एक सप्ताह से चल रहे नीतीश कुमार के सियासी ड्रामे का आज अंत हो गया। वैसे मुझे लगता है कि ये स्टोरी लोगों को पसंद नहीं आई होगी। आपको पता है कि अगर स्टोरी में दम होता तो अब तक प्रकाश झा इस कहानी पर फिल्म बनाने का ऐलान कर चुके होते, लेकिन वो पूरी तरह खामोश हैं। हां कोई नया निर्माता-निर्देशक होता तो वो जरूर इस कहानी को हाथोहाथ लेता, क्योंकि इसमें ड्रामा है, एक्शन है, सस्पेंस है, वो तो इस कहानी पर जरूर दांव लगाता। लेकिन मेरा मानना है कि चूंकि इस कहानी में नीतीश कुमार एक महत्वपूर्ण किरदार में रहे और नीतीश की बाजीगिरी पूरे देश को खासतौर पर बिहार को तो पता ही है। ऐसे में किसी ने भी इस कहानी में रुचि नहीं ली। लेता भी कैसे कहानी का अंत सभी को पहले से मालूम था, लिहाजा जनता की आंख में लंबे समय तक धूल नहीं झोंका जा सकता था। बिहार के लोग ही कहते हैं कि नीतीश की दोस्ती चाइनीज प्रोडक्ट की तरह है। मसलन चल गई तो चांद तक नही तो बस शाम तक ! खैर मैं इस कहानी को फिल्मी रंग देकर इसकी गंभीरता को खत्म नहीं करना चाहता, लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि नीतीश के खाने के और दिखाने के दांत अलग-अलग हैं। नीतीश कुमार ऐसे शाकाहार राजनीतिज्ञ हैं जिन्हें मांस से नहीं उसकी तरी से परहेज है। कौन नहीं जानता कि बीजेपी की बुनियाद ही कट्टर हिंदूवादी सोच पर आधारित है, लेकिन उन्हें बीजेपी में नरेन्द्र मोदी के अलावा सभी धर्मनिरपेक्ष लगते हैं, यहां तक की देश भर में रथयात्रा निकाल कर माहौल खराब करने वाले एल के आडवाणी भी सैक्यूलर दिखते हैं।
एक-एक कर सभी बिंदुओं पर चर्चा करूंगा, लेकिन पहले बात कर लूं बिहार में मुस्लिम वोटों पर गिद्ध की तरह आंख धंसाए लालू और नीतीश की। दरअसल लालू यादव मुसलमानों की नजर में उस वक्त हीरो बनकर उभरे जब उन्होंने आडवाणी की रथयात्रा को बिहार में रोक कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद लालू यादव काफी दिनों तक मुस्लिम टोपी और चारखाने वाला गमछा लिए बिहार में फिरते रहे। इधर नीतीश एक मौके की तलाश में थे कि कैसे मुस्लिम मतदाताओं को अपने साथ लाएं। उन्हें ये मौका मिला 2010 में, जब पटना में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के दौरान समाचार पत्रों में एक विज्ञापन प्रकाशित हुआ, जिसमें नीतीश कुमार और नरेन्द्र मोदी को हाथ पकड़े प्रसन्न मुद्रा में दिखाया गया। हालाकि ये तस्वीर गलत नहीं थी, लेकिन नीतीश को लगा कि इससे अच्छा मौका नहीं मिल सकता। उन्होंने इस पर कड़ा एतराज जताया। इतना ही नहीं कार्यकारिणी में हिस्सा लेने आए बीजेपी के बड़े नेताओं का रात्रिभोज जो मुख्यमंत्री आवास पर तय था, उसे रद्द कर दिया। इसके बाद हुए विधानसभा चुनाव में नीतीश को भारी कामयाबी मिली। बस यहीं से नीतीश बेलगाम हो गए, उन्हें लगा कि बीजेपी नेताओं को बेइज्जत करने से मुसलमान उनके साथ आया है और इस कामयाबी में सिर्फ मुसलमानों का ही हाथ है। जबकि इसी चुनाव में बीजेपी को भी अच्छी सफलता मिली। दरअसल सच्चाई ये है कि लालू के कुशासन से परेशान बिहार की जनता को एनडीए गठबंधन से उम्मीद जगी और उन्होंने इस गठबंधन को ऐतिहासिक जीत दिलाई।
