलावा किसी और का नेतृत्व स्वीकार ही नहीं है, इसलिए अभी से राहुल बाबा को कमान सौंपने के लिए एक ग्रुप पूरी ताकत से जुट गया है। बहरहाल ये उनका घरेलू मामला है, मैं इसमें क्या कहूं, लेकिन हां अगर राहुल के हाथ में सरकार की कमान आती है तो देश का दुर्भाग्य ही होगा, क्योंकि मेरा मानना है कि राहुल गांधी से बेहतर है कि जिस दलित के यहां भोजन कर राहुल कुर्सी पाने की कोशिश कर रहे हैं, उस दलित को ही कुर्सी सौंप दी जाए। कम से कम उसे ये तो पता है ना कि गरीबी क्या होती है। आटा चावल दाल की कीमत भी वो जानता है। बहरहाल.....
मेरे मन में कई दिन से एक सवाल है। अगर अखबार में राहुल गांधी की कोई खबर है तो सिर्फ यही की वो यूपी के किसी गांव में दलित परिवार के घर पहुंचे और उनके यहां भोजन भी किया। विदर्भ की कलावती के यहां से शुरू हुआ भोजन का ये सिलसिला कम थमेगा, ये तो मैं नहीं कह सकता। लेकिन इतना तो जरूर है कि जिस दिन अखबारों ने ये तस्वीर छापनी बंद कर दी, तो यकीन मानिये ये सिलसिला भी थम जाएगा। अच्छा राहुल के गांव पहुंचने की एक खास बात और होती है, उनके आने की जानकारी जिला प्रशासन को नहीं होती है, लेकिन अखबार बालों को दी जाती है, जिससे कम से कम कैमरे तो वहां पहुंच ही जाएं।
चलिए आपके भोजन करने से भी हमें कोई ऐतराज नहीं है। मैं जानता हूं कि दलित तो बेचारे अतिथि देवो भव: को मानने वाले हैं, देर रात कोई भी भूखा अगर उनके यहां आएगा, तो उसे अपने हिस्से की भी रोटी खिला देगें। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि राहुल गांधी दलितों के यहां भोजन किस भाव से करते हैं। क्या उन्हें सच में भूख इतनी तेज लगी होती है, कि वो होटल पहुंचने का इंतजार नहीं कर पाते और दलित के यहां बैठ जाते हैं खाना खाने। या वो छोटे-बडे़, जात-पात में अंतर नहीं समझते
हैं, ये संदेश लोगों को देना चाहते हैं, इसलिए उनके बीच भोजन करते हैं। या फिर दलित की रोटी से अपनी सियासत की भूख को शांत करते हैं।
इन सवालों का जवाब तो राहुल ही दे सकते हैं, लेकिन मैं दलितों की ओर से कुछ कहना चाहता हूं। क्योंकि राहुल से दलित बेचारे तो ये बात कह नहीं सकते। इसलिए मैं कहता हूं, वो भी पूरी जिम्मेदारी के साथ। राहुल अगर दलित के यहां भोजन करना ड्रामेबाजी नहीं है, इसमें गंभीरता है, तो बहुत भोजन तुमने दलितों के यहां कर लिया। अब दलितों की बारी हैं। उन्हें भी अपने घर बुलाओ और जैसे तुम डाईनिंग टेबिल पर खाना खाते हो, वैसे उन्हें भी अपने बराबर बैठाकर भोजन कराओ। दलितों ने तुम्हें सोने के लिए अपनी सबसे साफ चादर सौंपी, तुम उन्हें भी अपने बेडरुम में एक रात गुजारने का मौका दो। अगर ऐसा करते हो, तब तो हुई बराबरी की बात, वरना ये फोटो छपवाते रहो, इसका अब किसी पर असर नहीं हो रहा।
चलिए आपसे भी एक सवाल पूछता हूं। राहुल गांधी किसी भी गांव में पूरे काफिले के साथ रात के दस ग्यारह बजे किसी वक्त पहुंच जाते हैं और वहां दलित परिवार का दरवाजा खटखटा दिया जाता है। दिल्ली में अगर दलित परिवार अचानक रात में राहुल गांधी के घर तो दूर आसपास भी पहुंच जाए तो तस्वीर तो उसकी भी छप जाएगी अखबारों में, लेकिन फोटो के नीचे ये नहीं लिखा होगा कि दलित परिवार के लोग अपनी समस्या लेकर राहुल से मिलने आए थे, और सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें मार गिराया, बल्कि ये लिखा होगा कि राहुल गांधी पर हमला करने आए लोगों को पुलिस ने मार गिराया। दलितों के शव के पीछे कुछ पुलिसकर्मी खड़े होंगे और ये तस्वीर सभी अखबारों को जारी कर दी जाएगी। खैर मेरा तो यही मानना है, आप हो सकता है कि इस बात से सहमत ना भी हों।
अच्छा लोगों से मिलने राहुल कभी भी कहीं भी चले जाते हैं, लेकिन उनसे मिलने यहां कोई नहीं आ सकता। अन्ना के गांव रालेगावसिद्धि से पंचायत प्रतिनिधि दिल्ली राहुल गांधी से मिलने आए। उन्हें कांग्रेस के सांसद ने ही राहुल गांधी से मिलने को बुलाया था। दो दिन तक बेचारे यहां धक्के खाते रहे, लेकिन राहुल दिल्ली में होने के बाद भी नहीं मिले। बाद में सांसद ने तो माफी मांग ली, राहुल गांधी ने तो ऐसी चुप्पी साधी जैसे उन्हें कुछ पता ही नहीं।
बहरहाल मैं तो इसी मत को हूं कि अगर कोई मुझे एक बार भोजन कराए, तो मेरी कोशिश होती है कि उसे दो बार भोजन करा दूं। लेकिन गांधी परिवार में ये प्रचलन नहीं होगा, उनके यहां सिर्फ दूसरों का भोजन गटकने का ही प्रचलन होगा। तभी तो तीन चार साल से राहुल दर दर जाकर लोगों की रोटी तोड़ रहे हैं, लेकिन उन्हें रोटी खिलाने की कभी नहीं सोच रहे।
जब नाले भी हो गए पूजनीय
जी हां, ये बजबजाते, बदबूदार ऐसे नाले हैं कि इसके आसपास से गुजरना मुश्किल होता है, लेकिन आज जब अपने पूर्वांचल की महिलाओं को यहां छठ पूजा करते देखा तो हैरान रह गया। खैर हम धार्मिक रूप से बहुत ही सहिष्णु हैं, होना भी चाहिए। लेकिन स्थानीय प्रशासन को क्या कहें, अगर वो छठ पूजा के लिए बेहतर प्रबंध करे, तो लोग भला यहां क्यों पूजा करेंगे।
aapne sahi likha hum agar kisi ke yahan ek baar khana khaate hain to use do baar khilaate hain kya rahul yesa kar paayenge ????vicharniye post.