नीतीश कुमार इसे मुसलमानों के वोटों पर मिली अपनी जीत समझने लगे। यहीं से विवाद गहराता गया। बड़ा और अहम सवाल ये है कि आज नीतीश कुमार अगड़े वोटों को लेकर क्या सोच रहे हैं। जमीनी हकीकत तो ये हैं कि बिहार में अगड़ों की कुल आबादी करीब 21 फीसदी है। सियासी गलियारे में चर्चा है कि करीब 13 फीसदी अगड़े वोट पर अकेले बीजेपी का कब्जा है। सबको पता है कि जेडीयू के 20 सांसदों की जीत में बीजेपी के अगड़े वोटों का बड़ा हाथ है। इतना ही नहीं राज्य की सियासत में अगड़े वोट का असर और भी ज्यादा है। विधानसभा की कुल 243 सीटों पर 76 अगड़े विधायक काबिज हैं। पिछले तीन विधानसभा चुनावों पर नजर डालें तो इनकी संख्या लगातार बढ़ी भी है। मुझे हैरानी इस बात की है कि नीतीश जिस स्तर पर जाकर मुस्लिम मतों को लुभाने की कोशिश या कहें साजिश कर रहे हैं, उससे क्या उन्हें आने वाले चुनावों में अगड़े वोटों का नुकसान नहीं होगा ? सब को पता है बिहार की सियासत में अगड़ों का असर लगातार बढ़ रहा है। सच्चाई भी यही है कि ज्यादातर जेडीयू विधायकों के इलाके में अगड़े वोट नतीजे बदलने की ताकत भी रखते हैं। ऐसे में तो बीजेपी का साथ छोड़ने की कीमत नीतीश को जरूर चुकानी पड़ेगी। अगड़ों को लुभाने के लिए पिछले विधानसभा चुनाव के पहले नीतीश ने सवर्ण आयोग का वादा किया और चुनाव जीतते ही उन्होंने सवर्ण आयोग गठित भी कर दिया। लेकिन मोदी को लेकर जो रवैया उन्होंने अपनाया, उसे देखते हुए तो नहीं लगता कि नीतीश अगड़ों में अपनी जगह बना पाएंगे।
हमारा अनुभव रहा है कि सियासत में कोई स्थायी दोस्त और दुश्मन नहीं होता। बस मोदी का भूत खड़ा कर बिहार में नीतीश भी वही करना चाहते हैं जो उनके धुर विरोधी लालू प्रसाद यादव करते आए हैं। यानी अल्पसंख्यक वोटों की सियासत। इसके लिए वो जिस स्तर तक गिरते जा रहे हैं, उसे देखकर कई बार हैरानी होती है। मैं तो कहता हूं कि मुस्लिम टोपी और गमछा तो आजकल उनका पारंपरिक पहनावा हो गया है। कहा जा रहा है कि कहीं इस वोट के खातिर वो पार्टी में "खतना" अनिवार्य ना कर दें। मेरे मन में एक सवाल है कि आखिर नीतीश कुमार-लालू प्रसाद यादव से भी ज्यादा बुलंद आवाज में मोदी विरोध का झंडा क्यों बुलंद कर रहे हैं ? क्या ये वही नीतीश कुमार नहीं हैं जो 2002 में गुजरात के दंगों के वक्त केंद्र में वाजपेयी सरकार में रेल मंत्री थे। इस दौरान उन्होंने एक बार भी इस दंगे के बारे में अपनी राय नहीं जाहिर की। मैं पूछता हूं नीतीश कुमार का अल्पसंख्यक प्रेम उस वक्त कहां था ? इसका जवाब नीतीश कुमार के पास नहीं है। दरअसल नीतीश को उम्मीद ही नहीं थी कि उनका कभी बिहार की राजनीति में इतना ऊंचा कद होगा कि वो लालू का सफाया करने में कामयाब हो जाएंगे। इसलिए वो रेलमंत्री की कुर्सी पर चुपचाप डटे रहे। आप सबको पता होगा कि दंगों में मोदी की भूमिका के सवाल पर रामविलास पासवान ने वाजपेयी कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया था। ऐसे में अगर आज पासवान मोदी का खुला विरोध करें तो बात समझ में आती है, लेकिन कहावत है ना कि " सूपवा बोले त बोले, चलनियों बोले, जिहमें बहत्तर छेद "
खैर अब 17 साल पुराना बीजेपी और जेडीयू का गठबंधन खत्म हो चुका है। नीतीश का कहना है कि वो अपनी पार्टी की नीतियों से कत्तई समझौता नहीं कर सकते,जबकी बीजेपी इसे विश्वासघात बता रही है। हालाकि बिहार की राजनीति को समझने वालों को कहना है कि बीजेपी-जेडीयू गठबंधन को मुस्लिम, कुर्मी के साथ अग़ड़ों के वोट मिलते थे, जिसकी वजह से गठबंधन जीतता रहा है। लेकिन जिस हालात में नीतीश ने इस गठबंधन को तोड़ा है, उससे अब अगड़ों के वोट निश्चित रूप से खिसक जाएंगे। रही बात मुस्लिम वोटों की तो उसमें चार हिस्सेदार हैं,
नीतीश, लालू, पासवान और कुछ हद तक कांग्रेस भी। ऐसी सूरत में नीतीश का ये दांव उनके लिए उल्टा भी पड़ सकता है। वैसे एक बात तो है कि सियासत में बड़े दांव खेलने में नीतीश को महारत हासिल है। आपको याद होगा कि पहली बार 1996 में उन्होंने जार्ज फर्नांडीस के साथ मिलकर बीजेपी से गठबंधन किया। विवादित ढांचा ढहने के बाद बीजेपी को सेकुलर दल अछूत मानने लगे थे लेकिन समता पार्टी के झंडे तले नीतीश ने बीजेपी से हाथ मिलाया और बीजेपी की इस मुश्किल को हल कर दिया था। इसके बाद से बीजेपी से नीतीश का रिश्ता मजबूत होता गया। मई 1998 में जब 13 दलों ने एनडीए की बुनियाद रखी तो इसमें नीतीश की महत्वपूर्ण भूमिका थी। 1999 में एनडीए के तहत बीजेपी और जेडीयू ने मिल कर चुनाव लड़ा। केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में नीतीश रेल मंत्री बने। नवंबर 2005 में बिहार विधानसभा चुनाव में जेडीयू-बीजेपी गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिला। अटल और आडवाणी के आशीर्वाद से नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री बने।
अब सबके मन में एक सवाल है, जब सबकुछ ठीक चल रहा था तो आखिर ऐसी नौबत क्यों आई कि गठबंधन टूट गया। मैं बताता हूं, नीतीश कुमार को लगता था कि जिस तरह वो बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी के गले पट्टा डाले अपने कब्जे में रखते हैं, उसी तरह वो नरेन्द्र मोदी के गले में भी पट्टा डालने में कामयाब हो जाएंगे। फिर उन्हें गलतफहमी हो गई थी कि उनकी गीदड़भभकी से बीजेपी और संघ परिवार भी घुटनों पर आ जाएगा और वो ऐलान कर देंगे कि नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं होगे। पर राजनीति की एबीसी भी जानने वाले अब समझ गए हैं कि नरेन्द्र मोदी को रोकना आसान नहीं है, अब उन्हें बीजेपी नेताओं का समर्थन मिले या ना मिले, उनके साथ देश का समर्थन है। दो दिन पहले खबरिया चैनलों पर बिहार के युवाओं से बात हो रही थी। मैने देखा कि वहां के नौजवान एक स्वर में कह रहे थे कि नीतीश कुमार को बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर कामयाब नेता मानते हैं, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में आज मोदी का कोई मुकाबला नहीं है। जब बिहार के नौजवानों की ये राय है तो देश के बाकी हिस्सों की राय का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। मेरी अपनी राय है कि नीतीश कुमार इसलिए भी बेलगाम हो गए कि बिहार बीजेपी ने उनके सामने पूरी तरह समर्पण कर दिया था, कभी लगा ही नही कि शरीर की सबसे जरूरी रीढ की हड्डी उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी के शरीर में है। इस बार उनका पाला 24 कैरेट के मोदी से पड़ा तो चारो खाने चित्त हो गए।
चलिए अब आगे की राह नीतीश को अकेले तय करनी है। अंदर की खबर तो है कि जेडीयू के दो चार अल्पसंख्यक नेताओं के अलावा किसी की भी ये राय नहीं थी कि बीजेपी से नाता खत्म किया जाए। यहां तक की पार्टीध्यक्ष शरद यादव खुद आखिरी समय तक बीच का रास्ता निकालने की कोशिश कर रहे थे। वो लगातार एक ही बात कहते रहे कि बीजेपी ने नरेन्द्र मोदी को अपनी पार्टी का प्रचार प्रमुख बनाया है, वो कोई एनडीए के प्रमुख थोड़े बन गए हैं कि इतनी हाय तौबा मचाई जाए। लेकिन सब जानते हैं कि नीतीश अंहकारी है, उन्हें लगता है कि पार्टी की जो भी ताकत है, ये सब उनकी वजह है। ऐसे में वो जो चाहेंगे वही होगा। वैसे सच तो ये है कि नीतीश गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी से अंदरखाने खुंदस रखते ही हैं, वो मौका तलाश रहे थे और उन्हें मौका मिल गया। लेकिन गठबंधन टूटने के बाद नीतीश जिस तरह बीजेपी पर भड़क रहे थे, इससे साफ हो गया कि वो खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं।
दुश्मनी जम कर करो मगर इतनी गुंजाइश रहे,
कि जब कभी फिर दोस्त बनें तो शर्मिंदा ना हों।
एक-एक कर सभी बिंदुओं पर चर्चा करूंगा, लेकिन पहले बात कर लूं बिहार में मुस्लिम वोटों पर गिद्ध की तरह आंख धंसाए लालू और नीतीश की। दरअसल लालू यादव मुसलमानों की नजर में उस वक्त हीरो बनकर उभरे जब उन्होंने आडवाणी की रथयात्रा को बिहार में रोक कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद लालू यादव काफी दिनों तक मुस्लिम टोपी और चारखाने वाला गमछा लिए बिहार में फिरते रहे। इधर नीतीश एक मौके की तलाश में थे कि कैसे मुस्लिम मतदाताओं को अपने साथ लाएं। उन्हें ये मौका मिला 2010 में, जब पटना में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के दौरान समाचार पत्रों में एक विज्ञापन प्रकाशित हुआ, जिसमें नीतीश कुमार और नरेन्द्र मोदी को हाथ पकड़े प्रसन्न मुद्रा में दिखाया गया। हालाकि ये तस्वीर गलत नहीं थी, लेकिन नीतीश को लगा कि इससे अच्छा मौका नहीं मिल सकता। उन्होंने इस पर कड़ा एतराज जताया। इतना ही नहीं कार्यकारिणी में हिस्सा लेने आए बीजेपी के बड़े नेताओं का रात्रिभोज जो मुख्यमंत्री आवास पर तय था, उसे रद्द कर दिया। इसके बाद हुए विधानसभा चुनाव में नीतीश को भारी कामयाबी मिली। बस यहीं से नीतीश बेलगाम हो गए, उन्हें लगा कि बीजेपी नेताओं को बेइज्जत करने से मुसलमान उनके साथ आया है और इस कामयाबी में सिर्फ मुसलमानों का ही हाथ है। जबकि इसी चुनाव में बीजेपी को भी अच्छी सफलता मिली। दरअसल सच्चाई ये है कि लालू के कुशासन से परेशान बिहार की जनता को एनडीए गठबंधन से उम्मीद जगी और उन्होंने इस गठबंधन को ऐतिहासिक जीत दिलाई।