ReplyDeleteइस विषय पर आप ने बहुत ही धारदार लिखा है..और सटीक भी..प्रश्न भी सही उठाया है ..कि कभी अपने यहाँ उसी दलित को बिठाकर भोजन कराएँ!..और अगर कभी वो ही वहाँ पहुँच जाए तो..क्या होगा....वे संभावनाएं भी खूब लिखी हैं .ऐसा इस मुद्दे पर आज तक किसी ने बेबाक हो कर लिखा हो ..ऐसा लगता तो नहीं है..आप का लेख कई बिंदुओं पर पाठक को सोचने पर मजबूर करता है.
ReplyDeleteवकाइन आपका लेख कई बैंडों पर फाटक को सोचने के लिए मजबुर करता है विचारणीय आलेख .समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है।
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ReplyDeleteबचपन से सुना - दूरबीन से देखो भाई जो न आँख से पड़े दिखाई ..." वही दूरबीन लेकर चलते हैं आप , जो मुझे बहुत पसंद है
ReplyDeleteअतिथि देवो भव: केवल दलित ही नहीं मानते हैं बल्कि इस पुरातन और पावन विचार के प्रति हर भारतीय अपनी श्रद्धा रखता है। लेकिन राहुल गांधी को तो इसमें कम और अपने राजनीतिक लाभ के विचार में ज़्यादा विश्वास दिखता है। तभी तो उन्हें यूपी के दलित तो याद आते हैं उनके घर में खाना खाना याद आता है, उनके साथ रात गुजारना और मीडिया को दलितों के प्रति बयान देना सब कुछ याद रहता है। लेकिन यदि कुछ नहीं याद रहता है तो वह है उड़ीसा के कालाडांडी में भूखमरी के शिकार हो रहे लोगों की, नहीं सुध रहती है महाराष्ट्र के हर साल आत्महत्या कर रहे किसानों की। अगर राहुल को कुछ दिखता है तो वह है अगले साल होने वाले यूपी चुनावों की तैयारी। सब जानते हैं कि यूपी में कांग्रेस कितनी कमजोर है और राहुल का ये दलित प्रेम कुछ और नहीं बल्कि राजनीतिक लाभ का प्रेम जरुर लगता है।
ReplyDeleteपहली बार आपका लेख पढके अच्छा लगा.
ReplyDeleteआपका एक एक लेख ...सोचने को मजबूर करता है ....ये तो सच है कि अगर राहुल गाँधी को इस देश की कमान मिल गई तो.....सब जानते है कि तब इस देश की क्या हालत होगी .......
ReplyDeleteनाले भी पूजे जाते है .....ये आपके लेख से पता चल गया....छठ पूजा जैसी हम सोचते है ...उसका मज़ा किरकिरा सा करता आपका लेख ...आभार
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ReplyDelete@--राहुल दर दर जाकर लोगों की रोटी तोड़ रहे हैं, लेकिन उन्हें रोटी खिलाने की कभी नहीं सोच रहे....
bahut sateek...
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बात आपकी सही है।
ReplyDeleteविचारोत्तेजक आलेख।
ये जो बड़े लोग होते हैं न उन्हें संस्कार या शिष्टाचार का क ,ख,ग,भी नहीं आता है.मामला राजनीति का हो तो रोटी बीच में आ ही जाती है..सुन्दर आलेख
ReplyDeleteबहुत सुन्दर, महत्वपूर्ण और विचारणीय आलेख! शानदार प्रस्तुती! बधाई!
ReplyDeleteमेरे नये पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
लेकिन बड़ा सवाल ये है कि राहुल गांधी दलितों के यहां भोजन किस भाव से करते हैं। क्या उन्हें सच में भूख इतनी तेज लगी होती है, कि वो होटल पहुंचने का इंतजार नहीं कर पाते और दलित के यहां बैठ जाते हैं खाना खाने। या वो छोटे-बडे़, जात-पात में अंतर नहीं समझते हैं.
ReplyDeleteआपकी पोस्ट राहुल के मुद्दे को बहुत अच्छी तरह से प्रस्तुत कर रही है.दलितों को भी तो बराबरी का हक मिलना ही चाहिये.
राहुल को जरूर सोचना पड़ेगा एक दिन.