नीतीश कुमार इसे मुसलमानों के वोटों पर मिली अपनी जीत समझने लगे। यहीं से विवाद गहराता गया। बड़ा और अहम सवाल ये है कि आज नीतीश कुमार अगड़े वोटों को लेकर क्या सोच रहे हैं। जमीनी हकीकत तो ये हैं कि बिहार में अगड़ों की कुल आबादी करीब 21 फीसदी है। सियासी गलियारे में चर्चा है कि करीब 13 फीसदी अगड़े वोट पर अकेले बीजेपी का कब्जा है। सबको पता है कि जेडीयू के 20 सांसदों की जीत में बीजेपी के अगड़े वोटों का बड़ा हाथ है। इतना ही नहीं राज्य की सियासत में अगड़े वोट का असर और भी ज्यादा है। विधानसभा की कुल 243 सीटों पर 76 अगड़े विधायक काबिज हैं। पिछले तीन विधानसभा चुनावों पर नजर डालें तो इनकी संख्या लगातार बढ़ी भी है। मुझे हैरानी इस बात की है कि नीतीश जिस स्तर पर जाकर मुस्लिम मतों को लुभाने की कोशिश या कहें साजिश कर रहे हैं, उससे क्या उन्हें आने वाले चुनावों में अगड़े वोटों का नुकसान नहीं होगा ? सब को पता है बिहार की सियासत में अगड़ों का असर लगातार बढ़ रहा है। सच्चाई भी यही है कि ज्यादातर जेडीयू विधायकों के इलाके में अगड़े वोट नतीजे बदलने की ताकत भी रखते हैं। ऐसे में तो बीजेपी का साथ छोड़ने की कीमत नीतीश को जरूर चुकानी पड़ेगी। अगड़ों को लुभाने के लिए पिछले विधानसभा चुनाव के पहले नीतीश ने सवर्ण आयोग का वादा किया और चुनाव जीतते ही उन्होंने सवर्ण आयोग गठित भी कर दिया। लेकिन मोदी को लेकर जो रवैया उन्होंने अपनाया, उसे देखते हुए तो नहीं लगता कि नीतीश अगड़ों में अपनी जगह बना पाएंगे।
हमारा अनुभव रहा है कि सियासत में कोई स्थायी दोस्त और दुश्मन नहीं होता। बस मोदी का भूत खड़ा कर बिहार में नीतीश भी वही करना चाहते हैं जो उनके धुर विरोधी लालू प्रसाद यादव करते आए हैं। यानी अल्पसंख्यक वोटों की सियासत। इसके लिए वो जिस स्तर तक गिरते जा रहे हैं, उसे देखकर कई बार हैरानी होती है। मैं तो कहता हूं कि मुस्लिम टोपी और गमछा तो आजकल उनका पारंपरिक पहनावा हो गया है। कहा जा रहा है कि कहीं इस वोट के खातिर वो पार्टी में "खतना" अनिवार्य ना कर दें। मेरे मन में एक सवाल है कि आखिर नीतीश कुमार-लालू प्रसाद यादव से भी ज्यादा बुलंद आवाज में मोदी विरोध का झंडा क्यों बुलंद कर रहे हैं ? क्या ये वही नीतीश कुमार नहीं हैं जो 2002 में गुजरात के दंगों के वक्त केंद्र में वाजपेयी सरकार में रेल मंत्री थे। इस दौरान उन्होंने एक बार भी इस दंगे के बारे में अपनी राय नहीं जाहिर की। मैं पूछता हूं नीतीश कुमार का अल्पसंख्यक प्रेम उस वक्त कहां था ? इसका जवाब नीतीश कुमार के पास नहीं है। दरअसल नीतीश को उम्मीद ही नहीं थी कि उनका कभी बिहार की राजनीति में इतना ऊंचा कद होगा कि वो लालू का सफाया करने में कामयाब हो जाएंगे। इसलिए वो रेलमंत्री की कुर्सी पर चुपचाप डटे रहे। आप सबको पता होगा कि दंगों में मोदी की भूमिका के सवाल पर रामविलास पासवान ने वाजपेयी कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया था। ऐसे में अगर आज पासवान मोदी का खुला विरोध करें तो बात समझ में आती है, लेकिन कहावत है ना कि " सूपवा बोले त बोले, चलनियों बोले, जिहमें बहत्तर छेद "
खैर अब 17 साल पुराना बीजेपी और जेडीयू का गठबंधन खत्म हो चुका है। नीतीश का कहना है कि वो अपनी पार्टी की नीतियों से कत्तई समझौता नहीं कर सकते,जबकी बीजेपी इसे विश्वासघात बता रही है। हालाकि बिहार की राजनीति को समझने वालों को कहना है कि बीजेपी-जेडीयू गठबंधन को मुस्लिम, कुर्मी के साथ अग़ड़ों के वोट मिलते थे, जिसकी वजह से गठबंधन जीतता रहा है। लेकिन जिस हालात में नीतीश ने इस गठबंधन को तोड़ा है, उससे अब अगड़ों के वोट निश्चित रूप से खिसक जाएंगे। रही बात मुस्लिम वोटों की तो उसमें चार हिस्सेदार हैं,
नीतीश, लालू, पासवान और कुछ हद तक कांग्रेस भी। ऐसी सूरत में नीतीश का ये दांव उनके लिए उल्टा भी पड़ सकता है। वैसे एक बात तो है कि सियासत में बड़े दांव खेलने में नीतीश को महारत हासिल है। आपको याद होगा कि पहली बार 1996 में उन्होंने जार्ज फर्नांडीस के साथ मिलकर बीजेपी से गठबंधन किया। विवादित ढांचा ढहने के बाद बीजेपी को सेकुलर दल अछूत मानने लगे थे लेकिन समता पार्टी के झंडे तले नीतीश ने बीजेपी से हाथ मिलाया और बीजेपी की इस मुश्किल को हल कर दिया था। इसके बाद से बीजेपी से नीतीश का रिश्ता मजबूत होता गया। मई 1998 में जब 13 दलों ने एनडीए की बुनियाद रखी तो इसमें नीतीश की महत्वपूर्ण भूमिका थी। 1999 में एनडीए के तहत बीजेपी और जेडीयू ने मिल कर चुनाव लड़ा। केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में नीतीश रेल मंत्री बने। नवंबर 2005 में बिहार विधानसभा चुनाव में जेडीयू-बीजेपी गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिला। अटल और आडवाणी के आशीर्वाद से नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री बने।
अब सबके मन में एक सवाल है, जब सबकुछ ठीक चल रहा था तो आखिर ऐसी नौबत क्यों आई कि गठबंधन टूट गया। मैं बताता हूं, नीतीश कुमार को लगता था कि जिस तरह वो बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी के गले पट्टा डाले अपने कब्जे में रखते हैं, उसी तरह वो नरेन्द्र मोदी के गले में भी पट्टा डालने में कामयाब हो जाएंगे। फिर उन्हें गलतफहमी हो गई थी कि उनकी गीदड़भभकी से बीजेपी और संघ परिवार भी घुटनों पर आ जाएगा और वो ऐलान कर देंगे कि नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं होगे। पर राजनीति की एबीसी भी जानने वाले अब समझ गए हैं कि नरेन्द्र मोदी को रोकना आसान नहीं है, अब उन्हें बीजेपी नेताओं का समर्थन मिले या ना मिले, उनके साथ देश का समर्थन है। दो दिन पहले खबरिया चैनलों पर बिहार के युवाओं से बात हो रही थी। मैने देखा कि वहां के नौजवान एक स्वर में कह रहे थे कि नीतीश कुमार को बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर कामयाब नेता मानते हैं, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में आज मोदी का कोई मुकाबला नहीं है। जब बिहार के नौजवानों की ये राय है तो देश के बाकी हिस्सों की राय का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। मेरी अपनी राय है कि नीतीश कुमार इसलिए भी बेलगाम हो गए कि बिहार बीजेपी ने उनके सामने पूरी तरह समर्पण कर दिया था, कभी लगा ही नही कि शरीर की सबसे जरूरी रीढ की हड्डी उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी के शरीर में है। इस बार उनका पाला 24 कैरेट के मोदी से पड़ा तो चारो खाने चित्त हो गए।
चलिए अब आगे की राह नीतीश को अकेले तय करनी है। अंदर की खबर तो है कि जेडीयू के दो चार अल्पसंख्यक नेताओं के अलावा किसी की भी ये राय नहीं थी कि बीजेपी से नाता खत्म किया जाए। यहां तक की पार्टीध्यक्ष शरद यादव खुद आखिरी समय तक बीच का रास्ता निकालने की कोशिश कर रहे थे। वो लगातार एक ही बात कहते रहे कि बीजेपी ने नरेन्द्र मोदी को अपनी पार्टी का प्रचार प्रमुख बनाया है, वो कोई एनडीए के प्रमुख थोड़े बन गए हैं कि इतनी हाय तौबा मचाई जाए। लेकिन सब जानते हैं कि नीतीश अंहकारी है, उन्हें लगता है कि पार्टी की जो भी ताकत है, ये सब उनकी वजह है। ऐसे में वो जो चाहेंगे वही होगा। वैसे सच तो ये है कि नीतीश गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी से अंदरखाने खुंदस रखते ही हैं, वो मौका तलाश रहे थे और उन्हें मौका मिल गया। लेकिन गठबंधन टूटने के बाद नीतीश जिस तरह बीजेपी पर भड़क रहे थे, इससे साफ हो गया कि वो खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं।
दुश्मनी जम कर करो मगर इतनी गुंजाइश रहे,
कि जब कभी फिर दोस्त बनें तो शर्मिंदा ना हों।
नोट: - मित्रों ! मेरा दूसरा ब्लाग TV स्टेशन है। यहां मैं न्यूज चैनलों और मनोरंजक चैनलों की बात करता हूं। मेरी कोशिश होती है कि आपको पर्दे के पीछे की भी हकीकत पता चलती रहे। मुझे " TV स्टेशन " ब्लाग पर भी आपका स्नेह और आशीर्वाद चाहिए।
लिंक http://tvstationlive.blogspot.in
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अहंकार तो रावण का भी नष्ट हो गया था ,नीतीश किस खेत की मूली हैं .फिर मोदी आखिर मोदी हैं .मोदी उन उत्ताल तरंगों का नामा है जो विरोध को सुनामी की तरह जड़ मूल से उड़ा देगीं .ॐ शान्ति .महेंद्र जी श्रीवास्तव आपने बेहतरीन कसावदार रिपोर्ट पेश की है .
ReplyDeleteशुक्रिया, बहुत बहुत आभार
Deleteआपने समग्र विश्लेषण कर पूरी तस्वीर को सामने ला दिया है ...वैसे जब भी कोई गठबंधन होता है तो वह देश को आगे ले जाने के लिए नहीं बल्कि देश को बेचने की कीमत पर होता है .....
ReplyDeleteकुछ हद तक सही है आपकी बात
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (17-06-2013) पिता दिवस पर गुज़ारिश : चर्चामंच 1278 में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार
Deleteइसका फायदा विपक्ष को जरूर मिलेगा ,,,
ReplyDeleteRECENT POST: जिन्दगी,
हो सकता है...
Deleteसब मौकापरस्त हैं और ये नही समझ पा रहे हैं कि कैसे एकजुट होकर कांग्रेस राज से छुटकारा पाया जाये और अपनी अपनी ढपली बजाने निकल पडे हैं तो ऐसे में किसे फ़ायदा होगा खुद समझा जा सकता है।
ReplyDeleteजी बात तो सही कहा आपने..
Deleteमहेंद्रजी ,अच्छा विश्लेषणात्मक आलेख लिखा है आपनें !!
ReplyDeleteशुक्रिया पूरण जी
Deleteअब तो यूँ लगता है ....मीडिया भी अहिस्ता अहिस्ता .नितीश कि तस्वीर से भी परहेज करना शुरू कर देगा......गुमनामी का अँधेरा इंतज़ार में है
ReplyDeleteनहीं ऐसा नहीं है, मीडिया को भला नीतीश से क्यों परहेज ?
Deleteवेसे आजकल नितीश टापिक पर बात करना अपने वक़्त को बर्बाद करना ही है ...
ReplyDeleteवैसे तो आजकल राजनीति पर ही बात करना समय की बर्बादी है, लेकिन बात तो करनी पड़ेगी ना..
Deletedekhe nitish ji kisko apna sahyogi banate hai.........
ReplyDeleteअवसरवादी हैं, किसी को पटा ही लेगें..
Deleteनितीश जी अपने इतिहास की परिपाटी पे ही चल रहे हैं ... वो ऐसे ही करते रहे हैं हमेशा से ...
ReplyDeleteसही है, जार्ज का क्या हाल किया, अब बारी शरद जी की है..
Deleteमैं तो कहूंगा कि सबसे पहले तो इस तथाकथित अल्पसंख्यक वोट का कोई इलाज ढूढना चाहिए। अफ़सोस कि हिन्दुओं की उदासीनता , चाटुकारिता, स्वार्थपरता और बिखराव ने इन्हें अपनी मर्जी हम पर लादने का हमेशा मौक़ा दिया !
ReplyDeleteहां कुछ हद तक आपकी बातों से सहमत हूं..
Deleteशीर्षक स्पष्ट और अपने आप में सम्पूर्ण है !
ReplyDeleteआनंद आ गया !
शुभकामनायें !
बहुत बहुत आभार
Deletemadendra ji ye politics hai yahan sabhi nange hai. ye aapki sonch hai. sabhi apne 2 tarike se apna kaam karte hai. bas aap v aapna kaam karo ok
ReplyDeleteअच्छा सुझाव है आपका
Deleteये सियासी चालें हैं । बहुत कुछ सोचने पे विवश करती सार्थक रचना
ReplyDeleteआभार
Deleteएक हिन्दू नाते हम सब स्वर्णिम युग से गुजर रहे हैं, यह समय हमेशा नहीं रहने वाला . 1947 से पूर्व 1200 वर्ष तक हिन्दू अपनी इन्ही स्वार्थपरक प्रवृतियों के कारण गुलाम रहा और आनेवाले समय में भी इसकी पूरी संभावना है. इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (24.06.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी. कृपया पधारें .
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार
Deleteआप के ब्लॉग अच्छे लगे...सुन्दर प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDelete@मेरी बेटी शाम्भवी का कविता-पाठ
बहुत बहुत आभार
Deleteबहुत सुंदर कमाल की भावाव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार
Delete